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सीएबी और एनआरसी : दोनों डरावने विचार क्यों हैं?

नागरिकता विधेयक भारत को लंबे समय तक विभाजित करेगा।
CAB
Image Courtesy : Deccan Chronicle

9 दिसंबर को चर्चा के बाद नागरिकता संशोधन विधेयक लोकसभा में पारित हो गया है। पिछले 2019 के आम चुनावों में यह प्रस्ताव बीजेपी के घोषणा पत्र का एक हिस्सा था।

इसकी मूल रूप से क्या मांग है?

इस विधेयक में तीन पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय के लोगों के लिए प्रावधान है। 31 दिसंबर 2014 या इससे पहले भारत में रह रहे इन समाज के लोग जिन्होंने भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन दिया है उनके लिए इस क़ानून के तहत विशेष प्रावधान है। इस क़ानून के तहत भारत इन्हें नागरिकों का दर्जा प्रदान करेगा। यह देखते हुए कि मुस्लिम इन तीन देशों में बहुमत में हैं इसलिए इस विधेयक में स्पष्ट तौर पर मुसलमानों को इस क़ानून से बाहर रखा गया है।

इन प्रस्तावों पर कई सवाल उठाए गए हैं और सही भी हैं।

यदि इस क़ानून को बड़े दिल वाला और दयालु होने का प्रयास बताया जा रहा है तो भारत के पड़ोसी देशों जैसे बर्मा के परेशान रोहिंग्या या पाकिस्तान में सताए जा रहे अहमदिया और बलूच लोगों को इससे क्यों दूर रखा गया है? भारत को श्रीलंका में अत्याचार झेल रहे तमिल लोगों को क्यों छोड़ना चाहिए? या नेपाल के मधेशियों के ख़िलाफ़ भेदभाव क्यों? गोरखाओं को लेकर क्या है जो नेपाल से भारत में स्थानांतरित हो गए हैं या लंबे समय तक भारत में काम कर चुके हैं?

इसके बाद ये कि किसी को सताए जाने को लेकर निर्धारित करने का आधार धर्म क्यों है जबकि दुर्व्यवहार और उत्पीड़न के कई अन्य स्रोत हो सकते हैं? आस्था के आधार पर उत्पीड़न हो सकता है; उदाहरण के लिए, लेखिका तस्लीमा नसरीन को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा; या युद्ध के कारण जैसा कि सीरिया में देखा गया था, आर्थिक तंगी के कारण भी हो सकता है जैसा कि कई हाशिये पर पड़े नेपाली और बांग्लादेशी थे जो कभी भारत चले आए थे और राजनीतिक विश्वास के कारण जैसा कि दलाई लामा और उनके अनुयायियों के साथ हुआ था। यहां तक कि जलवायु की चरम सीमा के चलते पलायन हो सकता है और होता है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि राज्य "धर्म, जाति, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करते हुए किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र के भीतर विधि के समान संरक्षण से इनकार नहीं करेगा"। ये अनुच्छेद "नागरिक" के बजाय "व्यक्ति" कहता है जो इसके लिए महत्वपूर्ण है जिसका मतलब है कि भारत में भारतीय नागरिकों और विदेशियों को समान व्यवहार के लिए समान अधिकार हैं। इसलिए नए विधेयक में धर्म के आधार पर नागरिकता का प्रावधान भारतीय संविधान की भावना का उल्लंघन करता है।

सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 14, चिरंजीत लाल चौधरी बनाम भारत संघ की प्रासंगिकता से जुड़े एक मामले में फ़ैसला सुनाया कि जब यह एक निश्चित वर्ग के सभी के साथ एक समान तरीक़े से व्यवहार करेगा तो ये विधि समानता के सिद्धांत से पीछे नहीं हटेगा, लेकिन ऐसा वर्गीकरण कभी भी मनमाना नहीं होना चाहिए।

यकीनन सीएबी ने धर्म के आधार पर मनमाना वर्गीकरण किया है क्योंकि कुछ मुस्लिम वर्गों को पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश में बड़े खतरे और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है जो उनके आस्था से पैदा होता है। इसी तरह श्रीलंका में तमिलों को सताया गया है लेकिन भारत के इस विधेयक में श्रीलंका को शामिल नहीं किया गया है।

सीएबी पहला ऐसा विधेयक नहीं है जब भारत ने पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को संरक्षण दिया है। साल 2015 में केंद्र ने पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 और विदेश अधिनियम, 1946 के तहत आधिकारिक राजपत्र में दो अधिसूचनाएं जारी कीं। इनके माध्यम से भारत ने पाकिस्तान और बांग्लादेश से हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई अप्रवासियों को वैध दस्तावेजों के बिना भी भारत में प्रवेश करने की अनुमति दी।

ख़ासकर इन सूचनाओं ने उन्हें वैध दस्तावेजों के बिना भारत में प्रवेश करने और रहने की अनुमति दी और नागरिकता प्रदान नहीं की।

शरणार्थियों / अवैध प्रवासियों के मामले को सुलझाने वाला एक महत्वपूर्ण आधिकारिक दस्तावेज़ 1985 का असम समझौता था। केंद्र सरकार के अनुसार नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स (एनआरसी) उस समझौता को प्रभाव देता है जिस पर केंद्र, असम सरकार, ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (एएएसयू) और ऑल असम गण संग्राम परिषद (एएएसजीपी) ने हस्ताक्षर किए थे।

इस समझौते में यह तय किया गया था कि 1 जनवरी 1966 से पहले असम आने वाले अप्रवासियों को नागरिकता दी जाएगी। 1 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1971 के बीच असम में प्रवेश करने वालों का “फॉरेनर एक्ट, 1946 और फॉरेनर (ट्रिब्यूनल) ऑर्डर 1964 के प्रावधानों के अनुसार पहचान की जाएगी।” इसके बाद, वे दस वर्षों के लिए नागरिकता से वंचित रहेंगे। आख़िर में जो लोग 24 मार्च 1971 के बाद असम आए उनका पता लगाया जाएगा और उन्हें निष्कासित कर दिया जाएगा।

असम में एनआरसी और सीएबी के बीच संबंध।

सीएबी को एनआरसी के साथ देखा जाना चाहिए। एनआरसी असम में पहले से ही 19 लाख लोगों को बाहर कर चुका है जिनमें से 13 लाख हिंदू हैं। इसे अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा पूरे भारत में लागू किए जाने वाले उदाहरण के रूप में देखा जा रहा है। नागरिकों के तौर पर एनआरसी सात दशक पुराने दस्तावेजों की मांग करता है और इस बात का सबूत मांगता है कि कोई व्यक्ति और उसकी तीन पीढ़ियाँ भारत में रही हैं।

बीजेपी शुरू में एनआरसी को लेकर बहुत उत्साहित थी लेकिन अब यह एक के बिना दूसरे को न कर पाने की स्थिति में है क्योंकि असम में बड़ी संख्या में हिंदू जो मुख्य रूप से बंगाली भाषी हैं उन्हें बाहर कर दिया गया है। इसलिए, ग़ैर-मुस्लिमों को नागरिकता के लिए आवेदन करने की अनुमति देने के लिए सीएबी लाया जा रहा है।

लेकिन बाहर हुए 13 लाख हिंदुओं ने दावा किया है कि वे भारतीय हैं और उन्होंने अपने दावों को साबित करने के लिए दस्तावेज़ जमा किए हैं जिन्हें ख़ारिज कर दिया गया। अब ये लोग कैसे एक अलग दावे के साथ आगे आएंगे कि वे भारतीय नहीं हैं बल्कि बांग्लादेशी हैं और उन पर अत्याचार हुए हैं और भारतीय नागरिकता चाहते हैं।

क़ानूनी तौर पर इस तरह के कलाबाज़ी का कितना महत्व है?

अगर हम भारत में पैदा हुए लोगों और यहां तक कि वैध आधार कार्ड, पैन कार्ड, वोटर कार्ड और कई मामलों में भारतीय पासपोर्ट, जैसा कि असम में हुआ, रखने वालों को भी नागरिकता से वंचित करते हैं तो संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, दक्षिण अफ़्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा और अन्य राष्ट्रों में लाखों भारतीय मूल के नागरिक या प्रवासी को नागरिकता से वंचित किया जा सकता है क्योंकि भारत इन दस्तावेज़ों के बावजूद धार्मिक आधार पर नागरिकता देने से इनकार कर रहा है।

एनआरसी और सीएबी इन दो क़ानूनों को अगर राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाएगा तो यह भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीचा दिखाएगा।

कई सवाल अभी बरक़रार हैं।

31 दिसंबर 2014 की मनमानी अंतिम तारीख़ क्यों चुना गया है? अतीत में कभी भी पड़ोसी देश से परेशान लोग स्थानांतरित क्यों हो गए? पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों को इसके दायरे से बाहर क्यों रखा जा रहा है? विभिन्न जगहों से आने वाले लोगों और पूर्वोत्तर राज्यों को दलदल में फंसाने का डर त्रिपुरा में वास्तविक लग रहा है; जहां स्वदेशी त्रिपुरा आदिवासी आबादी 12 लाख है वहीं बंगाली प्रवासी की संख्या 28 लाख है।

इंटेलिजेंस ब्यूरो ने उल्लेख किया है कि केवल 31,313 ग़ैर-मुस्लिमों ने अब तक 2015 के गजट नोटिफ़िकेशन के तहत दीर्घकालिक वीजा के लिए आवेदन किया है जो इन ग़ैर-मुस्लिम प्रवासियों को वास्तविकता में एक मामूली मुद्दा सताए जाने को लेकर बनाता है। आईबी यह भी उल्लेख करता है कि भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन करने के लिए प्रवेश के समय के दौरान उत्पीड़न के कारणों को देना होगा। हालांकि सीएबी के तहत 31 दिसंबर 2014 की समय सीमा बड़ी हो गई है: जिन लोगों को उस तारीख़ तक भारत में प्रवेश करना था वे पहले ही ऐसा कर चुके हैं। फिर इस क़ानून में इतने बड़े बदलाव पर ज़ोर क्यों जो संविधान का उल्लंघन करता है?

इसके अलावा यह स्पष्ट नहीं है कि उन सभी लोगों (अब मुख्य रूप से मुसलमानों) के साथ क्या होता है जिन्हें असम या अन्य जगहों पर नागरिकता से बाहर रखा जाता है या विदेशियों के रूप में पहचान की जाती है। क्या उन्हें तीन पड़ोसी देशों में भेजा जाएगा? कोई भी देश इसे स्वीकार नहीं करेगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को आश्वासन दिया है कि भारत इस तरह की नीति का सहारा नहीं लेगा। फिर क्या लोगों को शेष समाज से अलग रखा जा सकता है और उन्हें हिरासत शिविर में रखा जा सकता है?

पहले से ही असम में इस तरह के कई शिविर निर्माणाधीन हैं और कुछ बुरी स्थिति में हैं

भारत इन हिरासत शिविरों के माध्यम से कंसेंट्रेशन शिविर बना रहा है। हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को समाज से अलग कर दिया जाएगा और इस राज्य द्वारा बनाए जा रहे जेल की तरह के शिविरों में डाल दिया जाएगा। कर-देने वालों के ख़र्च से हिरासत में रखे गए प्रत्येक व्यक्ति को इस राज्य द्वारा खान पान मुहैया कराया जाएगा और उसकी निगरानी की जाएगी। ये राज्य और भारत के लोग इन शिविरों के लिए पैसा देंगे, सामान्य तौर पर कहें तो हिरासत में रखे गए लोगों के मरने का इंतज़ार करेंगे। श्रम बाज़ार से उनके जाने से ख़र्च बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था को नुक़सान होगा।

अवैध प्रवास को रोकने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका पड़ोसी देशों के साथ लगी सीमाओं को सील करना है जहां से प्रवास होता है। सीमाओं को सीमा सुरक्षा बल जो कि केंद्रीय बल है इसके द्वारा देख-रेख किया जाता है और भारत की सीमाओं को सील करने के लिए केंद्र के पास विशेष अधिकार है। लेकिन प्रवास को लेकर सरकार ने इस उद्देश्य को गंभीरता से नहीं लिया।

एक चौथाई सदी तक चले अयोध्या मुद्दे की तरह एनआरसी-सीएबी हिंदू और मुसलमानों को विभाजित करेगा

वे देश को अंतहीन बहस और कार्रवाई में रखे रहेंगे; जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। इससे हिंदू ध्रुवीकरण हो सकता है जो सत्तारूढ़ बीजेपी को चुनावी लाभ प्रदान करता है। यह सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि क्यों एनआरसी और सीएबी को बरक़रार रखा जा रहा है।

दूसरा, धर्म आधारित नागरिकता पर बहस की कोशिश की जा रही है जो कि चौपट होती अर्थव्यवस्था, बेरोज़गारी, बढ़ते कृषि संकट, रुपये के गिरते मूल्य और भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल सिद्धांतों से ध्यान हटाने में मदद करती है जो अब दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया सबसे धीमी गति से बढ़ रही है।

लेखक स्तंभकार और कोलकाता स्थित अदामस विश्वविद्यालय के प्रो. वाइस चांसलर हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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