कॉप अज़रबैज़ान से दूर झारखंड में जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ ज़मीनी मोर्चेबंदी की कहानी
राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP-29) के लिए दुनिया भर के देश अज़बैजान में इकट्ठा हैं और भविष्य की नीतियों और लक्ष्यों को लेकर सघन चर्चा का दौर चल रहा है। हालांकि, इन भव्य और आलीशान आयोजनों से दूर जलवायु परिवर्तन को लेकर एक अलग ही तरह का काम चल रहा है। भारत के झारखंड में स्थानीय नेता और ग्रामीण एक अनोखे पंचायत सम्मेलन यानी कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ पंचायत (कॉप) के लिए एकजुट हो रहे हैं, जहां जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई सिर्फ़ विमर्श का नहीं, बल्कि अस्तित्व का सवाल है।
ज़मीनी स्तर पर शुरू हुई यह पहल विशाल बजट और व्यापक घोषणाओं की बुनियाद पर नहीं बनी है। न ही यह ऊपर से तय की गई नीतियों को लागू करने का अभ्यास है, बल्कि यह ज़मीनी स्तर पर शुरू हुई एक ऐसी पहल है जिनमें शामिल लोग अपनी मिट्टी को पहचानते हैं, जिन्हें इलाक़े की नब्ज़ पता है, जो पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं और जिन्हें लग रहा है कि हालात अब सचमुच क़ाबू से बाहर होने लगे हैं।
झारखंड के लोगों के लिए जलवायु परिवर्तन कोई अमूर्त चीज़ नहीं है। उन्होंने अपनी आंखों के सामने खेतों में दरार को बढ़ते देखा है, उन्होंने बलखाती नदियों और खेतों में अपनी फ़सलों को सूखते हुए देखा है। इन गांवों में बदलते जलवायु का मतलब है- अगली फ़सल को लेकर अनिश्चितता, अपने बच्चों के भविष्य को लेकर डर और अरसे से अपनाई गई जीवनशैली के ख़त्म होने का भय।
मीरा देवी झारखंड की किसान हैं। वे याद करती हैं, ''जब मैं युवा थी, तो हमें पानी की फ़िक़्र कभी नहीं होती। हमारे कुएं भरे रहते और बारिश अपने समय पर होती। अब, हर गुज़रता साल बीते साल से ज़्यादा मुश्किल लगने लगा है। कभी-कभी मुझे लगता है कि क्या मेरे बच्चे इस जगह को उस तरह देख भी पाएंगे, जिस तरह हमने इसे जिया है।”
अनिश्चितता भरे इस माहौल से कुछ अच्छी चीज़ें भी सामने आई है। पंचायत सम्मेलन यानी कॉप नामक सभा की सिलसिलेवार बैठक के लिए ग्रामीण अपने स्थानीय नेताओं यानी मुखिया के साथ इकट्ठे हो रहे हैं। झारखंड के लोग एक-दूसरे की ताक़त बन रहे हैं, वे अपने संघर्षों की दास्तान साझा कर रहे हैं और उनके पास जितना और जो-कुछ भी संसाधन हैं, उनकी मदद से वे समाधान तलाशने में जुट गए हैं। जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ शुरू हुई यह पहल किसी तकनीक या फ़ंडिंग पर नहीं टिकी है, बल्कि लोग दिल से इसमें जुटे हुए हैं।
हर समुदाय इस दिशा में छोटा ही सही, लेकिन मज़बूत क़दम उठा रहा है। पलामू में लोग एकजुट होकर गड्ढे खोद रहे हैं, ताकि बारिश का पानी संग्रहित किया जा सके और उनके खेतों को फिर से पानी मिल सके। मिट्टी के कटाव को बचाने के लिए, गांव के लोग जल के इन भंडार के चारों तरफ़ पेड़ लगा रहे हैं। वे इन छोटे-छोटे क़दम से अपनी कहानी की नई इबारत लिख रहे हैं, जिसमें वे जलवायु परिवर्तन के पीड़ित नहीं, बल्कि पर्यावरण के रक्षक के रूप में सामने आ रहे हैं।
अपने पड़ोसियों के साथ खेतों में दिन भर पसीना बहाने वाले रमेश कहते हैं, "इन गड्ढों को खोदने और पेड़ लगाने से ऐसा लगता है जैसे हम अपनी उम्मीदें बो रहे हैं। हमारे पास भले ही बहुत कुछ न हो, लेकिन हम एकजुट हैं और यही हमारी ताक़त है।"
झारखंड में किसानों को अपनी ज़िंदगी बसर करने के लिए नए तौर-तरीक़े अपनाने पड़ रहे हैं। एक समय में इन खेतों में धान लहलहाया करता था, लेकिन बदले हुए जलवायु में खेत अब दाने-दाने के मोहताज हो गए हैं। इसलिए, किसानों ने अब बाजरा जैसी पारंपरिक फ़सलें बोना शुरू कर दिया है। ये ऐसी फ़सलें हैं जिनमें पानी की ज़रूरत कम होती है। लिहाज़ा, अगर बारिश कम भी हुई, तो इनकी पैदावार मुमकिन है। इनके पूर्वज इन्हीं फ़सलों पर टिके थे और ये लोग दोबारा इन्हें अपना रहे हैं। इसलिए नहीं कि इनकी मांग बढ़ गई है या इनकी उपज ज़्यादा होती है, बल्कि इसलिए क्योंकि इस ज़मीन पर अब भी ये फ़सलें उग सकती हैं।
मीरा मुस्कुराते हुए कहती हैं, “मेरी दादी बाजरा के बारे में सुनाती रहती थीं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं इसे दोबारा देखूंगी। लेकिन अब, जब मैं अपने बच्चों के लिए इसे पकाती हूं, तो ऐसा लगता है कि हम अतीत का सम्मान कर रहे हैं और उन्हें भविष्य की एक कुंजी थमा रहे हैं।”
कुछ गांवों में लोग नवीकरणीय ऊर्जा की दिशा में भी क़दम उठाने लगे हैं। सौर ऊर्जा से चलने वाली लाइटें और पंप, डीज़ल की जगह ले रहे हैं। बाहर से देखने पर लग सकता है कि यह कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं है, लेकिन यहां रहने वाले लोगों के लिए यह एक तरह का चमत्कार है। पहली बार उन्हें डीज़ल ख़रीदने के झंझट से मुक्ति मिली है और उन्हें पता है कि सौर ऊर्जा एक ऐसे स्रोत से तैयार होती है, जो उनका साथ कभी नहीं छोड़ेगा।
सीता तीन बच्चों की मां हैं। वे कहती हैं, "जब हमें सोलर पंप मिला, तो ऐसा लगा जैसे यह प्रकृति का कोई तोहफ़ा है। अब न धुएं का झंझट है और न डीज़ल के ख़र्च का। इससे प्रदूषण भी नहीं फैलता और बेहद साफ़ रोशनी आती है। ऐसा लगता है जैसे यह हमारे लिए ही बना हो।” इन समुदायों के लोगों ने अपनी ज़िंदगी में बहुत ऐशो-आराम नहीं देखा है, इसलिए इनकी ज़िंदगी में ऐसी छोटी-छोटी चीज़ें भी बहुत मायने रखती हैं।
झारखंड में ‘कॉप’ की असली ताक़त नीतियों और वादों में निहित नहीं है। अलबत्ता, यह ताक़त छिपी है उन तरीक़ों में जिनके बूते अलग-अलग समुदाय एक-दूसरे का हाथ थाम रहे हैं और सामूहिक तरीक़े से अपने लिए ऐसे समाधान ला रहे हैं जो उनकी परंपराओं का सम्मान करने के साथ-साथ भविष्य को भी सुरक्षित रख रहे हैं। महिलाओं ने पौधरोपण के लिए समूह तैयार किया है, वे प्लास्टिक से फैलने वाले कचरे को कम करने की दिशा में काम कर रही हैं और अगली पीढ़ी को बता रही हैं कि अपनी मिट्टी का सम्मान कैसे करें। ये सब सिर्फ़ जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में उठाए गए क़दम भर नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का तरीक़ा है और उन्हें लगता है कि वे अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ियों के हाथ में सुरक्षित परिवेश सौंपने का काम कर रही हैं।
इनमें से एक महिला समूह की अगुवाई करने वाली सीता का कहना है, “जब भी हम पेड़ लगाते हैं, तो लगता है जैसे हमने प्रार्थना की है। बच्चों को छांव, पानी और ज़रूरत भर का खाना नसीब होने की प्रार्थना।”
एक तरफ़, अज़रबैजान में दुनिया भर के नेता पर्यावरण को लेकर विमर्श कर रहे हैं और इसके लिए रणनीति और योजना बना रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ झारखंड के गांव चुपचाप वही काम कर रहे हैं, जो वे हमेशा से करते आए हैं- ज़िंदा रहने, हालात के मुताबिक़ ढलने और एकजुट होकर आगे बढ़ने का तरीक़ा ढूंढना। वे इस बात का जीता-जागता सबूत हैं कि पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए कोई भी रणनीति ज़मीन से तैयार होती है। कभी-कभी सबसे मज़बूत रणनीति, आधुनिक तकनीक और बेहिसाब फ़ंडिंग से नहीं आती, बल्कि इसके लिए प्यार, सहयोग और अपनी ज़मीन को लेकर साझी प्रतिबद्धता सबसे ज़रूरी है।
एक मुखिया का कहना है, ''दुनिया हमें भले न देख रही हो, लेकिन हम अब भी जुटे हुए हैं और लगातार कोशिश कर रहे हैं। यह ज़मीन हमारी ज़िंदगी है और इसकी सुरक्षा के लिए हमें जो भी करना होगा, हम करेंगे।”
कॉप अज़रबैजान में हिस्सा लेने वालों के लिए झारखंड की यह कहानी एक सबक़ है कि पर्यावरण की दिशा में असली क़दम वे लोग ही दिलो-दिमाग़ से उठा सकते हैं, जो अपनी ज़मीन को सबसे अच्छी तरह जानते-समझते हैं। झारखंड के गांव रास्ता दिखा रहे हैं। वे दिखा रहे हैं कि मज़बूत इरादे का मतलब नए हिसाब से ढलना भर नहीं है, बल्कि यह नई उम्मीदों को ज़िंदा करना है। भले ही इसमें नाक़ामयाबी हाथ लगे।
अज़रबैजान में इकट्ठा हुए दुनिया भर के नेताओं को याद रखना चाहिए उनकी हर नीति और लक्ष्य से दूर मीरा और रमेश जैसे परिवार भी धरती पर मौजूद हैं। वे चुपचाप कोशिश कर रहे हैं और अक्सर लोगों की नज़र उनकी तरफ़ नहीं जाती, लेकिन पर्यावरण को बचाने की मुहिम की ये लोग धुरी हैं। अगर दुनिया उनकी बातों को शांति और धैर्य के साथ सुने, तो उसे एहसास होगा कि इन ज़मीनी स्तर की कोशिशों में वे जवाब छिपे हैं, जिनकी हम लंबे समय से तलाश कर रहे हैं।
(लेखक बीते पंद्रह वर्षों से पानी, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के विषयों पर पूर्वी भारत के विभिन्न राज्यों में कार्यरत हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
इसे भी पढ़ें: COP29 और जलवायु संकट: अमीरों के लालच बनाम लोगों की ज़रूरतें
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।