उपचुनावों में भाजपा की चुनावी रणनीति को लगा करारा झटका
विभिन्न राज्यों की सात विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे भविष्य के लिए कुछ महत्वपूर्ण संकेत देते नज़र आते हैं। आम तौर पर, देश में समय-समय पर होने वाले छिटपुट उप-चुनावों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता है। अक्सर इस तरह के चुनावों में सत्ताधारी दलों को फायदा रहता है, लोग उदासीन होते हैं और स्थानीय समीकरण या उम्मीदवार का व्यक्तित्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन बीजेपी के सत्ता में आने के बाद चीजें बदल गई हैं। हर चुनावी लड़ाई को गंभीरता से लेने की उनकी घोषित नीति की वजह से इन उप-चुनावों में भी ज़्यादातर सीटों पर मुख्यमंत्रियों और उनके वरिष्ठ मंत्रियों की भारी उपस्थिति देखी गई है। बताया गया कि जिला प्रशासन कानून और व्यवस्था के रखरखाव को 'सुनिश्चित' करने में सक्रिय रूप से शामिल था, जिसका फ़ायदा सत्तारूढ़ दल की चुनावी रणनीति को सुविधाजनक बनाने में हुआ। और, भाजपा की राज्य और केंद्र सरकार के प्रसिद्ध 'डबल इंजन' मॉडल के नारे को उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा और उत्तराखंड में प्रचारित किया गया। जबकि अन्य राज्यों - केरल, झारखंड और पश्चिम बंगाल में भाजपा ने मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की तथाकथित उपलब्धियों का बखान करते हुए राज्य सरकार की विफलताओं की आलोचना की।
फिर भी, नतीजों में न केवल विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. को चार सीटों पर जीत मिली और उसके मुकाबले बीजेपी के एनडीए को तीन सीटों पर जीत हासिल हुई, बल्कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के विवरण से एक बड़ी कहानी का पता चलता है। आइए इनमें से कुछ पर एक नज़र डालें।
घोसी- जातीय समीकरणों की हार
घोसी सीट पूर्वी यूपी के मऊ जिले में स्थित है, यहां समाजवादी पार्टी ने बीजेपी को 42,759 वोटों से हरा दिया है। जनता का यह फैसला एकदम निर्णायक और स्पष्ट फैसला था। घोसी भाजपा की पूरी की पूरी चुनावी रणनीति का जैसे एक प्रकार का अग्निकुंड बन गया था। उसकी वजह यह है कि, जिला प्रशासन ने कथित तौर पर मुस्लिम-बहुल इलाकों में भारी पुलिस बल तैनात किए और यहां तक कि उपद्रवियों पर नजर रखने के लिए घर-घर जाकर दौरा भी किया, लेकिन वास्तव में, मतदाताओं को वोट देने के लिए नहीं आने की धमकी दी गई। जब यह सब ज़मीन पर चल रहा था, तब भाजपा ने ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) और संजय निषाद के नेतृत्व वाली निषाद पार्टी को सफलतापूर्वक लुभाकर अपने जाति-आधारित गठबंधन के साथ जोड़ लिया था। ये दो छोटे दल दावा करते हैं कि, दो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समुदायों, राजभर और निषाद उनके पक्के अनुयायी हैं, जिनकी पूर्वी यूपी में महत्वपूर्ण उपस्थिति है। भाजपा के उम्मीदवार खुद दारा सिंह चौहान थे, जो एक ओबीसी नेता हैं, जो 2022 में भाजपा छोड़कर सपा में चले गए थे, उन्होंने सपा के टिकट पर घोसी सीट जीती थी और फिर वे भाजपा में शामिल हो गए और सीट से इस्तीफा दे दिया था।
घोसी, 2024 में आने वाले आम चुनाव की तैयारी के लिए अपनाई जाने वाली भाजपा की रणनीति का एक महत्वपूर्ण इम्तिहान था। अन्य पहलुओं के अलावा इस रणनीति का मक़सद, गैर-यादव ओबीसी का समर्थन हासिल करना था। भाजपा के लिए पूर्वी यूपी में ऐसे प्रयास करना और भी जरूरी हो गए हैं क्योंकि इस विशाल घनी आबादी वाले इलाके में उसका प्रदर्शन लगातार गिरता जा रहा है। 2014 के आम चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत पाने के बाद भी, भाजपा 2019 के चुनाव में क्षेत्र की आठ लोकसभा सीटें हार गई थी। फिर, 2022 के विधानसभा चुनावों में भी, भाजपा ने आज़मगढ़, मऊ, गाज़ीपुर, अंबेडकर नगर, जौनपुर आदि सहित पूर्वी यूपी के कुछ प्रमुख जिलों में खराब प्रदर्शन किया था।
उनकी सोच में जो गलती रही वह यह कि ओबीसी नेताओं और उनकी पार्टियों को अपने पाले में वापस लाने से इसके नुकसान की भरपाई हो जाएगी। इसने एक बार फिर गलती से यह सोच लिया कि दलित और ऊंची जाति के मतदाता इसका समर्थन करना जारी रखेंगे। हालाँकि, घोसी उपचुनाव में ये सभी गणनाएँ नाटकीय रूप से उलट गईं। बहुजन समाज पार्टी ने घोषणा की थी कि उसके समर्थक - मुख्य रूप से जाटव उपजाति के मतदाता - या तो वोट नहीं देंगे या नोटा को वोट देंगे। हालाँकि, नोटा में केवल 1,725 वोट गए। ऐसा लगता है कि उन्होंने सपा उम्मीदवार को वोट दिया है। इसी तरह, ऊंची जाति के मतदाताओं का एक वर्ग भी सपा की ओर आ गया लगता है, उसे शायद इस बात का फायदा मिला कि सपा का उम्मीदवार ऊंची जाति का था।
लेकिन घोसी से बड़ा सबक जो सामने आता है वह यह कि लोग पारंपरिक गणना के मुताबिक वोट नहीं दे रहे थे। इसलिए आप देखें कि राजभर और निषाद/मल्लाह ने भाजपा को इसले वोट नहीं दिया क्योंकि उनके तथाकथित नेता उस खेमे में चले गए थे। दलित बीजेपी के साथ नहीं गए। ऊंची जातियां भी बंट गईं। संक्षेप में, भाजपा के खिलाफ एक बड़ा और मजबूत कारक काम कर रहा है। वह क्या है? आइए जानते हैं!
ये बीजेपी का प्रदर्शन है। योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाले डबल इंजन वाले राज्य यूपी की उपलब्धियों के बारे में अक्सर पीएम मोदी प्रशंसा करते हैं। फिर भी, केंद्र सरकार और राज्य सरकार की संयुक्त नीतियों से आम जनता में मोहभंग की प्रबल भावना पैदा हुई है। महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की गिरती आय, पुलिस उत्पीड़न, दलितों पर ऊंची जाति के अत्याचार, बिगड़ती कानून व्यवस्था - इन सभी के चलते आम लोगों में नाराजगी पैदा हुई है जो घोसी उपचुनाव में सामने आई है। इस प्रक्रिया में, इसने भाजपा की चुनावी रणनीति के दोनों हिस्सों को नष्ट कर दिया है - मुस्लिम मतदाताओं को दूर रखने के लिए जोर-जबरदस्ती का इस्तेमाल और साथ ही जीत के लिए जाति समीकरण का इस्तेमाल। INDIA गठबंधन द्वारा प्रतिनिधित्व की जाने वाली विपक्षी पार्टियों की एकता भी एक महत्वपूर्ण कारक थी। धुरी तो सपा थी लेकिन इसे कांग्रेस और वामपंथी दलों का भरपूर समर्थन मिला।
उत्तराखंड और त्रिपुरा – ज़ोर ज़बरदस्ती और धमकी
इन दोनों राज्यों में बीजेपी ने अपनी तीन सीटें जीत ली हैं। उत्तराखंड की बागेश्वर सीट पर, भाजपा ने पार्वती दास को मैदान में उतारा था, जिनके पति विधायक थे, जब उनका निधन हो गया, तो उपचुनाव की जरूरत पड़ी। तो, इसमें एक सहानुभूति का कारक काम कर रहा था। लेकिन इसके अलावा, मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और उनके मंत्रियों की देखरेख में, जिन्होंने कथित तौर पर एक पखवाड़े तक इलाके में डेरा डाला हुआ था, कांग्रेस समर्थक और अन्य कार्यकर्ता भारी दबाव में आ गए थे। सभाओं की अनुमति नहीं दी गई, जुर्माना लगाया गया और भाजपा का विरोध करने वालों के लिए हर तरह की बाधाएं पैदा की गईं। न्यूज़क्लिक पर स्वतंत्र और वरिष्ठ पत्रकार रश्मि सहगल की एक रिपोर्ट में इसका विवरण दिया गया है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस इस दबाव को झेलने में सक्षम नहीं थी और उसे केवल 2,045 वोट पाकर बड़ी हार का सामना करना पड़ा।
इसी तरह की, लेकिन बेहद व्यापक रणनीति ने त्रिपुरा में दो सीटों पर भाजपा की जीत सुनिश्चित की। इनमें से एक पर पहले बीजेपी का ही कब्ज़ा था जबकि दूसरे पर सीपीआई (एम) का कब्ज़ा था। सीपीआई (एम) ने त्रिपुरा के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को एक ज्ञापन सौंपा है जिसके अनुसार, 3 सितंबर की रात से बड़ी संख्या में "भाजपा उपद्रवियों" को मतदान केंद्रों के आसपास के इलाकों पर कब्जा करने की अनुमति दी गई थी। ज्ञापन के अनुसार, मतदान के दिन इन तत्वों ने विपक्षी पार्टी के मतदाताओं को डराया-धमकाया। सीपीआई (एम) ने आरोप लगाया कि: “23-धनपुर सीट के मोहनभोग इलाके में, भाजपा के एक मंत्री श्री विकास देबबर्मा ने भौतिक रूप से आतंक अभियान का नेतृत्व किया। मंत्री श्री विकास देबबर्मा ने अपने साथ आए भाजपा समर्थकों को मोहनभोग में टीवाईएफ नेता जयंत देबबर्मा पर हमला करने के लिए उकसाया, जिनका इलाज अगरतला के जीबी पंत अस्पताल में किया गया।
ज्ञापन के अनुसार, 20-बॉक्सानगर सीट पर केवल 16 सीपीआई (एम) पोलिंग एजेंट और 23-धनपुर सीट पर 19 पोलिंग एजेंट ही संबंधित मतदान केंद्रों पर उपस्थित हो सके। लेकिन उनमें से अधिकांश को भाजपा द्वारा जुटाए गए उपद्रवियों ने जबरन मतदान केंद्रों से बाहर निकाल दिया था। नतीजे इन घटनाओं का संकेत देते हैं- बॉक्सानगर में, जहां भाजपा उम्मीदवार को 34,146 वोट मिले, वहीं सीपीआई (एम) उम्मीदवार को कुल मिलाकर केवल 3,909 वोट मिले। हालांकि यह संभव है कि भाजपा किसी भी स्थिति में सीट जीत गई होती, लेकिन सीपीआई (एम) उम्मीदवार के पक्ष में बहुत कम मतदान यह संदेह पैदा करता है कि यह निष्पक्ष चुनाव नहीं था। कुछ ही महीने पहले हुए चुनाव में, सीपीआई (एम) को बॉक्सानगर में 19,404 वोट मिले थे और सीट पर जीत दर्ज़ की थी।
अन्य राज्य
केरल में, भाजपा उम्मीदवार को केवल 6,558 वोट मिले, जो मतदान का 5 प्रतिशत है। पिछली बार से प्रदर्शन और भी खराब रहा है। झारखंड की डुमरी सीट पर, INDIA गठबंधन का प्रतिनिधित्व करने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के उम्मीदवार ने ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (AJSU) पार्टी के भाजपा समर्थित उम्मीदवार को 17,153 वोटों से हराया। वहीं पश्चिम बंगाल के धूपगुड़ी में तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार ने बीजेपी उम्मीदवार को 4309 वोटों से हराया है।
हालांकि यहां यह तर्क नहीं है कि ये नतीजे दिखाते हैं कि बीजेपी राज्यों या लोकसभा में आने वाली लड़ाई हार जाएगी, गंभीरता से विचार करने लायक बात यह है कि बीजेपी और पीएम मोदी के सभी प्रयासों के बावजूद आने वाले चुनावों को जीतने के लिए हर संभव हथियार का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन लोगों के सोचने का तरीका अलग रहा है। जी-20 कार्यक्रमों या विभिन्न विदेशी यात्राओं का इस्तेमाल करना, एलपीजी सिलेंडर की कीमतों में कटौती जैसी विभिन्न रियायतों की घोषणा करना, INDIA बनाम भारत या "एक राष्ट्र एक चुनाव" के बारे में ध्यान भटकाने वाली बहस, और लोगों तक पहुंचने के लिए अपने 'कार्यकर्ताओं' को तैनात करने के सभी संगठनात्मक प्रयास - यह सब भी इन छोटे चुनावों में जीत सुनिश्चित नहीं कर पाए। विपक्ष को उन मुद्दों के इर्द-गिर्द अपना समर्थन बनाने की ज़रूरत है जो आर्थिक संकट और मोहभंग से तबाह लोगों को परेशान कर रहे हैं। जनता तैयार है, लेकिन विपक्ष को आगे आने की जरूरत है।
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