दिल्ली दंगे के 3 साल: हिंसा में विधवा हुईं महिलाओं के सामने ज़िंदगी की जद्दोजहद !
एडिटर नोट : उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी 2020 में हुए दंगों की तीसरी बरसी पर, न्यूज़क्लिक एक सीरीज़ प्रकाशित कर रहा है। यह हमारी पांच-भागों वाली सीरीज़ की तीसरी स्टोरी है। पिछली स्टोरीज़ यहां पढ़ें : पहली स्टोरी, दूसरी स्टोरी
'जय श्री राम' और 'भारत माता की जय' के नारों से आज भी मल्लिका बुरी तरह सहम जाती हैं। यह उन्हें 25 फरवरी, 2020 की भयानक घटना की याद दिलाता है, जब एक जानलेवा भीड़ उत्तर-पूर्वी दिल्ली के भागीरथी विहार में एक इमारत की तीसरी मंजिल पर स्थित उनके फ्लैट में घुस गई और उनके पति मुशर्रफ को मौत के घाट उतार दिया। शायद ये उनकी (हिंसक भीड़) खून की प्यास बुझाने के लिए काफी नहीं था। वह कहती हैं, “उन्होंने उनके शरीर को नीचे घसीटकर उतारा, उन्हें आग लगा दी और जले हुए हिस्से को पास के नाले में फेंक दिया।”
उनकी पत्नी को उनके मकान मालिक ने पहले ही बता दिया था कि नौजवान लड़कों की भीड़ घर-घर जाकर मुस्लिम आदमी को ढूंढकर मार रही है इसलिए वो बेड के पीछे छिपे हुए थे जहां से दंगाइयों ने उन्हे खींच लिया था।
तीनों बच्चों की मां मल्लिका ने अपने कांपते हुए हाथ और घुटती हुई आवाज़ में बताया, “उन्होंने उन्हें मार डाला और उनके शरीर को हमारे सामने जला दिया। वे इतने हिंसक थे कि मेरी 12 साल की बेटी के बार-बार रहम की गुहार लगाने पर भी उनका दिल नहीं पसीजा। हमने उनसे इंसानियत की खातिर उन्हें बख्श देने की गुहार लगाई, लेकिन उन्होंने कहा कि 'मुस्लिम इंसान ही नहीं हैं'।”
अपने पति की जघन्य हत्या के बाद भी, उनके लिए भय और यातना का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ था। अपनी और अपने बच्चों की जान पर मंडराते खतरे को भांपते हुए उन्होंने घर से भागने का फैसला किया। उन्होंने अपने माथे पर 'सिंदूर' लगाया ताकि रास्तों पर दंगाई भीड़ उन्हें एक हिंदू समझे और वह सुरक्षित वहां से बाहर निकल जाएं।
उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “जैसे ही मैं अपने बच्चों (एक बेटी और एक बेटे) के साथ बाहर निकली, हमारी हिंदू पहचान पर संदेह करते हुए, एक और भीड़ ने हमें रोक लिया। उन्होंने मेरे नन्हे बेटे की पैंट की ज़िप खोली ताकि यह देखा जा सके कि उसका खतना हुआ है या नहीं। जब उन्हें पता चला कि हम मुसलमान हैं तो उन्होंने हम सभी पर हमला कर दिया। लेकिन हम किसी तरह बाल-बाल बच गए।”
वे दंगों के बाद पास ही उत्तर प्रदेश के लोनी चले गए थे, लेकिन अब गोकुलपुरी में किराए के घर मे आ गए हैं।
उन्होंने कहा, “दंगाइयों ने हमारे घर में कुछ भी नहीं छोड़ा। हमारे पास जो कुछ भी था या तो टूट गया या लूट लिया गया। और इसलिए, हमें शिफ्ट होना पड़ा।”
फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों में अपने परिवार के एकमात्र कमाने वाले (पेशे से ड्राइवर) को खोने के बाद, मल्लिका तमाम तरह की अनिश्चितताओं और आर्थिक कठिनाइयों से निपटने के लिए सभी बाधाओं से लड़ रही हैं।
उन्हें मुआवज़े के रूप में 10 लाख रुपये मिले, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति अभी भी गंभीर बनी हुई है। उन्होंने कहा, “मुआवज़े के रूप में जो राशि मुझे मिली उसका एक बड़ा हिस्सा मेरी सबसे बड़ी बेटी जो 2020 में 18 साल की थी, की शादी पर खर्च हो गया। जीवन को नए सिरे से शुरू करने के लिए अच्छी खासी रकम खत्म हो गई थी। मेरे दो बच्चे (6 साल का बेटा और 15 साल की बेटी) हैं जिनकी देखभाल करनी है इसलिए मैं कारखानों में काम करती थी लेकिन कोरोना महामारी के बाद से कोई मुझे नौकरी नहीं दे रहा है। मुआवज़े का जो पैसा बचा है, उसी से हमारा गुज़ारा चल रहा है। अगर मुझे नौकरी नहीं मिली, तो जल्द ही सब खत्म हो जाएगा।”
पुलिस ने इस मामलें मे नौ लोगों को गिरफ्तार किया था और मामले में चार्जशीट दाखिल कर चुकी है।
इस संघर्ष में मल्लिका अकेली नहीं हैं। हिंसा के दौरान 15 से अधिक महिलाएं विधवा हो गईं। उनमें से अधिकांश ने शिकायत की कि दिल्ली सरकार द्वारा उन्हें दिया गया 10 लाख रुपये का मुआवज़ा पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह राशि सांप्रदायिक आग में खत्म हुए घरों के पुनर्निर्माण में खत्म हो गई।
साल 2020 में 23 से 27 फरवरी तक लगभग चार दिनों तक जारी सांप्रदायिक हिंसा में 53 से अधिक लोगों (38 मुस्लिम पीड़ित और 15 हिंदू) ने अपनी जान गंवाई और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता कपिल मिश्रा और अन्य लोगों के भड़काऊ भाषण और भीड़ को उकसाने वाले वीडियो सबूत के बाद भी सरकार ने हिंसा को 'अपने आप हुई (Spontaneous) घटना' बताई।
दंगाइयों ने मारी गोली, परिवारों को किया अकेला
पैंतीस वर्षीय इमराना और उनकी आठ बेटियों के जीवन में सबकुछ सामान्य था लेकिन 25 फरवरी, 2020 को मौजपुर में दंगाइयों द्वारा गोली मारकर जब उनके पति मोहम्मद मुदस्सिर खान (37) की हत्या कर दी गई, उसने सबकुछ बदल दिया।
इमराना ने बताया, “मौत के आधे घंटे पहले उन्होंने मुझे फोन पर बताया कि इलाके में हिंसा भड़क गई है और लोग पथराव कर रहे हैं। वह पास के कर्दमपुरी में अपने दोस्त के साथ रुक गए थे। अगले दिन (25 फरवरी) उन्होंने एक बार फिर फोन किया और बताया कि स्थिति और खराब हो गई है। मैंने उन्हें कहा कि वह बाहर न निकले और वहीं रहें। दोपहर करीब 1:30 बजे हमारे बीच वीडियो कॉल हुई। वह बहुत घबरा रहे थे और अपने बच्चों के पास लौटना चाहता थे। मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की और उन्हें यहां नहीं आने के लिए कहा क्योंकि हिंसा ने लगभग सभी इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया था।”
उनकी बातचीत के करीब 30 मिनट बाद किसी ने इमराना को फोन पर बताया कि मुदस्सिर को गोली लगी है।
उन्होंने बताया, “मैंने जल्द ही उन्हे फोन किया लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया, किसी और ने फोन उठाया। जवाब देने वाले व्यक्ति ने पुष्टि की कि मेरे पति को गोली मार दी गई है और उन्हें इलाज के लिए गुरु तेग बहादुर अस्पताल ले जाया गया। लेकिन हकीकत में गोली लगने के कुछ मिनट बाद ही उनकी मौत हो गई थी।”
इमराना ने बताया, “चूंकि हिंसा हर जगह (ट्रांस-यमुना क्षेत्र में) फैल गई थी, वह हमारे लिए चिंतित थे; और इसलिए, हमारे मना करने के बावजूद वह वापस लौट रहे थे।”
मुदस्सिर का कबाड़ का फलता-फूलता कारोबार था। उनकी मौत के बाद परिवार में कमाने वाला कोई नहीं है। उनका कारोबार उनके छोटे भाई ने अपने हाथो में ले लिया है जो कथित तौर पर अपनी विधवा भाभी (इमराना) को एक पैसा भी नहीं देता है। शुरुआत में वह उन्हें हर महीने 15,000 रुपये देता था लेकिन कथित तौर पर एक साल बाद यह भी बंद कर दिया है।
उन्होंने दावा किया, “मुझे वह पैसा भी नहीं मिला था जो लोगों ने मदद के रूप में दिया था क्योंकि मेरा कोई बैंक खाता नहीं था इसलिए उन्होंने (देवर) बड़ी चालाकी से एक जॉइंट खाता खुलवाया था और मदद के रूप में जो पैसे आए उसे उन्होंने निकाल लिया हालांकि ये बात मुझे काफी बाद में पता चली। इसके बाद काफी बहस के बाद उन्होंने मुझे कुछ पैसे लौटाए।”
कुछ एक्टिविस्ट्स के समर्थन से, इमराना ने हाल ही में मुस्तफाबाद में अपने पति की चार मंज़िला इमारत के ग्राउंड फ्लोर पर ब्यूटी पार्लर खोला था। उन्होंने सोचा कि इससे उन्हें कुछ आर्थिक मदद मिलेगी लेकिन उनके ससुराल वालों ने कथित तौर पर इसकी भी अनुमति नहीं दी और परिणामस्वरूप, उन्हें इसे बंद करना पड़ा।
उन्होंने कहा, “मेरी दूसरी बड़ी बेटी फ़िज़ा ने ब्यूटीशियन का कोर्स किया है इसलिए मैंने ब्यूटी पार्लर खोला था। लेकिन मेरे ससुराल वालों को यह मंज़ूर नहीं था। मुझे उम्मीद है कि उसे कोई सम्मानजनक नौकरी मिल जाएगी जिससे वो अपनी पढ़ाई मैनेज कर सकेगी और साथ ही परिवार की मदद कर पाएगी।”
इमराना और उनकी बेटी फ़िज़ा
इमराना ने आगे कहा कि उन्हें अपना घर खोने खोने का डर भी सता रहा है। “मेरे ससुराल वाले चाहते हैं कि मैं घर खाली कर दूं और अपने माता-पिता के घर लौट जाऊं जबकि इस पूरे घर को मेरे पति ने बनवाया था और इसमें उनका भी हिस्सा है।” ये सब बताते हुए वो टूट गईं और रोने लगीं।
उनकी सबसे बड़ी बेटी दिल्ली के एक नामी प्राइवेट स्कूल में बारहवीं कक्षा में पढ़ती हैं। वह स्कूल के छात्रावास में रहती हैं जिसका खर्च 'जमात-ए-इस्लामी हिंद द्वारा' वहन किया जाता है।
इमराना अपने पुलिस केस के स्टेटस से पूरी तरह अनजान है। पुलिस ने कथित तौर पर न तो उनका बयान दर्ज किया और न ही उन्हें कभी किसी अदालत में पेश किया गया।
उन्होंने कहा, “मेरे ससुराल वाले केस को देख रहे थे। मेरे पास कोई जानकारी नहीं है।”
इस मामले पर न तो उनके ससुर और न ही देवर कुछ बोलना चाहते थे। पुलिस ने भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया, पुलिस का तर्क है कि ऐसे सभी मामले न्यायालय मे विचारधीन हैं और इसलिए, उनके लिए टिप्पणी करना नैतिक नहीं होगा।
इस मामले की FIR (0094/2020) दिनांक 26 फरवरी 2020 को वेलकम थाने में अज्ञात लोगों के खिलाफ दर्ज की गई थी। यह FIR जीटीबी अस्पताल द्वारा जारी एक MLC (मेडिको-लीगल केस) का हवाला देती है जिसमें कहा गया है कि मृत मुदस्सिर को मुख्य कैजुअल्टी (Main Casualty) में बेहोश और संदिग्ध अवस्था में लाया गया था और इन्हें कबीर नगर, गली नंबर 1 में 25/02/2020 को दोपहर 12 बजे बेहोशी की हालत में पाया गया था।”
न्यूज़क्लिक ने FIR हासिल की जिसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) और आर्म्स एक्ट के सेक्शन 27 की धारा 302 (हत्या) और 307 (हत्या का प्रयास) के तहत FIR दर्ज की गई है।
अकेला जीवन-एक संघर्ष
बृजपुरी के निवासी प्रेम सिंह के लिए 25 फरवरी की सुबह अपनी तीन मासूम बेटियों के लिए दूध लेने घर से बाहर निकलना जानलेवा साबित हुआ। बाहर की खतरनाक स्थिति से "अनजान" वह सुबह 7-8 बजे के बीच निकले और फिर कभी नहीं लौटे।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनकी 25 वर्षीय पत्नी सुनीता ने उन्हें फोन करना शुरू कर दिया, लेकिन उनका फोन नहीं लग रहा था।
सुनीता को काम की वजह से बाहर जाने पर अपनी दो छोटी बेटियों को 'एक कमरे वाले' किराए के मकान में अकेला छोड़ना पड़ता है।
सुनीता ने बताया, “जब वह शाम 4 बजे तक वापस नहीं आए, तो मैंने उनकी तलाश शुरू की। मैं उन सभी जगहों पर गई जहां वह अक्सर जाया करता थे। यह सोचकर कि शायद हिंसा में उन्हें चोटें आई होंगी, मैंने उन्हें जीटीबी अस्पताल में भी ढूंढा लेकिन उनका कुछ पता नहीं चल रहा था और आखिरकार, मैं अपनी मकान मालकिन के साथ पुलिस के पास गई जिसने मेरी शिकायत दर्ज करने से मना कर दिया।”
उन्होंने कहा कि जब उनकी कहानी मीडिया में आई उसके बाद पुलिस ने गुमशुदगी की शिकायत दर्ज की। 29 फरवरी को पुलिस ने उन्हें जीटीबी अस्पताल के मुर्दाघर में उस दिन मिले एक शव की पहचान करने के लिए बुलाया।
उन्होंने कहा, “वहां उन्हीं की बॉडी थी।” आगे उन्होंने कहा कि वह उस पल को कभी याद नहीं करना चाहेंगी।
सुनीता ने कहा, “तलाश के दौरान मैंने एक सेकेंड के लिए भी इसकी कल्पना नहीं की थी। मुझे ऐसा लगा जैसे सब कुछ ताश के पत्तों की तरह बिखर गया। मेरा सबकुछ खो गया था। मेरे तीन बच्चे थे और उस समय चौथा बच्चा पेट में (सुनीता उस समय गर्भवती थीं) था। मैं अकेले उनकी देखभाल कैसे करूंगी? वे कैसे पढ़ेंगे? उन्हें कौन खिलाएगा क्योंकि परिवार का अकेला कमाने वाला सदस्य अब नहीं रहा। ये वो सवाल थे जो मैं खुद से पूछ रही थी।” ये सब बताते हुए उनके चेहरे पर उदासीन भाव थे।
सुनीता को 20 लाख रुपये मिले (10 लाख रुपये सरकार से और अन्य 10 लाख रुपये डोनेशन के रूप में), जिसे उन्होंने अपने बच्चों के भविष्य के लिए फिक्स्ड डिपॉजिट के रूप में सरकारी बैंक में निवेश किया है। वह रोजी-रोटी कमाने के लिए घरेलू सहायिका का काम करती हैं।
उनकी दो बड़ी बेटियां स्कूल जाती हैं, और जब वह काम पर बाहर जाती हैं तो उन्हें अपनी दो छोटी बेटियों को एक कमरे वाले किराए के मकान में अकेले छोड़ना पड़ता है।
जब हमने उनसे पूछा कि वह अपने काम के साथ-साथ अपने पारिवारिक जीवन को कैसे संभालती हैं, तो उन्होंने कहा, “एक मां के लिए अपने बच्चों को छोड़ना बहुत मुश्किल है, वो भी तब जब वो इतने छोटे (नवजात शिशु) हैं, लेकिन मेरे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।”
प्रेम सिंह और सुनीता अपनी एक बेटी के साथ।
उनका ससुराल उत्तर प्रदेश के कासगंज में है।
यह पूछे जाने पर कि वह इतने लोगों की मौतों और तबाही के लिए किसे ज़िम्मेदार मानती हैं, उनका त्वरित जवाब था-‘नेता’
उन्होंने विस्तार से बताया, “मुझे नहीं पता कि मेरे पति को किसने मारा इसलिए, मैं इसके लिए किसी को दोष नहीं दूंगी। लेकिन मैं जानती हूं कि उन्होंने (राजनीतिक नेताओं ने) अपने फायदे के लिए ये आग लगाई थी। अगर उन्होंने लोगों को नहीं भड़काया होता तो आज मेरे पति ज़िंदा होते।”
सुनीता को अपने केस के स्टेटस के बारे में कुछ नहीं पता। वह कहती हैं, “बयान दर्ज कराने के लिए मेरे पास कभी कोई पुलिस अधिकारी नहीं आया और न ही मुझे किसी अदालत ने बुलाया।”
सूत्रों के मुताबिक पुलिस ने प्रेम सिंह की हत्या के मामले में कर्दमपुरी से चार लोगों को गिरफ्तार किया है लेकिन इस बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। सुनीता ने कोई वकील नहीं रखा है।
न्याय-एक हारी हुई लड़ाई
'सायबा' को सबसे ज़्यादा दुख इस बात का है कि अंतिम विदाई से पहले वह अपने पति आस मोहम्मद का चेहरा तक नहीं देख पाईं। 25 फरवरी की सुबह 30 साल के मोहम्मद 'बीड़ी खरीदने' के लिए निकले, फिर कभी नहीं लौटे।
उनके लापता होने के पांच दिन बाद 1 मार्च को गोकुलपुरी के नाले (गोकुलपुरी पुलिस स्टेशन के पीछे एक नाला) से उनकी बॉडी को निकाला गया। उनका पेट फूला हुआ था, शरीर में सूजन थी, धड़ के पास गहरा घाव था, उनके एक गाल में छेद और दाहिनी कनपटी पर एक चीरे जैसे निशान था।
वह उन तीन अज्ञात शवों में से था जो जीटीबी अस्पताल की मोर्चरी (मुर्दाघर) में कई दिनों से पड़े हुए थे। उनके परिवार के सदस्यों को उनके लापता होने के 13 वें दिन 9 मार्च को उनका शव मिला था, वो भी तब, जब वे गोकुलपुरी पुलिस स्टेशन पहुंचे, जहां नालों से बरामद लोगों की तस्वीरें थीं।
सायबा को सबसे ज़्यादा दुख इस बात का है कि अंतिम विदाई से पहले वह अपने पति आस मोहम्मद का चेहरा तक नहीं देख पाईं
उन्हें मोर्चरी में पड़े शवों को देखने के लिए कहा गया, यहां लाशें सड़ चुकी थीं और पहचान कर पाना बेहद मुश्किल था लेकिन आस मोहम्मद ने जो हरे रंग की जैकेट, काली पैंट और चेन पहन रखी थी, उससे पहचान करने में मदद मिली।
आगे उन्होंने बातचीत में बताया, “लापता होने के बाद उनसे संपर्क नहीं हो सका क्योंकि वह फोन घर पर ही छोड़ गए थे। उनके पास कोई पहचान पत्र भी नहीं था। उनके परिवार ने ऑनलाइन शिकायत दर्ज करने की कोशिश की, लेकिन इसे ‘रिजेक्ट’ कर दिया गया। परिवार वाले उनकी तलाश के लिए बाहर नहीं जा सके क्योंकि उस शाम दिल्ली पुलिस ने देखते ही गोली मारने का आदेश जारी कर दिया था क्योंकि हिंसा अपने चरम पर थी।”
दूसरा ये कि परिवार थाने जाकर शिकायत दर्ज कराने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि उन्हें कानून लागू करने वालों (पुलिस) में "विश्वास की कमी" थी और उस समय यह अफवाह भी थी कि दंगाई, पुलिस स्टेशन जाने वाले मुस्लिम चेहरों को पर पकड़ रहे थे।
इसलिए, पहले पुलिस से संपर्क करने के बजाय, उन्होंने कुछ दिनों बाद अस्पतालों में खोज शुरू की। 30 वर्षीय सायबा ने न्यूज़क्लिक को बताया, “हम कई बार जीटीबी अस्पताल गए, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली।”
उन्होंने बताया कि मोबाइल पर फोन आने के बाद वह घर से निकल गए थे। हमने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा भी हो सकता है। इस हिंसा में सिर्फ निर्दोष लोग मारे गए हैं।
न्यू मुस्तफाबाद के शक्ति विहार में रहने वाले आस मोहम्मद कपड़े की फेरी लगाते थे। उन्होंने कहा कि तीन साल बाद भी उनके बच्चों को विश्वास नहीं होता कि उनके पिता अब नहीं रहे। वे अक्सर उन्हे याद करते हुए रोने लगते हैं।
उनका सबसे बड़ा बेटा रेहान और बेटी सोनम (तीन भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर) एक प्राइवेट स्कूल में जाते हैं। जबकि उनकी सबसे छोटी बेटी साइमा जन्मजात सुनने की समस्या से पीड़ित है और बोल भी नहीं सकती।
जब सायबा ने अपने ससुराल वालों को मुआवज़े में मिले 10 लाख रुपये की राशि देने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने कथित तौर पर उनके साथ बुरा व्यवहार किया और दूरी बना ली। उन्हें मजबूरन दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करना शुरू करना पड़ा। वह जीवनयापन के लिए फेस मास्क बना रही थी, लेकिन 'असहनीय' सिरदर्द की समस्या होने के बाद उन्हें ये काम बंद करना पड़ा।
आस के शव को जीटीबी अस्पताल के मुर्दाघर में रखने से पहले आरएमएल अस्पताल में उसका पोस्टमॉर्टम किया गया।
सायबा ने कहा कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने से पहले ही पुलिस इस नतीजे पर पहुंच गई थी कि उनकी मौत नशे के कारण हुई है और उनके शरीर पर कोई चोट नहीं है। FIR में कहा गया है कि उनके शरीर पर 'एविल' की एक बोतल और एक 'सिरिंज' मिली थी।
हालांकि, पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से पता चला कि उनकी मौत खतरनाक हथियारों से सिर पर जानलेवा हमला करने से कारण हुई है। इसमें कहा गया है कि सबूत नष्ट करने के उद्देश्य से दंगाइयों ने शव को नाले में फेंक दिया था।
पुलिस ने IPC की धारा 147, 148, 149, 302, 201 के तहत 'अज्ञात दंगाइयों' के खिलाफ दंगा, गैरकानूनी सभा, हत्या और सबूत नष्ट करने का मामला दर्ज किया।
आस के ड्रग एडिक्ट होने के दावे को खारिज करते हुए उन्होंने आरोप लगाया कि शव की बरामदगी के बाद से ही इस मामले में 'लीपापोती' शुरू हो गई है।
घटना की जानकारी रखने वालों ने दावा किया कि 25 फरवरी की रात जौहरीपुर-भागीरथी विहार पुलिया जहां आस मिले थे वहां दिल्ली पुलिस के साथ-साथ केंद्रीय रिज़र्व बलों की तैनाती थी। उनके मुताबिक उस भायवह रात और अगले 24 घंटों के भीतर कम से कम सात अन्य लोग मारे गए और उन्हें नाले में फेंक दिया गया था।
नाम न बताने की शर्त पर उन्होंने दावा किया कि, “दिल्ली पुलिस यह अच्छी तरह से जानती थी कि अपराधी कौन थे, लेकिन उन्होंने 'अज्ञात लोगों' के खिलाफ FIR दर्ज करके उन्हें बचाया। अगर वर्दीधारी चाहते तो दंगाइयों को खदेड़ सकते थे लेकिन जब भीड़ हिंसक हो रही थी तो वे सिर्फ खड़े रहे।
सायबा ने कहा कि उनके पास पुलिस केस के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
शुभचिंतकों ने दिया धोखा ?
32 साल की नीतू सैनी ने हमेशा साथ रहने के इरादे के साथ 33 साल के नरेश सैनी से शादी की थी लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। 7 फरवरी, 2020 को उन्होंने अपनी शादी की नौवीं सालगिरह मनाई जिसके कुछ दिनों बाद, उन्हें (नरेश) 25 फरवरी को सुबह करीब 3:30-4.00 बजे दंगाइयों ने गोली मार दी गई और बाद में उन्होंने दम तोड़ दिया।
नीतू सैनी के पति की 2020 में अपनी नौवीं शादी की सालगिरह मनाने के कुछ दिनों बाद हिंसा में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी।
उन्होंने उन दिनों को याद करते हुए कहा, “24 फरवरी की शाम से ही तनाव चरम पर था। यहां रहने वाले लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सभी लोग हमारी गली (शाहदरा के पास ब्रह्मपुरी में) पर निगरानी रख रहे थे। मेरे पति भी उनमें से एक थे। उनके लौटने के बाद हमने साथ में खाना खाया। उन्होंने मुझसे कहा कि हमें सतर्क रहना होगा। तड़के ही बाहर हंगामा हो गया। हिंसा भड़क उठी थी। इससे पहले कि मैं उन्हें रुकने की सलाह देती, वह अपने बड़े भाई के साथ हमारी गली के मेन गेट से थोड़ा आगे निकल गए। जल्द ही, एक गोली उनके शरीर में लग गई और बहुत सारा खून निकलने लगा।”
उन्हें जीटीबी अस्पताल ले जाया गया जहां उनका 10 दिनों तक इलाज चला। उन्होंने 5 मार्च को अंतिम सांस ली।
उन्होंने आरोप लगाया कि इलाज में 'लापरवाही' के कारण नरेश की मौत हो गई। “डॉक्टरों ने हमें बताया कि उन्होंने गोली निकाल दी थी, लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि गोली रीढ़ की हड्डी में फंसी हुई थी। वह मरते दम तक बेहोश रहे। अगर ईमानदारी के साथ उनका इलाज किया जाता तो वह ज़िंदा होते।”
तीन साल बाद, उनकी विधवा नीतू राजनैतिक नेताओं के बड़े-बड़े वादों के बावजूद बेसहारा हो गई हैं।
“अजय महावर जी (गोंडा विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक) के साथ मनोज तिवारी जी (उत्तर-पूर्वी दिल्ली से भारतीय जनता पार्टी के सांसद) भी हमारे यहां मिलने आए थे।
उन्होंने एक लाख रुपये की आर्थिक मदद के अलावा मुझे नौकरी देने का वादा किया था। मुझे स्थानीय विधायक के कार्यालय में ज़रूरी कागज़ात जमा करने के लिए कहा गया था। मैंने हामी भर दी लेकिन उसके बाद कुछ नहीं हुआ। सांसद की तो बात ही छोड़िए, विधायक के निजी सहायक भी अब मेरा फोन नहीं उठाते हैं।”
उन्होंने कहा कि वह उन लोगों और उस पार्टी से विश्वासघात महसूस करती हैं जिस पर उन्होंने भरोसा किया था। किसी का नाम लिए बिना उन्होंने कहा, “जो लोग हिंदू धर्म के चैंपियन होने का दावा करते हैं, वे पिछले तीन सालों में पीड़ित परिवारों की ओर पलटकर देखने लिए भी कभी नहीं आए। उन्होंने सिर्फ निर्दोष लोगों की जान की कीमत पर अपना राजनीतिक करियर बनाया। यह विश्वासघात के अलावा और कुछ नहीं है।”
नरेश की मौत के बाद, जीवनयापन के लिए नीतू अपने पति की अस्थायी सब्जी की दुकान चला रही हैं। वह कहती हैं, “दिल्ली सरकार से विधवा पेंशन के रूप में 2,500 रुपये और कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एम) की तरफ से बच्चों के लिए 1,000 रुपये की मासिक छात्रवृत्ति प्राप्त करने के अलावा, मैं सब्जी की दुकान से थोड़ी-बहुत राशि कमा पाती हूं। मैं कुछ घंटों के लिए ही दूकान लगा पाती हूं।”
उन्होंने अपने दो बच्चों (एक दस साल और एक नौ साल की बेटी) की आगे की पढ़ाई के लिए मुआवज़े के रूप में मिले 10 लाख रुपये जमा किए हैं।
वह अपने बच्चों के साथ ब्रह्मपुरी में अपने पति और उनके भाइयों के जॉइंट मालिकाना हक वाले 42 गज़ ज़मीन पर बने चार मंज़िला इमारत के ग्राउंड फ्लोर पर एक कमरे के मकान में रहती हैं।
पुलिस ने हत्या के संबंध में FIR दर्ज की थी, लेकिन मृतक के परिवार को केस के स्टेटस के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उन्होंने कहा, “न तो मुझे और न ही मेरे ससुराल वालों को पता है कि जांच में क्या हुआ, अदालत में क्या चल रहा है और मामला कैसे आगे बढ़ रहा है।” उन्होंने कहा कि वह पुलिस, सरकार और बड़बोले नेताओं को याद दिलाती रहेंगी कि वे न्याय सुनिश्चित करने और अपराधियों को गिरफ्तार करने में “विफल” हुए।
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