सांप्रदायिक खोल में एक वर्गीय एजेंडा
विरासत कर के मुद्दे पर भाजपा का रुख, इसका एक स्पष्ट उदाहरण है कि फासीवादी संगठन किस तरह से काम करते हैं। यह एक जाना-माना तथ्य है कि नव-उदारवादी दौर में आय तथा संपदा की असमानता में भारी बढ़ोतरी हुई है। वास्तव में यह परिघटना कोई भारत तक ही सीमित नहीं रही है। यह तो एक अंतर्राष्ट्रीय परिघटना है जिस पर पिछले काफी अर्से से उच्च पूंजीवादी हलकों में बहस होती रही है। मिसाल के तौर पर विश्व आर्थिक फोरम में बार-बार इसकी जरूरत का जिक्र किया जाता रहा है कि इस असमानता को घटाने के लिए, कुछ न कुछ प्रतिसंतुलनकारी कदम उठाए जाने की जरूरत है।
बढ़ती असमानता और भारतीय पूंजीपति
दूसरे शब्दों में दुनिया के सबसे धनवान तक इसे पहचान रहे हैं कि संपदा तथा आय की असमानता में बेरोक-टोक बढ़ोतरी से, पूंजीवाद के भविष्य के लिए खतरा पैदा हो रहा है। इसी को पहचान कर कुछ अर्सा पहले अनेक अमेरिकी अरबपतियों ने एक बयान जारी कर यह सुझाव दिया था कि उन पर तथा अन्य धनवानों पर, कहीं ज्यादा कर लगाया जाना चाहिए।
लेकिन, भारत के धनवानों में और कम से कम वर्तमान दौर के धनवानों में तो जरूर ही, इस तरह की दूरदर्शिता का घोर अभाव है। उन्हें तो यह लगता है कि उनके लिए तो एक फासीवादी संगठन को समर्थन देना ही काफी है, जो धार्मिक-सांप्रदायिक तुरुप का इस्तेमाल कर के चुनाव जीत सकता है और फिर उनके बोलबाले के लिए किसी भी चुनौती को कुचलने के लिए, घोर तानाशाहीपूर्ण कदमों का सहारा ले सकता है। इतना ही, संपदा व आय में उनके हिस्से का अनंतकाल तक बढ़ते रहना सुनिश्चित करने के लिए काफी है। एक वक्त था जब भारतीय पूंजीपतियों के बीच जीडी बिड़ला जैसे नेतृत्वकारी तत्व देश के पूंजीपतियों को इसकी सलाह दिया करते थे कि अपनी संपदा का दिखावा करने से बचें। लेकिन, वह ऐसा दौर था जब पूंजीपति वर्ग को इसका डर हुआ करता था कि जनता विरोध में उठ खड़ी होगी। लेकिन, अब वह स्थिति नहीं है। आज पूंजीपति वर्ग के नेताओं को जनता की नाराजगी का डर नहीं रह गया है। उन्हें यकीन है कि हिंदुत्ववादी तत्वों के साथ उनका गठजोड़, संपदा में उनके अनुचित रूप से बड़े हिस्से के चलते पैदा होने वाली, उनके वर्चस्व के लिए किसी भी चुनौती को विफल कर देता। और हिंदुत्ववादी तत्वों ने विरासत कर के प्रस्ताव के साथ जिस तरह का सलूक किया है, उससे इसका कुछ अंदाजा लग जाता है कि पूंजीपति इतने निश्चिंत क्यों हैं?
संपदा असमानता और संपदा कर
संपदा की असमानताओं पर हमला करने का सबसे स्वतः स्पष्ट तरीका तो यही है कि एक प्रगतिशील संपदा कर लगाकर, उससे मिलने वाले संसाधनों का उपयोग गरीबों के लिए हितकारी खर्चों के लिए किया जाए और यह कुछ सार्वभौम आर्थिक अधिकार स्थापित करने के जरिए किया जाए। हमने कुछ समय पहले यह अनुमान प्रस्तुत किया था कि यह पूरी तरह से व्यावहारिक है कि ऐसे पांच अधिकार स्थापित करने के लिए जरूरी संसाधन, भारत की सबसे धनी 1 फीसद आबादी पर 2 फीसद का संपदा कर और 1 फीसद विरासत कर लगाने के जरिए जुटाए जाएं। थॉमस पिकेट्टी और उनके साथियों ने भी, जो बढ़ती असमानता के खतरों पर कुछ समय से लिखते आ रहे हैं, पिछले ही दिनों यह सुझाया था कि भारत में 2 फीसद संपदा कर और 10 करोड़ से अधिक की तमाम शुद्ध संपदा पर, एक-तिहाई विरासत कर लगाया जाए। उनका, संपदा कर के साथ-साथ, विरासत कर को भी जोड़ना महत्वपूर्ण है। वास्तव में अगर किसी संपदा कर के जरिए, संपदा असमानता घटानी हो, तो इसके पूरक के तौर पर संपदा कर लगाना होगा ताकि संपदा को कर के जाल से बच निकलने से रोका जा सके।
इन कदमों को तो पूंजीवादी सिद्धांत के भी आधार पर सही ठहराया जा सकता है। विरासत में मिली संपदा को तो किसी भी तरह से वे लोग भी अर्जित साबित नहीं कर सकेंगे, जो किसी को संपदा मिलने को इस दलील से उचित ठहराते हैं कि यह तो अर्जन का फल है। अगर बाप की संपदा को इस आधार पर उचित ठहराया जाता है कि यह उसने कमाई है, तो बेटे के उसी संपदा को रखने को कमाई की उसी दलील से कैसे उचित ठहराया जा सकता है? दूसरे शब्दों में विरासत में मिलने वाली संपदा शुद्ध रूप से आंधी के आम वाला मामला है, जो किसी भी व्यक्ति के हाथ, उसका जन्म कहां हुआ है इसके शुद्ध संयोग से लग जाती है और इसे तो पूंजीवादी सिद्धांत तक उचित नहीं ठहरा सकता है। इसीलिए, अधिकांश विकसित देशों में, मृत्यु शुल्कों के रूप में तगड़ा विरासत कर लगाया जाता है। मिसाल के तौर पर जापान में विरासत कर 55 फीसद तक जाता है। लेकिन, हैरान करने वाली बात यह है कि भारत में कोई विरासत कर है ही नहीं।
भाजपा का झूठ का अभियान
इस स्थिति के बेतुकेपन को ऐसे लोग भी पहचान रहे हैं, जो किसी भी प्रकार से न तो वामपंथी हैं और न ही नव-उदारवादी एजेंडा के विरोधी हैं। वास्तव में एक अनिवासी, तकनीकी-प्रेमी कांग्रेसी, सेम पित्रोदा ने ही पिछले दिनों विरासत कर लगाने का विचार पेश किया था और भाजपा का नेतृत्व उस पर ऐसे टूट कर पड़ा था, जैसे पूरी की पूरी छत आ गिरी हो। जाहिर है कि भारत के अति-धनिक इस विचार से ही डर गए और अति-धनिकों की हिमायती होने के नाते भाजपा को तो इस विचार पर ही हमला करने के जरिए, उनके बचाव में आगे आना ही था। लेकिन, उसने उनका बचाव जिन अनेक आधारों पर किए जाने की अपेक्षा थी, उनमें से किसी पर नहीं किया। मिसाल के तौर पर वह इसकी दलील दे सकती थी कि इस तरह के कर को लागू करना मुश्किल होगा या यह दलील दे सकती थी कि इससे पूंजीपतियों के लिए प्रोत्साहन खत्म हो जाएगा या कह सकती थी कि इससे ऐसा माहौल बनेगा जिसमें वैश्विक वित्तीय पूंजी डर जाएगी और भारत में आने से परहेज करने लगेगी और इससे हमारे देश की भुगतान संतुलन की स्थिति नाजुक हो जाएगी, आदि। इसके बजाए उसने इस विचार पर एक पूरी तरह से फर्जी और घोर सांप्रदायिक-फासीवादी दलील के आधार पर हमला बोल दिया कि इस तरह का कर लगाने का मतलब होगा, हिंदुओं से धन छीनकर, मुसलमानों के दे देना! अपनी इस शरारतपूर्ण झूठी गढ़ंत में, भावुकता का तड़का और लगाने के लिए, उसने इसमें ऊपर से यह और जोड़ दिया कि इस तरह का कर, हिंदू मां-बहनों के मंगल सूत्र छीनकर, घुसपैठियों को देने का काम करेगा!
इस पैमाने का झूठ का अभियान, बेशक बिल्कुल अभूूतपूर्व माना जाएगा। जाहिर है कि विरासत कर कोई धर्म के आधार पर नहीं लगाया जाता है; यह कर तो विरासत में मिलने वाली संपदा के परिमाण के आधार पर लगाया जाता है। भाजपा का यह दावा हैरान कर देने वाला है कि यह कर धार्मिक आधार पर लगाया जाएगा। लेकिन, अगर किसी को यह लगा हो कि भाजपा से इस मामले में गलती हो गयी थी और वह बाद में इस मामले में खामोश हो गयी होगी, तो उसने ऐसी सभी धारणाओं का खंडन करने के लिए सभी संभव-असंभव कदम उठाए हैं। उत्तर प्रदेश के भाजपायी मुख्यमंत्री, आदित्यनाथ ने पिछले ही दिनों दावा किया कि विरासत कर, औरंगजेब द्वारा हिंदुओं पर जो जजिया लगाया गया था, उसके समान होगा।
एक तीर से तीन शिकार
न तो नरेंद्र मोदी को और न ही आदित्यनाथ को, इस बिना पर माफ किया जा सकता है कि उन्हें पता नहीं होगा कि विरासत कर होता क्या है? वे जान-बूझकर झूठ फैलाने के लिए ही इसका राग अलापना जारी रखे रहे हैं कि हिंदुओं की संपदा कर लगाया जा रहा है, ताकि मुसलमानों को फायदा पहुंचाया जा सके। और यह बिल्कुल स्पष्ट रूप से दिखाता है कि किस तरह अति-धनिकों को एक ऐसे झूठे धार्मिक आख्यान के जरिए बचाया जा रहा है, जो इसके साथ ही साथ एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाता है और कथित रूप से अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करने के लिए, एक विपक्षी राजनीतिक पार्टी के खिलाफ नफरत फैलाता है।
इसलिए, भाजपा के लिए तो विरासत कर के खिलाफ अभियान, एक तीर से तीन शिकार करता है: यह एक खास अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ नफरत और बढ़ाता है; यह विपक्षी राजनीतिक पार्टियों को बदनाम करता है; और विरासत कर के विचार को ध्वस्त कर देता है और इस तरह अति-धनिकों की हिफाजत करता है, जो उसके प्रमुख संरक्षक हैं। और यह कारनामा शरारतपूर्ण झूठ का सहारा लेकर किया गया है, जिस तरह के झूठ का सांप्रदायिक-फासीवादी संगठन आदतन सहारा लिया करते हैं।
बहरहाल, इससे एक और सवाल उठता है। कोई भी जनतांत्रिक व्यवस्था इस पूर्वधारणा पर टिकी होती है कि लोग, सार्वजनिक दायरे में आए सभी मुद्दों को समझने में और उनमें से हरेक पर एक जानकारीपूर्ण तथा समझदारीपूर्ण रुख अपनाने में समर्थ होंगे।
बहरहाल, जाहिर है कि एक शोषणकारी समाज में, जहां आम लोगों को जान-बूझकर नाजानकार बनाए रखा जाता है, यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि सभी मुद्दों पर जनता के बीच बहस हो और उनके सामने विभिन्न पक्षों का खुलासा किया जाए। मार्क्सवादी परंपरा, इस संबंध में विस्तृत सैद्धांतीकरण करती है और उसमें, सिद्धांत को मेहनतकश जनता तक पहुंचाने में, वर्गांतरित बुद्धिजीवियों को एक महत्वपूर्ण भूमिका दी गयी है। बहरहाल, सिर्फ वर्गांतरित बुद्धिजीवी ही नहीं (वे तो खैर समाज को वर्गीय दृष्टि से देखते ही हैं), बल्कि अनेक पूंजीवादी लेखक भी, मुद्दों को जनता के सामने स्पष्ट करने केे लिए और इस तरह जनतंत्र को अमल में लाने के लिए, एक शिक्षित तथा आत्मचेतस बुद्धिजीवी तबके की भूमिका को पहचानते हैं।
शिक्षित पूंजीपति वर्ग हाशिए पर या विलुप्त
मिसाल के तौर पर पूंजीवादी अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स ने जनतंत्र के परिचालन के लिए शिक्षित पूंंजीपति वर्ग के महत्व पर जोर दिया था। केन्स की संकल्पना के अनुसार, शिक्षित पूंजीपति वर्ग का काम लोगों के सामने ठीक यह स्पष्ट करना ही होता कि विरासत कर, धर्म के आधार पर लगाया जाने वाला कर नहीं होता है। इसलिए, अपने सोचे-समझे झूठे आख्यानों के साथ फासीवादी तत्वों का राजनीतिक व्यवस्था में ऊपर चढ़ना, इस संकल्पना के अनुसार शिक्षित पूंजीपति वर्ग के हाशिए पर धकेले जाने का या उसके अपने दायित्व को त्याग देने का ही सूचक है।
केन्स की अवधारणा के संबंध में हमारी चाहे जो भी असहमतियां हों, इस व्यवहार में दिखाई देने वाली परिघटना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि शिक्षित पूंजीपति वर्ग कमजोर पड़ गया है या गायब ही हो गया है। यह तथ्य कि भाजपा के शीर्ष नेता, विरासत कर को एक धर्म-आधारित कर के रूप में पेश कर के निकल जाते हैं और मीडिया में इस पर कोई शोर तक नहीं होता है, शिक्षित पूंजीपति वर्ग के इस विलुप्त होने का ही संकेतक है। वास्तव में तथाकथित गोदी मीडिया इस विलोपन का ही एक लक्षण है।
सवाल यह है कि यह क्यों हुआ? शिक्षित पूंजीपति वर्ग आखिरकार पूंजीपति वर्ग का ही एक हिस्सा है। केन्स ने उससे जिस भूमिका की अपेक्षा की थी, उस भूमिका को वह तभी अदा कर सकता है, जब अपने जेहन में वह इस संबंध में स्पष्ट होगा कि एक जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था वाले पूंजीवादी समाज को किस दिशा में जाना चाहिए। एक जनतांत्रिक स्तंभ के रूप में उसका कमजोर होना और इसलिए फासीवादी परियोजना के साथ उसका राजीनामा, इसी का सूचक है कि नव-उदार पूंजीवाद का अंधी गली में फंस जाना कितना गंभीर। केन्स नव-उदार पूंजीवाद के ऐसी अंधी गली में फंस जाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे और यह अंधी गली में फंस जाना बड़े वर्गीय संघर्षों का पूर्व-संकेत है, जिनसे केन्स पूंजीवाद को बचाना चाहते थे।
मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
How BJP Masked its Class Agenda With False Religious Narrative
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