सियासत: नीतीश के सामने अपनी पार्टी, सरकार और साख बचाने की चुनौती
आगामी लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी गठबंधन तैयार करने की कोशिशों की भाजपा चाहे जितनी खिल्ली उड़ाए लेकिन हकीकत यह है कि उसका नेतृत्व इन कोशिशों से बेहद बेचैन और बदहवास है। इसी बदहवासी के आलम में उसने विपक्षी दलों को कमजोर करने और उनके गठबंधन की संभावनाओं को पंक्चर करने के लिए अपना अभियान तेज कर दिया है। इस अभियान में प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग जैसी केंद्रीय एजेंसियों को तो उसने पहले से ही काम पर लगा रखा था और अब उसका शीर्ष नेतृत्व भी खुल कर मोर्चे पर आ डटा है। महाराष्ट्र का ताजा घटनाक्रम इस अभियान का हिस्सा है। अब ऐसा ही घटनाक्रम आने वाले कुछ दिनों में बिहार और कुछ अन्य राज्यों में भी दोहराया जा सकता है।
महाराष्ट्र में करीब एक साल पहले जोड़-तोड़ से बनी भाजपा और विखंडित शिव सेना की सरकार को विधानसभा में आरामदायक बहुमत हासिल था और उसे किसी के अतिरिक्त समर्थन की दरकार नहीं थी। इसके बावजूद भाजपा ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी को तोड़ कर उसके नौ विधायकों को मंत्री बना दिया। इन नौ मंत्रियों में शरद पवार के भतीजे अजित पवार भी शामिल हैं, जिन्हें उप मुख्यमंत्री बनाया गया है। इस घटनाक्रम से एक बार फिर साबित हुआ कि जोड़-तोड़ की राजनीति में नरेंद्र मोदी युगीन भाजपा न सिर्फ माहिर है बल्कि तोड़-फोड़, जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त की राजनीति ही उसका परमधर्म है।
फौरी तौर पर लगता है कि यह घटनाक्रम महाराष्ट्र का है लेकिन हकीकत यह है कि मुंबई में मंचित इस नाटक की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी और इसका सूत्र संचालन भी दिल्ली से ही हो रहा था। गौरतलब है कि पिछले सप्ताह 27 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भोपाल गए थे। वहां उन्होंने अपनी पार्टी के एक कार्यक्रम में भाषण देते हुए विपक्षी नेताओं के कथित घोटाले गिनाए थे और उसी सिलसिले में एनसीपी के नेताओं पर 70 हजार करोड़ रुपए के घोटालों का आरोप लगाया था। महाराष्ट्र सहकारी बैंक घोटाला, सिंचाई घोटाला, खनन घोटाला आदि का जिक्र करते हुए इसमें शामिल नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी दी थी। प्रधानमंत्री के इस भाषण के दो दिन बाद ही अजित पवार दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह से मिले थे। उसी मुलाकात में जो कुछ तय हुआ था वह 2 जुलाई को पूरे देश ने देख लिया।
अजित पवार सहित एनसीपी के जो नौ विधायक महाराष्ट्र सरकार में मंत्री बनाए गए हैं, उनमें से अजित पवार और छगन भुजबल समेत चार तो सीधे-सीधे उन घोटालों में जांच का सामना कर रहे हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में गिनाए थे। बाकी पांच मंत्रियों और अजित पवार समर्थक अन्य विधायक भी किसी न किसी मामले में केंद्र और राज्य सरकार की जांच एजेंसियों का सामना कर रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सभी को अब जांच से राहत मिल जाएगी यानी सभी के मामले रफा-दफा हो जाएंगे। ऐसा पहली बार नहीं होगा। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और असम, गोवा तथा पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों में कांग्रेस से दलबदल कर भाजपा में गए नेताओं को भी केंद्रीय एजेंसियों की जांच से इसी तरह छुटकारा मिला है। यानी मोदी अपने भाषणों में जिन नेताओं को जेल भेजने की बात करते थे, उन्हें जेल भेजने के बजाय अपनी पार्टी में ले आए।
महाराष्ट्र के घटनाक्रम से यह भी जाहिर हुआ है कि अपनी सत्ता के बल पर दूसरे दलों को तोड़ना और उनके नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करना मोदी और शाह का प्रिय खेल है। इस खेल में वे संविधान, कानून, लोकतांत्रिक मर्यादा और न्यूनतम नैतिकता की भी परवाह नहीं करते हैं। हां, अपने भाषणों में इन बातों की दुहाई खूब चीख-चीख कर देते हैं। इसे एक तरह उनकी 'बीमारी’ भी कहा जा सकता है, क्योंकि यह खेल वे आए दिन किसी न किसी राज्य में खेलते रहते हैं। इसी खेल के जरिए उन्होंने पिछले नौ सालों के दौरान मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में जनता द्वारा ठुकरा दिए जाने के बाद भी जनादेश को ठेंगा दिखाते हुए अपनी पार्टी की सरकार बनाई है। कोई आश्चर्य नहीं कि जो खेल महाराष्ट्र में खेला गया है, वह आने वाले कुछ दिनों में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अन्य विपक्ष शासित राज्यों में भी खेला जाए। इस सिलसिले में पहला नंबर बिहार का हो सकता है।
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बिहार की बारी दो वजह से हो सकती है। पहली वजह तो यह है कि एक साल पहले 30 जून को जब भाजपा ने शिव सेना को तोड़ कर उसके अलग हुए धड़े के साथ मिल कर सरकार बनाई थी, उसके कुछ ही दिनों बाद बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन तोड़ कर राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बना ली थी। यानी भाजपा को महाराष्ट्र मिली खुशी को नीतीश ने बिहार में गम में बदल दिया था। सो, अब उसका बदला लेना है। दूसरा कारण यह है कि शरद पवार की पार्टी की तरह नीतीश कुमार की पार्टी में भी कई कमजोर कड़ियां हैं, जिनका फायदा भाजपा उठा सकती है।
महाराष्ट्र में अजित पवार एनसीपी की कमजोर कड़ी थी। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष होते हुए भी वे काफी समय से भाजपा के संपर्क में थे। कई बार वे सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ भी कर चुके थे। उसी तरह एक समय नीतीश कुमार की पार्टी में नंबर दो की पोजिशन पर रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह अब भाजपा के साथ चले गए हैं। बताया जा रहा है कि उनके जरिए जनता दल (यू) के ऐसे कई सांसद-विधायक भाजपा के संपर्क में हैं, जिन्हें अगले चुनाव को लेकर अपने भविष्य की चिंता है। उन्हें लग रहा है कि राष्ट्रीय जनता दल के साथ होने की वजह से उनके अपने क्षेत्र में उनकी जीत का समीकरण बिगड़ा है और वे कमजोर हुए हैं। ऐसे नेता भाजपा के साथ जा सकते हैं।
जनता दल (यू) के कई नेता ऐसे भी हैं जो अभी सांसद या विधायक नहीं हैं लेकिन उनको लग रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा उनको टिकट दे सकती है। भाजपा पिछली बार 17 सीटों पर लड़ी थी और सभी सीटें उसने जीती थी। इस बार वह करीब 30 सीटों पर लड़ेगी। इसलिए उसे 13 नए उम्मीदवारों की जरूरत होगी। इसलिए जनता दल (यू) के कुछ नेता इस उम्मीद में भी भाजपा से बात कर रहे है कि उनको लोकसभा की टिकट मिल जाए।
अपनी पार्टी के नेताओं में चल रही ऊहापोह को नीतीश कुमार भी समझ रहे हैं। उन्होंने महाराष्ट्र में एनसीपी की टूट होने से पहले ही अपने यहां संभावित खतरे को भांपते हुए पिछले हफ्ते अपनी पार्टी के सभी विधायकों को पटना बुलाया और सबसे एक-एक करके मुलाकात की। उन्होंने विधान परिषद के सदस्यों से भी मुलाकात की। उनसे मिलने के बाद विधायकों ने कहा कि मुख्यमंत्री ने क्षेत्र का हाल जानने के लिए बुलाया था। लेकिन सच यह है कि नीतीश कुमार ने अपने विधायकों का मन टटोला है। शायद उन्होंने यह जानना चाहा है कि विधायक कहीं भाजपा के संपर्क में तो नहीं हैं या पार्टी तो नहीं छोड़ने वाले हैं। बताया जाता है कि अगर पार्टी नहीं टूटती है तब भी नीतीश को कुछ विधायकों के इस्तीफा देने और भाजपा में शामिल होने के अंदेशा है।
विधायकों का मन टटोलने की कवायद और कुछ विधायकों के भाजपा के साथ जाने की आशंका के चलते ही यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार फिर से भाजपा के साथ गठबंधन की राह भी तलाश रहे हैं। हालांकि इस बात की पुष्टि कोई नहीं कर रहा है। लेकिन महाराष्ट्र के नए राजनीतिक घटनाक्रम के बीच सोमवार को ही नीतीश कुमार की राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश नारायण सिंह के साथ डेढ़ घंटे की बंद कमरे में मीटिंग से इन चर्चाओं को बल मिला है। गौरतलब है कि हरिवंश जनता दल (यू) से ही राज्यसभा के सदस्य हैं और नीतीश कुमार के भाजपा से गठबंधन तोड़ लेने के बावजूद हरिवंश अभी भी राज्यसभा के उप सभापति पद बने हुए हैं। नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का भी जनता दल (यू) ने अन्य विपक्षी दलों के साथ बहिष्कार किया था लेकिन हरिवंश नारायण उस कार्यक्रम में शामिल हुए थे और उन्होंने ही राष्ट्रपति व उप राष्ट्रपति के संदेश पढ़े थे। हरिवंश को प्रधानमंत्री मोदी का भी करीबी माना जाता है और इसी आधार पर कहा जाता रहा है कि हरिवंश के जरिए नीतीश ने भाजपा से संबंधों की खिड़की खोल रखी है। वे नीतीश कुमार और भाजपा नेतृत्व के बीच संदेश वाहक का काम कर सकते हैं।
इस बीच एक घटनाक्रम यह हुआ कि राष्ट्रीय जनता दल के नेता और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पिछले दिनों विदेश गए तो उनके स्वास्थ्य मंत्रालय में अचानक पांच सौ कर्मचारियों का तबादला कर दिया गया था, लेकिन तेजस्वी के लौटने के बाद 24 घंटे के अंदर ही सारे तबादले रद्द करने पड़े थे। कहा जा रहा है कि तेजस्वी के दबाव में तबादले रद्द हुए।
एक अन्य घटनाक्रम के तहत केंद्रीय एजेंसियों ने लालू प्रसाद के परिवार पर फिर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। जमीन के बदले नौकरी के कथित घोटाले में सीबीआई ने नई चार्जशीट दायर कर दी है जिसमें तेजस्वी यादव को आरोपी बनाया गया है। इस मामले में सीबीआई पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी कुछ अन्य लोगों के खिलाफ पहले ही चार्जशीट दायर कर चुकी है। पिछली बार 2017 में जब नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल से गठबंधन तोड़ा था तो तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप को मुद्दा बनाया था। अब चूंकि सीबीआई ने उनके खिलाफ चार्जशीट दायर कर दी है, इसलिए कहा जा रहा है कि इस आधार पर नीतीश एक बार फिर राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन तोड़ सकते हैं। नीतीश पर एक नया दबाव यह भी है कि उनकी पार्टी के दो बड़े नेताओं के दो करीबी कारोबारियों के यहां आयकर के छापे पड़े हैं। ये छापे इस बात का संकेत है कि आगे भी उनकी पार्टी से जुड़े लोगों पर इस तरह की कार्रवाई हो सकती है।
कुल मिलाकर नीतीश चौतरफा दबाव में हैं। इसी वजह से उनके फिर से भाजपा के साथ जाने की अटकलें लग रही हैं। लेकिन अब उनका भाजपा के साथ जाना इतना आसान भी नहीं है जितना बताया जा रहा है। अमित शाह ने पिछले एक साल के दौरान अपनी हर बिहार यात्रा में सार्वजनिक रूप से नीतीश को धोखेबाज और सत्ता का भूखा बताते हुए कहा है कि अब उनके लिए भाजपा के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं। हालांकि राजनीति में और खास कर भाजपा की राजनीति में ऐसे बयानों को बहुत ज्यादा महत्व नहीं होता है। भाजपा एक समय जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी को पाकिस्तान परस्त और आतंकवादियों की हमदर्द बताती थी लेकिन बाद उसके साथ ही मिल कर उसने दो बार सरकार बनाई। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वह नीतीश कुमार से भी फिर हाथ मिला ले। लेकिन सवाल नीतीश कुमार के सामने भी बहुत बड़ा है। भाजपा से अलग होने के बाद वे कई बार दोहरा चुके हैं कि अब भविष्य में वे कभी भी किसी कीमत पर भाजपा के साथ नहीं जाएंगे।
पिछले एक साल के दौरान नीतीश भाजपा के विरोध में बहुत आगे बढ़ चुके हैं, इतना आगे कि पहली बार अपने प्रदेश से बाहर की राजनीति करते हुए उन्होंने देश भर का दौरा किया और सारे विपक्षी दलों को एक साथ बैठाने की पहलकदमी की। उनकी यह पहल सफल भी रही और पटना में 15 विपक्षी पार्टियों ने एक साथ बैठ कर गठबंधन बनाने का फैसला किया। नीतीश के इस प्रयास को सभी दलों ने सराहा और उन्हें गठबंधन का संयोजक बनाने के लिए भी सभी ने सहमति जताई। ऐसे में नीतीश के लिए फिर से भाजपा के साथ जाने का फैसला करना आसान नहीं होगा। अब देखने वाली बात होगी कि नीतीश किस तरह से अपनी पार्टी, सरकार और साख को बचाते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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