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बनारस में नीतीश की रैली से ख़ौफ़ में बीजेपी!, नहीं मिला सभा के लिए मैदान, गरमाई सियासत

"कई दिनों तक आज-कल करते हुए कालेज प्रबंधन ने चुनावी रैली के लिए मैदान के एवज में दी गई धनराशि यह कहते हुए लौटा दी कि उन्हें बुलडोजर नहीं चलवाना है।” 
Nitish kumar

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के रोहनियां स्थित जगतपुर इंटर कालेज के प्रांगण में 24 दिसंबर को प्रस्तावित नीतीश कुमार की रैली फिलहाल रद्द कर दी गई है। जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के यूपी प्रभारी श्रवण कुमार ने इसके लिए बीजेपी सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। वह कहते हैं, "कई दिनों तक आज-कल करते हुए कालेज प्रबंधन ने चुनावी रैली के लिए मैदान के एवज में दी गई धनराशि यह कहते हुए लौटा दी कि उन्हें बुलडोजर नहीं चलवाना है। वो चाहें तो पेशगी के रूप में दी गई धनराशि के एवज में कालेज प्रबंधन दोगुनी रकम लौटा सकता है।"

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की रैली रद्द होने से यूपी की सियासत इसलिए गरमा गई है क्योंकि वह पूर्वांचल में कुर्मी-पटेल वोटबैंक को बनारस से साधने आ रहे थे। यूपी में इस समुदाय के वोटरों की तादाद इतनी है कि वो किसी भी दल का सियासी गुणा-गणित गड़बड़ा सकते हैं। नीतीश इसी महीने 24 तारीख को चुनावी शंखनाद फूंकने बनारस आ रहे थे। इनकी रैली की सफल बनाने के लिए बिहार के मंत्री श्रवण कुमार कई दिनों से डेरा डाले हुए थे। वह लगातार गांवों में बैठकें कर रहे थे। 14 दिसंबर को उन्होंने नीतीश की प्रस्तावित रैली यह कहते हुए रद्द कर दी कि जगतपुर इंटर कालेज के प्रबंधन ने हाथ खड़े कर दिए हैं।

तलाशी जा रही नई ज़मीन

चुनावी रैली के लिए अब नए सिरे से जमीन तलाशी जा रही है। ज्यादातर किसानों ने अपने खेतों में फसलें बो रखी हैं। इसलिए जदयू की मुश्किलें बढ़ गई हैं। दूसरी बात, रैली के लिए किसी एक व्यक्ति के पास इतनी जमीन नहीं है कि वो मुआवजा लेकर अपनी जमीन दे सके। बिहार के ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार कहते हैं, "यूपी में बुलडोजर के अलावा ईडी व सीबीआई का खौफ इतना ज्यादा है कि खेती-किसानी करने वालों में जबर्दस्त आतंक हैं। हम गांवों में जा रहे हैं तो पता चलता है कि डबल इंजन की सरकार से ग्रामीण बाशिंदे भी आतंकित हैं। हम भले ही सिंगल इंजन की सरकार हैं, लेकिन हमारी आरक्षण और रोजगारपरक नीतियां उनसे बेहतर हैं।"

जदयू नेता श्रवण कुमार बनारस के गांव में बैठक करते हुए

‘न्यूज़क्लिक’ से बातचीत में श्रवण यह भी कहते हैं, "जगतपुर इंटर कालेज के मैदान की स्वीकृति के लिए पिछले एक हफ्ते से आज-कल किया जा रहा था। फिर अचानक यह कहते हुए मना कर दिया गया कि उनके ऊपर बहुत दबाव है। कालेज प्रबंधन की ओर से उन्हें बताया गया कि शिक्षा विभाग के एक अफसर ने नीतीश की सभा के लिए मैदान नहीं देने की धमकी दी। इस अफसर का कहना था कि जगतपुर इंटर कालेज के ग्राउंड पर जदयू की रैली तभी हो सकती है जब अपना दल (सोनेलाल पटेल) के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं मंत्री आशीष पटेल कहेंगे। जनसभा को अनुमति देने में पुलिस और प्रशासन भी हीला-हवाली कर रहा है। सरकार व प्रशासन जान-बूझकर रैली रुकवा रहे हैं। हम चाहें तो बीजेपी को बिहार में भी रैली करने से रोक सकते हैं, लेकिन हमारा लोकतंत्र में गहरा भरोसा है। हम किसी को रैली ही नहीं, आंदोलन-प्रदर्शन करने से नहीं रोकते। बनारस में नीतीश की चुनावी रैली अगले महीने जरूर होगी। हम जल्द ही रैली की नई तिथि का ऐलान करेंगे।"

मिर्जापुर के वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक राजीव ओझा कहते हैं, "अनुप्रिया और उनके पति आशीष का कुर्मी-पटेल समुदाय में तेजी से क्रेज घटता जा रहा है। इंजीनियरिं‍ग छोड़कर पॉलिटिक्स में आए आशीष, केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के पति हैं और अपना दल (सोनेलाल) के मेन स्ट्रैटजिस्ट हैं। नीतीश की रैली से दोनों नींद उड़ गई है। कुर्मी-पटेल समुदाय के लोगों में नीतीश कुमार की नीतियों से एक नई उम्मीद जगने लगी है। जब खुफिया एजेंसियों ने सरकार को अगाह किया तो सिर्फ अपना दल (सोनेलाल) ही नहीं, बीजेपी को पसीने छूटने लगे। दरअसल, बनारस के रोहनिया विधानसभा के जिस इलाके में नीतीश की रैली होने वाली थी उस क्षेत्र में कुर्मी-पटेल वोटबैंक का दबदबा है। इस वोटबैंक पर फिलहाल बीजेपी का कब्जा है।"

मिर्जापुर की सोशल एवं पॉलिटिकल एक्टिविस्ट प्रज्ञा सिंह कहती हैं, "नीतीश की रैली को लेकर जदयू लगातार बैठकें कर रहा था। सत्तारूढ़ दल ने जिस तरह से रैली रद्द कराई है वह लोकतंत्र के लिए चिंता का सबब है। जदयू के प्रभारी श्रवण कुमार पिछले एक हफ्ते से रैली के लिए कालेज मैदान की अनुमति लेने के लिए प्रयासरत थे। आखिर में कालेज प्रबंधन ने हाथ खड़े कर दिए। साथ ही यह भी कह दिया कि उन्हें कालेज पर बुलडोजर नहीं चलवाना है। कालेज की मान्यता छिन गई और अथवा बुलडोजर चल गया तो क्या जदयू के लोग बचाने आएंगे? कुर्मी-पटेल समुदाय के लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि नीतीश रैली नहीं देने के पीछे किसका हाथ हो सकता है? बड़ा सवाल यह है कि कालेज प्रबंधन पर किसका दबाव था? "

आरोप-प्रत्यारोप का नया दौर

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चुनावी रैली के लिए जगतपुर इंटर कालेज का मैदान नहीं देने से सियासत गरमा गई है। राजद सांसद मनोज झा ने इस मामले में तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है, "पीएम नरेंद्र मोदी बनारस के मालिक और नए कोतवाल हैं क्या? " जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने कहा है कि  29 दिसंबर को दिल्ली में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है, जिसमें इंडिया गठबंधन के साथ रहते हुए आगे की रणनीति पर मंथन होना है। यह बैठक काफी अहम है। बैठक में बनारस की चुनावी रैली की नई तिथि घोषित की जा सकती है। बनारस में जनवरी में जदयू की चुनावी रैली जरूर होगी।

बीजेपी की प्रतिक्रिया

नीतीश की रैली को लेकर छिड़ी सियासत पर बीजेपी ने भी पलटवार किया है। बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी ने कहा है कि अब नीतीश कुमार बनारस में रैली करें या फूलपुर से चुनाव लड़ लें, उन्हें कोई कहीं पूछने वाला नहीं है। जदयू यूपी और अब एमपी विधानसभा की दस सीटों पर जमानत जब्त कराकर बिहार के बाहर अपनी औकात देख चुका है। एमपी, छत्तीगढ़ और राजस्थान में बीजेपी की बंपर जीत के बाद पार्टी ने छत्तीसगढ़ में आदिवासी समुदाय के विष्णु साय, मध्य प्रदेश में पिछड़े वर्ग के डॉ. मोहन यादव और राजस्थान में सवर्ण समाज के भजन लाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाकर सामाजिक न्याय का अनूठा उदाहरण पेश किया है।"

"अब इंडिया गठबंधन पंक्चर हो गया है और आगामी लोकसभा चुनाव से पहले उसकी हवा निकल गई है। इंडिया गठबंधन अभी तक अपनी उप-समितियों की बैठक तक नहीं कर पाया है। जैसे ही उनके साझा उम्मीदवारों की सूची बनेगी, यह गठबंधन दरकना शुरू हो जाएगा। तीन राज्यों में बीजेपी की शानदार विजय और धारा-370 हटाने के पक्ष में आया सुप्रीम कोर्ट का निर्णय साल 2024 के संसदीय चुनाव का एजेंडा तय कर चुका है। सपनों में खोए नीतीश कुमार शायद हवा का रुख देखना नहीं चाहते हैं।"

कुर्मी वोटबैंक पर सियासत क्यों?

मान्यता है कि कुर्मी-पटेल एक वैदिक क्षत्रिय जाति है जो उन लोगों के लिए बनाई गई है जिन्होंने खेती को अपने व्यवसाय के रूप में चुना है। कुर्मी शब्द 'कुनाबी' से बना है जिसका अर्थ है किसान। संस्कृत में कुर्मी का अर्थ है 'करने की क्षमता'। पाटीदार (कुर्मी-पटेल) गुजरात, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान अन्य राज्यों में निवास करने वाली जाति है। पटेल उपनाम इनमें काफ़ी इस्तेमाल होता है। कुर्मी, उत्तर भारत में पूर्वी गंगा के मैदान की एक गैर-कुलीन किसान जाति है। उत्तर प्रदेश के सियासी दल कुर्मी-पटेल की ताकत को अच्छी तरह से जानते हैं। सामाजिक तौर पर यह जाति काफी मजबूत है, लेकिन राजनीतिक तौर पर पिछड़ी हुई है। पिछले कुछ सालों में इस जाति के अंदर भी राजनीतिक भूख दिखाई दे रही हैं।

कुर्मी समुदाय को लामबंद करने के लिए सबसे पहले (दिवंगत) कांशीराम के सहयोगी रहे (दिवंगत) सोनेलाल पटेल ने दो दशक पहले मुहिम शुरू की थी। इनकी पार्टी अपना दल का नेतृत्व उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल कर रही हैं। इनकी जाति भी कुर्मी है। वह केंद्र सरकार में केंद्रीय वाणिज्य व उद्योग राज्यमंत्री हैं। मौजूदा समय में उनकी बीजेपी के सहयोगी दल के रूप में पहचान है। आगामी लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए और इंडिया में कुर्मी समाज का रहनुमा बनने की होड़ है। एक तरफ बीजेपी के नेता अपना दल (एस) को साधने का प्रयास कर रहे हैं तो दूसरी ओर अपना दल (कमेरावादी) के साथ सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव तनकर खड़े हैं। दोनों  ही  दल  अच्छी तरह से  जानते हैं कि यूपी में छह फीसदी कुर्मी वोटबैंक लोकसभा चुनाव की फिजा बदल सकता है।

यूपी की करीब 145 विधानसभा सीटों पर कुर्मी-पटेल समुदाय का प्रभाव है। पूर्वांचल में 65, बुंदेलखंड में 10 और मध्य यूपी में 48 सीटों पर कुर्मी समुदाय के करीब 50-50 हजार वोटर हैं। यूपी में कुर्मी-सैथवार समाज का वोट करीब छह से आठ फीसदी है, जो कई उपजातियों में बंटी हुई है। इन्हें पटेल, गंगवार, कटियार, निरंजन, उत्तम, उमराव, सचान, चौधरी, वर्मा, कनौजीया, चंदेल, जैसवार, मल्ल, चनऊ, सैथवार जैसे उपनाम से जाना जाता है। बुंदेलखंड क्षेत्र में कुर्मी, पटेल, कटियार, निरंजन और सचान कहलाते हैं। अवध और पश्चिमी यूपी के क्षेत्र में कुर्मी समाज के लोग वर्मा, चौधरी और पटेल नाम से जाने जाते हैं। यूपी की राजनीति में रामपूजन वर्मा, रामस्वरूप वर्मा, बरखू राम वर्मा, बेनी प्रसाद और सोनेलाल पटेल कुर्मी समाज के दिग्गज नेता माने जाते थे।

यूपी में किसकी कितनी हैसियत

यूपी में अपना दल के अस्तित्व में आने के बाद से ही कुर्मी वोट पर सोनेलाल पटेल के परिवार का दबदबा है। साल 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपना दल-एस को दो सीटें थीं और पार्टी ने दोनों सीटें जीतीं। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए में रह कर अपना दल ने चुनाव लड़ा तो एक सांसद भी अपना दल से मिल गया। अपना दल जब दो फाड़ हुआ तो सोनेलाल पटेल की छोटी बेटी अनुप्रिया पटेल कुर्मी समाज की एक बड़ी छत्रप के रूप में उभर कर आईं। साल 2017 में बीजेपी के साथ मिलकर उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ा और 11 सीटें में 9 सीटों पर जीत हासिल की। साल 2022 के चुनाव में पार्टी के खाते में 17 सीटें आईं और 12 सीटों पर जीत हासिल हुई। यूपी में समाजवादी पार्टी और भाजपा के बाद अपना दल (एस) तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी।

पिछले विधानसभा चुनाव से अपना दल (कमेरावादी) सपा के साथ है। अनुप्रिया पटेल की बड़ी बहन पल्लवी पटेल ने ओबीसी के बड़े नेता केशव प्रसाद मौर्य को सिराथू सीट से हराया था। आगामी लोकसभा चुनाव में एनडीए और इंडिया को सोनेलाल पटेल परिवार की जरूरत है। यूपी की सियासत में कुर्मी समुदाय के सबसे बड़े नेता नीतीश कुमार की इंट्री से इस परिवार की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि नीतीश कुमार अपनी पुख्ती नीतियों के चलते यूपी की सियासत में बड़ी लकीर खींच सकते हैं।

पिछड़ी जातियों को रोल अहम

उत्तर प्रदेश के चुनावी रण में गैर-यादव पिछड़ी जातियों की भूमिका काफी अहम है। इनमें मुख्य रूप से कुर्मी-पटेल, कुशवाहा-मौर्या-शाक्य-सैनी, लोध, गंडेरिया- पाल-गड़ेरिया-बघेल, लोहार-विश्वकर्मा, निषाद-मल्लाह-बिंद-कश्यप-केवट, तेली-साहू-जयसवाल, जाट, कुम्हार-प्रजापति, चौहान, कहार-नाई, चौरसिया, राजभर, और गुज्जर हैं। पिछले साल यूपी में हुए विधानसभा चुनाव में सर्वाधिक कुर्मी विधायक चुने गए। ओबीसी में उनकी आबादी यादव समुदाय से कम है। इसके बावजूद 41 कुर्मी विधायक जीते, जिनमें बीजेपी गठबंधन से 27, सपा गठबंधन से 13 और कांग्रेस पार्टी से एक विधायक जीतकर सदन पहुंचे। इनके मुकाबले विधानसभा चुनाव जीतने वाले यादव विधायकों की तादाद 27 है, जिसमें सपा के 24 और बीजेपी के तीन विधायक हैं।

मौजूदा समय में कुर्मी समाज के कुल आठ सांसद हैं, जिनमें छह बीजेपी, एक बसपा और एक अपना दल (एस) से हैं। मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में पंकज चौधरी और अनुप्रिया पटेल शामिल हैं। यूपी में योगी सरकार के मंत्रिमंडल में कुर्मी समुदाय के तीन मंत्री हैं। अबकी समाजवादी पार्टी पूरी ताकत के साथ कुर्मी वोटों को अपने पाले में लाने में जुटी है।

वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "यूपी की सियासत में कुर्मी एक ऐसा वोट बैंक है जो कभी किसी दल का पिछलग्गू बनकर नहीं जुड़ा रहा। इस समुदाय के लोग सिर्फ यूपी ही नहीं, बिहार के चुनावों में भी अपना असर डालते हैं। इंडिया गठबंधन के बाद केंद्र की राजनीति में नीतीश कुमार की भूमिका अहम हो गई है। अनुप्रिया पटेल की राजनीतिक विरासत में वह सेंध लगाना चाहते हैं। अनुप्रिया उन्हें यूपी की सियासत में उतरने से रोकना चाहती हैं। बनारस नीतीश की चुनावी रैली रुकवाने के लिए सिर्फ अनुप्रिया ही नहीं, बल्कि बीजेपी भी परेशान है, क्योंकि पीएम मोदी कुर्मी-पटेल वोटों की बदौलत ही चुनाव में अपना ग्राफ बढ़ाते रहे हैं।"

"नीतीश की धमक से अबकी बीजेपी नेताओं के अभी से पसीने छूट रहे हैं। बात यहां तक आ पहुंची है कि अगर नीतीश कुमार बनारस से ताल ठोंकते हैं तो मोदी यहां से चुनाव लड़ने का इरादा बदल सकते हैं। नीतीश इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरेंगे तो मोदी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं, क्योंकि विधानसभा की सेवापुरी, रोहनिया में उनका कुर्मी-पटेल वोटबैंक खिसक सकता है। कैंट में भी इस समुदाय की बड़ी आबादी है। शहर दक्षिणी और उत्तरी सीट पर मुसलमानों के थोक वोट के साथ यादवों और गैर-पिछड़ों का वोट लेकर नीतीश बनारस में मोदी की मुश्किलें बढ़ा सकते हैं।"

पत्रकार राजीव यह भी कहते हैं, "नीतीश को बनारस में रैली करने का अवसर देने से रोकना एक तरह से अघोषित डिक्टेटरशिप है। मोदी किसी भी सूरत में नहीं चाहते हैं कि यूपी में नीतीश की इंट्री हो ताकि, पिछड़े वोटबैंक का ध्रुवीकरण हो जाए। यूपी में पिछड़ों के कंधे पर ही डबल इंजन की सरकार टिकी है। इनका कंधा तनिक भी डगमगा गया तो बीजेपी सरकारों को ढेर होते देर नहीं लगेगी। वैसे भी यूपी दिल्ली की सत्ता यूपी के रास्ते से ही होकर जाती है। बीजेपी पिछड़ों का वोटबैंक लेती है, लेकिन उन्हें उनके वाजिब हक और अधिकारों से वंचित रखती है। धर्म की आड़ लेकर वह हर असंभव काम को संभव करती आ रही है। बिहार सरकार नौकरियों में बाकी राज्यों के बेरोजगार नौजवानों को खुला अवसर दे रही है। साथ ही आरक्षित पदों को भरने के लिए नौकरशाही की नकेल भी कसे हुए है। नीतीश सरकार की दोनों नीतियां ऐसी है जो न सिर्फ बीजेपी, बल्कि बनारस के सांसद मोदी को डराने के लिए काफी है।

विपक्ष को क्यों रोक रही सरकार 

यूपी की राजनीति में गहरी पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र राय कहते हैं, "मोदी को यह कतई अच्छा नहीं लगेगा कि नीतीश उनके इलाके में चुनावी बिगूल फूंकें। प्रशासन भी नहीं चाहेगा कि किसी तरह से यहां उनकी सभा हो। शायद उसी का नतीजा है कि जगतपुर इंटर कालेज प्रबंधन जिला विद्यालय निरीक्षक के अर्दब में आ गया होगा। धमकी के बावजूद सभा हो भी गई तो भी कालेज प्रबंधन का डर लाजमी है। सरकार के लिए वह तो नरम चारा है। उसे पता है कि प्रशासन चाहेगा तो कालेज में ढेर सारी खामिया निकालकर उसकी बिल्डिंग पर बुलडोजर चलवा देगा। वैसे भी अब कहीं भी बुलडोजर चलाने के लिए कानून और अदालत की सहमति नहीं ली जा रही है। कालेज का मामला है इसलिए प्रबंधन दबाव में आ गया होगा। जहां तक प्रशासन का सवाल है तो वह खुद भी नीतीश की रैली के लिए जमीन नहीं देगा।"

"बीजेपी सरकार की नीति को इस बात से भी समझा जा सकता है कि वह विरोधियों को अपनी बात कहने का मौका ही नहीं देना चाहती है। 14 दिसंबर 2023 को संसद में जब विपक्ष ने हमले के बाबत बयान देने की मांग उठाई और पूछा कि हमला कैसे हो गया? इतनी बड़ी लापरवाही कैसे बरती गई? बयान देने के बजाय विपक्ष के कई सांसदों को निलंबित कर दिया गया। कुछ ही रोज पहले जेएनयू में नोटिस जारी की गई है कि स्टूडेंट्स कैंपस में न पोस्टर लगा सकते हैं और न ही सभा कर सकते हैं। आदेश का उल्लंघन करने में 20 हजार जुर्माना और रिस्टिकेशन का अल्टीमेटम दिया गया है।"

"सभा करना और पोस्टर लगाना लोकतांत्रिक अधिकार है। संसद में वेल में जाना, अपनी मांग उठाना और नारे लगाना डोमोक्रेटिक राइट्स है। लिखने-पढ़ने वाले सैकड़ों लोग हिन्दुस्तान की जेलों में बंद हैं। चाहे वो पत्रकार हो या यू-ट्यूबर हों। सरकार के खिलाफ सोशल मीडिया पर लिखने वाले भी जेलों में कैद हैं। मोदी सरकार अपने खिलाफ विरोध का कोई मौका नहीं देना चाहती है। वो कोई ऐसा मौका ही नहीं देना चाहती कि विपक्ष कोई मांग उठाए, धरना दे, नारे लगाए। महामारी के दौर में हर जगह धारा 144 लागू थी। ढेरों गड़बड़ियां हो रही थीं।"

मोदी सरकार की दमनकारी नीतियों पर सवाल खड़ा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र यह भी कहते हैं, "अपने लिए बीजेपी सभी रास्ते खोल लेती है और विपक्ष के लिए कुछ भी नहीं है। महामारी के दौर में बीजेपी सरकार ने खूब मनमानी की। कोरोना के नाम पर विपक्ष को हर जगह रोका गया। विपक्ष को कहीं कोई सभा नहीं करने दी गई, जबकि पश्चिम बंगाल की चुनावी रैलियों में वो हजारों-लाखों की भीड़ जुटाते रहे। इनका सांसद लोकसभा में गाली देता है तो उसका बाल-बांका नहीं होता, विपक्ष के सांसदों को निकाल बाहर करते हैं। विपक्ष को कोई स्पेस नहीं देना चाहते। कोई आवाज न उठाए, मांग न करे, धरना-प्रदर्शन भी न करे।"

"बीजेपी सरकार अब ऐलानिया तौर पर संविधान और नियमों के खिलाफ काम कर रही है। इसीलिए नीतीश कुमार की चुनावी रैली नहीं होने दी जा रही है। किसानों को वो दिन याद है जब बीजेपी सरकार ने कृषि कानूनों के खिलाफ उनके आंदोलन को क्रश करने के लिए क्या-क्या नहीं किया? सड़कों पर कीलें तक ठोकवा दी गई थीं। अब विपक्ष को कहीं भी सभा करनी है तो वो अपनी कीमत पर करे। सड़क पर उतरकर सरकार से लड़ना ही अब उसके लिए एकमात्र रास्ता बचा है।"

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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