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मंदिर-मस्जिद वाली सांप्रदायिकता की  ज़मीन फिर तैयार करने की कोशिश!

भाजपा से जुड़े एक वकील अश्वनी उपाध्याय ने पूजा स्थल अधिनियम 1991 को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की है। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अगुवाई में दो जजों की बेंच ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है।
मंदिर-मस्जिद वाली सांप्रदायिकता की  ज़मीन फिर तैयार करने की कोशिश!
Image courtesy: The Hindu

6 दिसंबर सन् 1992 को जब बाबरी मस्जिद गिराई जा रही थी, उस वक्त एक नारा लग रहा था कि 'अभी तो बस यह झांकी है, मथुरा काशी बाकी है'। इस नारे की गूंज समय की कोख में बंद हो सकती थी। मगर इसके लिए शर्त यह थी कि शांति बनाने का रास्ता न्याय से होकर गुजरता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तकरीबन 100 साल से अधिक की लड़ाई लड़ने के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे पर अपना फैसला सुनाया तो तर्क की बजाए आस्था को ज्यादा तवज्जो मिला। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में बहुत सारी तार्किक बातें लिखी लेकिन फैसला सुनाया की मस्जिद की जगह पर मंदिर का निर्माण होगा। 

इस फैसले पर कई जानकारों ने यह कहते हुए संतोष जताया कि इस फैसले से सबसे अच्छी बात यह हुई की एक गैर जरूरी मुद्दा हमेशा के लिए बंद हो गया। लेकिन वहीं पर कई जानकारों ने यह भी कहा कि शांति की स्थापना बिना न्याय के नहीं होती है। इस फैसले के बाद वह नारा ' अभी तो बस झांकी है, काशी मथुरा बाकी है फिर से जीवंत होकर गूंजने लगेगा'। शायद यही हो रहा है। 

भाजपा से जुड़े एक वकील अश्वनी उपाध्याय ने पूजा स्थल अधिनियम 1991 को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की है। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अगुवाई में दो जजों की बेंच ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है।

याचिकाकर्ता का कहना है कि ये कानून देश के नागरिकों में भेदभाव करता है और मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करता है।

याचिका में इस कानून की धारा दो, तीन, चार को रद्द करने की मांग की गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि ये धाराएं 1192 से लेकर 1947 के दौरान आक्रांताओं द्वारा गैरकानूनी रूप से स्थापित किए गए पूजा स्थलों को कानूनी मान्यता देते हैं।  इस कानून में साल 1947 का समय मनमाने तौर पर चुन लिया गया है। इसका कोई आधार नहीं है कि क्यों साल 1947 के  पहले अस्तित्व में आए किसी भी तरह के पूजा स्थल को फिर से दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता?

याचिका में कहा गया है कि यह कानून हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध धर्म के लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करता है। उनके जिन धार्मिक और तीर्थ स्थलों को विदेशी आक्रमणकारियों ने तोड़ा, उसे वापस पाने के उनके कानूनी रास्ते को भी बंद करता है।

तो यह समझने की कोशिश करते हैं आखिरकार पूजा स्थल अधिनियम 1991 क्या है?

इस कानून की धारा 2, 3 और 4 में ऐसी क्या बात लिखी हुई है, जिसे रद्द करने की मांग की जा रही है?

क्या यह कानून संवैधानिक तौर पर सही नहीं है? या यह याचिका उसी सियासत का हिस्सा मात्र हैं, जिसकी सांसें हिंदू मुस्लिम नफ़रत पर टिकी हुईं हैं?

साल 1990 के दौरान राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था। आलम यह था कि इसी दौरान राम मंदिर को लेकर हिंसा की घटनाएं भी घट रही थीं। उस समय भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष दो नेताओं में से एक लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा भी निकल रही थी। पूरा देश भावुक तौर पर आस्था की गिरफ्त में होता जा रहा था जिसमें दूसरे समुदाय के लोग और उनके धार्मिक स्थल दुश्मन के तौर पर नज़र आ रहे थे। इस माहौल में सभी धार्मिक मान्यता के लोगों की आस्था को सुरक्षित रखने के लिए साल 1991 में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार पूजा स्थल अधिनियम लेकर आई।

इस कानून की प्रस्तावना, धारा दो, धारा तीन और धारा चार को मिलाकर पढ़ा जाए तो यह कानून कहता नहीं बल्कि इस कानून की भाषा है कि ऐलान करता है कि 15 अगस्त साल 1947 से पहले मौजूद किसी भी धर्म के पूजा स्थलों की प्रकृति बदलकर किसी भी आधार पर उन्हें दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जाएगा। अगर ऐसा किया जाता है तो ऐसा करने वालों को एक से लेकर तीन साल तक की सजा हो सकती है। पूजा स्थल में मंदिर, मस्जिद, मठ, चर्च, गुरुद्वारा सभी तरह के पूजा स्थल शामिल हैं। अगर मामला साल 1947 के बाद का है तो उस पर इस कानून के तहत सुनवाई होगी। इस कानून के बनते वक्त बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का मामला भी चल रहा था। इसलिए अयोध्या से जुड़े विवाद को इस कानून से अलग रखा गया।

कानून के प्रावधानों को साथ में रखकर अगर एक तार्किक निगाह से देखा जाए तो साफ दिखेगा कि अश्वनी उपाध्याय की याचिका में इस तरह का झोल है? 15 अगस्त साल 1947 को देश आजाद हुआ। इस दिन के बाद भारत अपनी परतंत्रता खत्म कर एक स्वतंत्र मुल्क बना।  स्वशासन लोकतंत्र और संविधान की राह पर आगे बढ़ चला। इसके बाद भारत ने जो कुछ भी किया उसकी सारी जिम्मेदारी एक आजाद मुल्क की संप्रभु सरकार को संभालनी पड़ी। भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण दिन को अगर कोई यह कहकर खारिज करने की बात कर रहा है कि पूजा स्थल अधिनियम में 15 अगस्त 1947 के दिन का चुनाव मनमाना है तो इसका साफ मतलब है कि वह सब कुछ जान कर अनजान होने का बहाना रच रहा है।

कानून में यह साफ-साफ लिखा हुआ है कि किसी भी धर्म के पूजा स्थल का जो अस्तित्व 15 अगस्त 1947 के पहले था, वही बाद में भी रहेगा। यानी ऐसा नहीं है कि किसी धर्म के साथ किसी तरह का भेदभाव किया जा रहा है। अगर मस्जिद है तो मस्जिद रहेगी उसे मंदिर में नहीं बदला जाएगा। अगर मंदिर है तो मंदिर रहेगा उसे मस्जिद में नहीं बदला जाएगा। सबके साथ एक ही नियम लागू होगा। ऐसा भी नहीं होगा कि वैष्णव संप्रदाय की मंदिर को शैव संप्रदाय में बदल दिया जाए। सुन्नी मत के मस्जिद को शिया मत की मस्जिद में बदल दिया जाए।

लेकिन बहुसंख्यक हिंदुत्व की राजनीति ने पूरे समाज के इतिहास बोध को इस तरह से रच दिया है जहां पर आम लोगों को यह लगता है कि मस्जिदों का निर्माण मंदिरों को तोड़कर किया गया है। इसलिए यह बचकानी भावुक और गलत बात समाज में नशे की तरह पसरी हुई है कि हिंदुओं के साथ नाइंसाफी हुई है, हिंदू इसका बदला लेंगे। मस्जिद टूटेंगी और फिर से मंदिर बनेंगे। 

यह पूरा इतिहास बोध ही गलत है। इतिहास में इसके कई सारे प्रमाण है कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनी, मस्जिद तोड़कर मंदिर बने। राजतंत्र में राजाओं ने जैसे चाहा वैसे समाज को हांका। केवल यह धारा सही नहीं है कि केवल मस्जिद तोड़कर मंदिर बने। इस धारा को अंतिम सत्य मानकर आगे बढ़ना महज अपने भ्रम को पालने के सिवाय और कुछ भी नहीं है।

एक सिंपल सी बात समझनी चाहिए कि  जिस जमीन पर बैठकर मैं यह लेख लिख रहा हूं और जिस जमीन पर खड़े होकर आप इस लेख को पढ़ेंगे उस जमीन पर आज से छह सौ साल, हजार साल पहले कौन सा ढांचा था, यह पता लगा पाना नामुमकिन के हद तक मुश्किल है। लेकिन फिर भी हम मान लेते हैं कि यह पता लग गया कि जिस जमीन पर बैठकर मैं लिख लिख रहा हूं, वहां पर आज से हजारों साल पहले कृष्ण का मंदिर हुआ करता था या आज से दो सौ साल पहले बहुत महत्वपूर्ण मस्जिद हुआ करती थी, तो क्या इसका मतलब यह है कि मेरे घर को तोड़कर मंदिर या मस्जिद बना दी जाए। ऐसा करना तो बहुत दूर की बात सोचना भी संवैधानिक नैतिकता के हिसाब से बहुत अधिक गलत है। तो पता नहीं संविधान का कौन सा मूल अधिकार कानून के इन प्रावधानों से खारिज हो रहा है।

फिर भी बीमारू और सांप्रदायिक नजरिए के साथ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई कि यह कानून हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध धर्म के लोगों को उन धार्मिक और तीर्थ स्थलों को जिन्हें विदेशी आक्रमणकारियों ने तोड़ा उसे वापस पाने के उनके कानूनी रास्ते को बंद करता है। लोगो के मूल अधिकार की अवहेलना करता है। 

इस याचिका में अनुच्छेद 49 का भी जिक्र किया गया है। अनुच्छेद 49 भारतीय राज्य को धार्मिक स्थलों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सौंपता है। इस याचिका में आरोप लगाया गया है कि भारतीय राज्य ने अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की। पलटकर याचिकाकर्ता से पूछना चाहिए कि पूजा स्थल कानून 1991 यही काम करने की जिम्मेदारी लेता है कि किसी भी धर्म के पूजा स्थल के साथ नाइंसाफी नही होगी। यह कानून अनुच्छेद 49 का मकसद ही पूरा करता है। याचिकाकर्ता को केवल यह बात समझनी है कि भारत के इतिहास में 1192, 1526, 1857, जैसी तिथियां महत्वपूर्ण है लेकिन इतनी महत्वपूर्ण नहीं कि इन तिथियों पर साल 1947 का भार लाद दिया जाए। स्वतंत्र भारत को उन सभी कामों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए जो आजादी से पहले राजा महाराजाओं और अंग्रेजों के जमाने में हुए थे।

अनुच्छेद 49 के तहत भारतीय सरकार 6 दिसंबर 1992 में हुई घटना के लिए जिम्मेदार है। यहां पर भारतीय सरकार को अपने कर्तव्य की भूमिका निभानी चाहिए थी। इसकी आलोचना की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि के फैसले में इसे स्वीकार भी किया है कि 6 दिसंबर सन 1992 को बहुत बड़ी गलती हुई थी।

इस याचिका के खिलाफ सबसे बड़ा जवाब सुप्रीम कोर्ट के बाबरी मस्जिद मामले में दिए गए अंतिम फैसले के कुछ हिस्से हैं। सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि विवाद के अंतिम फैसले के पन्ने में यह भी लिखा था कि पूजा स्थल अधिनियम भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता का अभिन्न अंग है। राज्य की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार बरते। पूजा स्थल अधिनियम यह पुष्टि करता है कि राज्य भारतीय संविधान के आधारभूत ढांचे में शामिल धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।

पूजा स्थल अधिनियम का एक मकसद है। ऐतिहासिक गलतियों को नहीं सुधारा जा सकता है। लोगों अपने हाथ में कानून लेकर ऐतिहासिक गलतियो को सुधारने की इजाजत नहीं है। इतिहास और बीते हुए कल की गलतियों को आधार बनाकर वर्तमान और भविष्य की चिंताओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। यह संविधान का मूल दर्शन है। धर्मनिरपेक्षता का मूल है। 

कानूनी मामलों के जानकारों का कहना है कि किसी एक समुदाय के लिए नहीं बल्कि सभी समुदायों के लिए इतिहास बहुत दर्दनाक रहा है। बीते हुए कल के नशे में डूब कर बहुत कुछ बर्बाद होता रहा है। लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद की जा सकती है कि वह इतनी जल्दी अपने फैसलों से नहीं पलटेगा।

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