किताब: लेफ्ट और राइट के बीच है असल जेएनयू
भारत में चाहे कोई भी सरकार हो, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) अपने गठन के बाद से ही लगातार चर्चा में रहा है। पिछले कुछ सालों में इसे लेफ्ट और राइट के बीच टकराव की जगह के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है लेकिन जेएनयू लेफ्ट और राइट के बीच एक ऐसी जगह है जो भारत के छात्रों को एक बेहतरीन शिक्षा मुहैया कराती है।
हम सब जानते हैं कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना सन् 1969 में हुई थी। जेएनयू अधिनियम 1966 (1966 का 53) को भारतीय संसद द्वारा 22 दिसम्बर 1966 में पास किया गया था। विश्वविद्यालय का नामकरण भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम पर किया गया और प्रोफेसर जी. पार्थसारथी को विश्वविद्यालय का पहला कुलपति नियुक्त किया गया था। अपने स्थापना वर्ष से ही जेएनयू का उद्देश्य उच्च अध्ययन, शोध व अनुसंधान द्वारा ज्ञान का प्रसार तथा अभिवृद्धि करना रहा है। उन सिद्धान्तों के विकास के लिए प्रयास करना, जिनके लिए जवाहरलाल नेहरू ने जीवन-पर्यंत काम किया था, जैसे - राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय, धर्म निरपेक्षता लोकतांत्रिक मूल्य और पद्धति, अन्तरराष्ट्रीष विषयों की समझ और सामाजिक समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि।
जे सुशील की पुस्तक दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बिताए उनके छात्र जीवन का एक संस्मरण है। जे ने जेएनयू से एमए और एमफिल की पढ़ाई के बाद लंबे समय तक पत्रकारिता की है और ये किताब उन्होंने 2016 में उस समय लिखना शुरू किया जब कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी हुई थी और सोशल मीडिया पर जेएनयू के बारे में दुष्प्रचार के तौर पर कई बातें लिखी जा रही थीं। पूरी किताब में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि 'असहमति एक ऐसा बिन्दु है जिसपर जेएनयू की अवधारणा टिकी है।
जे सुशील की ये किताब प्रतिबिम्ब (नोशन प्रेस) प्रकाशन से आई है और जिसमें पिछले बीस सालों के जेएनयू से जुड़े उनके संस्मरण हैं जो एकांगी होते हुए भी व्यापक हैं और निजी होते हुए भी सार्वजनिक हैं।
इस किताब की बात करें तो 142 पन्नों की यह किताब पहले पन्ने से ही पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेती है। कथावाचक की भूमिका में लेखक जे सुशील ने बहुत महीन शिल्प का प्रयोग किया है, और यह किताब जेएनयू कैंपस के जीवन में प्रेम के जिन पहलुओं को छूती है वह अनुपम है।
जे सुशील किताब के माध्यम से हमें यह भी बताते हैं कि जेएनयू सिर्फ लेफ्ट और राइट की प्रतिद्वंदिता का मैदान न होकर बहुत कुछ और है जिसने दुनिया भर की यूनिवर्सिटियों को अच्छे प्रोफेसर दिए हैं और ज्ञान के मार्ग को प्रशस्त करने में बड़ी भूमिका निभाई है।
किताब में एक चैप्टर है "धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय" जिसमें लेखक ने उदाहरण के साथ लिखा है कि कैसे जेएनयू अन्य विश्वविद्यलयों से अलग है।
वे लिखते हैं "जेएनयू में शुरुआती दौर में झटके बहुत लगते हैं। खासकर छोटे शहरों और गांव से आए मुझ जैसे लोगों को। पहला झटका लगता है, जब क्लासरूम में प्रोफेसर आता है और धाराप्रवाह अंग्रेजी में एक घंटा लेक्चर देता है। तब लगता है, हाय हुसैन! हम कहा फँस गए। दूसरा झटका तब लगता है, जब प्रोफेसर क्लासरूम में सबसे पूछता है "एनीवन फ़ॉर टी?" कोई "हाँ" करे तो उसके लिए चाय मंगवा ली जाती है। तीसरा झटका तब लगता है, जब प्रोफेसर अपने किसी छात्र से सिगरेट मांगकर साथ में ही सुलगा ले और दोनों आपस में बतियाने लगें। और सबसे बड़ा झटका तब लगता है, जब आप देखते हैं कि बड़ी-बड़ी बिन्दी वाली सांवली लड़कियां सहजता से धुआं छोड़े जा रही हैं और आप तब तक सिगरेट को अपनी उंगलियों में ठीक से फंसा भी नहीं पा रहे होते हैं।
धीरे-धीरे झटके सामान्य होने लगते हैं और आप मैच्योर होने लगते हैं। आप धीरे-धीरे अंग्रेजी बोलने लगते हैं। कॉन्फिडेंट होने लगते हैं और अंततः आपको सबसे अधिक ख़ुशी तब होती है, जब भरी क्लास में खड़े होकर प्रोफ़ेसर से सवाल करते हैं और प्रोफ़ेसर कहता है- गुड क्वेश्चन!
खड़े होकर सवाल पूछने में लंबा वक़्त लगता है, लेकिन कई विश्वविद्यलयों में यह काम तीन-चार साल तक भी नहीं हो पाता है। जेएनयू में दो-तीन महीनों में ऐसा हो जाता है।"
लेखक जे सुशील आगे लिखते हैं-
किसी गरीब को देख कर मन में हूक उठती है
तो आप जेएनयू के हैं
अगर आप अभी भी यदा कदा झोला और किताबें खरीद लेते हैं
तो आप जेएनयू के हैं
अगर आप लड़कियों के साथ रिश्तों को बहन बेटी मां से इतर एक इंसान के तौर पर देख पाते हैं
तो आप जेएनयू के ही हैं
अगर आप सवाल उठा रहे हैं चाहे आप कहीं भी तो
तो आप निश्चित रूप से जेएनयू के ही हैं।
जे सुशील बहुत ही स्पष्टता से हमें बताते हैं कि, कैसे जेएनयू को बनाने में वामपंथी विचार का योगदान तो रहा है लेकिन इस वजह से वामपंथी पार्टियों को उनकी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं किया जा सकता है। वो कैंपस में एक डोमिनेंट पार्टी रही है तो जो गड़बड़ियां हैं विश्वविद्यालय में उसकी ज़िम्मेदारी भी लेफ्ट को ही लेनी होगी और इसके लिए लेफ्ट की आलोचना भी की जानी चाहिए।
जेएनयू कोई सर्वकालिक महान यूनिवर्सिटी नहीं है। इसकी अपनी खामियां और अपने गुण हैं। इसे समग्रता में देखना चाहिए। किसी भी विश्वविद्यालय को बदनाम करना आसान है लेकिन एक अच्छा विश्वविद्यालय बना पाना मुश्किल। जेएनयू एक अच्छी जगह है पढ़ने की और इसे बरकरार रखते हुए बदनामी से बचाया जाना चाहिए।
यह किताब कई अर्थों में एक कैंपस गाइड बुक के सदृश लगता है, खासकर जो लोग जेएनयू से बाहर के हैं उनको किताब पढ़ते हुए कई नई जानकारी मिलती है। इसके अलावा किताब में आवासीय कैंपस को लेकर भी बात की गई है कि कैसे अलग-अलग नदियों के नाम पर कैंपस में हॉस्टल के नाम रखे गए हैं।
किताब के पहले अध्याय 'जेएनयू बनने की कथा' में ही सुशील लिखते हैं 'प्रधानमंत्री नेहरू की गुटनिरपेक्ष आंदोलन को लेकर रही दृष्टि और समाजवादी वैचारिक दृष्टिकोण ने शुरुआती दौर में जेएनयू की दिशा निर्धारित की। कैंब्रिज में पढ़े नेहरू शायद चाहते थे कि ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज जैसी कोई विश्वस्तरीय यूनिवर्सिटी भारत में भी बने जहां बहस को पूरी जगह मिल सके और बच्चे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बारे में जानें और पूरी दुनिया में नाम करें।''
जे सुशील किताब में विस्तार से बताते हैं कि कैसे, जेएनयू की प्रगतिशील परंपरा और शैक्षिक माहौल के लिए यहां के छात्र संघ का बड़ा महत्व माना जाता है। यहां के कई छात्र संघ सदस्यों ने बाद के दिनों में भारतीय राजनीति और सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई है, इनमें प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, डी.पी त्रिपाठी, आनंद कुमार, चंद्रशेखर, कन्हैया कुमार आदि प्रमुख हैं। जेएनयू छात्र राजनीति पर शुरू से ही वामपंथी छात्र संगठनों ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा), स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) आदि का वर्चस्व रहा है। जेएनयू छात्र संघ के साथ जेएनयू शिक्षक संघ भी शुरू से बदलाव की राजनीति के साथ रहा है।
2016 में छात्र नेता कन्हैया कुमार की गिरफ़्तारी के बाद मीडिया द्वारा विश्वविद्यालय के बारे में फैलाई जा रही ग़लत सूचनाओं के बीच, यह पुस्तक उन लोगों के लिए एक आईना है, जिन्हें लगता है कि जेएनयू परिसर सिर्फ़ एक युद्ध का मैदान है, जहां वामपंथी और दक्षिणपंथी आपस में टकराते रहते हैं। लेकिन पुस्तक पढ़ते वक़्त, पाठक जेएनयू के छात्र-जीवन की एक अभूतपूर्व यात्रा पर निकलता है और महसूस करता है कि यह वास्तव में एक ऐसा ऐतिहासिक संस्थान है जो छात्रों को अत्याधुनिक शिक्षा प्रदान करने में सहायक रहा है। यह पुस्तक पाठक को कॉलेज कैंपस या छात्र जीवन की एक ऐसी भावनात्मक यात्रा पर ले जाएगी, जहां आप लेखक के साथ कुछ देर और ठहरे रहना चाहेंगे।
लेखक का परिचय:
जे सुशील बीबीसी में लंबे समय तक काम करने के बाद फ़िलहाल अमेरिका में रह कर शोधकार्य कर रहे हैं। हिन्दी और अंग्रेज़ी में अख़बार-पत्रिकाओं में लगतार लेखन के साथ ही उन्होंने वीएस नायपॉल की किताब ‘ए टर्न इन द साउथ’ और एस हुसैन ज़ैदी की किताब ‘माई नेम इज़ अबू सलेम’ का हिन्दी अनुवाद किया है। उनका डिजिटल हिन्दी उपन्यास ‘हाउस हसबैंड की डायरी’ चर्चित रहा है। लेखन के साथ-साथ वह अपनी पार्टनर के साथ कम्युनिटी और परफ़ॉर्मेंस आर्ट भी करते हैं।
पुस्तक : जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता - जे सुशील
प्रकाशन : प्रतिबिम्ब (नोशन प्रेस) प्रकाशन
मूल्य : रु. 215
(इस आलेख/समीक्षा के लेखक मैनेजमेंट प्रोफ़ेशनल हैं और बेंगलुरु में रहते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।