अपने ही झूठे सिद्धांतों को सच मानते पूंजीवादी अर्थशास्त्री
उदारतावादी पूंजीवादी लेखक, पूंजीवाद के अंतर्गत उत्पन्न होने वाली समस्याओं की व्याख्या, पूंजीवादी व्यवस्था की अंतर्निहित प्रवृत्तियों के आधार पर करने के बजाए, संबंधित सरकारों के मनमर्जी चलाने के नतीजे के रूप में करने का प्रयास करते हैं। इस तरह वे अपने उन झूठे सिद्घांतों में विश्वास बनाए रखते हैं, जो पूंजीवाद को रंग-चुनकर पेश करते हैं और उससे पैदा होने वाली मुसीबतों का दोष राजनीतिक हठधर्मी पर डाल देते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था के ऐसे ही रंग-चुनकर पेश किए जाने का एक उदाहरण है, अंतरराष्ट्रीय व्यापार को सब के लिए लाभदायक बनाकर पेश करना।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार हमेशा लाभदायक होने का मिथक
दुनिया ने साम्राज्यवाद की सदियां देखी हैं, जिन्होंने विजित देशों की अर्थव्यवस्थाओं को तबाह कर दिया और इन देशों पर शोषणकारी व्यापारिक रिश्ते थोपने के जरिए, वहां गरीबी, बेरोजगारी तथा पिछड़ेपन को पैदा किया था। इसके बाद तो पूंजीवादी व्यवस्था के इस तरह रंग-चुनकर पेश किए जाने की कोई गुंजाइश बचनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन अफसोस की बात है कि पूंजीवादी अर्थशास्त्र में उपनिवेशवाद की चर्चा तो कभी आती ही नहीं है।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार के सभी के लिए लाभदायक होने की इस धारणा के पीछे जो एक स्वत:स्पष्ट पूर्व-कल्पना काम कर रही होती है वह यही है कि सभी देशों में, ऐसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से पहले भी और व्यापार के बाद भी, दोनों ही सूरतों में, श्रम समेत ‘उत्पादन के सभी कारकों’ का पूर्ण उपयोग हो रहा होता है। ऐसी सूरत में विदेश व्यापार तो सिर्फ मालों के उस बंडल में बदलाव पैदा कर रहा होता है, जो उत्पादन के सभी कारकों का पूरी तरह से उपयोग करके बन रहे होते हैं, जबकि पहले भी इन सभी कारकों का पूरा उपयोग हो रहा होता है। इस बदलाव में हरेक देश उन मालों के उत्पादन में और ज्यादा विशेषीकरण हासिल कर रहा होता है, जिनके मामले में उसे ‘तुलनात्मक अनुकूलता’ की स्थिति हासिल है। इसलिए, व्यापार के जरिए सब देशों को मिलाकर, विश्व उत्पाद बढ़ जाता है और यही इसकी संभावना पैदा करता है कि सभी देश इस व्यापार से लाभान्वित हों। इन हालात में किसी भी देश के लिए सबसे बुरा यही हो सकता है कि उसे इस व्यापार से फायदा नहीं हो। लेकिन, इस व्यापार से किसी भी देश के नुकसान में रहने का तो कोई कारण ही नहीं हो सकता है।
नवउदारवाद और बेकारी निर्यात का खेल
लेकिन, इस तरह के व्यापार से पहले और व्यापार के बाद, दोनों ही सूरतों में उत्पादन के सभी कारकों के पूर्ण उपयोग की बात तो दूर रही, पूंजीवाद की तो खुद ही पहचान, जैसाकि एक असाधारण उदारतावादी पूंजीवादी अर्थशास्त्री ने हमें बताया था, लगभग सदाबहार मांग-सीमा या मांग बाधा से या सदा-सर्वदा अधिक उत्पादन की अवस्था से या उनके अपने शब्दों कहें तो, ‘अनैच्छिक बेरोजगारी’ से होती है। ऐसी सूरत में व्यापार मुख्यत: अपने व्यापार सहयोगी के लिए बेरोजगारी का निर्यात करने का औजार बन जाता है और यह किया जाता है, उसके साथ व्यापार-बचत चलाने के जरिए। मांग बाधा जितनी ज्यादा प्रबल होगी तथा बेरोजगारी की स्थिति जितनी ज्यादा बढ़ी हुई होगी, देशों के बीच एक-दूसरे के यहां अपनी बेरोजगारी निर्यात करने की रस्साकशी उतनी ही ज्यादा होगी। इस संघर्ष में बेरोजगारी का उन देशों में भी निर्यात करने की कोशिश की जाएगी, जो अपने आप में पूंजीवादी नहीं भी हो सकते हैं।
नवउदारवादी व्यवस्था, जो देशों की सीमाओं के आर-पार वस्तुओं तथा सेवाओं और पूंजी का, जिसमें वित्तीय पूंजी भी शामिल है, अपेक्षाकृत मुक्त प्रवाह सुनिश्चित करती है, इसी पूंजीवादी तर्क के आधार पर कायम की गयी है कि व्यापार तो सभी के लिए लाभदायक होता है। इसलिए, नवउदारवाद में, जोकि व्यापार के लिए अनुकूल होता है, सभी का लाभ होना चाहिए। लेकिन, अमेरिका के आवासन के बुलबुले के बैठने के बाद, जब विश्व अर्थव्यवस्था अधि-उत्पादन के दीर्घ संकट में फंस गयी यानी गंभीर मांग बाधा को मार पडऩे लगी, तो मालों के आयातों से अपनी ही अर्थव्यवस्था को बचाने का खेल गंभीरता से शुरू हो गया। विचार यह था कि अब तक जिन मालों का आयात किया जा रहा था, उनका अपने देश में ही उत्पादन किया जाए और इस तरह विदेश में बेरोजगारी पैदा करते हुए, जो कि दूसरे देशों में बेरोजगारी का निर्यात करने जैसा ही था, अपने देश में रोजगार बढ़ाया जाए। अब उन्हीं विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं ने, जो अब तक तीसरी दुनिया के देशों को नवउदारवादी व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर रही थीं, उसी नवउदारवादी व्यवस्था के नियमों का उल्लंघन करते हुए, आयातों के खिलाफ अपनी हिफाजत करने में, सबसे आगे मोर्चा संभाल लिया। चीन वह देश था, जिसे खासतौर पर निशाना बनाया जा रहा था, जबकि वही तो निर्यात-संचालित वृद्धि का एक शानदार उदाहरण था। ये निर्यात बहुत हद तक विकसित दुनिया की पूंजी की सरपरस्ती में हो रहे थे। विकसित दुनिया की इस पूंजी ने अपना ठिया चीन में बना लिया था और वह चीन से वापस अपनी विकसित दुनिया के लिए निर्यात कर रही थी।
चीन: यह सिर्फ राजनीतिक वैरभाव का मामला नहीं है
पश्चिमी उदारतावादी अर्थशास्त्री, चीनी मालों के खिलाफ वर्तमान संरक्षणवाद को, चीन के प्रति द्विपक्षीय-राजनीतिक वैर-भाव के नतीजे के तौर पर ही देखते हैं और पश्चिम द्वारा नवउदारवादी नियमों का उल्लंघन किए जाने को, इस वैर-भाव का ही नतीजा मानते हैं। लेकिन, सचाई यह है कि इस तरह के संरक्षणवाद के पीछे, अधि-उत्पादन का संकट है, जो कि पूंजीवाद की अंतर्निहित प्रवृत्तियों का परिणाम है, न कि चीन को दंडित करने की कोई शुद्घ राजनीतिक आकांक्षा। इस तरह की राजनीतिक आकांक्षा भी हो सकती है, लेकिन मात्र उसी को पश्चिम में संरक्षणवाद के उभार का कारण मानना, पूंजीवाद को उसके अंतर्निहित अंतर्विरोधों से बरी कर देना और इस कपोल-कल्पना को चलाए जाना होगा कि अगर यह दुर्भावना बीच में नहीं आ गयी होती, तो मुक्त व्यापार चलता रहता और सब को लाभ दिलाता रहता।
‘पड़ोसी जाए भाड़ में’ की नीतियों को अपनाने के जरिए, बेरोजगारी का निर्यात करने की ऐसी बेकार कोशिशें ही, 1930 के दशक के महामंदी के दौर की निशानी थीं। सकल मांग को बढ़ाने के लिए, सरकारी खर्च बढ़ाने का 1930 के दशक के ज्यादातर हिस्से में, कहीं भी कोई खास सहारा नहीं लिया गया था। फासीवादी देश ही इसका अपवाद थे, जो युद्घ की तैयारी में खुद को हथियारबंद कर रहे थे। बेशक, 1930 के दशक के आरंभ में रूजवेल्ट की नयी डील जरूर शुरू की गयी थी, लेकिन जैसे ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था में बहाली के कुछ लक्षण दिखाई देने शुरू हुए, तेजी से इसे कतर दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि संकट फिर से चालू हो गया। वह तो जब युद्घ सिर पर आ गया, तब ही कहीं जाकर उदारपंथी पूंजीवादी देशों ने हथियारों पर सरकारी खर्च बढ़ाने का रास्ता लिया। लेकिन, बड़े पैमाने पर सरकारी खर्चे शुरू करने से पहले, सर्वव्यापी रूप से ‘पड़ोसी जाए भाड़ में’ की नीतियों के जरिए, बेरोजगारी के निर्यात को आजमाया गया और स्वर्ण मानक से अलग होने के बाद, ज्यादातर देशों ने अपनी विनिमय दरों में प्रतिस्पर्द्धी अवमूल्यन का सहारा लिया। लेकिन, इससे किसी एक भी देश में मंदी से उबरने में कोई खास सफलता नहीं मिली। बहरहाल, तीसरी दुनिया के देशों में, खासतौर पर लातीनी अमेरिका में संरक्षणवाद ने, इस महाद्वीप में निर्यात प्रतिस्थापनकारी उद्योगीकरण के बीज बोने का काम किया। इस तरह यह संकट, तीसरी दुनिया में उद्योगीकरण का हरकारा बन गया।
यह चीन के लिए बेरोजगारी के निर्यात की कोशिश है
चीन की निर्यात सफलता पर हमले की आड़ में, हम अब एक बार फिर, विकसित पूंजीवादी दुनिया में संरक्षणवाद की ओर बढ़ते कदमों को देख रहे हैं। लेकिन, नवउदारवादी अर्थशास्त्री हमें जो समझाने की कोशिश कर रहे हैं, उसके विपरीत यह इसका मामला है ही नहीं कि नवउदारवाद ने मुक्त व्यापार की जो शानदार व्यवस्था रच दी थी, उसे भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता खराब कर रही है। इसके बजाए, यह संरक्षणवाद तो खुद ही संकट पर आयी प्रतिक्रिया है, यह बेरोजगारी का निर्यात करने का ही उपाय है और इसका निशाना बनाया जा रहा है उस देश को जो शायद दुनिया का सबसे ध्यानाकर्षक रूप से सफल, निर्यातक देश है। भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता तो सिर्फ बहाना है। अमेरिका यह दलील दे सकता है कि वह तो उस मुक्त व्यापार में ही विश्वास करता है, जिसका वह उपदेश देता रहा है, लेकिन उसे भू-राजनीतिक सचाइयों को भी तो ध्यान में रखना होगा और इसी के चलते वह चीन के खिलाफ संरक्षणवादी अंकुश लगा रहा है। लेकिन, सचाई इससे उल्टी है। भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की आड़ में वे, अपने संरक्षणवादी कदमों के जरिए, चीन में बेरोजगारी का निर्यात करने में लगे हुए हैं।
अमेरिका के संरक्षणवाद से चीन के हाथ बहुत बंध जाने वाले नहीं हैं। वह पहले ही पिछले कुछ अर्से से अपने उत्पादन को निर्यात की तरफ से हटाकर, घरेलू बाजार की ओर मोडऩे की दिशा में बहुविध बनाने में लगा हुआ है। वह ऐसा पश्चिम के प्रतिरोध की ऐसी नौबत आने का पूर्वानुमान लगाकर ही करता रहा है। इसके साथ ही वह घरेलू किसान अंसतोष को टालने के लिए भी ऐसा करता रहा है। वास्तव में, कुछ वर्ष पहले चीन ने एक दस्तावेज अपनाया था, ‘समाजवादी देहात की ओर’। इसमें ग्रामीण चीन में कहीं ज्यादा सरकारी खर्च की संकल्पना की गयी थी।
निर्यात संचालित वृद्धि को झेलना होगा अमेरिकी प्रतिरोध
यह समूचा प्रकरण, आज के संदर्भ में निर्यात-संचालित वृद्धि की रणनीति की कमी को रेखांकित करता है। अगर कोई देश, खासतौर पर कोई बड़ा देश निर्यात-चालित वृद्धि की ऊंची दर हासिल करने में कामयाब हो जाता है, तो उसे देर-सबेर विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के प्रतिरोध का सामना करना ही पड़ेगा। यहां तक तो हमने सिर्फ अधि-उत्पादन के संकट के संदर्भ में ही आने वाले, इस तरह के प्रतिरोध की चर्चा की है। लेकिन, जब कोई दिखाई देने वाला अधि-उत्पादन संकट नहीं हो तब भी, नेतृत्वकारी सामराजी देश के साथ, सफल निर्यातकर्ता देश का व्यापार बचत लगातार बनाए रखना, जिससे उसके हाथों सामराजी देश को रोजगार भी गंवाने पड़ते हैं और उस पर बढ़ता हुआ कर्ज भी चढ़ता जाता है, नेतृत्वकारी देश की ओर से प्रतिरोध को आमंत्रित करेगा ही करेगा।
चीन से पहले जापान का भी ऐसा ही हस्र हुआ था, जबकि वह तो अमेरिका के लिए कोई भू-राजनीतिक चुनौती पेश भी नहीं करता था। निर्यात-संचालित वृद्धि हासिल करने में जापान की भारी कामयाबी ने, जापानी निर्यातों के खिलाफ अमेरिकी प्रतिरोध पैदा किया था और जापान की वृद्धि दर को नीचे ला दिया था। यह तर्क भी दिया जा सकता है कि यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में अमेरिका के वर्तमान कदम, निर्यात-संचालित वृद्घि हासिल करने में जर्मनी की सफलता के खिलाफ, इसी तरह के प्रतिरोध का भी उदाहरण हैं। नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन का विस्फोट के जरिए उड़ाया जाना, जो जर्मनी के लिए रूस की सस्ती गैस की आपूर्ति के दोबारा शुरू होने को लगभग असंभव ही बना देता है और इस तरह जर्मन उद्योग के लिए उत्पादन लागतों को बढ़ा देता है, निकट भविष्य में जर्मनी की निर्यात सफलता के पुनर्जीवन की सभी संभावनाओं पर पानी फेर देता है।
बेशक, आर्थिक वृद्धि लाने के लिए सिर्फ निर्यातों को कम करना ही काफी नहीं होता है। इससे बेरोजगारी तथा उत्पाद में बढ़ोतरी तो होती है, लेकिन यह तो एक बार का ही मामला होगा। इसलिए, अर्थव्यवस्था में अगर वहनीय वृद्घि लानी हो तो, उसके लिए सदाबहार बाहरी वृद्धि उत्प्रेरण की जरूरत होगी। सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी, अगर उसके लिए वित्त व्यवस्था राजकोषीय घाटे के जरिए की जाए या फिर अमीरों पर कर लगाने के जरिए, इस तरह का उत्प्रेरण मुहैया करा सकती है। लेकिन, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी सामान्यत: बढ़े हुए सरकारी खर्चे के लिए वित्त जुटाने के इन दोनों ही तरीकों का विरोध करती है। इसलिए, अपनी अर्थव्यवस्था को आयातों से बचाने से ही काम नहीं चलेगा और संकट से उबरने के लिए अग्रणी विकसित पूंजीवादी देश को, उसके अलावा भी कुछ करना होगा।
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