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कांग्रेस के लिए आगे की राह 

सिर्फ और सिर्फ धर्मनिरपेक्ष एवं जातिवाद-विरोधी घोषणापत्र और सीडब्ल्यूसी के पास खुद से फैसला ले पाने की क्षमता ही कांग्रेस को भाजपा का मुकाबला करने में मदद कर सकती है।
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केवल प्रतिनधित्व उपयोग। चित्र सौजन्य: एएनआई 

संसद के भीतर भारी बहुमत होने के साथ-साथ पूरी तरह से सुव्यवस्थित राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस)-भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के द्वारा पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के राज्यों में भी विस्तार का काम चल रहा है। ऐसे में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी निश्चित रूप से भाजपा के अगले 40 से 50 वर्षों तक सत्ता में बने रहने की कल्पना कर सकते हैं। उनका स्पष्ट रूप से यह मत है कि हिंदू-मुस्लिम बाइनरी को यदि कायम रखा गया ऐसा हर लिहाज से संभव है। पार्टी की आर्थिक नीति को देखें तो यह पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके पूर्ववर्ती पीवी नरसिम्हाराव राव की नव-उदारवादी नीति से पूरी तरह से मेल खाती है, जो जवाहरलाल नेहरु के लोकतांत्रिक समाजवाद से एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु था, जो कि इंग्लैंड की लेबर पार्टी के वाम धड़े के करीब था। उनकी आर्थिकी नीतियों के लाभार्थी भी वही लोग हैं, जिनमें अंबानी और टाटा शामिल हैं। और इस बात में संदेह करने की कोई वजह नहीं है कि गौतम अडानी भी कांग्रेस के प्रति उतने ही कृतज्ञ रहे होते जितना कि वे आज भाजपा के प्रति हैं।

सत्तारूढ़ दल के पास इस प्रकार भारी बहुमत के साथ समस्या यह है कि मोदी सरकार की ट्रेजरी बेंच के द्वारा पेश किये गये विधेयकों पर संसदीय स्थायी समिति और सेलेक्ट कमेटी के द्वारा विचार करने को लेकर साफ़ मना करने की प्रवृत्ति के साथ-साथ इसने सत्ताधारियों को पूरी तरह से निरंकुश बना डाला है, जो आम लोगों के नजरिये और प्रतिक्रियाओं के प्रति बेपरवाह और बेहद-आक्रामक बना हुआ है। यह प्रवृत्ति न सिर्फ गरीबों को वितरित किये जाने वाले राशन के थैलों और कोविड-19 टीकों पर नरेंद्र मोदी की तस्वीरों को थोपने की ओर ले जाती है बल्कि यह सरकार के लगभग हर काम में उनके व्यक्तित्व की विशालता को बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित करने की ओर ले जाता है। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि देश के भीतर मोदी की छवि को लोकतांत्रिक प्रधान मंत्री के बजाय करीब-करीब एक सम्राट की बना दी गई है, और उन्हें “अन्न-दाता” के रूप में पेश किया जा रहा है, ताकि आम लोग खुद को “नमक-हराम” न साबित करने के लिए भाजपा को वोट देने के लिए मजबूर हो जाएँ। इस प्रकार सरकारी धन का इस्तेमाल सत्तारूढ़ दल के चुनावी हितों के लिए किया जा रहा है।

जहाँ तक आम लोगों का प्रश्न है, तो उनके लिए मोदी सरकार की सामाजिक-आर्थिक नीतियों ने सिर्फ बेरोजगारी, महंगाई, सांप्रदायिक हिंसा, और गिरोहबंदी और अपराध में बढ़ोत्तरी लाने का ही काम किया है। उत्तर प्रदेश और बिहार में युवाओं के द्वारा रोजगार के अवसरों में वृद्धि की मांग और सशस्त्र बलों की नई भर्ती नीति के खिलाफ हुए हालिया आंदोलन में स्पष्ट रूप से देखने को मिला कि आरएसएस-भाजपा की नीतियों ने समाज और विशेषकर युवाओं के बीच में किस हद तक गहरी निराशा को पैदा कर दिया है। भाजपा ने इन प्रश्नों पर अपने पहले से ही आजमाए हुए नुस्खे को इस्तेमाल किया है, जिसमें उसका कोई सानी नहीं है, और वह है मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने का, यानी मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिकता और जातिवादी नीतियों को तेज करने का। 

इस स्थिति से निपटने का रास्ता सिर्फ यही बचता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित किया जाए, जो कि वैकल्पिक सरकार प्रदान करने में सक्षम एक मजबूत विपक्षी दल के बगैर किसी भी सूरत में संभव नहीं है। समस्या यह है कि हालाँकि कांग्रेस जहाँ अपने पराभव के दौर से गुजर रही है, लेकिन देश में कांग्रेस के अलावा एक भी राष्ट्रीय दल मौजूद नहीं है। पिछले कुछ समय से कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी लगातार कमजोर होती चली गई हैं, और खुद को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए संघर्षरत हैं। वहीं समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), और द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (डीएमके) सहित अन्य सभी दल क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं। हाल ही में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने अपने वजूद को विस्तार देने की कोशिशें शुरू कर दी हैं, लेकिन अखिल भारतीय दल के तौर पर खुद को विस्तारित करने के लिए अभी भी उन्हें एक लंबा रास्ता तय करना बाकी है।

विडंबना यह है कि कांग्रेस के लिए आशा की एकमात्र किरण भाजपा सरकार के द्वारा मनमानेपूर्ण तरीके से नव-उदारवादी नीतियों के क्रियान्वयन के विरोध में है। मोदी के तहत मौजूदा सरकार चाहे तो भारत की आर्थिक दुर्दशा के लिए कोविड-19 को इसका एकमात्र कारण बता सकता है।  इसके बावजूद तथ्य तो यह है कि भारतीय अर्थव्यस्था को पहला तगड़ा झटका नवंबर 2016 में ही विमुद्रीकरण के बाद लग गया था और इसके कुछ ही अंतराल बाद 1 जुलाई 2017 को वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के दोषपूर्ण क्रियान्वयन के साथ इसे दूसरी बार झटका दिया गया था।

इसके साथ ही अर्थव्यस्था के मांग पक्ष की बजाय आपूर्ति पक्ष को चाक-चौबंद करने वाले कई अजीबोगरीब राजकोषीय उपायों ने समस्या को और भी ज्यादा बढ़ा दिया। इसमें सबसे बदतर यह रहा कि बढ़ती आर्थिक असमानता ने आम लोगों की बुनियादी जरूरतों की कीमत पर सबसे धनाड्य लोगों की धन-संपत्ति में अभूतपूर्व वृद्धि के मार्ग को प्रशस्त करने का काम किया है। अभूतपूर्व महंगाई के इस दौर के बीच खाद्य वस्तुओं, उपभोग की आवश्यक वस्तुओं और महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं पर हाल ही में 5% से लेकर 18% की जीएसटी को लगाने से पता चलता है कि शासक वर्ग को अपने नेता की लोकप्रियता और हिंदू-मुस्लिम बाइनरी का इस्तेमाल कर समाज को विभाजित रखने के आजमाए हुए फार्मूले पर कितना अधिक भरोसा बना हुआ है। लेकिन इसी तरह यह भी सच है कि इस तथ्य का कोई अपवाद नहीं है कि आर्थिक बदहाली किसी भी सरकार को उसके घुटनों पर लाने में सक्षम रही है, चाहे भले ही वह कितनी भी मजबूत क्यों न हो। यही वह जगह है जहाँ पर कांग्रेस के लिए अवसर का मौका है।

फिलहाल संतोष की बात यह है कि कांग्रेस ने अपनी जिम्मेदारी को समझ लिया है और इसने 2024 चुनावों में अच्छी चुनौती देने की योजना पर पहले से ही खाका तैयार करना शुरू कर दिया है। राहुल गांधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की 148-दिवसीय “भारत-जोड़ो” पदयात्रा की योजना में कुछ दिनों की और बढ़ोत्तरी हो सकती है, जिसकी शुरुआत अक्टूबर या उससे पहले हो सकती है। यह कदम निश्चित रूप से उनकी लोकप्रियता को बढ़ाने और लोगों को उनके और करीब लाने में सहायक सिद्ध साबित होगी। हालाँकि, किसी नेता की व्यक्तिगत लोकप्रियता चुनावों में उस पार्टी की जीत के लिए पर्याप्त साबित नहीं हो सकती है, क्योंकि इसके लिए शहर, ब्लॉक, तालुका और ग्राम स्तर तक एक सुगठित तरीके से संगठित पार्टी ढाँचे की आवश्यकता होती है।

कांग्रेस पार्टी ने अपने सेवा दल को ग्राम स्तर तक मजबूत करने का भी फैसला लिया है, जिससे निश्चित रूप से इसे मदद मिलेगी। अधिकांश राज्यों में कांग्रेस के वोट प्रतिशत में लगातार कमी के बावजूद सेवा दल के प्रतिबद्ध स्वंयसेवकों को अभी भी देश के लगभग प्रत्येक गाँवों में पाया जा सकता है। वास्तव में यही वह सही समय है जब पार्टी को अपने संगठनों जैसे कि सेवा दल, विभिन्न कमेटियों, छात्र संगठन को सभी स्तरों पर मजबूत करना चाहिए और अपने सक्रिय कामकाज को लोगों के बीच में विस्तारित करना चाहिए ताकि संसद के भीतर कम से कम एक मजबूत विपक्षी दल का दायित्व निभाने के लिए उसके पास बेहतर प्रतिनिधित्व हासिल हो सके। निश्चित ही पार्टी ने अगले एआईसीसी के लिए चुनाव आयोजित करने का फैसला लिया है, लेकिन इसे पूरा होने में तीन वर्ष लगेंगे, जोकि जाहिरा तौर पर अगले चुनावों के बाद होगा। इसलिए इसके पास तात्कालिक कार्यभार यह है कि यह अपने मौजूदा सांगठनिक ढाँचे को जल्द से जल्द मजबूत करे और अगले चुनावों की तैयारी अभी से शुरू कर दे। 

पार्टी के हित में यह भी अच्छा रहेगा कि यह वाम दलों और राजद जैसे अन्य समान विचार रखने वाले दलों, जो कि निर्भीक रूप से धर्मनिरपेक्षता की पक्षधर भी हैं, के साथ घनिष्ट रूप से जनता से जुड़े सामजिक एवं आर्थिक मुद्दों पर मिलकर काम करे। इसमें विशेष तौर पर वामपंथी दलों के पास अखिल भारतीय स्तर पर मजबूत उपस्थिति है क्योंकि उन्हें भले ही आनुपातिक तौर पर चुनावी परिणामों में अपेक्षित सफलता न मिलती हो, लेकिन उसके बावजूद श्रमिकों और किसानों के मुद्दों पर उनका काम जारी है। इन दलों के बीच के बेहतर तालमेल से मतदाताओं के सामने आरएसएस/भाजपा का एक विश्वसनीय विकल्प के पैदा होने की पूरी संभावना है, क्योंकि मतदाताओं की एक बड़ी संख्या संघ के कोई विकल्प नहीं है (टीना) फैक्टर वाले जुमले को धता बताने के लिए बेताब हैं। 

हालाँकि कांग्रेस पार्टी के साथ समस्या यह है कि यद्यपि इसके पास कई सक्षम नेता हैं, लेकिन इसकी वर्किंग कमेटी के पास निर्णय लेने की कोई क्षमता नहीं है, जो नेहरु-गांधी परिवार तक ही सीमित होकर कर रह गई है। जो भूमिका पूर्व में अहमद पटेल, के. कामराज सहित कई कांग्रेस अध्यक्षों के द्वारा निभाई जाती थी, उसे अब कोई नहीं निभा रहा है। सारे फैसले नेहरु-गाँधी परिवार के द्वारा ही लिए जाते हैं: जिसमें सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और प्रियंका गांधी शामिल हैं। जिसका नतीजा यह है कि राज्य, जिले, तालुका और ब्लॉक कमेटी में पार्टी का नेतृत्व किसी कांग्रेसी कार्यकर्ता के बजाय चाटुकारों के द्वारा किया जा रहा है। इसके चलते कई अच्छे नेताओं ने पार्टी से नाता तोड़ लिया और अपनी अलग “कांग्रेस” पार्टियों का गठन कर लिया है, जैसे कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और महाराष्ट्र में एनसीपी और इसी प्रकार कई अन्य राज्यों में दलों की स्थिति। 

इसलिए पार्टी को चाहिए कि कांग्रेस कार्यकारी समिति (सीडब्ल्यूसी) की फैसला लेने वाली भूमिका को फिर से बहाल किया जाए और नेहरु-गाँधी परिवार को फैसला लेना बंद करना चाहिए। यह गुलाम नबी आज़ाद, आनंद शर्मा, कमल नाथ और दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं की एक कमेटी भी गठित कर सकती है जो अलग हो चुके कांग्रेसी समूहों के साथ संपर्क स्थापित कर उन्हें फिर से पार्टी में शामिल होने के लिए तैयार करें। इसकी शुरुआत हालाँकि बनर्जी या शरद पवार से न कर अन्य राज्यों के नेताओं के साथ की जा सकती है।

सबसे आदर्श स्थिति तो यह रहेगी कि पार्टी इन प्रयासों और परामर्शों को कांग्रेस और इससे टूटकर निकले हुए समूहों के साथ एक संयुक्त बैठक के माध्यम से शुरू कर उसका अनुसरण कर सकती है, जिसका नेतृत्व कांग्रेस और सभी अलग हुए समूहों के सभापतिमंडल करे और एक संयुक्त बैठक बुलाकर उनकी एकता की घोषणा करते हुए एक संयुक्त बयान के साथ इस एकता के प्रयास का समापन कर सकती है। 

इस बीच, पार्टी चाहे तो वरिष्ठ नेताओं और विशेषज्ञों की एक कमेटी का गठन कर एक नए घोषणापत्र का मसौदा तैयार कर सकती है, जो संभव है कि जवाहरलाल नेहरु की आर्थिक नीतियों की पुनर्वापसी की ओर जाती हो। बहरहाल, इसे किसी भी सूरत में मनमोहन सिंह की नव-उदारवाद वाली नीति पर नहीं लौटना चाहिए। इसके बजाय इसे विएतनाम, ब्राज़ील और क्यूबा जैसे देशों की नीतियों और यूरोपीय देशों के कुछ सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टियों के द्वारा अपनाए गए जनपक्षीय नीतियों का पालन करने के प्रयासों का अध्ययन करने से लाभ मिल सकता है। लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए कांग्रेस को भाजपा सरकार के नव-उदारवादी नीतियों से गरीबों और मध्य वर्ग पर पड़ने वाले प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावों को उजागर करने की जरूरत है और साथ ही नये सिरे से तैयार किये गये अपने घोषणापत्र को हर संभव तरीके से लोगों के बीच में ले जाने की कोशिश करनी चाहिए।  

फिलवक्त, कांग्रेस और भाजपा के बीच में यदि एकमात्र कोई अंतर है तो उसे सांप्रदायिकता और जातिवाद के प्रति उनके दृष्टिकोण में ही देखा जा सकता है। हालाँकि यह अंतर भी तब काफी हद तक मिट गया था जब राहुल गांधी ने अपनी हिंदू छवि को पेश करने की कोशिश की थी और सांप्रदायिक एवं जातीय आधार पर पार्टी के चुनावी उम्मीदवारों को चुना था। यह बेहद चौंकाने वाला फैसला था कि भाजपा के सांप्रदायिक एवं जातिवादी दृष्टिकोण के साथ अपनी पार्टी की धर्मनिरपेक्षता और जातिवाद-विरोधी सैद्धांतिक नीति की उलट छवि को स्थापित करने के बजाय उन्होंने खुद को मोदी से कम बड़ा हिंदू नहीं होने और एक कश्मीरी पंडित के रूप में खुद को पेश करने को चुना। यह अच्छी बात है कि अब उन्होंने उस स्थिति को छोड़ दिया है और अपने धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण पर फिर से जोर दिया है। 

लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार हैं और भारतीय एवं दक्षिण एशियाई राजनीति पर लिखते हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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