नारी चित्रों में करूणा, वात्सल्य और प्रेम की अभिव्यक्ति है बौद्ध चित्रण शैली
यूरोपीय देशों में शास्त्रीय कलाओं अर्थात सादृश्य चित्रकला का दौर था, मानव के अतिरूप को दिखाया जा रहा था, चित्रों को विषय के रूप में शासक वर्ग या गुलामों को चित्रित किया जा रहा था, ऐसे ही समय में भारतीय बौद्ध मनीषी, परोपकार और अहिंसा की भावना से दुर्गम पहाड़ों की गुफाओं में सहज प्राप्त वनस्पति रंगों और खनिज रंगों से सुंदर भावों वाले चित्र सृजन कर रहे थे।
भारतीय बौद्ध चित्रकला में भारतीय कला के नौ रसों की अद्भुत अभिव्यक्ति हुई जिसका कोई जोड़ नहीं है। अन्य एशियाई देशों में जहां-जहां बौद्ध धर्म और दर्शन पहुंचा वहां भारतीय चित्रकला शैली पहुंची। उन देशों के चित्रकारों ने बौद्ध कला शैली से प्रेरित हो अपनी मौलिक चित्रकला शैली का विकास किया। चीन, जापान, भूटान, म्यांमार, थाईलैंड, तिब्बत, वर्मा, कम्बोडिया, इंडोनेशिया और वियतनाम आदि प्रमुख देश थे।
बौद्ध शैली, 5 वीं शताब्दी,बाघ की गुफा में चित्रित नर्तकी,साभार : भारतीय चित्रकला, लेखक वाचस्पति गैरोला
भारतीय और एशिया की चित्रकला पद्धति यूरोपीय चित्रकला शैली से अलग है। यूरोपीय चित्रों में छाया प्रकाश के द्वारा गहराई दिखाई जाती है। भारतीय चित्रकला में गहराई (पर्सपेक्टिव) की जगह गहन विवरणात्मकता (डिटेल्स) है। चित्र में कई केन्द्र स्थल होते हैं जैसे भवन के अंदर और बाहर के दश्य एक साथ दिखते हैं।
भारत में बौद्ध कालीन चित्रों में मानवोचित भाव भंगिमाओं की सजीव अभिव्यक्ति है जो अन्य काल की चित्रकला में नहीं पाई गयी। कहा जाय तो प्राचीन एशिया की चित्रकला में रेखा सौंदर्य पर ही जोर दिया गया है। जैसा कि देखा जा रहा है, समकालीन भारतीय चित्रकला में अनेक चित्रकार यूरोपीय आधुनिक चित्र कला के विरूपण को ही अपना कर आपस में पीठ थपथपा रहे हैं, जबकि होना यह था कि अपने देश की कला थाती पर भी ध्यान दिया जाए।
प्राचीन भारतीय चित्रकला और लघु चित्रकला शैली में भी कला के नियमों पर भी ध्यान दिया जाता था कि चित्रित आकृतियों के 'पारस्परिक अनुपात सही हों, रेखाएं कोमल हों और जिसका आधार सुंदर हों, न बहुत दीर्घ हो, न बहुत छोटा हो, जिसके अनुपात, स्थान और लंबाई ठीक हों, ऐसे चित्र को वैणिक कहते हैं, जो सर्वांग दृढ़ रेखाओं से चित्रित हैं और जो गोलाकार हों तथा न दीर्घ न खर्व हों साथ ही माल्य और अलंकार की जिसमें अधिकता न हो, ऐसे चित्र को नागर चित्र कहते हैं। (साभार भारतीय चित्रकला, लेखक: नाना लाल चमन लाल मेहता)।
लेखक के द्वारा उक्त कथन 'चित्रसूत्र' से लिया गया है। 'चित्रसूत्र 'प्राचीन ग्रंथ विष्णु धर्मोत्तर पुराण का एक अध्याय है जिसमें चित्रकला की विशेषता, तकनीक आदि का वर्णन है।'
भारत में बौद्ध कालीन चित्रकला अजंता के गुफाओं में ही थोड़ी बहुत सुरक्षित है। रायकृष्ण दास के अनुसार ''अजंता की गुफाएं प्रवेश द्वार से लेकर ठेठ अंत तक भक्ति, उपासना, धैर्य, प्रेम, लगन एवं हस्त कौशल की संसार भर में सबसे अपूर्व उदाहरण हैं। चित्र वास्तुकलाओं में एक ही उच्च एवं पवित्र भावना सुसंबद्ध श्रृंखला के रूप में स्फुट हुई है, जिसकी सफलता संसार भर में अतुलनीय है।'' अजंता के गुप्त कालीन चित्रों की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करते हुए रायकृष्ण दास लिखते हैं कि इन चित्रों की खुलाई (रूप रेखा) बहुत जानदार और लोचदार है। उनमें भाव के साथ-साथ वास्तविकता है।
अन्य एशियाई देशों की चित्र शैली की तुलना करते हुए वे लिखते हैं, 'उसमें चीन की तथा उससे उत्पन्न जापानी और ईरानी चित्रकारी सपाट कोणदार नहीं हैं जिनका उद्देश्य भाव की अभिव्यक्ति के बदले अलंकरण ही होता है। रंगों की योजना प्रसंगानूकूल, बड़ी, आढ़ी और चित्ताकर्षक है।' (साभार: 'भारतीय चित्रकला का विकास')।
अजंता की कलाकृतियों में बुद्ध की अंतर्मुखी प्रवृतियों और बहुजन हिताय और कल्याण की कामना के दर्शन होते हैं।
अजंता के चित्रों में नारी को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है। बौद्ध कालीन चित्रों में महिला आकृतियों में सहज करूणा, प्रेम, वात्सल्य, दुख, अनुराग आदि का जो भावांकन हुआ है, वह हमें अन्य काल की चित्रकला में नहीं मिलेगा। इसकी वजह यह है कि सर्व प्रथम गौतम बुद्ध ने ही धर्म और समाज में महिलाओं को सम्मान और समानता का दर्जा दिया था। इसी विचारधारा से प्रभावित होकर अजंता के चित्रकार महिलाओं का अंकन करते समय चित्रों के साथ न्याय कर पाए। अन्यथा इससे पहले और बाद में भी महिलाओ को विलास सामग्री या देवी के रुप में ही दिखाया गया।
बाद में ईरानी और राजपूत लघु चित्र शैली के सामंजस्य से उत्पन्न मुगल चित्र कला शैली से निकली पहाड़ी मिनिएचर में भी महिलाओं की सरल सहज और सुंदर अभिव्यक्ति है।यूरोपीय नैसर्गिकता का प्रभाव भारतीय चित्रकला में मुगल काल के अंत से ही दिखने लगा। ब्रिटिश राजकाल में पढ़ा लिखा आधुनिक फैशन परस्त भारतीय समाज अपने ही देश की कला को हेय दृष्टि से देखने लगा। भारतीय कला शैलियां दम तोड़ने लगीं। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के असर में अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने भारतीय चित्रकला शैली से प्रेरित होकर एक शैली चलाई जो बंगाल स्कूल के नाम से जाना गया। अवनीन्द्र नाथ टैगोर और उनके शिष्यों ने अजंता शैली से प्रेरित ढेरों चित्र बनाए जो वर्तमान समय में बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं।
आज आधुनिक कला के चकाचौंध में मूल भारतीय चित्रकला शैलियां सुकून देती हैं। उन्हें सही ढंग से समझने और संरक्षित करने की जरूरत है।
(लेखिका स्वयं चित्रकार हैं। आप इन दिनों पटना में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिंदी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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