शांतिवन चौक के पास बुलडोज़र की कार्रवाई: ''सामान नहीं निकालने दिया सब कुछ दब गया''
दिल्ली के शांतिवन चौक के पास भी DDA का बुलडोज़र चला और इस बार G-20 के लिए जिस जगह को संवारने के लिए उजाड़ा गया है उसमें रेहड़ी लगाने वालों से लेकर मझोले कारोबारी शामिल हैं। रेहड़ी लगाने वाले तो वापस यूपी-बिहार लौटने की बात कर रहे हैं लेकिन मझोले कारोबारियों ने आरोप लगाया है कि ''पीढ़ियों से जो ज़मीन उनकी थी DDA ने बिना नोटिस उस पर बुलडोज़र कैसे चलाया''
मलबे के ढेर पर जहां जाकर नज़र ठहरती है वहां हरा-भरा पीपल का पेड़ था, एक घना, बुजुर्ग पेड़, लेकिन क़रीब जाकर देखने पर एहसास होता है कि तेज़ धूप से लोगों को राहत देने वाले पेड़ के हरे-हरे पत्ते मुरझाने लगे हैं। स्थानीय लोगों का आरोप है कि ये पेड़ क़रीब सौ-डेढ़ सौ साल पुराना था लेकिन DDA ने जाने क्यों इसपर भी बुलडोज़र चला दिया? कोई घर टूटने से खुले आसमान के नीचे आ गया और किसी ने एक छायादार पेड़ को ढेर कर दिया, एक हरे-भरे पेड़ के टूटने का जिम्मेदार कौन है, क्या इसकी कोई भरपाई हो सकती है?
बताया जा रहा है कि 29 मई से क़रीब चार दिन तक दिल्ली के शांतिवन चौक के क़रीब DDA ने अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोज़र चलाया और एक बार फिर हर तरफ मलबा ही मलबा पसरा दिखा, बेबस लोग दिखे, मजबूरी में बंधे हाथ दिखे, रेहड़ी चलाने वालों से लेकर मझोले व्यापारियों तक को नहीं बख़्शा गया।
कहते हैं 'वक़्त हर ज़ख़्म को भर देता है' लेकिन हम बुलडोज़र चलने के कुछ दिन बाद वहां पहुंचे तो लगा वक़्त गुज़रने के साथ लोगों का दर्द और गुस्सा बढ़ गया था, जैसे-जैसे मलबे के नीचे से उनकी रोजी-रोटी का ज़रिया बाहर निकल रहा था उनका ग़म और बढ़ता जा रहा था।
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लोगों का कहना है था कि ''बुलडोज़र चलाना था तो चला देते लेकिन कम से कम मकान, गोदाम में पड़ा सामान तो निकालने देते'', सड़क किनारे फल की रेहड़ी लगाने वालों से लेकर गाड़ियों के वर्कशॉप और फोटोकॉपी की मशीन वालों ने एक ही बात कही, ''सामान नहीं निकालने दिया सब कुछ दब गया'', किसी का हज़ारों का नुकसान हुआ तो किसी का लाखों का।
बुलडोज़र चलाने के चार दिन बाद भी मलबे के ढेर पर खड़े लोग ज़ार-ज़ार रोते मिले। मालती सिंह और मनमोहन सिंह ने भी अपना दर्द बयां किया। दोनों बताते हैं कि क़रीब 50-60 साल से वे यहां हैं, मालती बताती हैं कि 25 साल पहले उनके पति इस दुनिया से चले गए थे, उनके बच्चे छोटे-छोटे थे, बच्चों को पालने के लिए जब उन्हें कुछ समझ नहीं आया तो पति का ही व्यापार संभाला, यहां उनकी आइसक्रीम की पांच से छह रेहड़ी लगती थीं, लेकिन सब पर बुलडोज़र चला दिया गया। वे बताती हैं कि बेटी की शादी के लिए कर्ज लिया था अब उसे कैसे चुकाएंगी। ये उनके लिए बड़ी समस्या है, वे कहती हैं, '' मैंने रो-रोकर उनसे मिन्नत की थी, कुछ वक़्त मांगा था कि मैं कुछ सामान निकाल लूं लेकिन हमारी एक न नहीं सुनी, बहुत बुरा किया, कोई रास्ता नहीं है हमारे पास, ये मलबा नहीं ऐसा लगता है हमारी क़ब्रें हैं, 25 साल, मैंने अपनी पूरी जवानी बच्चों को पालने में लगा दी, अब इस बुढ़ापे में कौन सा काम शुरू कर पाऊंगी? ऐसा लग रहा है कि सारे रास्ते बंद हो गए हैं।''
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कभी रोते, कभी बिलखते हुए मालती सिंह को हौसला दे रहे बुजुर्ग मनमोहन सिंह भी बेबस नज़र आ रहे थे। उन्होंने बताया कि वे कैंसर पेशेंट हैं लेकिन फिर भी किसी ने एक ना सुनी। बुलडोज़र आया और सब कुछ मलबे में तब्दील कर चला गया। वे कहते हैं, '' सन 81-82 से हम यहां हैं, सभी तरह के टैक्स देते आ रहे हैं लेकिन तोड़ते वक़्त इन्होंने नोटिस तक नहीं दिया। हमारी ऐसी हालत है कि बस हम दिल खोलकर नहीं दिखा सकते, ना खाना अंदर जा रहा है ना पानी। दिन रात की टेंशन बनी हुई है कि अब करना क्या है? हमारा सारा सामान अभी तक दबा पड़ा है। घर टूटे तो आदमी किराए का घर लेने की सोच सकता है, लेकिन यहां तो रोजी-रोटी पर लात मार दी। अब आप घर नहीं चला पाएंगे।''
मालती सिंह, मनमोहन सिंह और नरेंद्र कुमार जिनकी दुकानों पर बुलडोज़र चला
एक और व्यापारी जिनकी गाड़ियों की वर्कशॉप थी वे कहते हैं कि जिस वक़्त DDA ने ये कार्रवाई की वे अपनी दुकान पर मौजूद नहीं थे वे आए तो देखा तो उनके वर्कशॉप पर बुलडोज़र चला दिया गया। वे कहते हैं, ''पहले लॉकडाउन में तीन साल बर्बाद रहे, कारोबार बंद पड़ा था। फिर थोड़ा-बहुत काम चलने लगा तो दो हज़ार का नोट बंद कर लिया फिर सब ठप हो गया, फिर दो-चार-पांच सौ रुपए आ रहे थे तो अब ये तोड़ दिया। अब कहां जाएं, और अब हमारा होगा क्या?'’
एक से बात करें तो दूसरा अपना नुकसान गिनवा रहा था, लोगों ने कहा कि अगर DDA को बुलडोज़र चलाना ही था तो कम से कम नोटिस तो दे दिया होता। इस तरह की कार्रवाई ने उनके नुकसान को बढ़ा दिया है। लोगों का दावा है कि जिस ज़मीन को DDA अपनी ज़मीन बता कर अतिक्रमण का आरोप लगा कर बुलडोज़र चला रही है वे उनके पुरखों की है जहां वे पीढ़ियों से रह रहे हैं।
निखिल सिंह रावत कहते हैं, '' मैं यहां तीसरी पीढ़ी हूं, हमारे परिवार को यहां रहते हुए 75 साल हो गए, हमारी रजिस्ट्री की जगह थीं, ये जगह तोहफे में मिली हुई जगह है जो शाह आलम सेकेंड ने जो यहां के बादशाह थे, उन्होंने महंत को दान में दी थी, महंतों की भी यहां 18वीं पीढ़ी चल रही है मतलब डेढ़-दो सौ साल पुराने यहां के रिकॉर्ड हैं, ब्रिटिश टाइम के भी रिकॉर्ड हैं यहां के तो। DDA ने पहले से कोई नोटिस नहीं दिए, सोमवार (29 मई को) जब हम सुबह आए तो बुलडोज़र चल रहा था हमने पूछा तो कहा कि एलजी के ऑर्डर हैं, और हमारा सब कुछ ख़त्म हो गया।''
निखिल सिंह की तरह ही राहुल का भी यहां गाड़ियों का वर्कशॉप था। वे बताते हैं, '' सोमवार (29 मई को) को यहां बुलडोज़र खड़े हो गए। हमें एक घंटे का भी टाइम नहीं दिया, हमारा सारा सामान मलबे के नीचे दबा पड़ा है, लाखों रुपए का नुकसान है, उधर चोर रात में आकर मलबे में दबा सामान चुरा रहे हैं, इधर पुलिस वाले आकर हमें भगा रहे हैं, कहां जाएं तीन-चार दिन हो गए। कोई घर नहीं जा पा रहा, सबकी हालात देख लीजिए। ये बोल रहे हैं विकास करेंगे, तो क्या आम आदमी की लाश पर विकास करेंगे?''
हर कोई एक ही सवाल खड़े कर रहा था कि बिना नोटिस के, बिना वक़्त दिए DDA ने ये कैसी कार्रवाई की जिसमें लोगों को पल में अर्श से फर्श पर पहुंचा दिया। जो परिवार ठीक-ठाक बिजनेस कर घर चला रहे थे आज उन्हें सोचना पड़ रहा है कि अब परिवार कैसे चलेगा।
महेश गुप्ता, जिनके पेपर के गोदाम और ऑफिस पर बुलडोज़र चला
ऐसे ही एक बुज़ुर्ग व्यापारी मिले महेश गुप्ता जो बताते हैं कि 600 गज़ की ज़मीन पर दो मंजिला इमारत थी जिसमें उनका पेपर का गोदाम और ऑफिस था। वे पिछले 50 साल से यहां व्यापार कर रहे थे, वे दावा करते हैं कि उनका क़रीब पांच-छह करोड़ का नुकसान हो गया। वे कहते हैं कि ''बिना नोटिस दिए, बिना पहले से कोई जानकारी दिए, जेसीबी लगाई और सब कुछ तोड़ दिया। महेश गुप्ता एक सवाल पूछते हैं '' DDA ने कहा कि उन्होंने सन 74 में इस इलाके का अधिग्रहण किया था। मैं पूछना चाहता हूं कि जब उन्होंने इस ज़मीन का अधिग्रहण किया था तो क्या किसी को मुआवजा दिया था? और अधिग्रहण करने का मतलब है कि वे मालिक नहीं थे, लेकिन 74 में उन्होंने ख़ुद को मालिक घोषित कर दिया, लेकिन 74 से अब तक ये कहां थे? हमारे पास प्रॉपर्टी टैक्स, GST नम्बर, MCD, बिजली का बिल सब है, सेल्स टैक्स नम्बर, एक्साइज नम्बर सारी चीज़ें थी हमारे पास। और इसके बाद भी अगर कोई कहता है कि हमने अतिक्रमण किया है तो पहले ये साबित करे ना इसे, खाली जुबानी बोलकर कार्रवाई कैसे कर दी। वे अपनी बात रखते हमें अपने पेपर दिखाते दोनों में से जिसकी बात को कोर्ट सही कहता हम मान लेते। मगर ये कौन सा तरीका है? बिना नोटिस, बिना पहले ख़बर करे आकर बुलडोज़र चला दिया। हमने कोर्ट में केस तो कर दिया लेकिन फैसला जो भी हो हमारा नुकसान तो हो चुका है।''
वे कहते हैं कि जिस तरह से कार्रवाई की गई। वह जल्दबाजी में की गई। कार्रवाई नहीं बल्कि गुंडागर्दी थी। पुलिस वाले आ गए सौ-दो सौ, सुरक्षा बल के जवान तैनात कर दिए। ये कोई तरीका नहीं है, ऐसा लग रहा था कि सरकार के संसाधनों का गलत जगह इस्तेमाल किया जा रहा है। वे बताते हैं कि ''कुछ समय पहले एलजी साहब आए थे। पीछे की तरफ झुग्गियां थीं। उन्होंने झुग्गियां हटाने का ऑर्डर दिया था। इन्होंने सारा इलाक़ा ही साफ कर दिया।
वे कहते हैं कि ये कैसा विकास हो रहा है ''जो इंसान कमा खा रहा है, उसे बेरोज़गार करके कौन सा विकास होगा? यहां जो काम चल रहा था उससे कितने घरों की रोज़ी-रोटी चल रही थी, कितने परिवार चल रहे थे क़रीब पांच-सात सौ परिवार चल रहे होंगे उन सबको बेरोज़गार कर दिया तो क्या अब अराजकता नहीं बढ़ेगी, अगर बेरोज़गारी बढ़ेगी तो अराजकता अपने आप बढ़ेगी।''
मलबे में दबी नई फोटो कॉपी की मशीन
मलबे के पहाड़ को खोद-खोद कर लोग अपना सामान निकाल रहे थे। उबड़-खाबड़ ज़मीन में एक जगह ऐसा लगा कि ज़मीन नई-नई फोटो कॉपी की मशीन उगल रही हो। लेकिन ये DDA की कार्रवाई के दौरान दफन हो गई मशीनों को बाहर निकाला जा रहा था। ये मोहम्मद ज़ुबैर का गोदाम था वे बताते हैं,''हमारी 40 से 50 मशीन मलबे में दबी हुई हैं, ये फोटो कॉपी की मशीन हैं जो हमने बाहर से मंगवाई थी ( आयात की गई थीं)। हमारा लाखों का नुकसान हो गया है, रात को पता चला कि बुलडोज़र चल सकता है। लेकिन इतनी भारी मशीन हैं कैसे निकाल लेते। ये पूरा रास्ता जाम था। हम चाह कर भी निकाल नहीं पा रहे थे। हमें पहले नोटिस मिल जाता तो हम पहले ही अपना सामान निकाल लेते। आप ही बताइए कौन अपना इतना नुकसान जानबूझकर करवा सकता है? इसी गोदाम के एक और मालिक नदीम बताते हैं, ''बिना नोटिस के DDA के लोग आए थे और उन्होंने तोड़ना चालू कर दिया। क़रीब 20 से 25 लाख का मेरा माल यहां पड़ा था वो सब बर्बाद हो गया है। कोई नोटिस नहीं दिया गया, कोई पहले से सूचना नहीं दी गई, देखिए ये सब अब लोहे में जाएगा। लाखों का सामान अब जो मिले। कम से कम कुछ तो आंसू पोछ पाएंगे।''
ख़ादिल का घर
हम कुछ आगे बढ़े तो देखा एक आदमी मलबे को इस बेचैनी से खोद रहा था जैसे वहां कोई ख़ज़ाना गड़ा हो। ये ख़ालिद थे, जिनके घर पर बुलडोज़र चला था। खालिद इस किराए के घर में पिछले 25 साल से रह रहे थे, वे बताते हैं कि '' मैं चाय का ठेला लगाता हूं लेकिन यहां मेरा घर था, वे लोग अचानक आए और कहा कि 10 मिनट में खाली कर दो। मैं कुछ समझ पाता तब तक बुलडोज़र चला दिया। अब मलबा हटाकर सामान तलाश रहा हूं।''
चेहरे पर बेबसी लिए मलबे में दबे घर को तलाश कर रहे खालिद के हाथ कुछ नहीं आने वाला। ये वे भी जानते हैं लेकिन फिर भी मलबा पर बैठकर एक पत्थर पर से दूसरे पत्थर को हटा रहे थे।
यहां यूपी के बहराइच के पीर गुलाम से भी हमारी मुलाकात हुई। वे बताने लगे 'हमारा यहां चाऊमीन का गोदाम था' जिसे वे आस-पास के इलाकों में सप्लाई करते थे। वे DDA की कार्रवाई के बारे में बताते हैं कि '' पुलिस वालों में मुझे थप्पड़ मारा। कहा चले जाओ जहां से मैंने उनसे मिन्नत की कि कम से कम आधे घंटे का वक़्त दे दो मैं अपना सामान निकाल लूंगा। लेकिन मुझे गाली देकर भगा दिया गया। मैं तो सामान सप्लाई करने गया था लेकिन फोन आया कि बुलडोज़र चल रहा है। मैं वहां से भागा, जैसे यहां पहुंचा तो बस भागो-भागो चिल्ला रहे थे। मेरे कपड़े तक नीचे दब गए। यहां पिछले 10 साल से रह रहा हूं। आज तक कोई नोटिस नहीं मिला और अचानक आकर बुलडोज़र चला दिया। हम यहां कमा-खा रहे थे, लेकिन अब क्या करें? कमरा तलाश करने गए। हम लोग दिन का चार-पांच सौ कमाने वाले हैं और कमरा मिल रहा है दस-बारह हज़ार का, तीन आदमी से ज़्यादा को एक कमरे में रहने नहीं दे रहे। बीवी-बच्चे घर पर हैं। वहां कैसे खर्चा भेजेंगे। अब यही सोच रहे हैं।''
हम कुछ आगे बढ़े तो देखा बहुत सारे लोग एक पेड़ के नीचे तख्त पर बैठे पसीना पोछ रहे थे। कोई नहा कर आ रहा था तो कोई रेहड़ी पर ही सो रहा था। पूछने पर पता चला कि ये सब लोग यहीं किराये की झुग्गियों में रहते थे। लेकिन बुलडोज़र चलने के बाद सड़क पर आ गए हैं। ये सभलोग बिहार के रहने वाले थे, ज़्यादातर लोग पटना के आस-पास और नालंदा के रहने वाले थे। संतोष ने बातचीत शुरू की लेकिन धीरे-धीरे कर सभी लोगों ने अपनी पीड़ा बयां की ''मैं यहां किराए पर 18 साल से रह रहा था, फल की रेहड़ी लगाते हैं। हम सभी लोग, यहां कोई तीस साल से रह रहा है तो कोई उससे भी ज़्यादा समय से। लेकिन उस दिन तो अचानक ही DDA वाले आए और कहा खाली कर दो। हम खाली कर पाते तब तक बुलडोज़र चला दिया। कम से कम तीन से चार रेहड़ी दब गई, सुबह का व़क्त था। हमने दाल-चावल सब्जी बना रखी थी। लेकिन मुंह में निवाला तक डालने का मौका नहीं दिया। क़रीब बीस हज़ार के फल, पैसा, बैग सब दफन हो गया। एक सप्ताह होने को जा रहा है। लेकिन इसी तरह हम यहां दिन में धूप, रात में मच्छर के बीच पड़े हैं। बारिश हो रही है तो सांप निकल रहे हैं। पूरी-पूरी रात जाग कर काट दे रहे हैं। सब जगह कमरा तलाश लिया कमरा नहीं मिल रहा। कमरा मिल रहा है तो रेहड़ी खड़ी करने की जगह नहीं मिल रही है। ऐसा लग रहा है वापस बिहार ही लौटना होगा। पहले जो कमाते थे कुछ बीवी, बच्चों या मां को भेज देते थे पर अब कुछ भी नहीं भेज पाएंगे। दिल्ली शहर में बिना काम के रहना बहुत मुश्किल है। कितना भी सादा खाना खाएंगे तो भी 100 रुपया खर्च हो ही जाएगा। ऐसे में कहां से पैसा लाएंगे?''
बेघर हुए फल की रेहड़ी लगाने वाले मज़दूर और उनकी रेहड़ी
बात खाने की निकली तो इन्हें लॉकडाउन के दिन याद आ गए। कहने लगे ''ये दिन तो लॉकडाउन से भी बुरे हैं, हम पैदल जब बिहार के लिए निकले थे तो रास्ते में कोई ना कोई खाना तो दे ही देता था। लेकिन यहां तो जब से बुलडोज़र चला है रोटी भी ठीक से नसीब नहीं हो पा रही है। ऐसा लग रहा है सरकार देश से ग़रीबी हटाएगी या नहीं लेकिन दिल्ली से ग़रीबों को ज़रूर हटा देगी।''
एक-एक कर सब अपनी कहानी बताने लगे और इस दौरान कब बहराइच के पीर ग़ुलाम पटना के संतोष के किनारे आकर बैठ गए पता ही नहीं चला। दोनों एक दूसरे के अगल-बग़ल बैठकर अपने-अपने नुकसान और आगे क्या करना है इसी पर चिंता ज़ाहिर कर रहे थे। और हम उन्हें देखकर सोच रहे थे, ग़रीबी की कोई ज़ात नहीं होती मज़बूरी के मारे एक ही बिरादरी के होते हैं।
शांतिवन में हुई इस कार्रवाई पर मज़दूर आवास संघर्ष समिति का कहना है, ''DDA बेला स्टेट यमुना खादर, तुगलकाबाद, कस्तूरबा नगर, प्रगति मैदान सहित कई बस्तियों को उजाड़ चुका है। और उनके पास पुनर्वास का कोई भी प्लान नहीं है जिससे लाखों लोग आज मलबे पर रात गुजारने को मजबूर हैं और राज्य एवं केंद्र दोनों सरकारें मौन हैं। साथ ही कोर्ट सुओ मोटो (स्वयं संज्ञान) नहीं ले रहा है जिससे ग़रीब एवं अंतिम व्यक्ति के मानवाधिकारों को सरेआम रौंदा जा रहा है।''
मज़दूर आवास संघर्ष समिति से जुड़े निर्मल अग्नि सवाल कर रहे हैं कि सरकार कहां है? बेशक, जिनके मकानों और दुकानों पर बुलडोज़र चला है वे भी यही सवाल कर रहे हैं कि सरकार कहां है? लेकिन लगता है इस सवाल का जवाब हमें 2024 के चुनावी अभियान में मिलेगा जब एक बार फिर ग़रीबों की तरफ एक नारा फेंका जाएगा ''जहां झुग्गी वहां मकान।''
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