रेलवे स्टेशन पर एजेंडा सेटिंग के लिए संस्कृत का इस्तेमाल?
सवाल है कि उत्तराखंड के रेलवे स्टेशन के नाम उर्दू से हटाकर संस्कृत में करने से आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषायी, सामाजिक किस मोर्चे पर हम प्रगति की ओर बढ़ेंगे? भारतीय रेलवे ने कहा है कि क्योंकि वर्ष 2010 में उत्तराखंड में संस्कृत को दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया, इसलिए रेलवे के मैनुअल के लिहाज से राज्य के रेलवे स्टेशन के साइन बोर्ड्स पर हिंदी और अंग्रेजी के अलावा संस्कृत में नाम लिखे जाएंगे।
नॉर्दन रेलवे के मुख्य जन संपर्क अधिकारी दीपक कुमार ने मीडिया में कहा कि इससे पहले उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहते हुए उत्तराखंड में रेलवे स्टेशन के नाम उर्दू में लिखे गए थे, क्योंकि उर्दू उत्तर प्रदेश की दूसरी भाषा है। उल्लेखनीय है कि रेलवे ने दस साल बाद इस बात का संज्ञान लिया। हरिद्वार के लक्सर क्षेत्र से भाजपा विधायक संजय गुप्ता की चिट्ठी पर रेल मंत्रालय ने नाम बदलने की अनुमति दी है।
कितने लोगों की भाषा है संस्कृत-उर्दू
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक पहली भाषा के रूप में संस्कृत भाषी लोगों की तादाद कुल आबादी में 0.002% (24,821) है जिसे रिपोर्ट में ‘एन’ यानी नेग्लेजिबल (नगण्य) दर्शाया गया है। जबकि उर्दू बोलने वाले 4.19% (5.07 करोड़) हैं। इसी तरह दूसरी, तीसरी भाषा को शामिल करने पर 121 करोड़ की आबादी वाले देश में संस्कृत बोलने वाले 0.19 प्रतिशत लोग हैं जबकि उर्दू 5.18 प्रतिशत। 13 भाषाओं की सूची में संस्कृत आखिरी पायदान पर थी। लेकिन 2001 की जनगणना की तुलना में संस्कृत बोलने वाले लोगों की संख्या में 10,000 यानी 71 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। जबकि उर्दू बोलने वाले लोगों की तादाद घटी (5.15 करोड़) है।
एजेंडा सेटिंग के लिए संस्कृत का इस्तेमाल?
दून विद्यालय के रिसर्च और क्रियेटिव राइटिंग हेड हम्माद फार्रुख़ी कहते हैं कि रेलवे स्टेशन पर उसी भाषा में नाम लिखें, जिससे आम आदमी को पढ़ने में सहूलियत रहे। संस्कृत और हिंदी दोनों की लिपि देवनागरी है। भाषा बदलने से पठनीयता के हिसाब से कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। ये एजेंडा सेटिंग है। हम्माद कहते हैं कि संस्कृत का इस्तेमाल कर्मकांड के लिए होता है। पंडिताई के दौरान होता है। ये बोलचाल में इस्तेमाल नहीं आती इसलिए जीवंतता नहीं है। उनके हिसाब से धर्म प्रधान देश की बुनियाद रखने की दिशा में की गई एक कोशिश है।
संस्कृत का ज्ञान और रोज़गार
हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध रुद्रप्रयाग के जखोली ब्लॉक स्थित महाविद्यालय से संस्कृत में एमए करने वाली महिला (नाम न बताने की शर्त पर) बताती हैं कि उन्होंने वेदों के बारे में पढ़ाई की, उपनिषद के बारे में पढ़ाई की, हरिद्वार-बद्रीनाथ, जैसे शहरों के बारे में संस्कृत के अध्याय पढ़े। लेकिन संस्कृत में विज्ञान नहीं पढ़ा। संस्कृत भाषा के ज़रिये वह शिक्षिका की नौकरी हासिल नहीं कर सकीं, जबकि हिंदी में पढ़ाने के अवसर उन्हें मिले। यह पूछने पर कि देहरादून या हल्द्वानी को संस्कृत में क्या बोलेंगे, वह नहीं बता सकीं। हो सकता है कि वह पढ़ने में बहुत अच्छी न हों लेकिन मास्टर्स डिग्री के बावजूद संस्कृत के आसान से सवालों के जवाब उनके पास नहीं मिले। बहुत सारे लोग जिन्होंने संस्कृत की बेसिक शिक्षा हासिल की होगी उनकी भी संस्कृत बालक: बालकौ बालका: पर आ कर सिमट गई।
क्या संस्कृत बीते समय में भी आम लोगों की भाषा रही?
संस्कृत भाषा के विद्वान लेखक शेल्डन पॉलक ने अपने शोध से ये स्पष्ट किया है कि संस्कृत और जातिगत भेदभाव किस तरह जुड़े हुए हैं। किस तरह भाषा भी अपने साम्राज्य को कायम रखने और बढ़ाने के लिए इस्तेमाल की जाती है। पुराने समय में राजा या ब्राह्मण संस्कृत का इस्तेमाल अपने आपको को महान सिद्ध करने के लिए करते रहे। पॉलक, वाल्टर बेंजमिन को उदधृत करते हुए कहते हैं कि सिविलाइजेशन से जुड़ा हर दस्तावेज उसी समय में बर्बरता का दस्तावेज़ भी है। ब्राह्मणों ने संस्कृत को अपने नियंत्रण में रखा। जिससे जाति की खाई और गहरी होती गई। पॉलक कहते हैं कि संस्कृत पढ़कर आप सिर्फ हवन करा सकते हैं या आप संस्कृत में लिखे वेदों को पढ़ने में सक्षम हो सकते हैं।
जाति और धर्म से जुड़ा मसला है संस्कृत
भाषा शास्त्री गणेश देवी कहते हैं कि पहली भाषा के रूप में संस्कृत बहुत ही थोड़े लोगों द्वारा बोली जाती है। आज के दौर में संस्कृत बोलकर आप न ट्रेन का टिकट खरीद सकते हैं न ही आयुर्वेद की दवाइयां। भारत में 17वीं सदी तक ही भाषा के रूप में संस्कृत होता था। अब हम 21वीं सदी में हैं। यदि आप संस्कृत को पुनर्जीवित करना चाहते हैं तो ये पूरी तरह भावनात्मक मुद्दा है। स्पष्ट तौर पर जाति और धर्म से जुड़ा हुआ है। अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ाने के लिए भी अब आपको ग्रीक या लैटिन नहीं पढ़ना पड़ता। संस्कृत की धरोहर को सहेजने के लिए आप इसके साहित्य का डिजिटाइजेशन करें, लाइब्रेरी बनाएं, संस्कृत में लिखे गए मूल लेखों को संरक्षित करें। संस्कृत ही नहीं, सभी भारतीय भाषाएं मिलकर अंतर्राष्ट्रीय वेब स्पेस पर 1% से कम जगह लेती हैं।
जब संस्कृत पढ़ाने वाले मुस्लिक शिक्षक को हटना पड़ा
पिछले वर्ष नवंबर की ही बात है जब बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए मुस्लिम शिक्षक फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति को लेकर छात्रों के एक गुट ने विरोध किया। धर्म के नाम पर एक योग्य शिक्षक का विरोध किया गया जो बकायदा विश्वविद्यालय के कुलपति की अध्यक्षता में बनी चयन समिति के ज़रिये चुनकर आए।
वो विधायक जिनके पत्र का रेलवे ने लिया संज्ञान
हरिद्वार के लक्सर से भाजपा विधायक संजय गुप्ता की चिट्ठी पर रेल मंत्रालय ने रेलवे स्टेशन के नाम बदलने का संज्ञान लिया, वो मीडिया में अपने विवादास्पद बयानों से कई बार सुर्खियां बटोर चुके हैं। लव जेहाद पर भड़काऊ बयान, “उत्तराखंड देवभूमि है पाकिस्तान नहीं” जैसे नारे उछालना, स्लाटर हाउस, रोहिंग्या मुसलमानों पर वे पहले भी कई बार विवादित टिप्पणी कर चुके हैं। संजय गुप्ता पर परेशान करने का आरोप लगाते हुए उनके अपने रिश्ते के साले ने परिवार समेत आत्महत्या का पत्र सोशल मीडिया पर जारी किया था। विधायक की जानकारी के लिए पहाड़ों पर रेल क्यों नहीं गई, शिक्षा-स्वास्थ्य, ग़रीबी हटाने, रोजगार बढ़ाने जैसे मुद्दों पर बहुत काम बाकी है।
संस्कृत को एक भाषायी धरोहर के रूप में संरक्षित करना एक बेहतर प्रयास हो सकता है। जैसे कि गणेश देवी कहते हैं कि आप इसे डिजिटलाइज करो ताकि ये ज्यादा लोगों तक पहुंचे, इसके लिए लाइब्रेरी बनाओ। इसके अलावा अगर आपको संस्कृत भी लिखनी है तो लिखो, बोर्ड पर एक भाषा और बढ़ा दीजिए लेकिन एक भाषा को मिटाने की क्या ज़रूरत है। इन्हीं वजह से ये सवाल पैदा होता है कि क्या संस्कृत को राजनीति के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना क्या सही है? उत्तराखंड के लोग अब भी उन बोर्ड्स का इंतज़ार कर रहे हैं, जिन्हें पढ़कर पता चले कि पहाड़ में यहां डॉक्टर का क्लीनिक है, वो बोर्ड जो स्कूल का पता बताए, ऐसे बोर्ड्स जहां नौकरी मिलती है, फिर वो हिंदी-अंग्रेजी-संस्कृत-उर्दू में ही क्यों न लिखे हों। विश्व की सबसे जवान अर्थव्यवस्था को वो भाषा चाहिए जिसमें वो दाल-रोटी खा सके, कविता-कहानियां पढ़ सके, थके तो उस भाषा के सिराहने बैठ कुछ देर सुस्ता सके। जिस भाषा में वो अपने नारे गढ़ सके। आज के दौर के नारों को पढ़िए, वे किस भाषा में हैं, उसे बोलने वाले क्या चाहते हैं।
(वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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