आज़ादी @75 : कामगार महिलाओं के संघर्ष और उनकी चुनौतियां
आज़ादी के 75 वें साल में जहां महिला कामगार बड़ी संख्या में लेबर फोर्स से बाहर हो रही हैं। वहीं कामकाजी औरतों का एक बड़ा तबका राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर अपने हक़ और हुकूक की लड़ाई भी लड़ रहा है। बीते दिनों बारिश और चिपचिपी गर्मी के बीच देशभर से आई महिला मनरेगा मजदूरों ने अपनी मजबूरी, दर्द और तकलीफों को चीख-चीख कर सरकार के कानों तक पहुंचाने की कोशिश की। इससे पहले आंगनवाड़ी और आशा कार्यकत्री कई बार आंदोलन कर चुकी हैं। ये वो महिलाएं हैं जो ज्यादातर ग्रामीण परिवेश से आती हैं और कहने के लिए मज़दूर कानूनों की कम समझ रखती हैं।
बता दें कि साल 2018 में जब देश की महिलाओं ने कार्यस्थल पर भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ मीटू आंदोलन के जरिए बड़े लोगों के ख़िलाफ़ बेधड़क होकर मोर्चा खोला तब इस अभियान में उन महिलाओं की आवाज़ दबी ही रही जो असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं, कम पढ़ी लिखी हैं, जो अपने हक़ और क़ानून के बारे में जानती ही नहीं हैं। हालांकि इन जैसी महिलाओं ने ही आज़ादी के पहले से लेकर अब तक अपने अधिकार के लिए विद्रोह की मशाल जलाई रखी है। हाल ही में हुआ ऐतिहासिक किसान आंदोलन इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जहां महिला किसानों ने न सिर्फ आंदोलन में हिस्सा लिया, बल्कि इस आंदोलन की अगुवाई भी की।
आइए आज़ादी के 75 सलों के जश्न के बीच जानते हैं जानते हैं महिला कामगारों के दृढ़ हौसलों की कहानी और उनके संघर्षों की जीत से जुड़े कुछ आंदोलनों के बारे में….
दरअसल, साल 1919 में ही अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने महिला-मजदूरों के लिए पर्याप्त प्रसूति सुविधाओं के प्रावधान बनाने की बात की थी। इसमें महिला-मजदूर को प्रसूति से पहले और बाद में छह सप्ताह का आराम, माँ और बच्चे दोनों की देखरेख के लिए मुफ्त में डॉक्टर तथा नर्स की सुविधा के साथ ही औरतों को कई अन्य तरह की सहुलियतें देने के प्रवधान की चर्चा हुई थी। हालांकि उद्योगपतियों के दबाव के चलते भारत में इसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया था। धीरे-धीरे फैक्ट्री और खदान मालिकों ने महिला-मजदूरों की छंटनी शुरू कर दी ताकि, वह इस तरह की सुविधा देने से होने वाले खर्च को बचा सकें। प्रसूति के समय दी जाने वाली राशि भी अलग-अलग खदानों में अलग-अलग थी और वह भी सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहीं।
ब्रिटिश मिल संघर्ष, मुंबई
साल 1939 में मुंबई में ‘ब्रिटिश मिलों’ में कामगारों की छंटनी की गई जिसके विरोध में लगभग 700 कामगार महिलाओं ने पहली बार घेराव किया। इस विरोध में मुख्य रूप से उषाताई डांगे, पार्वतीबाई भोर, जनाबाई प्रभु, भीमाबाई कामेटकर इत्यादि सक्रिय रहीं। इसके बाद कामगार महिलाओं ने कुछ अन्य स्थानों पर भी अपनी मांगे रखीं जिसमें उन्हें मानसिक तथा शारीरिक प्रताड़ना झेलने के अलावा जान भी गंवानी पड़ी। हालांकि इसके बाद भी महिलाओं ने हिम्मत नहीं छोड़ी और कुछ सालों बाद फिर आंदोलन किया।
खानों और बागानों में काम करने वाली महिलाओं का संघर्ष
साल 1943 में मैली-छ्त्री नामक लड़की के नेतृत्व में चाय बगान में काम करने वाली बंगाल की कामगार महिलाओं ने हड़ताल की और संघर्ष किया। खदान में काम करनेवाली महिलाओं की भी लगभग यही स्थिति थी। गर्भावस्था के समय इन महिला कामगारों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता था। जैसे, प्रसव के दौरान काम न करने के कारण इनकी मजदूरी काट ली जाती थी और नौकरी से हटा दिया जाता था। ऐसी स्थिति में कामगार महिलाओं को बच्चे के जन्म के दौरान होने वाले खर्च के लिए कर्ज लेना पड़ता था।
इस संघर्ष का ही नतीज़ा था कि साल 1944 में सरकार को कामगार महिलाओं की समस्याओं के लिए रेगे समिति बनानी पड़ी। इस समिति ने अन्य समस्याओं के साथ-साथ प्रसूति संबंधी कानून के प्रभाव की भी जांच पड़ताल की। इस समिति ने यह निष्कर्ष निकाला कि अधिकांश खान मालिकों ने स्त्री कामगारों को उसके दावों के अनुसार प्रसूति लाभ नहीं दिये और इस कानून का उल्लंघन करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए। हालांकि इसके बाद भी महिलाओं को उनके हक़ों से वंचित रखा गया लेकिन उन्होंने फिर भी हार नहीं मानी और अपने मुद्दों को लेकर आज़ादी के बाद से अब तक उनका संघर्ष जारी है।
घरेलू महिला कामगार हड़ताल, पुणे
साल 1980 पुणे की घरेलू महिला कामगारों के संघर्ष के नाम रहा था। यह पहला मौका था जब पुणे में पहली बार घरेलू कामगार औरतें एकत्रित होकर विरोध कर रही थी। इस विरोध की शुरुआत तब हुई जब एक घरेलू महिला कामगार को काम से बाहर निकाल दिया था। उस महिला का दोष केवल इतना था कि वह बीमार थी और काम पर नहीं जा सकी थी। चार दिन की जगह छह दिन की छुट्टी लेने की वजह से उसका काम छूट गया था। इस घटना के बाद घरेलू कामगार महिलाएं सभी इकठ्ठा हुई और इस तरह के बर्ताव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। महिला कामगारों ने हड़ताल शुरू कर दी थी। उनकी मुख्य मांग बीमारी के दौरान छुट्टी और वेतन बढ़ोतरी थी। इस मोर्चे का नेतृत्व पुणे शहर मोलकरणी (घरेलू कामगार) संगठन ने किया था।
इस आंदोलन में पुणे शहर की सभी हाउसिंग सोसायटी में काम करने वाली महिलाएं अपना काम छोड़कर शामिल हुई थीं। इस तरह किसी को काम से निकालने और वेतन बढ़ोत्तरी को लेकर पुणे शहर की सारी महिलाएं एकजुट हो गई थी। महिला कामगारों की एकता का यह प्रभाव पड़ा था कि उनकी जीत हुईं और उनके काम को व्यसायिक दर्जा देने की बात हुई। 1980 की हड़ताल और पुणे शहर मोलकरणी संगठन के बाद अन्य घरेलू कामगार संगठन स्थापित हुए। इन संगठनों ने घरेलू कामगारों के अधिकारों और उनके काम की पहचान की दिशा में काम किया।
मुन्नार वृक्षारोपण हड़ताल, केरल
केरल का मुन्नार यूं तो अपनी प्राकृतिक खुबसूरती के लिए मशहूर है लेकिन साल 2015 में यहां महिला कामगारों के विद्रोह की एक असाधारण कहानी सामने आई। सितंबर के पहले सप्ताह में मुन्नार कन्नन देवन हिल्स प्लांटेशन लिमेटेड (केडीएचपी) के लिए एक फैसले के ख़िलाफ़ महिला मजदूरों ने हड़लात कर दी थी। यह हड़ताल मजदूरों के सालाना बोनस को 10 प्रतिशत तक करने के ख़िलाफ़ और मजदूरी बढ़ाने की मांग को लेकर हुई थी। 6 सितंबर 2015 में लगभग 5000 महिला मजदूरों ने केडीएचपीएल के दफ्तर के सामने हड़ताल करनी शुरू की थी। इस आंदोलन का नेतृत्व पूरी तरह महिलाओं ने किया था। उनका कहना था कि आदमी शराब के लाचल में आकर आसानी से प्रबंधन की बात मान लेता है।
इस आंदोलन में शामिल अधिकतर महिलाएं गैर-संघीय, मजूदर, प्रवासी और समाज में हाशिये पर खड़े वर्ग से थीं। महिलाओं ने खुद के समूह का नाम ‘पोम्बिलई ओरुमई’ दिया था जिसका मतलब ‘महिला एकता’ है। इस आंदोलन में महिलाओं ने किसी ट्रे़ड यूनियन को शामिल नहीं होने दिया था। महिलाओं का कहना था कि ट्रेड यूनियन और प्रबंधन के समझौते की वजह से मजदूर हमेशा पीछे रह जाता हैं। इस आंदोलन में महिलाएं खुद ही केंद्र में रहकर मंच संभालने से लेकर रणनीति बनाती नज़र आई थी। विरोध करने के साथ-साथ महिलाओं ने तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमान चांडी से भी वार्ता की थी। इस हड़ताल में आखिर में महिलाओं की जीत हुई। सरकार से हुई बातचीत के बाद उनके बोनस की 20 प्रतिशत बढ़ोतरी की मांग को मान लिया गया था।
महिलाओं का यह संघर्ष कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण था। इस आंदोलन के जरिए महिलाओं की नेतृत्व शक्ति को पूरे देश ने देखा और साथ ही उनके काम करने की स्थिति भी सबके सामने आई। यह आंदोलन पितृसत्ता की उस दमनकारी रचना के भी ख़िलाफ़ भी था जिसमें महिलाओं को नेतृत्व के योग्य माना नहीं जाता है।
ऐतिहासिक किसान आंदोलन में महिलाएं
महिला किसान ‘दिल्ली चलो’ आंदोलन की महज़ समर्थक ही नहीं बल्कि उसमें बराबर की भागीदार भी थीं। उन्होंने राजधानी दिल्ली के बॉर्डर पर कृषि कानून के विरोध में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपने हक़ की लड़ाई लड़ी थी, नारे लगाए थे और सत्ता की आंखों में आंखें डाल उनकी नींद उड़ा दी थी। किसान आंदोलन की सफलता को बिना महिलाओं के योदगान के याद नहीं किया जा सकता है। सर्दी हो या गर्मी हर मौसम और हालात में महिला आंदोलनकारी किसान विरोधी कानून की वापसी की मांग के लिए संघर्ष में अपना योगदान देती रहीं। आंदोलन में शामिल महिलाओं ने एक ओर मंच संभाला है तो दूसरी और प्रशासन की लाठियों का भी सामना किया था। आंदोलन में मानवाधिकारों और लोकतंत्र की बात करनेवाली इन महिलाओं में कई जीवन में पहली बार किसी आंदोलन में शामिल होने घर से बाहर निकली थी।
देश में क़ानूनी रूप से सिर्फ़ उन्हीं महिला किसानों को किसान का दर्जा दिया जाता है जिनके नाम पर भूमि का पट्टा होता है और ये गिनती महज़ नाम भर की है। लेकिन इस आंदोलन में अलग-अलग उम्र और तबके से ताल्लुक रखने वाली इन महिला किसानों ने दुनिया के सामने अपने विरोध से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी और सरकार के खिलाफ अपनी संसद लगाई। यही नहीं जब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने सवाल उठाया कि वे आंदोलन में क्या कर रही हैं तो उन्होंने बदले में सवाल किया था कि क्या महिलाएं देश की नागरिक नहीं हैं? क्यों महिलाओं को राजनीति से दूर रहना चाहिए? आंदोलन में महिलाओं की भागदारी को ‘टाइम’ मैगज़ीन ने पूरी दुनिया के सामने सशक्त आवाज़ के रूप में पेश किया था।
लेबर फ़ोर्स में घटती महिलाओं की भागीदारी
देश में कामकजी महिलाओं की चुनौतियां कम नहीं हैं। जिसके चलते देश के लेबर फ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी लगातार कम होती जा रही है। आर्थिक अवसर और अर्थव्यवस्था में जेंडर गैप की बात करें तो, भारत में महिलाओं के लिए आर्थिक अवसर बहुत सीमित है। देश की आर्थिक स्तर पर लैंगिक असमानता में रैंक कुल देशों में 143 है। हाल ही में जारी नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) के लेबर फोर्स सर्वे में बताया गया कि 15 वर्ष से ऊपर की कामकाजी जनसंख्या में महिलाओं की भागीदारी 28.7 प्रतिशत है, जबकि पुरुषों की भागीदारी 73 प्रतिशत है। वर्ल्ड बैंक के डेटा के मुताबिक भी भारत में महिलाओं की भागीदारी लेबर फोर्स में लगातार गिरावट देखी जा रही है। 2005 में भारत में लेबर फोर्स में 26.7 प्रतिशत महिलाएं थीं। साल 2021 में गिरावट के साथ केवल 20.3 प्रतिशत महिलाएं लेबर फोर्स में हैं।
एक और चौंकानेवाला तथ्य यह है कि भारत में 15 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं को उनके काम का वेतन नहीं मिल पाता है। वहीं पुरुषों में काम के बदले वेतन न मिलने का प्रतिशत 4 फीसदी है। कामकाजी महिलाओं के लिए असमानता यही खत्म नहीं होती है। कोरोना महामारी के बाद उनकी आय घट गई है, आमदनी के रास्ते बंद हो गए हैं। अब उन्हें पहले के मुकाबले आर्थिक और सामाजिक तौर पर ज्यादा संघर्ष करना पड़ रहा है। मोदी सरकार के बजट 2022 से कई लोगों को बेहद उम्मीदें थी, कामगार महिलाओं को लग रहा था कि शायद सरकार उनकी जिंदगी दोबारा पटरी पर लाने के लिए कुछ कदम उठाए। हालांकि मोदी सरकार के अमृतकाल बजट में महिलाओं को कोई खास जगह नहीं मिली। सुरक्षा से लेकर सशक्तिकरण और स्वायत्तता की चुनौतियों में महिलाओं को केवल निराशा ही हाथ लगी। बहरहाल, उम्मीद पर दुनिया कायम है और हमारे देश की कामगार महिलाएं अपने संघर्षों के दम पर अपने बेहतर कल की उम्मीद जिंदा रखे हुए हैं।
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