अल्मोड़ा की स्वाल नदी यात्रा: छोटी नदियों को बचाने की बड़ी मुहिम
अल्मोड़ा की ग़ैर-हिमानी नदी स्वाल को बचाने के लिए 18-19 जनवरी को नदी यात्रा की गई।
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में अल्मोड़ा की स्वाल नदी के किनारे विद्यार्थियों और जल कार्यकर्ताओं का एक दल नारों, गीतों और पानी बचाने के वायदों के साथ आगे बढ़ रहा था। छोटे-बड़े सफ़ेद चट्टानों के बीच से गुजरती ये पहाडी नदी भी अपना जल धीरे-धीरे खो रही है। पहाड़ी ढलानों और पथरीले रास्तों पर संभलकर आगे बढते लोगों का उद्देश्य एक था, हम अपनी नदियों को कैसे बचाएं? ये सभी अलग-अलग जगहों से इकट्ठा हुए थे।
पूरब में स्वाल और पश्चिम में कोसी नदी के बीच एक पहाडी रिज पर बसा ये ऐतिहासिक पहाड़ी शहर जल संकट के ख़तरे से जूझ रहा है। कई छोटी नदियों, नौले, धारे और गधेरों के बावजूद पानी यहां चुनौती है। इस यात्रा की आयोजक, ग्रीन हिल्स ट्रस्ट से जुड़ी डॉ. वसुधा पंत कहती हैं, “अल्मोडा के घरों में लगे नलों में साल भर मात्र एक घंटे पानी आता है। गर्मियां आते-आते छोटी नदियां लगभग सूख सी जाती हैं। कोसी में तो पानी बिलकुल कम हो जाता है। इस साल सर्दी में कोई बारिश नहीं हुई। हमें अभी से चिंता सता रही है कि गर्मी में पानी की स्थिति क्या होगी।”
पानी के बड़े होते संकट के चलते अल्मोड़ा में छोटी-बड़ी नदियों को पुनर्जीवित करने का अभियान चलाया जा रहा है। कोसी नदी पुनर्जनन अभियान राज्य सरकार चला रही है। जबकि स्वाल को पुनर्जीवित करने का अभियान स्थानीय समुदाय की भागीदारी से शुरू किया गया है।18 और 19 जनवरी को आयोजित स्वाल नदी यात्रा में जलपुरुष के नाम से विख्यात और विश्व बाढ सुखाड़ आयोग (The People's World Commission on Drought and Flood) के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह भी शामिल हुए। यात्रा के दौरान विद्यार्थियों और गांव के लोगों के साथ जल संवाद हुआ।
बमनस्वाल क्षेत्र में स्वाल नदी के तट पर बिष्ट गांव की महिलाएं कपडे धोती मिली। राजेंद्र सिंह ने जब उनसे पूछा कि नदी में कपड़े धोने क्यों आई हो तो महिलाओं ने कहा कि घर में इतना पानी नहीं आता, इसलिए वे नदी पर आई हैं। उनका अगला सवाल था कि जब नदी में भी पानी नहीं बचेगा तो कहां जाएंगी और कहां से पानी लाएंगी? उन्होंने महिलाओं से आगे कहा कि जितना भी पानी है उसे बचाना तो ज़रूरी है।
कौसानी से स्वाल नदी यात्रा में शामिल होने आई स्कूली छात्राएं
सर्दी की तीखी धूप में पहाड चढते, उतरते और हांफते लोगों के बीच कौसानी के लक्ष्मी आश्रम से आई स्कूली छात्राएं नदी बचाने के नारों और गीतों के साथ रंग और जोश भर रही थीं।
रास्ते में पड़ने वाले पगना और भेंटाडांगी गांव के लोगों ने उनकी अपनी स्वाल नदी को बचाने का संदेश लेकर अलग-अलग जगहों से आए लोगों को देखकर हैरानी और ख़ुशी जताई। जल संरक्षण के इस कार्य में साथ देने की पेशकश की।
हिमालयी क्षेत्र के वनों से निकलने वाली ज़्यादातर नदियों की तरह स्वाल भी कई नौलों, धारों और छोटी नदियों के घने नेटवर्क का हिस्सा है। जो शक्तिशाली गंगा की सहायक नदियां बनाती हैं। स्वाल नदी आगे चलकर अल्मोड़ा के क्वारब में कोसी नदी से मिल जाती है। कोसी नदी उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद तक बढ़कर रामगंगा नदी में मिलती है। रामगंगा कन्नौज के पास गंगा में समाहित हो जाती है। ख़ुद स्वाल नदी में 12 गदेरे (छोटी-छोटी नदियां) मिलते हैं।
डॉ. वसुधा पंत कहती हैं कि हम स्वाल पुनर्जनन अभियान की शुरुआत हवलबाग विकासखंड में आऩे वाली बलढौती नदी से कर रहे हैं। जो स्वाल में समाहित होती है। कभी साल भर पानी से तर रहने वाली बलढौती नदी अब सूखने की कगार पर आ गई है। क़रीब साढे तीन दशक पहले बलढौती जलागम में सदावाहिनी नदियों (जिसमें साल भर पानी होता है) की लंबाई 6.11 किलोमीटर थी। जो अब घटकर 1.01 किमी रह गई है। मौसमी नदियों और बरसाती नदियों की भी तक़रीबन यही स्थिति है।
वह कहती हैं “गंगा जैसी बड़ी नदियों को बचाने के लिए स्वाल जैसी छोटी नदियां धमनियों का काम करती हैं। जो अंत में गंगा को प्रवाहित करती हैं। लेकिन भूजल से बनी नदियां और उन्हें जीवित रखने वाले नौले, धारे, गधेरे (छोटी जलधाराएं) सूख गए या मौसमी हो गए हैं। गंगा को बचाने के लिए इन छोटी नदियों को बचाना महत्वपूर्ण है। छोटी नदियां बचेंगी तभी बड़ी नदियों का संरक्षण संभव है”।
भूविज्ञानी प्रोफेसर जेएस रावत ने स्वाल नदी की सहायक बलढौटी नदी के माइक्रो रिचार्ज ज़ोन को चिन्हित किया है। जहां छोटे-बड़े ट्रेंच-गढ्ढों को बनाकर बारिश के पानी को धरती में ले जाया जाएगा। रिचार्ज ज़ोन में पौधे रोपे गए हैं जो पानी रोकने में मदद करेंगे।
डॉ. रावत कहते हैं कि 19वीं सदी में नौले-धारे प्यास बुझाते थे। 20वीं सदी में गुरुत्व और नदियों से लिफ्ट कर पीने के पानी की व्यवस्था की गई। अब सभी बड़ी नदियों में लिफ्ट पेयजल योजनाओं का जाल विकसित हो चुका है। धीरे-धीरे बड़ी नदियों में गर्मियों में जल प्रवाह घटता गया तो हमने भूमिगत जल भंडारों का दोहन किया। अब हैंडपंप भी सूख चुके हैं। ट्यूबवेल भूजल भंडार को तेज़ी से ख़त्म कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते बारिश का व्यवहार बदल गया है। भूजल भंडार रिचार्ज नहीं हो पा रहा है। जब भूमिगत जल भंडार समाप्त हो जाएगा तो अगला युग किस पेयजल साधन का होगा?
स्वाल नदी। नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि देश में पानी की मांग वर्ष 2030 तक आपूर्ति से अधिक हो जाएगी।
अल्मोड़ा के डिस्ट्रिक्ट एनवायरमेंट प्लान में लिखा गया है कि क़रीब 600 मिलियन भारतीय पानी की भारी क़िल्लत से जूझ रहे हैं और पानी तक सुरक्षित पहुंच के अभाव में क़रीब 2 लाख लोग हर वर्ष जान गंवा देते हैं। 2018 में अपनी एक रिपोर्ट में नीति आयोग ने चेताया है कि देश में पीने के पानी की मांग 2030 तक आपूर्ति से अधिक हो जाएगी। अगर समय रहते ज़रूरी क़दम नहीं उठाया गया तो ये इतिहास का सबसे कठिन जल संकट होगा।
राजेंद्र सिंह और प्रोफेसर जेएस रावत स्वाल नदी के नज़दीक गांव के पास जलसंवाद कार्यक्रम में
जलपुरुष राजेंद्र सिंह कहते हैं कि ये दुनिया बेपानी होकर उजड़ रही है। मैं पिछले 8 सालों में 127 देशों की यात्रा कर चुका हूं। पिछले 3 वर्षों में कई देशों ने पहली बार बाढ़ और सूखे का सामना किया। भारत में ज़मीन के भीतर 72 प्रतिशत जलभृत (aquifer) ओवरड्राफ्ट है। यानी हम जितना पानी निकाल रहे हैं उतना भर नहीं पा रहे हैं।
वह आगे कहते हैं कि हमारे पास अब भी संभलने का वक़्त है। आज़ादी के अमृत महोत्सव में नदियों के पुनर्जन्म का संकल्प शामिल होना चाहिए। पानी लौटाने की संभावना अब भी हममें बची हुई है। लेकिन ऐसा करने से चूक गए तो अगले 10 वर्षों में ही स्थिति विकराल हो जाएगी।
इसी संकट को देखते हुए अल्मोड़ा में स्वाल नदी यात्रा करने की ज़रूरत पड़ी है। राजेंद्र सिंह कहते हैं कि स्वाल 12 गदेरों से मिलकर बनी है। इन गदेरों के ऊपर बसे गांवों के साथ डायलॉग करने की ज़रूरत है। ग्रामीण अपने गदेरों के बारे में सबसे ज़्यादा जानकारी रखते हैं। उन्हें उनके जल स्रोतों का मालिक बनाना होगा। स्थानीय समुदाय के नेतृत्व में पानी लौटाने की ये प्रक्रिया सफल हो सकती है।
स्थानीय समुदाय की भागीदारी का उदाहरण अल्मोड़ा के सोमेश्वर तहसील से स्वाल यात्रा में शामिल होने आईं जल कार्यकर्ता माया वर्मा देती हैं। वह बताती हैं “हमने सोमेश्वर के लोध, मवे, नाकोराली, चनौली, लड्यूडा, भैसड समेत कई गांवों में ग्रामीणों के साथ मिलकर स्थानीय गदेरों में पानी लौटाने का कार्य किया है। शुरू में जब हम ग्रामीणों से इस पर बात करते थे तो वे हम पर भरोसा नहीं करते थे। हमने महिलाओं के साथ संवाद शुरू किया। उन्हें पौधे लगाने के लिए प्रेरित किया। धीरे-धीरे काम शुरू हुआ। बारिश के पानी को सहेजने के लिए ग्रामीणों ने अपनी निजी ज़मीन पर खंतियां (छोटे गढ्ढे) खोदी। हमारा उद्देश्य था कि हम पानी बढ़ा नहीं सकते लेकिन बचा तो सकते हैं। बदलाव ये है कि अब इन गांवों में बारहों महीने पानी रहता है। इस पानी को ख़र्च करने में भी अनुशासन बरता जाता है। पिछले 5 वर्षों की इस कोशिश में हम सफल हो रहे हैं”।
कोसी और स्वाल नदी के संगम पर समाप्त हुई नदी यात्रा
नदी यात्रा का निष्कर्ष निकाला गया कि समुदाय की भागीदारी से ही नदियों को संरक्षित किया जा सकता है। इसके लिए जंगल, नदी जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर समुदाय के स्वामित्व की भावना को लौटाना होगा।
ग्रामीणों, जल कार्यकर्ताओं, विशेषज्ञ के ऐसे ही अनुभवों को समेटते हुए नदी यात्रा स्वाल और कोसी के संगम पर समाप्त हुई। दौड़ते पानी को थामने के लिए विज्ञान के साथ परंपरागत ज्ञान और आस्था को जोड़ा गया। यह संदेश दिया गया कि, "पानी जहां दौड़ता है, वहां इसे चलना सिखाना है, जहां चलने लगे वहां इसे रेंगना सिखाना है, जहां रेंगने लगे वहां इसे ठहरना है, जहां ठहर जाए, वहां इसे धरती के पेट में बैठाना है।"
(देहरादून से स्वतंत्र पत्रकार वर्षा सिंह)
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