सुप्रीम कोर्ट ने क्यों मदरसा एक्ट को रद्द करने वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाई?
पिछले हफ्ते, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के उत्तर प्रदेश बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन एक्ट, 2004 (जिसे मदरसा अधिनियम, 2004 भी कहा जाता है) को रद्द करने वाले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को लागू करने से रोक दिया है यानि स्टे लगा दिया है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की तीन न्यायाधीशों वाली पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय का यह निष्कर्ष कि मदरसा बोर्ड की स्थापना ही धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन है, वह मदरसा शिक्षा की अवधारणा की उन रेगुलेटरी/नियामक शक्तियों को एक साथ मिलाने जैसा है जिन्हें बोर्ड को सौंपा गया है।
पीठ ने कहा कि यदि उच्च न्यायालय के सामने पेश याचिकाओं का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि मदरसा शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों में धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए, तो इसका उपाय मदरसा अधिनियम के प्रावधानों को रद्द करने से नहीं निकलेगा बल्कि इसे सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त निर्देश जारी करना होगा। जो छात्र इन संस्थानों में शिक्षा हासिल करते हैं, वे उस शिक्षा की गुणवत्ता से वंचित नहीं होते हैं जो राज्य द्वारा अन्य संस्थानों में उपलब्ध कराई जाती है।
यह तर्क दिया गया है कि मदरसा अधिनियम, 2004 धार्मिक शिक्षा नहीं देता है और इसका संविधान के अनुच्छेद 28(1) के साथ कोई टकराव भी नहीं है।
पीठ, उन याचिकाओं पर फैसला दे रही थी, जिसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 22 मार्च के फैसले को चुनौती देने की मांग की गई थी, जिसमें कहा गया था कि राज्य के पास धार्मिक शिक्षा के लिए बोर्ड बनाने या केवल किसी विशेष धर्म और उससे जुड़े दर्शन के लिए स्कूली शिक्षा के लिए बोर्ड स्थापित करने की कोई शक्ति नहीं है।
उच्च न्यायालय ने माना था कि मदरसा अधिनियम, 2004 धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है जो भारत के संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है और यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 21-ए का उल्लंघन है और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम (यूजीसी), 1956 की धारा 22 का भी उल्लंघन है।
उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध तर्क
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकीलों की एक टीम ने तर्क दिया कि मदरसा अधिनियम मुख्य रूप से एक रेगुलेटरी/नियामक क़ानून है जो पाठ्यक्रम, निर्देश, शिक्षा के मानक, परीक्षाओं के संचालन और शिक्षण के लिए योग्यता जैसे मुद्दों से संबंधित है।
यह भी तर्क दिया गया कि मदरसा अधिनियम, 2004 धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं करता है और संविधान के अनुच्छेद 28(1) के साथ उसका कोई टकराव भी नहीं है। मदरसा शिक्षा बोर्ड के कार्य रेगुलेटरी/नियामक हैं।
अनुच्छेद 28(1) प्रावधान करता है कि राज्य निधि से संचालित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में कोई धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।
याचिकाकर्ताओं की ओर से यह भी कहा गया कि संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची III की प्रविष्टि 25 के प्रावधानों के कारण राज्य विधानमंडल कानून बनाने में सक्षम है।
यह भी तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 28(1) के तहत ऐसे शैक्षणिक संस्थान में धार्मिक शिक्षा देना प्रतिबंधित है जो पूरी तरह से राज्य निधि से संचालित होता है। लेकिन धर्मनिरपेक्ष संस्थानों में धार्मिक शिक्षा को मुहैया कराना संविधान में प्रतिबंधित नहीं है।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि उच्च न्यायालय के फैसले ने उस स्थिति को अस्थिर कर दिया है जो कानून के लागू होने से पहले और बाद में इस क्षेत्र पर कायम रही है क्योंकि मदरसा शिक्षा अब उत्तर प्रदेश में 120 वर्षों से अस्तित्व में है।
अनुच्छेद 28(1) में प्रावधान है कि राज्य निधि से संचालित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में कोई धार्मिक शिक्षा मुहैया नहीं कराई जाएगी।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 28 का अनुच्छेद 30 के साथ घालमेल कर दिया है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश राज्य में लगभग 16,000 मदरसे हैं जिसमें से केवल 560 मदरसों को ही राज्य से सहायता मिल रही है।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि उच्च न्यायालय के आदेश से गंभीर पूर्वाग्रह पैदा हुआ है क्योंकि मदरसा संस्थानों में शिक्षा हासिल करने वाले 17 लाख छात्रों को स्थानांतरित करना होगा। इसके अलावा शिक्षा दे रहे 10 हजार से अधिक शिक्षक विस्थापित हो जायेंगे।
उच्च न्यायालय इस गलत धारणा के साथ आगे बढ़ा है कि मदरसा शिक्षा में धार्मिक शिक्षा शामिल है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि सरकार द्वारा समय-समय पर जारी किए गए सर्कुलरों से संकेत मिलता है कि इस्लामी धर्मशास्त्र से संबंधित विषयों के अलावा, अन्य विषयों में भी शिक्षा दी जाती है।
भारत के अटॉर्नी जनरल की दलीलें
भारत के अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने तर्क दिया कि शिक्षा के साथ धर्म का उलझाव, अपने आप में, एक संदिग्ध मुद्दा है जिस पर विचार-विमर्श की जरूरत है; और उच्च न्यायालय के निर्देशों के परिणामस्वरूप, मदरसा शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों का कामकाज ठप्प नहीं होगा बल्कि इसका परिणाम केवल राज्य निधि से इनकार होगा।
उत्तर प्रदेश सरकार का बदला रुख
उत्तर प्रदेश सरकार, जिसने उच्च न्यायालय में 2004 के मदरसा अधिनियम का बचाव किया था, ने सर्वोच्च न्यायालय को यह बताने का फैसला किया कि उसने फैसले को स्वीकार करने का फैसला किया है।
भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के.एम. नटराज ने उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से यह भी कहा कि सरकार द्वारा किसी भी मदरसे को बंद नहीं किया जा रहा है और उच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार केवल अपनी शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों को अन्य धर्मनिरपेक्ष संस्थानों में स्थानांतरित करने की जरूरत है।
याचिकाकर्ताओं की ओर से यह भी कहा गया कि संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची III की प्रविष्टि 25 के प्रावधानों के कारण राज्य विधानमंडल कानून बनाने में सक्षम है।
उच्च न्यायालय के फैसले के समर्थन में तर्क देने वाले अन्य वकील ने कहा कि गणित, विज्ञान और सामाजिक अध्ययन जैसे विषयों में अनिवार्य शिक्षा के अभाव में, ऐसी आशंका थी कि छात्रों की शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा रहा था।
हाई कोर्ट की गलती
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने मदरसा अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों की जांच करने के बाद कहा कि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मदरसा अधिनियम के तहत गठित वैधानिक बोर्ड का उद्देश्य और लक्ष्य रेगुलेटरी/नियामक प्रकृति के थे।
बेंच ने फैसला सुनाया, "उच्च न्यायालय का यह निष्कर्ष कि बोर्ड की स्थापना ही धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन होगी, मदरसा शिक्षा की अवधारणा को उन नियामक शक्तियों के साथ मिलाने जैसा प्रतीत होता है जो बोर्ड को सौंपी गई हैं।"
पीठ ने कहा कि मदरसा अधिनियम के प्रावधानों को रद्द करते समय उच्च न्यायालय ने मदरसा अधिनियम के प्रावधानों की गलत व्याख्या की है।
बेंच ने कहा कि, “मदरसा अधिनियम, अपने आप में, राज्य निधि से संचालित किसी शैक्षणिक संस्थान में धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं करता है। वैधानिक प्रावधानों का उद्देश्य और लक्ष्य चरित्र में रेगुलेटरी/नियामक है।”
'धार्मिक निर्देश' के अर्थ पर बोलते हुए, पीठ ने अरुणा रॉय बनाम भारत संघ मामले में अदालत के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह देखा गया था कि अनुच्छेद 28(1) में इस्तेमाल की गई अभिव्यक्ति 'धार्मिक निर्देश' का एक प्रतिबंधित अर्थ था।
यह बताता है कि पूरी तरह से राज्य निधि से संचालित शैक्षणिक संस्थानों में रीति-रिवाजों, पूजा के तरीकों, प्रथाओं या अनुष्ठानों की शिक्षा की अनुमति नहीं दी जा सकती है। लेकिन अनुच्छेद 28(1) को, भारत के भीतर और बाहर मौजूद विभिन्न धर्मों के अध्ययन पर रोक लगाने के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता है।
"यदि उस निषेध को 'धार्मिक निर्देश' शब्दों के साथ पढ़ा जाता है तो दर्शन का अध्ययन, जो आवश्यक रूप से धर्मों के अध्ययन पर आधारित है, अस्वीकार्य होगा।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 28 को अनुच्छेद 30 के साथ मिला दिया है।
“यह बच्चों को अपने धर्म और दूसरों के धर्मों को समझने के अधिकार से वंचित करने जैसा होगा, जिनके साथ वे भारत में रह रहे हैं और जिनके साथ वे रहना और बातचीत करना पसंद कर सकते हैं।
“इसलिए, धर्मों का अध्ययन संविधान द्वारा निषिद्ध नहीं है और संवैधानिक प्रावधानों को उसके साथ नहीं पढ़ा जाना चाहिए, अन्यथा मानव के आध्यात्मिक विकास की संभावना, जिसे मानव अस्तित्व का सर्वोच्च लक्ष्य माना जाता है, पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा रॉय फैसले में कहा था कि, “अनुच्छेद 28(1) की कोई भी व्याख्या, जो किसी बच्चे या व्यक्ति के देश के विभिन्न धर्मों और देश के बाहर और अपने खुद के धर्म की शिक्षा हासिल करने के मौलिक अधिकार को नकारती है, जानकारी हासिल करने के उसके मौलिक अधिकार के लिए विनाशकारी होगी।”ज्ञान हासिल करना और अपने जीवन को अपनी पसंद के दर्शन के आधार पर संचालित करना है।''
बेंच ने इस बात पर भी रोशनी डाली कि यदि जनहित याचिका का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि मदरसा शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों में भाषाओं के अलावा गणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन और इतिहास जैसे मुख्य विषयों में धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए तो इसका समाधान मदरसा अधिनियम के प्रावधानों को रद्द करने से नहीं होगा बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त निर्देश जारी किए जाने चाहिए कि इन संस्थानों में शिक्षा हासिल करने वाले छात्र शिक्षा की गुणवत्ता से वंचित न हों जो राज्य द्वारा अन्य संस्थानों में उपलब्ध कराई जाती है।
बेंच ने कहा कि, “यह सुनिश्चित करने में राज्य का वैध सार्वजनिक हित है कि जो छात्र सभी संस्थानों में शिक्षा हासिल करते हैं, चाहे प्राथमिक, माध्यमिक या उच्च स्तर पर हों, उन्हें गुणात्मक मानक की शिक्षा हासिल करनी चाहिए जो उन्हें डिग्री हासिल करने के बाद एक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए योग्य बनाती है। क्या इस उद्देश्य के लिए 2004 में राज्य विधायिका द्वारा लागू किए गए पूरे क़ानून को ख़त्म करने की जरूरत है, इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए था।”
पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय का आदेश, मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों के भविष्य के पाठ्यक्रम पर गंभीर प्रभाव डालेगा।
अंत में, खंडपीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय का आदेश मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों के भविष्य के पाठ्यक्रम पर गंभीर प्रभाव डालेगा।
बेंच ने कहा कि, “लगभग 17 लाख छात्र इन संस्थानों में शिक्षा हासिल कर रहे हैं। हालांकि यह पूरी तरह से छात्रों और अभिभावकों की पसंद है कि वे उन संस्थानों को चुनें जिनमें छात्र अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहते हैं, हमारा विचार है कि छात्रों के स्थानांतरण के लिए उच्च न्यायालय का विवादित निर्देश, प्रथम दृष्टया न्यायसंगत नहीं था।“
उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाते हुए, खंडपीठ ने राज्य सरकार को उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर अपना जवाबी हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने मामले की सुनवाई को जुलाई 2024 के दूसरे सप्ताह में अंतिम निपटान के लिए सूचीबद्ध किया है।
सौजन्य: द लीफ़लेट
मूल अंग्रेजी लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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