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यूक्रेन को लेकर पश्चिमी मीडिया के कवरेज में दिखते नस्लवाद, पाखंड और झूठ के रंग

क्या दो परमाणु शक्तियों के बीच युद्ध का ढोल पीटकर अंग्रेज़ी भाषा के समाचार घराने बड़े पैमाने पर युद्ध-विरोधी जनमत को बदल सकते हैं ?
Western media
रूस की तरफ़ से सैन्य संघर्ष को आगे बढ़ाने के बाद किसी पत्रकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से सवाल किया था, "अगर लगाये गये प्रतिबंध भी राष्ट्रपति पुतिन को नहीं रोक पाये, तो क्या सज़ा दी जा सकती है ?"

यूक्रेन में रूसी सैन्य गतिविधि के बढ़ने से पहले नाटो देशों के लोग इस संघर्ष में अपनी ही सरकारों की सैन्य भागीदारी की संभावना को लेकर सबसे ज़्यादा आशंकित थे। नाटो देशों के बीच सबसे अच्छी तरह से सुसज्जित सशस्त्र देश संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों में से महज़ एक चौथाई लोगों ने ही रूसी सैन्य हमले से पहले किये गये एक सर्वेक्षण में यूक्रेन में एक प्रमुख भूमिका निभाने को लेकर अमेरिका का समर्थन किया था। 17 फ़रवरी को स्पेक्टेटर के हवाले से दिये गये एक सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि अगर रूस यूक्रेन पर हमला करता,तो यूनाइटेड किंगडम के लोगों में से ज़्यादतर लोग इस सैनिक तैनाती का विरोध करते। यूरोपीय लोगों के बीच फ़रवरी की शुरुआत में कराये गये एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि जहां ज़्यादतर लोगों का मानना था कि नाटो को रूसी हमले से यूक्रेन को बचाना चाहिए,वहीं ज़्यादातर का मानना था कि रूसी सैन्य कार्रवाई के ख़तरे की स्थिति में इस तरह की रक्षा कार्रवाई ठीक नहीं है।

ये सर्वेक्षण रूसी सरकार के यूक्रेन में सैन्य संघर्ष को आगे बढ़ाने से पहले किये गये थे। अभी यह साफ़ नहीं है कि नाटो देशों में रहने वाले कितने लोग इसका समर्थन करते हैं। हालांकि, ये संख्यायें स्पष्ट हैं। रूसी सैन्य चढ़ाई से पहले नाटो सैन्य कार्रवाई के समर्थन को लेकर कोई व्यापक आधार नहीं था।

फिर भी, ऐसा लगता है कि अंग्रेज़ी भाषी समाचार मीडिया इस व्यापक समर्थन को बढ़ाने या कम से कम नाटो की उस आक्रामकता से ध्यान हटाने को लेकर अपने स्तर पर पूरज़ोर कोशिश कर रहा है, जिसके कारण यह संघर्ष हुआ है। नस्लवादी रूपकों, सेंसरशिप और ज़बरदस्त झूठ के मिश्रण के ज़रिये नाटो देशों के लोगों और ख़ासकर बेहद सैन्यीकृत संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों के बीच युद्ध-समर्थक बयानबाज़ी लगातार होती रहती है।

आइये,नीचे ऐसे ही कुछ सबसे उल्लेखनीय पहलुओं पर नज़र डालते हैं:

1. युद्ध का ढोल पीटना

24 फ़रवरी को इस संघर्ष की शुरुआत में ही राष्ट्रपति जो बाइडेन की ओर से यूक्रेन पर हमले के बाद रूस के ख़िलाफ़ व्यापक प्रतिबंधों के ऐलान के साथ ही प्रेस इस युद्ध के ढोल पीटने को लेकर क़तार में खड़ा था। एबीसी न्यूज़ के एक रिपोर्टर ने बाइडेन से पूछा था, “ज़ाहिर है, इस समय व्लादिमीर पुतिन को रोकने को लेकर ये प्रतिबंध नाकाफ़ी हैं। पुतिन को रोकने के लिए क्या किया जाने वाला है,उसे कैसे और कब अंजाम दिया जायेगा, और क्या आप पुतिन को यूक्रेन से भी आगे जाने की कोशिश करते देख रहे हैं ?" एक दूसरे रिपोर्टर ने पूछा, "आपको इस बात का यक़ीन है कि ये विनाशकारी प्रतिबंध रूसी मिसाइलों और गोलियों और टैंकों की तरह ही विनाशकारी होने जा रहे हैं?" एक और रिपरोर्ट ने बाइडेन से पूछा, "अगर ये प्रतिबंध राष्ट्रपति पुतिन को नहीं रोक पाये, तो फिर किस तरह की सज़ा दी जा सकती है?"

हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका ने अभी तक रूस के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई नहीं की है, यह पश्चिमी मीडिया की ओर से कोशिश की कमी के चलते नहीं है। इन प्रतिबंधों से आगे बढ़ने का आग्रह के अलावा अंग्रेज़ी भाषी प्रेस ने जल्दबाज़ी में यह ग़लत-सलत सूचना प्रकाशित कर दी थी कि स्नेक आइलैंड पर यूक्रेनी सैनिक रूसी हमले में मारे गये है, जबकि सचाई यह थी कि उस हमले में सबके सब बच गये थे।

परमाणु शक्तियों के बीच किसी भी तरह का टकराव पूरी दुनिया के लिए विनाशकारी होगा। फिर भी, समय-समय पर अंग्रेज़ी भाषी मीडिया ने धीरे-धीरे या बहुत ही बारीक़ी के साथ या फिर समझ में नहीं आने वाले तरीक़े से हालात में घी डालने का काम किया है। 28 फ़रवरी को एनबीसी न्यूज़ के रिपोर्टर रिचर्ड एंगेल ने ट्वीट किया था, "एक विशाल रूसी काफ़िला कीव से 30 मील की दूरी पर है। अमेरिका/नाटो शायद इसे तबाह कर सकते हैं। लेकिन, यह तो रूस, जोखिम और बाक़ी तमाम चीज़ों के ख़िलाफ़ सीधे-सीधे भागीदारी होगी। क्या पश्चिम चुपचाप इसे देखता रहेगा,क्योंकि अबतक तो इसका रवैया ढुलमुल ही रहा है ?" सवाल है कि क्या पश्चिम सही मायने में "चुपचाप देख रहा है",जबकि वह बड़े पैमाने पर प्रतिबंध लगा रहा है, जिसका रूस और दुनिया के लोगों पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकता है ? और यदि हां, तो फिर विकल्प क्या है?

दूसरे समाचार घरानों ने नाटो देशों पर 2011 में लीबिया पर नो-फ़्लाई ज़ोन की तरह ही उस नो-फ्लाई ज़ोन को लागू करने को लेकर दबाव डालने वाली आवाज़ को बढ़ावा दिया था, जिसके लागू होने से वह देश तबाह हो गया था। यूक्रेन पर नो-फ़्लाई ज़ोन लागू करने का मतलब रूसी सैन्य विमानों के साथ सीधा टकराव है, जो कि मुख्य रूप से यूक्रेन के लोगों के लिए ही विनाशकारी रूप से हिंसक होगा।

2. पाखंड

एक फॉक्स न्यूज रिपोर्टर ने इराक़ पर हुए 2003 के हमले के प्रमुख वास्तुकारों में से एक कोंडोलीज़ा राइस के समझौते के सिलसिले में कहा था,"जब आप किसी संप्रभु राष्ट्र पर हमला करते हैं, तो यह एक युद्ध अपराध है।"  अंग्रेज़ी भाषा के प्रेस ने दिखा दिया है कि सभी हमलों को एक नज़रिये से नहीं देखा जाता है। जैसा कि फ़िलीस्तीनी पत्रकार अस्मा यासीन ने मोंडोवाइस में लिखा है, "एक हफ़्ते से ज़्यादा समय तक इजरायल के कब्ज़े के दौरान जिन कई फ़िलिस्तीनी लोगों को मार डाला गया, हमला किया गया और गिरफ़्तार किया गया, उनमें से ज़्यादतर नाबालिग़ हैं, फिर भी इन ख़बरों को समाचार स्क्रीन के किसी कोने में मुश्किल से उल्लेख किया गया।"

जब नाटो देशों या उनके सहयोगी देशों की ओर से किये जाने वाले हमले और आधिपत्य के शिकार हुए लोग विरोध करते हैं, तो उन्हें आतंकवादी क़रार दिया जाता है। लेकिन,वहीं यूक्रेनियाई, जिन्हें भी इस सैन्य आक्रमण का विरोध करने का अधिकार है, "रूस का विरोध करने की उनकी क्षमता में मज़बूती से यक़ीन करने" के सिलसिले में उनका महिमामंडन किया जाता है। यूके के समाचार घराने वाले स्काई न्यूज़ तो पूरे विस्तार के साथ यूक्रेनी नागरिकों के मोलोटोव कॉकटेल,यानी पेट्रोल बम, गैसोलीन बम, बोतल बम बनाने के फ़ुटेज को दिखाने की हद तक चला जाता है। नाटो देशों की ओर से इराक़, सीरिया या लीबिया पर भी हमले किये गये थे,लेकिन उस हमले का विरोध करने वालों को लेकर इस तरह के कवरेज के बारे में ऐसा कभी नहीं कहा-सुना गया। जैसा कि पत्रकार अली अबुनिमा ने ट्वीट किया, "क्या आपने कभी पश्चिमी समर्थित इज़रायल के कब्ज़ों को लेकर निहत्थे फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध का इतना चमकदार और सहायक कवरेज देखा है?"

3. नस्लवाद

सीबीएस के विदेशी संवाददाता चार्ली डी'अगाटा ने यूक्रेन की राजधानी कीव के नज़दीक रूसी सेना की तैनाती पर कहा था, "यह कोई ऐसी जगह नहीं है...जहां इराक़ या अफ़ग़ानिस्तान की तरह दशकों से संघर्ष को देखा गया हो। यह तो यूरोप के बाक़ी शहरों के मुक़ाबले सभ्य... शहर है।"

नाटो देशों के समाचार घरानों ने यूक्रेन में चल रहे संघर्ष को लेकर कई नस्लवादी टिप्पणियां की हैं,जिस पर ग़ौर नहीं किया गया है और अपनी रिपोर्टिंग के स्वर और विषयों के साथ नस्लवादी दोहरे मानक का प्रदर्शन किया है। जैसा कि बीबीसी पर टिप्पणी करते हुए यूक्रेन के एक अधिकारी ने कहा है कि रिपोर्टर और पत्रकार इस बात से हैरान और भ्रमित हैं कि एक यूरोपीय देश या "नीली आंखों और सुनहरे बालों वाले लोगों" वाले इस देश में भला इस तरह की हिंसा कैसे हो रही है।

अंग्रेज़ी भाषी मीडिया ने यूक्रेन में नस्लवादी वास्तविकता को भी कम करके दिखाया है।यूक्रेन एक ऐसा देश है, जहां खुले तौर पर आज़ोव बटालियन जैसे फ़ासीवादी समूहों को सैन्य और पुलिस बलों में शामिल किया गया है। बीबीसी ने उस नाइजीरियाई छात्र का ज़िक़्र करते एक ट्वीट को तुरंत हटा लिया था, जिसने पोलैंड में इस हमले से बचने के लिए शरण पाने की कोशिश में यूक्रेनी सेना से जूझने के बाद कहा था, "वे बेहद बेरहम हैं... वे हमारे साथ जानवरों की तरह पेश आये।"

4. सेंसरशिप और झूठ

रूस टुडे, स्पुतनिक न्यूज़ और रेडफ़िश जैसे रूसी सरकार से वित्त पोषित समाचार मीडिया को गूगल,मेटा और ट्विटर जैसी कंपनियों ने सेंसर कर दिया है, यूरोपीय संघ ने उन पर प्रतिबंध लगाया हुआ है, और DStv जैसी प्रसारण सेवाओं ने उनहें पूरी तरह से ब्लॉक कर दिया है। इस हालिया सैन्य चढ़ाई से बहुत पहले ही इन घरानों पर रूसी सरकार से उनके सम्बन्धों के चलते "रूसी सरकार से जुड़े मीडिया" या "रूसी सरकार से नियंत्रित मीडिया" के रूप में ठप्पा लगा दिया गया था। यूके स्थित बीबीसी या यूएस स्थित एनपीआर जैसे मीडिया घराने भी तो उनके यहां के सम्बन्धित सरकारों से वित्त पोषित हैं, लेकिन उन पर तो इस तरह का ठप्पा कभी नहीं लगाया गया।

जहां कुछ मीडिया को सेंसर किया गया है, वहीं पश्चिमी मीडिया झूठ को बढ़ावा देने को लेकर आज़ाद है। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने रूस को नज़र में रखकर नाटो के विस्तार को एक प्रमुख कारण के रूप में बताते हुए इस हमले का ऐलान किया था, जिसके बाद न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, "मिस्टर पुतिन अपने भाषण का एक बड़ा हिस्सा पिछले 30 सालों को झूठे पश्चिमी उन वादों के इतिहास के रूप में बताते हुए ख़र्च डालते हैं, जो यूरोप को अमेरिकी और रूसी प्रभाव क्षेत्रों के बीच एक स्थायी संतुलन में बांटने को लेकर था।" अमेरिकी सरकार के गोपनीय दस्तावेज़ों पर एक सरसरी निगाह डालने से यह साफ़ हो जाता है कि ये "पश्चिमी वादे" झूठे ही हैं, क्योंकि रूस के साथ दशकों से ये वादे किये जाते रहे हैं कि नाटो का विस्तार पूर्व की ओर नहीं किया जायेगा। इस ज़रूरी संदर्भ के बिना ही अंग्रेज़ी भाषी मीडिया यूक्रेन संघर्ष पर रिपोर्ट करता है।

5. चीन और नया शीत युद्ध

द हिल में छपे 2 मार्च की हेडलाइन है,"ट्रम्प का कहना है कि वह मानते है कि चीन ताइवान पर हमला करेगा।" एक दूसरी हेडलाइन,जो फ़ॉक्स न्यूज़ पर 2 मार्च को प्रसारित होती है,वह कहती है, "चीन रूस-यूक्रेन युद्ध का 'बड़ा विजेता', चीन में काम करने वाले पूर्व एफ़बीआई एजेंट की चेतावनी।"

चीन यूक्रेन में  चल रहे संघर्ष का हिस्सा नहीं है। सचाई तो यह है कि चीन ने यूक्रेन में जन-जीवन के नुक़सान को लेकर चिंता जतायी है और इस संघर्ष को रूसी सरकार की तरफ़ से कहे जा रहे "विशेष सैन्य अभियान" के साथ चिपके रहने के बजाय इसे युद्ध क़रार दिया है। हालांकि, पश्चिमी मीडिया की ओर से जो ख़बरें दी जा रही है,अगर उस पर सरसरी निगाह डाली जाये,तो बेख़बर लोगों को भी यह यक़ीन हो सकता है कि चीन रूस के समर्थन में रूस के साथ मिलकर काम कर रहा है, या यहां तक कि चीन अपने ख़ुद के सैन्य आक्रमण का नेतृत्व करने की योजना बना रहा है। पश्चिमी मीडिया में हाल के कई लेखों में ताइवान को भविष्य में चीनी आक्रमण के संभावित स्थल के रूप में बताया गया है। यूके से प्रकाशित होने वाले टैब्लॉइड द डेली मेल लिखता है, "अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने इस द्वीपीय देश के राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन से मुलाक़ात की और चेतावनी दी कि रूस के बर्बर हमले के बाद यूक्रेन की जो दुर्गति हुई है,उसकी इजाज़त ताइवान में नहीं दी जानी चाहिए।" रॉयटर्स में छपी रिपोर्ट कुछ इस तरह है, "एक अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने बुधवार को कहा कि संयुक्त राज्य अमेरिका ताइवान को लेकर अपनी प्रतिबद्धताओं के पीछे मज़बूती के साथ खड़ा है,ग़ौरतलब है कि ताइवान के राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन ने चीन के बढ़ते सैन्य ख़तरे के जवाब में सहयोगियों के साथ ज़्यादा निकटता से काम करने की प्रतिबद्धता जतायी है।" बाद में यह स्वीकार करते हुए कहा गया है कि "चीन ताइवान को ख़ुद का क्षेत्र होने का दावा करता है, ऐसे में अगर बीजिंग इस द्वीपीय देश पर कोई भी क़दम उठाने के लिहाज़ से यूक्रेन संकट के अवसर का इस्तेमाल करने की कोशिश करता है,तो इसे लेकर ताइवान सतर्क है, हालांकि सरकार ने इस क्षेत्र में किसी तरह की असामान्य चीनी गतिविधि की सूचना नहीं दी है।" (इस पर ख़ासा ज़ोर दिया गया है)

पीपुल्स डिस्पैच ने चीन के ख़िलाफ़ पश्चिम के इस "नये शीत युद्ध" पर पहले भी लिखा है। पश्चिमी वर्चस्ववादी शक्तियां चीन को एक ऐसे देश के रूप में देखती हैं, जो अमेरिका और नाटो के प्रभाव से स्वतंत्र रूप से विकसित हो रहा है और यहां तक कि यह एक संपन्न देश भी है, इसे वे ख़ुद के लिए ख़तरे के रूप में देखते हैं। ऐसा लगता है कि मुख्यधारा का अंग्रेज़ी भाषी मीडिया यूक्रेन पर रूस के हमले का चीन के इस ख़तरनाक चित्रण को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के मौक़े के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है।

इस नये शीत युद्ध को लेकर की जा रही बयानबाज़ी की रोशनी में इस बात का स्पष्ट होना ज़रूरी है कि चीन ने ताइवान पर हमले के सिलसिले में किसी तरह का इरादा नहीं दिखाया है, और न ही इस बात का कोई ठोस सबूत है कि यूक्रेन में सैन्य संघर्ष में चीन की कोई भूमिका है, जैसा कि अस्पष्ट तरीक़े से "पश्चिमी ख़ुफ़िया" रिपोर्ट” से अलग इस बात का दावा किया गया है कि चीन को इस रूसी सैन्य कार्रवाई की पहले से जानकारी थी।

यह साफ़ नहीं है कि रूस के आगे बढ़ने के बाद यूक्रेन में नाटो सैन्य हस्तक्षेप को लेकर नाटो देशों के लोगों की राय क्या है। लेकिन, अगर लीबिया, इराक़, सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान में हुई तबाही की याद अगर दिल-ओ-दिमाग़ में बाक़ी है,तो इस तरह की चढ़ाई,ख़ासकर यूक्रेन के लोगों के लिए ही विनाशकारी होगी।

ऐसा लगता है कि पश्चिमी मीडिया न सिर्फ़ रूस,बल्कि नाटो की खींची गयी लकीर पर चलने से इनकार करने वाले हर एक देशों को इसी तरह के संघर्ष में धकेलने का इरादा रखता है। हालांकि, पश्चिम के लोग नाटो के सम्मोहन में एकजुट नहीं हैं, और कई लोगों ने तो नाटो के विस्तार का विरोध तक किया है। लंबे समय तक अमेरिका में रहने वाले युद्ध-विरोधी कार्यकर्ता ब्रायन बेकर इस बात को कुछ इस तरह स्पष्ट करते हैं:

“युद्ध का वह ख़तरा, जो यहां संयुक्त राज्य अमेरिका से निकलता है, वह दरअस्ल अमेरिकी लोगों तक यहां के प्रतिष्ठान की ओर से मुहैया कराये गये औचित्य और तर्क पर आधारित होता है और फिर मीडिया में वही प्रतिध्वनित होता है।... मज़दूर तबक़े और ग़रीबों को अपनी तरफ़ करते हुए उनके बीच युद्ध विरोधी राजनीतिक शिक्षा देकर हम एक ऐसी मज़बूत ताक़त का निर्माण कर सकते हैं, जो असली बदलाव ला सकती है।”

साभार:पीपुल्स डिस्पैच

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