आपकी सरकार आपसे बदला लेना चाहती है
छिहत्तर वर्षीय अधिवक्ता मोहम्मद शोएब का जीवन, दमनात्मक कानूनों के तहत जेलों में बंद किये गए उन अनेकों निर्दोष लोगों को जेलों से छुड़ाने में बीता जिनके ऊपर आतंकवादी होने का ठप्पा लगा दिया गया था। इस प्रक्रिया में जैसे-जैसे उन्होंने उत्तर प्रदेश की अनेकों न्यायालयों में जा-जाकर मुकदमों की पैरवी की, उन्हें कई बार दक्षिणपंथी वकीलों की ओर से अनेकों हमलों का जोखिम भी उठाना पड़ा।
उनके समकालीन रहे पूर्व पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी भी सेवानिवृत्त होने के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखक बन गए। दोनों ने ही कभी इस बात की कल्पना नहीं की होगी कि उसी प्रकार के काले कानूनों के तहत एक दिन उनके ऊपर भी दंगा फसाद करने और घृणा पैदा करने के आरोपों को मढ़कर जेल में ठूंस दिया जायेगा।
लेकिन जैसा कि सभी जानते हैं कि आज के हालात में उत्तर प्रदेश में शोएब और दारापुरी ही इसके अपवाद नहीं हैं। ये दोनों व्यक्तित्व, उन सैकड़ों सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं और उन असंख्य आम लोगों की बात तो भूल ही जाइये, जिन्हें नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के विरोध के तहत राज्य के विभिन्न जेलों में ठूंस दिया गया है, के बीच दो उल्लेखनीय व्यक्तित्व मात्र हैं।
ये विरोध प्रदर्शन पूरे देश भर में चल रहे हैं और इसने जोर पकड़ना 19 दिसम्बर के बाद से शुरू किया था, जब नए कानून और प्रस्तावित नीतियों के विरोधस्वरूप स्वतःस्फूर्त ढंग से छात्रों ने सड़कों पर निकलना शुरू किया था।
जो लोग इसका विरोध करते दिखे, उनपर उत्तर प्रदेश प्रशासन ने सख्ती से निपटने की भरपूर कोशिश की। मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने बिल के खिलाफ चल रहे इन विरोध प्रदर्शनों को महज “कानून-व्यवस्था की चुनौती” के रूप में पेश किया ताकि जिन्होंने सार्वजनिक या निजी संपत्ति को नुकसान पहुँचाया है उनसे “बदला” लेने को न्यायोचित ठहराया जा सके।
यह प्रतिशोध किस प्रकार से लिया गया इसका एक बेहतरीन नमूना आप इस उत्तरी राज्य के वाराणसी शहर से देख सकते हैं। यहाँ पुलिस द्वारा दर्ज की गई एक प्राथमिकी में 56 लोगों के नाम दर्ज हैं, जिनमें प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता, श्रमिक नेता और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के बीस से अधिक छात्रों के नाम शामिल हैं। इन सभी पर भारतीय दंड संहिता की आठ धाराओं के तहत सामूहिक तौर पर आरोप लगाए गए हैं।
इन गिरफ्तार लोगों में एक कार्यकर्ता दंपत्ति एकता शेखर और रवि भी हैं, जो पर्यावरण के सवाल पर काम करते हैं। कानून-व्यवस्था का तंत्र किस बेरहमी से यहाँ काम कर रहा है, उसके ये प्रतीक बन कर उभरे हैं। उनकी 14 महीने की एक बेटी है, जिसे इस बात की अनुमति नहीं मिल रही है कि वह अपने माता पिता की एक झलक देख सके।
अब सवाल यह उठता है कि क्या कानून और व्यवस्था का सारा बोझ आम जन के कन्धों पर ही होना चाहिए, या ये नियम उन पर भी लागू होते हैं जिनके ऊपर कानून-व्यवस्था को बनाए रखने की जिम्मेदारी भी है?
उदहारण के लिए, इस बात को लेकर कोई सवाल नहीं उठाये जाते कि सादी वर्दी में अपने चेहरों को ढककर उपद्रवियों ने जो आगजनी की और यहाँ तक कि सीएए के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर हमले तक किये, और पुलिस प्रशासन ने इस सब पर अपनी आँखें बंद कर लीं।
ऐसे अनेकों उदहारण हैं जहाँ पर पुलिस ने आम लोगों के खिलाफ गंभीर आरोप मढ़े हैं जहाँ पर हिंसा की झलक तक न दिखी हो।
उदहारण के लिए सामाजिक कार्यकर्त्ता दीपक कबीर को तब हिरासत में ले लिया गया, जब वे अपने लापता दोस्तों की खोज-खबर के लिए पुलिस थाने में गए थे। इस मामले ने काफी राष्ट्रीय सुर्खियाँ बटोरीं, लेकिन ऐसा किसी एक इंसान के साथ घटित होने वाला इकलौता उदहारण नहीं है।
खबरें तो यहाँ तक हैं कि पुलिस ने तेरह साल तक के बच्चों को नहीं बक्शा है। बिजनौर के बच्चों ने अपनी भयावह आपबीती बयान की है कि किस प्रकार सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के उपरान्त पुलिस ने उन्हें बेरहमी से पीटा। उन्होंने आरोप लगाया है कि उन्हें रिहा किये जाने से पहले “48 घण्टों के दौरान लगातार प्रताड़ित किया जाता रहा।” उन्होंने बताया कि पुलिस उन्हें सबक सिखाना चाहती थी।
जिस प्रकार के वीडियो सोशल मीडिया में देखने को मिले, और कुछ को तो मुख्यधारा के टीवी चैनलों द्वारा भी दिखाया गया था, वे इस बात की और मजबूती से इशारा करते हैं कि सख्ती से निपटने के नाम पर यह पुलिसिया कार्यवाही ही थी, जो लोगों को हिंसक होने के लिए उकसा रही थी।
याद करें कि एक बड़े चैनल ने इस सच को उद्घाटित किया था कि किस प्रकार बिना किसी जाहिर तौर पर उकसावे के बेहद सधे तरीके से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के गेट पर पुलिस द्वारा मोटरसाइकिलें तोड़ी जा रही थीं। यह ठीक एएमयू के छात्रों और विश्विद्यालय परिसर के भीतर पुलिस द्वारा किये जाने वाले हमले से पहले का वक्त था।
पुलिस कर्मियों को भी कथित तौर पर लोगों के घरों में घुसते देखा गया, खासकर मुस्लिम घरों में। देखने में आया है कि घर में घुसने से पहले उन्होंने सीसीटीवी कैमरों को तोड़ा, ताकि उनकी करतूतों का कोई प्रमाण बाकी न रहे।
उन पर आरोप हैं कि उन्होंने न सिर्फ बवाल खड़ा किया बल्कि घरों से लूट-पाट भी की। राज्य के बिगड़ते हालात पर लगे प्रश्नचिन्ह का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक अखबार, जो हमेशा से ही खुद की सौम्य छवि बनाए रखने के लिए जाना जाता है, ने नागरिकता विरोधी (संशोधन) अधिनियम से निपटने के नाम पर प्रदर्शनकारियों के साथ "उत्तर प्रदेश कानून प्रवर्तन मशीनरी के स्पष्ट तौर पर बेशर्मी भरे" रुख पर सवाल उठाये हैं।
इसके अनुसार, “सड़कों पर व्यवस्था बनाए रखने के लिए कठोर, जैसे को तैसा बर्ताव वाले दृष्टिकोण के चक्कर में योगी आदित्यनाथ सरकार ने जो संदेश अनजाने में या जानबूझकर भेजने की कोशिश की है, उसमें वह अपने सांप्रदायिक स्वरों को छुपा पाने में कामयाब नहीं हो पाई है: 'हिम्मत कैसे हो गई तेरी (विरोध की).... राज्य भर में पुलिस की बर्बरता के व्यापक आरोपों के बीच, इन चुभते सवालों का जवाब अनुत्तरित है कि प्रदर्शनकारियों के ऊपर चुन-चुन कर हमले क्यों किये गए।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी यूपी के पुलिस महानिदेशक को एक नोटिस जारी किया है, जिसका संबंध सीएए-विरोधी विरोध प्रदर्शनों के दौरान लिए गए उनके एक्शन को लेकर है। राज्य पुलिस द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन की कथित घटनाओं पर हस्तक्षेप को लेकर एनएचआरसी के पास लगातार अर्जियां प्राप्त हो रही हैं।
इस सिलसिले में हाल ही में एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम जिसमें योगेंद्र यादव, कविता कृष्णन और रियाद आज़म शामिल थे, ने यूपी के कुछ हिस्सों का दौरा किया। अपनी रिपोर्ट में उनका कहना है कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने उत्तर प्रदेश में "आतंक का राज" कायम कर रखा है। उनके द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में जिलेवार आंकड़े और कई परिवारों की गवाही शामिल है, और आरोप लगाया है कि राज्य की भारतीय जनता पार्टी सरकार मुसलमानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बेशर्मी से अपना निशाना बना रही है।
उनकी रिपोर्ट बताती है कि राज्य के हालात इस तरह के हैं कि वे सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में एक विशेष जांच की जरूरत है और यह भी कि इन अत्याचारों के आरोपी पुलिस अधिकारियों को अवश्य ही निलंबित किया जाना चाहिए ताकि वास्तविक दोषियों की पहचान की जा सके।
सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में ही क्यों सीएए के विरोध प्रदर्शनों के दौरान सबसे अधिक हिंसा और मौत (कम से कम 20 लोगों की मौत) की खबरें देखने को मिलीं, और यूपी ही सबसे अधिक गिरफ्तारियां करने के मामले में अव्वल क्यों रहा?
यूपी में, पुलिस ने मात्र कानपुर में ही 15 एफआईआर में 21,500 लोगों को नामजद किया है, और 1,200 एएमयू के छात्रों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है, जिनका अपराध मात्र यह था कि वे सिर्फ कैंडललाइट मार्च आयोजित कर रहे थे, जिसमें किसी भी प्रकार की कोई हिंसा नहीं हुई।
“इस हिंसा में जो भी तत्व शामिल थे, उनकी संपत्ति को जब्त कर लिया जाएगा और जो सार्वजनिक संपत्ति नष्ट हुई है उसकी क्षतिपूर्ति के तौर पर वसूली की जाएगी। उन सभी के चेहरे पहचान लिए गए हैं। वे वीडियोग्राफी और सीसीटीवी फुटेज में दिखाई दे रहे हैं। हम उनकी संपत्तियों को जब्त कर इसका बदला लेंगे, मैंने सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। ”
“अपराध पर अंकुश” लगाने के नाम पर योगी सरकार द्वारा पुलिस को दी गई खुली छूट जिसमें फर्जी एनकाउंटर भी शामिल है, ने सुरक्षा बलों के भीतर इस प्रकार का माहौल बना दिया कि कुछ भी कर लो, कुछ नहीं होने वाला, को बढ़ावा देने का काम किया।
योगी सरकार के पहले 16 महीनों में आधिकारिक तौर पर 3,026 पुलिस मुठभेड़ को अंजाम दिया गया, जिसमें 69 अपराधियों को मार गिराया गया, जिसे सरकार ने अपनी "उपलब्धि" के रूप में बढ़ा-चढ़ा कर प्रदर्शित किया।
अब सरकार ने विरोध प्रदर्शन में भाग लेने वाले आम नागरिकों के चेहरों के साथ "तलाश है" लिखकर पोस्टर लगवाये हैं, उन्हें “दंगाई” घोषित किया है, और लोगों के बीच घोषणा की है कि जो इनके बारे में बताएगा उसे उचित ईनाम दिया जायेगा।
इनका इरादा प्रदर्शनकारियों की संपत्ति को भी जब्त करने का है, क्योंकि तर्क यह है कि यदि इन्होने विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया है तो ये हिंसा में भी शामिल रहे होंगे और संपत्ति का नुकसान भी पहुँचाया होगा। संपत्तियों की कुर्की की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि “मुजफ्फरनगर में सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की वसूली के इरादे से करीब तीन दर्जन दुकानों को सील कर दिया गया है ताकि दुकानों में रखे सामान को बेचकर यह वसूली की जा सके। और अगर जरूरत पड़ी तो इन दुकानों को ही बेचकर यह रकम वसूली जायेगी। कानपुर में, 28 लोगों को अपराधियों के रूप में चिन्हित किया गया है।“ इसी तरह रामपुर प्रशासन ने भी पिछले सप्ताह के विरोध प्रदर्शन के दौरान 28 लोगों को "हिंसा के लिए चिन्हित" वाले नोटिस जारी किए हैं।
इन आदेशों को जारी करते समय न्यायिक निरीक्षण के मूल सिद्धांतों की अनदेखी की गई है, लेकिन ऐसा क्यों किया गया है यह साफ तौर पर स्पष्ट है। यूपी सरकार का इरादा किसी भी विरोध प्रदर्शन को अपराध सिद्ध करना और उसे आतंकित करने का रहा है। क्या दक्षिणपंथी उपद्रवियों के साथ कानून व्यवस्था के एक हिस्से का यह अपवित्र गठबंधन, आखिरकार इस लोकतंत्र के भविष्य का फैसला करेगा। सबसे अहम प्रश्न आज यह है कि क्या इसे सफल होने दिया जाएगा, या हम अपनी सारी ताकत झोंक कर इसे चुनौती देंगे।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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