महानगरों में दूसरे लॉकडाउन के बाद बिगड़ी मज़दूरों की हालत
कुछ रेड ज़ोन्स में स्थानीय लाॅकडाउन और काम करने वाले मजदूरों की संख्या पर नियंत्रण को छोड़कर, बड़े औद्योगिक क्षेत्रों वाले समस्त राज्यों में लाॅकडाउन लगभग उठा लिया गया है।सरकार दावा कर रही है कि मंदी और लाॅकडाउन 2.0 पीछे छूट गए हैं और आर्थिक गतिविधियां पुनः जारी हो गई हैं। पर जमीनी सच्चाई क्या है? क्या मजदूरों का जीवन पहले जैसा स्वाभाविक हो पाया है? क्या केंद्र और राज्य कुछ ऐसा कर रहे हैं जिससे पूर्ण ‘नाॅरमलसी’ आ जाए? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए हमने न्यूज़क्लिक के लिए श्रमिकों के बीच काम करने वाले ऐक्टिविस्टों के माध्यम से एक संक्षिप्त सर्वे कराया। सर्वे से प्राप्त तथ्य इस प्रकार हैंः
विनोद कुमार सिंह एआईसीसीटीयू के ट्रेड यूनियन नेता हैं। न्यूज़क्लिक के लिए उन्होंने दिल्ली के झिलमिल औद्योगिक क्षेत्र के 40 एमएसएमईज़ का सर्वे किया।
निम्नलिखित जानकारिया मिलीं:
लाॅकडाउन 2.0 से पहले के समय से तुलना की जाए तो अब 40 प्रतिशत उद्योग श्रमिकों को काम दे पाने में अक्षम हैं, क्योंकि या तो वे बहुत कम मजदूरों को लेकर काम शुरू कर पाए हैं या बंद चल रहे हैं। केवल 10 फैक्टरियों ने मजदूरों को लाॅकडाउन पीरियड में किसी प्रकार की सहायता दी और 6 फैक्टरियों ने लाॅकडाउन पीरियड का पूरा वेतन दिया। इस क्षेत्र के मजदूर भाड़े के घरों के लिए 3000रु किराया देते हैं और लेबर काॅलोनी की झुग्गी के लिए 1500रु। अधिकतर श्रमिक अपने परिवारों के साथ ही रहते हैं और इनमें से बहुसंख्यक मजदूर यातायात सुविधाएं न मिल पाने के कारण अपने घर नहीं लौट पाए; इन्हें बिना वेतन के दिल्ली में फंसे रहना पड़ा। कुछ ने तो सरकार पर भरोसा करना छोड़ दिया था, तो वे सरकारी इमदाद की घोषणा का इंतजार किये बिना जो पहला साधन उपलब्ध हुआ, उससे घर भाग गए; ये श्रमिक अब तक वापस नहीं आए हैं। केवल 4 प्रतिशत फैक्टरी मालिकों ने मजदूरों को फोन करके या किसी साधन से वापस बुलवाया।
जहां तक वेतन का सवाल है, केवल 23 प्रतिशत उद्योगों ने वेतन दिया और इनमें 20 प्रतिशत उद्योगों ने पूरे लाॅकडाउन पीरियड का 5000रु या 1000रु देकर रफा-दफा कर दिया। बाकी ने पुराने रेट से मजदूरी दी, जो न्यूनतम वेतन से काफी कम थी। वर्तमान समय में केवल 17 प्रतिशत उद्योग पहले जैसे चल रहे हैं और करीब 53 प्रतिशत श्रमिक काम पर वापस आए हैं। जबकि लाॅकडाउन से पूर्व कुशल श्रमिकों को 12,531रु/माह, यानि न्यूनतम वेतन का 66 प्रतिशत मिलता था, लाॅकडाउन खुलने पर उन्हें 9006रु/माह मिल रहे हैं। जिन वर्करों को न्यूनतम वेतन मिल रहा था, उनकी छंटनी हो गई। लाॅकडाउन-पूर्व जहां श्रमिक लगभग 11 घंटे काम करते थे, लाॅकडाउन के बाद औसत 6 घंटे का काम रह गया। यह क्षेत्र के आंशिक सर्वे के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष हैं। सर्वे जारी है।
बंगलुरु
यहां सेवानिवृत्त बैंक यूनियन नेता श्री वीएसएस शास्त्री, जो सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, ने न्यूज़क्लिक के लिए सर्वे किया। इस शहर में लाॅडाउन को आंशिक रूप से और श्रेणीबद्ध तरीके से उठाया गया, वह भी जून के दूसरे सप्ताह से, पर कुछ पाबंदियां अभी भी हैं। आर्थिक गतिविधियां शुरु हुई हैं, पर पूरी तरह नहीं। अनौपचारिक क्षेत्र में हाॅकर पूरी तरह से अपने धंधे में वापस आ गए हैं। छोटे दुकानदार बेसब्री से लाॅकडाउन खत्म होने का इंतेज़ार कर रहे थे, क्योंकि उनके दिन-प्रतिदिन के गुजारे पर असर पड़ा था। वे अपना धंधा चालू कर चुके हैं पर बताते हैं कि खरीददारी बहुत कम है।
श्रमिक वर्ग, जो लाॅकडाउन 1.0 में बुरी तरह झेल गया था, इस बार लाॅकडाउन 2.0 की घोषणा होते ही गांव चला गया और अभी करोना की खबरें सुनकर दहशत में है और लौटने के बारे में असमंजस में भी। मीडिया में तीसरी लहर की चर्चा भी है। मैसुरु में लाॅकडाउन 5 जुलाई तक बढ़ा दिया गया है, तो श्रमिक भी देख रहे हैं आगे क्या होता है।
इसलिए पीनिया और येलाहंका के फैक्टरी मालिक दुखी हैं। राज्य सरकार ने आदेश दिया है कि कार्यालय और बड़े उद्योग 50 प्रतिशत कार्यशक्ति लेकर काम करें और गारमेंट इकाइयां केवल 30 प्रतिशत के साथ। एक फैक्टरी मालिक ने कहा,‘‘ 50 प्रतिशत कार्यशक्ति के मायने 50 प्रतिशत काम, 50 प्रतिशत आउटपुट और 50 प्रतिशत मुनाफा नहीं है। अभी भी हम घाटे पर काम कर रहे हैं। कई उद्योगों में काम वैसे भी लाभ नहीं दे रहा था। फिर हम इतनी छोटी कार्यशक्ति लेकर कैसे काम चलाएं?’’
‘‘सरकार दावा कर सकती है कि मंदी पुरानी बात हो गई और अर्थव्यवस्था पटरी पर वापस आ गई है, पर हम पूर्ण ‘रिवाइवल’ और सामान्य स्थिति की ओर वापसी जमीनी स्तर पर नहीं देख रहे है,’’ शास्त्री कहते हैं।
निर्माण कार्य को अनुमति जरूर दी गई है पर मजदूरों की कमी के कारण यह कार्य भी सामान्य स्तर तक नहीं पहुंच पाया है। मौसमी प्रवासी अनौपचारिक श्रमिकों में अधिक होते हैं और दीर्घकालिक प्रवासी फैक्टरी सेक्टर में अधिक होते हैं। सीवी रमन नगर के बगल में एक बड़ी झुग्गी बस्ती खड़ी हो गई है, जिसमें लगभग पूरे लोग उत्तर कर्नाटक से आए प्रवासी निर्माण मजदूर रहते हैं। यह बस्ती आधी खाली हो गई है।
बढ़ते कोरोना मामलों के मद्देनज़र येड्यूरप्पा सरकार की लाॅकडाउन खोलने में हिचकिचाहट की बात समझ में आती है, पर जैसे ही लाॅकडाउन खुलता है सरकार को चाहिये कि सारी अड़चनों को तत्काल दूर करे औैर औद्योगिक क्रियाकलाप को जल्द से जल्द वापस पटरी पर लाए। कम-से-कम उसे काम चालू करने के लिए श्रमिकों को एक माह का अग्रिम भत्ता और यातायात भत्ता भी देना चाहिये। पर केंद्र व राज्य सरकारों ने तो सबकुछ स्वतःस्फूर्तता पर छोड़ रखा है, जिसकी वजह से वर्करों के जीवन को सामान्य स्थिति में लौटना मुश्किल हो रहा है।
फादर मनोहर चन्द्र प्रसाद बंगलुरु के ऐक्टिविस्ट-पादरी हैं। वे बताते हैं कि टीकाकरण क्रमशः प्राइवेट हाथों में सौंपा जा रहा है। निःशुल्क सरकारी वैक्सिनेशन कंद्रों में लम्बी-लम्बी कतारें हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लाॅकडाउन अर्थहीन है और लागू करना भी मुश्किल। टीकाकरण अभियान ग्रामीण क्षेत्रों में चल ही नहीं पा रहा। इसलिए 13 ग्रामीण जिलों में कोरोना केस बढ़े हैं। बहुत लोगों में टीकाकरण को लेकर हिचकिचाहट भी है। अल्पसंख्यक समुदाय के बीच तो वैक्सीन को लेकर भय व्याप्त है कि यह उन्हें नुक्सान पहुंचाने का एक षडयंत्र है। सरकार में ऐसे लोग नहीं हैं जो जनता के बीच विश्वास पैदा कर सकें कि उन्हें हानि नहीं पहुंचेगी। फादर प्रसाद श्री शास्त्री के साथ एकमत हैं कि कर्नाटक में इतनी कम रिपोर्टिंग हुई है कि सरकारी मौत के आंकड़े असली आंकड़ों के एक-तिहाई हैं। एक समय में तो मैसुरु में बंगलुरु से अधिक मौतें हुई थीं।
मुम्बई-पुणे
सर्व श्रमिक संगठन के महासचिव उदय भट्ट जी ने बताया कि मुम्बई लड़खड़ाते हुए वापस काम पर आ रही है।‘‘ लाॅकडाउन 2.0 का प्रभाव लाॅकडाउन 1.0 की अपेक्षा कम गंभीर है। श्रमिकों के विविध हिस्सों पर इसका असर अलग-अलग था। आई टी संबंधित सेवा उद्योग और फिनटेक व वित्तीय सेवाएं ऑफिस की जगह वर्क-फ्रॉम-होम की ओर शिफ्ट हो गईं। इन वर्करों की समस्या अलग किस्म की है। पर सबसे अधिक दुर्दशा कार ड्राइवरों, ऐटेन्डरों और ऑफिस में काम करने वाले सुरक्षा गार्डों के एक हिस्से की है। इनमें से अधिकतर ठेके पर रखे गए हैं, तो लाॅकडाउन के दिनों में उन्हें धर बैठा दिया जाता है और वेतन काट लिया जाता है। होटल कर्मचारियों का तो सबसे बुरा हाल है। हयात रीजेंसी जैसा पंच-सितारा होटल तक बंद हो गया और कर्मचारियों का भविष्य अधर में लटका है।
‘‘मुम्बई में 35000 प्राइवेट टैक्सियां चलती थीं और लाॅकडाउन के बाद ड्राइवर घर चले गए और वापस नहीं आए। तो ऊबर और ओला टैक्सियों की संख्या आधी रह गई। बहुत से बंद एमएसएमई-श्रमिक अब अमेजन, स्विग्गी, ज़ोमेटो आदि के डिलिवरी बाॅयज़ बन गए हैं और आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण उनकी डिलिवरी संख्या और आय भी घट गई हैं।’’ उदय ने बताया।
‘‘मुम्बई के बाहरी इलाकों में फैक्टरियां 70-80 प्रतिशत हाजरी के साथ काम शुरू कर चुकी हैं पर घरेलू कामगारिनों को यातायात में भारी दिक्कत का सामना करना पड़ता है। मुम्बई मेट्रो और लोकल ट्रेन सेवाएं चालू हो चुकी हैं पर अभी केवल आवश्यक सेवा कर्मियों को सफर करने की अनुमति है क्योंकि नाम-मात्र की सेवाएं उपलब्ध हैं। घरेलू कामगारिनों को यातायात सुविधा नहीं मिल पाती क्योंकि उन्हें फ्रंटलाइन वर्कर पास नहीं मिले हैं।
क्योंकि वे मुम्बई में किराए पर नहीं रह पातीं उन्हें बाहर के इलाकों में रहना पड़ता है, जहां से रोज़ यात्रा करना महंगा पड़ता है। मस्लन विरार से वोरली या कल्याण में काम करने के लिए दो बार आने-जाने में 100रु खर्च हो जाते हैं। फिर आने-जाने में इतना समय खर्च होता है कि एक-दो घरों में ही काम कर पाती हैं और वेतन का 25 प्रतिशत यातायात भाड़ा ही हो जाता है।’’ उदय बताते हैं।
हैदराबाद-विसाखापटनम
काॅ. एनएस मूर्थि, सीपीआईएमएल नेता हैं। वह बताते हैं कि हैदराबाद में उद्योग धीरे-धीरे काम शुरू कर रहे हैं। सभी पाबंदियां समाप्त कर दी गई हैं। पर रीयल एस्टेट का काम अभी भी बाधित है, क्योंकि प्रवासी मजदूर लौटे नहीं हैं। मेट्रो में केवल 50 प्रतिशत यात्री जा सकते हैं, पर बसें चल रही हैं। ट्रेड यूनियने मांग कर रही हैं कि काम शुरू करने के पहले अनिवार्य टीकाकरण होना चाहिये पर न ही केसीआर सरकार न मालिक इसपर विचार करने को तैयार हैं। हैदराबाद में टेस्टिंग भी कम हुई है। आंध्र के विसाखापटनम की भांति हैदराबाद में भी लाॅकडाउन का वेतन नहीं दिया गया और तेलंगाना सरकार कुछ नहीं करना चाहती। हैदराबाद के पाटनचेरुवु औद्योगिक क्षेत्र में सभी उद्योग खुल गए हैं और मालिक स्वयं प्रवासी मजदूरों के लिए रहने की जगह और खाना उपलब्ध करा रहे हैं। पर सुविधाएं हर उद्योग के लिए अलग हैं।
विसाखापटनम में कलक्टर ने स्वयं पुलिस को आदेशित किया कि वे औद्योगिक मजदूरों के लिए यातायात पास उपलब्ध कराए।
चैन्नई
सीटू अध्यक्ष, ए.सुन्दर्राजन, ने न्यूज़क्लिक को बताया कि यद्यपि सरकार ने उद्योगों को 50 प्रतिशत कार्यशक्ति लेकर काम करने की अनुमति दे दी है, श्रीपेरुमबुदुर-कांचीपुरम बेल्ट के प्रमुख उद्योग श्रमिकों के न चाहने के बावजूद 100 प्रतिशत कार्यशक्ति के साथ काम कर रहे थे। उन्हें काम पर आने के लिये बाध्य किया गया और उनकी मांग, कि उन्हें 3 पाली की जगह 1 पाली पर काम करने दिया जाए, को ठुकरा दिया गया। यहां तक कि महिला श्रमिकों को तक तीन पाली में काम कराया गया, जबकि सार्वजनिक परिवहन नहीं थे। सीटू के एक राज्य सचिव, एस कान्नन जो श्रीपेरुमबुदुर-कांचीपुरम पट्टी के उद्योगों में कई यूनियनों का नेतृत्व करते हैं, का कहना है कि लाॅकडाउन 2020 में जबकि सभी बड़े उद्योगों ने उन दिनों के लिए भी 50 प्रतिशत वेतन दिया था, जब काम नहीं था, इस बार कुछ भी नहीं दिया गया।
जाने-माने सीटू नेता इलंगोवन रामलिंगम ने कहा कि चैन्नई के आस-पास के औद्योगिक क्षेत्रों, मस्लन गुम्मिडिपूंडी, अम्बात्तुर और गुइंडी में कोई भी एसएमई लाॅकडाउन 2.0 के समय काम नहीं कर रहा था। केवल ऑक्सीजन बनाने वाले प्लांट और कोविड-संबंधित सामान बनाने वाले उद्योगों को काम करने की छूट मिली। इसका प्रमुख कारण था परिवहन समस्या, क्योंकि सार्वजनिक परिवहन 21 जून से ही चालू हुए। सरकार और मालिकों को मिलकर श्रमिकों के लिए स्पेशल बसों का इन्तेजाम करना चाहिये था।’’ वे बोले
जब डीएमके सत्ता में आई, उसने सभी श्रमिकों और गरीबों को 2 किश्तों में 4000रु और 14 घरेलू प्रयोग के सामान के साथ 20 किलो चावल दिया। यह मोदी के द्वारा दिये गए 5 किलो चावल के अतिरिक्त था। इससे लाॅकडाउन के दौर में मजदूरों को कुछ राहत मिली।
कोलकाता
कोलकाता के एक प्रख्यात अकादमिक, नित्यानन्द घोष ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में बताया,‘‘15 जून से ममता बनर्जी की सरकार ने उद्योगों को 25 प्रतिशत कार्यशक्ति के साथ काम करने की अनुमति दी। यह आदेश दिया गया कि यदि मालिक काम शुरू करने से पहले श्रमिकों को कोविड का टीका लगवा दे तो उन्हें 50 प्रतिशत श्रमिकों से काम करवाने की अनुमति मिल जाएगी। पर कई बड़े निजी उद्योग-जैसे ब्रिटानिया, ऐलेनबरी, हिंदुस्तान लीवर और सरकार द्वारा नियंत्रित कासिपुर व इच्छापुर के उद्योग 40 प्रतिशत स्टाफ को बुलाकर काम ले रहे हैं, जबकि इनका टीकाकरण नहीं हुआ है।
कोलकाता के पास के बालि और हुग्ली के चालू जूट मिलों को और 24 परगना जिला के बदुरिया के जूट मिलों को बंद कर दिया गया है और ये बढ़े हुए लाॅकउाउन पीरियड 1 जुलाई तक नहीं खुलेंगे। इंडियन ऑक्सीजन जो अब बीओसी के नाम से जाना जाता है, जिसका मालिक जर्मन बहुर्राष्ट्रीय कंपनी लिंडे है, पूरी कार्यशक्ति के साथ काम कर रहा है। पर अनौपचारिक उद्योग लगभग पूरी तरह बंद हैं और सरकार इन्हें चालू कराने के लिए कुछ नहीं कर रही है। सरकार 4 किलो गेहूं या चावल उन्हीं लोगों को दे रही है जिनके पास बीपीएल श्रेणी का डिजिटल पीडीएस कार्ड हैं; इसकी वजह से ढेर सारे श्रमिक वंचित रह जा रहे हैं। इन्हें पैसा भी नहीं दिया गया। सार्वजनिक परिवहन चालू न होने की वजह से मजदूरों को काम पर जाने में भारी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। लोकल ट्रेन चल रहे है पर कम डिब्बों के साथ, जिसकी वजह से डिब्बों में भारी भीड़ होती है और संक्रमण का खतरा काफी बढ़ जाता है। कुल मिलाकर केवल 40 प्रतिशत उद्योग और 25 प्रतिशत अनौपचारिक इकाइया चल रही हैं, क्योंकि मजदूर लौटकर नहीं आए हैं।
कुल मिलाकर जो सिथति सामने आई है वह यही है कि मोदी ने लाॅकडाउन 2.0 में भी मजदूरों को भगवान-भरोसे छोड़ दिया है और राज्य सरकारों को कोई वित्तीय सहायता नहीं दी कि वे श्रमिकों को लाॅकडाउन के समय कुछ राहत दे सकें, जिससे कि वे वेतन मिलने से पहले एक माह निश्चिंत होकर काम कर सकें। राज्य सरकारें भी उद्योग चालू करने के बावजूद सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को चालू नहीं कर रहे। महामारी ने भारतीय नौकरशाही की अक्षमता और बेरहमी को उजागर किया है। क्योंकि ऐसे लाॅकडाउन भविष्य में और भी हो सकते हैं, यह आवश्यक है कि ट्रेड यूनियनें विशिष्ट मांगों की सूचि तैयार करें और उसपर संघर्ष तेज करे।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।