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विपक्षी पार्टियों का गठबंधन: अभी ‘INDIA’ की राह आसान नहीं है

सबसे बड़ी बात यह है, कि क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं दबानी होंगी और संयुक्त मोर्चे की सफलता के लिए संघवाद के मूल्यों को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से आगे बढ़ना होगा।
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फ़ोटो : PTI

कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में 26 विपक्षी दलों की बैठक हुई, जिसमें INDIA (Indian National Developmental Inclusive Alliance) नाम का एक मोर्चा बनाया गया। वास्तव में यह पटना में जून माह में हुए विपक्षी दलों के सम्मेलन की आगे की रणनीति है तथा इसमें विपक्षी दलों का आम सहमति से एक मोर्चा बनता दिख रहा है। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने उसी दिन 38 पार्टियों के गठबंधन के साथ एक सम्मेलन का आयोजन किया, यह उसकी बदहवासी को दिखाता है, हालाँकि एनडीए के 38 दलों के गठबंधन में ढेरों दल ऐसे हैं, जिनका प्रभाव नाममात्र का है, वे केवल एक-एक सीट जीत लें तो बड़ी बात होगी, लेकिन ये नाम तथा संख्या सम्भवतः विपक्षी मोर्चे में मौज़ूद ढुलमुल दलों पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करना भी हो सकता है। इसके पीछे कुछ अन्य बड़े और महत्वपूर्ण कारण भी हैं, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

वास्तव में अगर देखा जाए तो गठबंधन की राजनीति का सफल प्रयोग सबसे पहले 1977 में हुआ था। जब आपातकाल के बाद इन्दिरा गांधी के कथित फासीवादी नीतियों के ख़िलाफ़ वामपंथी दलों को छोड़कर सभी विपक्षी दलों ने एक संयुक्त मोर्चा बनाया था, लेकिन यह मोर्चा एक भिन्न तरीके का था, इसमें सभी दलों ने अपनी पहचान मिटाकर एक संयुक्त पार्टी जनता पार्टी का गठन किया था। इसमें समाजवादियों के विभिन्न ग्रुपों से लेकर जनसंघ (आज की जनता पार्टी) था। इसमें दो ऐसी धाराएँ थीं, जो अखिल भारतीय स्तर की थीं, जिनमें एक जनसंघ था और दूसरी समाजवादियों की थी। 1977 के आम चुनाव में नवगठित जनता पार्टी को 41.32% वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 34.52% वोट मिले। दोनों दलों में केवल 7% वोटों का ही फ़र्क था, फिर भी जनता पार्टी को 295 और कांग्रेस को 154 सीटें मिली थीं।

1980 तक यह गठबंधन पूरी तरह बिखर गया और इसमें शामिल सभी पार्टियाँ वापस अपने वोट बैंक की ओर लौट गईं। इस गठबंधन का सबसे अधिक फ़ायदा जनसंघ ने उठाया। भारतीय जनता पार्टी के रूप में उसका एक नया अवतार सामने आया। वास्तव में अब तक जनसंघ को शहरी उच्चजातियों तथा छोटे-मझोले व्यापारियों की पार्टी माना जाता था, लेकिन जनता पार्टी के दौर में यह महत्वपूर्ण पदों पर क़ाबिज़ हो गया, जो आगे की राजनीति में उसके बहुत काम आया। क्षेत्रीय पार्टियों के इस नये दौर में कांग्रेस को यह एहसास हो गया, कि उसका अखिल भारतीय स्तर का चरित्र समाप्त हो गया है, अब क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चलने के अलावा उसके पास और कोई विकल्प नहीं है।

यद्यपि 1980 के आम चुनाव में कांग्रेस 42% वोटों के साथ एक बार पुनः सत्ता में आ गई थी। यह वही समय था, जब भारतीय राजनीति में बसपा-भाजपा जैसी पार्टियों का तेजी से उभार हो रहा था, वास्तव में आज़ादी के बाद एक अभिजात्य राजनीति (इलीट पॉलिटिक्स) का दौर था। कांग्रेस एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी थी, वो आसानी से उच्चजातीय सवर्ण हिन्दुओं, मुसलमानों और थोड़े-बहुत दलितों को लेकर आसानी से सत्ता हासिल कर लेती थी, बाकी जातियों और समुदायों के लोग वोट डालने ही नहीं जाते थे अथवा वोट डालने नहीं दिया जाता था, लेकिन केवल कम्युनिस्टों ने ही कांग्रेस की इस अवधारणा को चुनौती दी तथा वे लम्बे समय तक मुख्य विपक्षी दल बने रहे, हालाँकि उनका आधार शुरू से ही क्षेत्रीय रहा, जो आज भी है।

1980 में या कहें तो 1990 तक मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद बड़े पैमाने पर दलित, पिछड़े तथा अन्य समुदायों की राजनीति में भागीदारी बढ़ी, अब कांग्रेस के अभिजात्य राजनीति का मिथक पूरी तरह से टूट गया था तथा एक जनराजनीति की शुरूआत हुई, यही कारण है कि उस समय बड़े पैमाने पर राजनीति के अपराधीकरण की चर्चाएँ होने लगी थीं, क्योंकि सामाजिक स्थितियों की अभिव्यक्ति अब राजनीति में भी दिखाई पड़ने लगी थी। वास्तव में इसी दौर में इंदिरा गांधी का राष्ट्रवाद हिन्दूवादी राष्ट्रवाद में तेजी से बदल रहा था और यह तेजी से समूचे हिन्दीपट्टी को अपनी गिरफ़्त में ले रहा था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद यह अपने चरम पर पहुँच गया। इसके परिणामस्वरूप अगले ही आम चुनाव में कांग्रेस का बढ़ा हुआ वोट प्रतिशत सीटों में देखा जा सकता है।

लेकिन 1988 तक आते-आते राजनीति में दलित-पिछड़ों की बढ़ती हुई भागीदारी के कारण जो नया दौर आया, उसमें भाजपा ने कांग्रेस के हाथ से हिन्दुत्व की राजनीति छीन ली। राजीव गांधी के दौर में शाहबानो के केस में कट्टरपंथी मुस्लिमों को ख़ुश करने की कवायद ने उनके ही समय में पहली बार बाबरी मस्जिद का दरवाजा हिन्दुओं के पूजा-अर्चना के लिए खोलकर भाजपा के कट्टरपंथ को खुली छूट दे दी। सामाजिक न्याय और हिन्दुत्ववादी राजनीति के बीच संतुलन बनाने का काम बहुत ही नायाब तरीके से कांग्रेस ने नरसिम्हा राव के नेतृत्व में किया तथा भारतीय राजनीति में मुस्लिम प्रतिनिधित्व को अलविदा कह दिया। भाजपा ने ऐसी स्थिति में बसपा को साथ लेकर कांग्रेस के दलित और मुस्लिम जनाधार को बिल्कुल समाप्त कर दिया।

यही वो दौर था,जब भारतीय राजनीति में गठबंधनों की राजनीति का दौर आ गया। बाद में चाहे वीपी सिंह या देवगौड़ा जिसकी भी सरकार बनी हो, गठबंधन की राजनीति के बिना वे सरकारें चल ही नहीं सकती थीं। दलित-पिछड़ों की राजनीति का जो नया दौर था, उसने लम्बे समय तक भारतीय राजनीति और सत्ता पर सवर्ण उच्चजातियों के वर्चस्व को तोड़ा, तब इन सवर्ण जातियों ने भाजपा का साथ दिया।

1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जो हिन्दुत्ववादी लहर पैदा हुई, उसने सवर्ण हिन्दुओं के साथ-साथ दलित-पिछड़ों और जनजातियों को भी अपने आगोश में ले लिया। सामाजिक न्याय की पार्टियों की कमज़ोरियों के कारण भाजपा ने इन वर्गों का बड़े पैमाने पर हिन्दूकरण किया। उसने फिलहाल सामाजिक न्याय की पार्टियों को पीछे ढकेल दिया।

आज भले ही भाजपा अकेले अपने दम पर सरकार बना ले, लेकिन उसने एनडीए गठबंधन बनाया और सीटों के बँटवारे तथा मंत्रीपद देने में गठबंधन के साथियों का ख़्याल रखा। इसका कारण मुझे यह लगता है, कि भाजपा के रणनीतिकारों को इस बात का एहसास है, कि विभिन्न जातियों-धर्मों वाले समाज में हिन्दुत्व की लहर पैदा करके भले ही आज सत्ता हासिल कर लें, लेकिन लम्बे दौर की राजनीति के लिए उसे देश भर से छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियों : विशेष रूप से दलित-पिछड़ों की पार्टियों को अपने साथ लेना पड़ेगा, इसीलिए हम देखते हैं कि एनडीए के घटक दलों में तमिलनाडु से लेकर मणिपुर, सिक्किम और गोवा तक के छोटे-छोटे दल हैं, यद्यपि भाजपा की जीत का आधार हिन्दीपट्टी के ही इलाके हैं, क्योंकि इन प्रदेशों में व्याप्त सामाजिक और बौद्धिक पिछड़ापन ही भाजपा का जनाधार है।

भाजपा अभी भी दक्षिण भारत में अपनी राजनीति का विस्तार नहीं कर पाई है, लेकिन पूर्वोत्तर भारत एवं गोवा आदि में क्षेत्रीय दलों के साथ गठजोड़ करके यह इसमें काफी हद तक सफल रही है। जिस गठबंधन की राजनीति को भाजपा बहुत पहले समझ गई थी, उसे विपक्षी दल सम्भवतः अब समझ पाए हैं, हालाँकि बहुत से राजनीतिक विश्लेषक : जिसमें एक सुहास पल्शिकर भी हैं, वे 20 जुलाई के इंडियन एक्सप्रेस के अपने एक लेख में लिखते हैं, कि "भाजपा अपने एनडीए के 38 पार्टियों के गठबंधन के सम्मेलन को उसी के अगले दिन करती है,जब बेंगलुरु में विपक्षी दलों का सम्मेलन हो रहा था। किसी भी गठबंधन में 38 से अधिक भिन्न विचारधारा वाले दल शामिल हो सकते हैं, यह राजनीतिक रूप से भाजपा का एक महत्वपूर्ण संदेश देना हो सकता है, कि अपनी आक्रामक विचारधारा के साथ वह अकेली नहीं है। चुनाव तक और भी अनेक दल उसके साथ आ सकते हैं।"

यह एक ऐसा संदेश है, जिसका मुक़ाबला भविष्य में विपक्षी दलों को चुनाव से पहले ही करना पड़ेगा। विपक्षी दलों के मोर्चे में बीएसपी, सीआरएस, एआईएसआरसीपी और बीडी जैसी पार्टियाँ सम्मिलित नहीं हैं। आम आदमी पार्टी का रवैया ढुलमुल है, जिसके कारण उसे कभी-कभी भाजपा की बी टीम भी कह दिया जाता है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार नहीं है, बसपा के साथ न आने के कारण मोर्चा कमज़ोर है, क्योंकि बसपा उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर अपने उम्मीदवार खड़ा करके भाजपा को मदद पहुँचाकर मोर्चे का खेल बिगाड़ सकती है। पश्चिमी बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को भाजपा को रोकने के लिए वामपंथियों से समझौता करना ही होगा। सबसे बड़ी बात यह है, कि क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं दबानी होंगी, हालांकि कांग्रेस लीडरशिप भी कह चुकी है कि, उनकी पार्टी भाजपा को हराने के लिए किसी भी क़ुर्बानी को तैयार है।                                    

भाजपा संघवाद और लोकतंत्र की विरोधी रही है, कांग्रेस ने भी पिछले दस वर्षों में यह महसूस कर लिया है कि संघवाद न केवल संविधान का एक सर्वोच्च सिद्धांत है, बल्कि लोकतांत्रिक ढाँचे का एक महत्वपूर्ण घटक भी है, इसलिए इस संयुक्त मोर्चे की सफलता के लिए संघवाद के मूल्यों को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से आगे बढ़ना होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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