आज़ादी@75: क्या भारत की न्यायपालिका के अंदर विचारधारात्मक खिसकाव हक़ीक़त बन चुका है ?
“The police and the magistracy are as corrupt as they could be, but what is worse is that they are definitely political in the sense that they are out not to see that justice is done but to see that the dignity and interests of the caste Hindus as against the depressed classes are upheld”.
- Dr B.R. Ambedkar to A.V. Thakkar, general secretary of the Anti-Untouchability League, , 1932
वह 1990 के दशक का उत्तरार्द्ध था जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक अदालत के चैम्बर के ‘शुद्धिकरण’ का मामला सुर्खियों में था।
दरअसल उपरोक्त चेम्बर पहले अनुसूचित जाति से सम्बद्ध न्यायाधीश के लिए आवंटित हुआ था और उनके तबादले के बाद ‘उच्च जाति’ के व्यक्ति को उस चेम्बर का आवंटन हुआ। ख़बर यह बनी की ‘उच्च जाति’ के उपरोक्त न्यायाधीश ने ‘गंगाजल’ से उसका शुद्धिकरण करवाया। अख़बार के रिपोर्टरों ने उन सम्बद्ध व्यक्तियों से भी बात की थी, जो इस कार्रवाई में शामिल थे।
ख़बरों को पढ़ कर अनुसूचित जाति से जुड़े न्यायाधीश ने अदालत की शरण ली और उनके बाद वहां विराजमान हुए उच्च जाति के न्यायाधीश को दंडित करने की मांग की। मामला अंततः अदालत द्वारा ही रफा दफा किया गया, बाद में पता चला कि अदालत ने जो जांच कमेटी बनायी थी उसने उन लोगोां से बात तक नहीं की थी, जो ‘शुद्धिकरण में शामिल थे।’
अब बीते लगभग ढाई दशक में गंगा-यमुना से तमाम पानी बह चुका है, अलबत्ता ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं, जब न्यायाधीशों के जेंडर, जातीय या सांप्रदायिक पूर्वाग्रह सामने आए हैं। फिर यह सवाल भी उठता रहा है कि ऐसी मान्यताओं के आधार पर अगर वह न्याय के सिंहासन पर बैठेंगे तो वह जो फैसला लेंगे वह किस हद तक संविधान सम्मत होगा।
बहरहाल, पिछले दिनों यह बहस नए सिरे से उपस्थित हुई जब सुश्री प्रतिभा सिंह, जो दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं, उन्होंने उद्योगपतियों के एक संगठन फिक्की द्वारा आयोजित एक समारोह में विज्ञान, टेक्नोलॉजी आदि क्षेत्रों में महिलाओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों के बारे में बात करते हुए स्त्रियों के सम्मान, उनकी मौजूदा स्थिति और धार्मिक ग्रंथों की अहमियत पर न केवल बात की बल्कि उनकी एक नयी परिभाषा भी देने की कोशिश की। गौरतलब था कि अपनी इस तकरीर में उन्होंने मनुस्मृति के कसीदे पढ़े। उनका कहना था कि
‘‘भारत की महिलाएं एक तरह से धन्य हैं और इसकी वजह यही है कि यहां के धार्मिक ग्रंथों ने उन्हें हमेशा ही सम्मान दिया है और जैसा कि मनुस्मृति खुद कहती है कि अगर तुम महिलाओं का सम्मान नहीं कर सकते हो तो तुम जो पूजा पाठ कर रहे हो, वह सब व्यर्थ है।’
जैसे की उम्मीद की जा सकती है कि जजमहोदया के इन विचारों की काफी आलोचना हुई। एक अग्रणी महिला नेत्री ने स्पष्ट कहा कि मनुस्मृति की उनकी व्याख्या ‘स्त्रियों के शरीरों एवं उनके विचारों को पूरी तरह अनुशासित करने और दंडित करने के जो संस्थागत प्रावधान उनमें रखे गए हैं, उनकी उपेक्षा करती है। इतना ही नहीं इस संहिता में जाति संबंधी जो नियम रखे गए हैं, उनको भी अदृश्य करती है।’
लोगों को इस बात पर भी ताज्जुब हुआ कि मनुस्मृति का उनका महिमामंडन न केवल उसके तमाम विवादास्पद पहलुओं की भी अनदेखी कर रहा था बल्कि भारत के राजनीतिक एवं सामाजिक आज़ादी के आंदोलन के एक अहम पड़ाव के प्रति अपनी समूची अनभिज्ञता को प्रतिबिम्बित कर रहा था।
याद रहे आज़ादी के आंदोलन में धार्मिक ग्रंथों में स्त्रिायों एवं दलितों एवं अन्य वंचितों की स्थिति को लेकर विभिन्न सामाजिक क्रांतिकारियों एवं सुधारकों ने लगातार अपनी आवाज़ बुलंद की है, यहां तक वर्ष 1927 में डा अम्बेडकर की अगुआई में छेड़े गए महाड सत्याग्रह - 1927 के दूसरे चरण में - 25 दिसम्बर 1927 में महाड में डा अम्बेडकर ने मनुस्मृति का दहन किया था और उनके इस कार्रवाई की तुलना फ्रेंच इन्कलाब 1789 से की थी। जबकि पहले चरण में 19-20 मार्च को महाड के चवदार तालाब पर अपने हजारों सहयोगियों के साथ पानी पीकर मनुष्य होने के अपने अधिकार को रेखांकित किया था।
गौरतलब था कि महाड सत्याग्रह की इस ऐतिहासिक कार्रवाई के बाद समय समय पर अपने लेखन और व्याख्यानों में डा अम्बेडकर ने मनु के विश्व नज़रिये की लगातार मुखालिफत की थी। महाड सत्याग्रह के लगभग 23 साल बाद जब भारत के संविधान का ऐलान हो रहा था, तब डा अम्बेडकर ने इस अवसर पर कहा था कि संविधान ने ‘मनु के शासन को समाप्त किया है।’
विडम्बना कही जाएगी कि इक्कीसवीं सदी की तीसरी दहाई में एक न्यायविद द्वारा मनुस्मृति का यह समर्थन - जिसे डा अम्बेडकर ने ‘प्रतिक्रांति’ का दस्तावेज कहा था - निश्चित ही कोई अपवाद नहीं कहा जा सकता।
विगत कुछ वर्षों में ऐसे मामले बार बार आए हैं, जब परोक्ष अपरोक्ष रूप से कुछ न्यायविदों ने अपने ऐसे तमाम पूर्वाग्रहों को प्रकट किया है।
दिसम्बर माह 1921 में जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पंकज मित्तल ने अधिवक्ता परिषद के कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के तौर पर व्याख्यान दिया जिसका विषय था ‘धर्म और भारत का संविधान’’।
उनका दावा था कि भारत के संविधान के प्राक्कथन में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘‘समाजवादी’’ शब्द के समावेश ने भारत की आध्यात्मिक छवि को सीमित किया है।
रेखांकित करने वाली बात न्यायमूर्ति पंकज मित्तल उस अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के कार्यक्रम में शामिल हुए थे, जिसे संघ परिवार का आनुषंगिक संगठन समझा जाता है, जिसकी स्थापना राष्टीय स्वयंसेवक संघ से जीवन भर सम्बद्ध रहे दत्तोपंत ठेंगड़ी ने की थी और ऐसी बातें भी बोल रहे थे, जो संघ परिवार के लिए बेहद कर्णप्रिय समझी जा सकती हैं।
दिसम्बर माह बीता नहीं था कि जनवरी की शुरूआत में सुप्रीम कोर्ट के एक अग्रणी जज अब्दुल नज़ीर - जो आला अदालत के कई अहम फैसलों में शामिल रहे हैं - सूर्खियों में आए जब उन्होंने इसी अधिवक्ता परिषद के सम्मेलन में शामिल होकर ‘भारतीय कानूनी व्यवस्था के गैर औपनिवेशीकरण’ विषय पर बात रखते हुए यह दावा किया कि भारत की कानूनी प्रणाली एक तरह से औपनिवेशिक कानूनी प्रणाली की विरासत है, जो भारतीय जनता के लिए अनुकूल नहीं है तथा उसके भारतीयकरण की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि ‘‘प्राचीन भारत की कानूनी प्रणाली की वास्तविक स्थिति जानने के लिए हमें प्राचीन भारतीय ग्रंथों की ओर लौटना होगा और हम पाएंगे कि भारत की वह न्याय प्रणाली कानून के राज पर टिकी थी।’’ ..उन्होंने इस बात पर भी अफसोस प्रकट किया कि किस तरह भारत की आधुनिक कानूनी प्रणाली ने ‘‘मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद, याज्ञवल्क्य आदि प्राचीन भारत के महान कानूनविदों के योगदानों की अनदेखी की है और वह ‘‘औपनिवेशिक कानूनी प्रणाली चिपकी रही है।’’ अपने व्याख्यान में उन्होंने मनु को भी याद किया जिन्होंने ‘‘अपराध के लिए सार्वजनिक निंदा की हिमायत की थी’’।
पहले जम्मू कश्मीर के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की संघ परिवार के कार्यक्रम में सहभागिता - जबकि खुद जम्मू कश्मीर में हालात अभी भी सामान्य नहीं हुए हैं और राज्य के दमनात्मक रवैये को लेकर अभी भी जनमानस में गहरा अविश्वास पसरा हुआ है। उसके तुरंत बाद सुप्रीम कोर्ट के एक जज द्वारा ऐसे ही अन्य कार्यक्रम में सम्मानित वक्ता के तौर पर पहुंचना, लाजिम था कि प्रबुद्ध दायरों में यह बहस चल पड़ी कि क्या न्यायपालिका के अंदर कोई गंभीर विचारधारात्मक शिफट हो रहा है।
याद कर सकते हैं कि बमुश्किल तीन साल पहले केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश चिदंबरेश सूर्खियों में आए थे जब उन्होंने ‘ग्लोबल ब्राहमन मीट’ अर्थात वैश्विक ब्राहमण सम्मेलन को संबोधित करते हुए ब्राहमण जाति की कथित वरीयता को रेखांकित किया था और सम्मेलन को यह आवाहन किया था कि आरक्षण का आधार क्या जाति होना चाहिए?
उनके भाषण का जो विडियो वायरल हुआ था उसमें वह यह कहते हुए नज़र आए थे कि ‘‘ब्राहमण कौन होता है ? वह द्विजन्मना होता है - दो बार जन्मता है - यह उसके पूर्वजन्म का फल होता है ’’ ..‘‘उसकी कुछ विशिष्टताएं होती हैं: अच्छी आदतें, विशाल चिन्तन, शुद्ध व्यक्तित्व, अधिकतर शाकाहारी, कर्नाटक संगीत का ज्ञाता। सभी अच्छे गुण ब्राहमण में समेटे होते हैं।’’ (.."[N]ow who is a brahmin? A brahmin is dwijhanmana - twice born...Because of poorvajanmasuhridham, he is twice born.".."He has got certain distinct characteristics: clean habits, lofty thinking, sterling character, mostly a vegetarian, a lover of Carnatic music. All good qualities rolled into one is a brahmin," ..)
न ऐसी बातें कहने के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति चिंदबरेश से कोई स्पष्टीकरण मांगा गया, न कोई कार्रवाई की बात की गयी - भले ही ऐसी मांग अम्बेडकरवादी और वाम कार्यकर्ताओं की तरफ से की गयी थी। बाद में पता चला कि केरल विधानसभा चुनावों के वक्त तब तक रिटायर्ड हो चुके जजमहोदय भाजपा में प्रवेश के लिए उत्सुक थे।
न्यायमूर्ति चिदंबरेश से पहले मेघालय उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश सुदीप रंजन सेन सुर्ख़ियों में आए थे जब किसी ‘अवैध प्रवास’ के मामले पर अपना फैसला सुनाते हुए सरकार का आवाहन किया कि उसे बहुत पहले ही भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करना चाहिए था। पाकिस्तान, बांगलादेश या अफगानिस्तान में रह रहे गैर मुसलमानों को नागरिकता प्रदान करने के लिए पहल लेने की बात की थी। जनाब सुदीप रंजन पर जब कार्रवाई करने की मांग बुलंद हुई तो मेघालय उच्च न्यायालय की द्विसदस्यीय पीठ ने इस फैसले को असंवैधानिक घोषित किया। अदालत का कहना था कि न्यायमूर्ति सुदीप रंजन का आदेश’ कानूनी स्तर पर गलत था संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर असंगत था।
न्यायमूर्ति के पूर्वाग्रह किस तरह समाज में व्याप्त विषाक्तता को मजबूती देते हैं। इसे प्रमाणित करने के लिए अंत में हम मुंबई उच्च न्यायालय के एक फैसले पर बात कर सकते हैं। मुंबई उच्च न्यायालय ने एक मुस्लिम युवक की लिंचिग के मामले में सभी अभियुक्तों को पैरोल पर रिहा किया। अदालत का तर्क था कि ‘यह मृतक की एकमात्र गलती थी कि वह दूसरे धर्म से सम्बद्ध था, यह तथ्य मैं अभियुक्तों के पक्ष में मानती हैं ' .... ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म के नाम पर वह भड़क गई।
अंत में सर्वोच्च न्यायालय को इस मुददे पर हस्तक्षेप करना पडा और अभियुक्तों की जमानत रदद करनी पडी।
कई उदाहरण, एक ही चिन्ता, भारत को पुराना गौरव कब हासिल होगा और हम विश्व गुरु कैसे बनेंगे ?
कई अन्य उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन फिलवक्त इतनाही कहना काफी होगा कि आज़ादी की इस पचहत्तरवीं सालगिरह पर न्यायपालिका पर भी गहराते बादलों को हम देख सकते हैं, जो यह संकेत जरूर देते हैं कि चीजें अब जबरदस्त उथलपुथल में हैं।
इसका समाधान क्या निकलेगा, इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।