जंगल में भ्रष्टाचार: ज़्यादा जोखिम, कम मज़दूरी और शोषण के शिकार तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासी
सुलगती बीड़ियां, धुएं से छलनी होता कलेजा और तेंदू पत्ते की तोड़ाई करने वालों की बदरंग जिंदगी आहिस्ता-आहिस्ता मौत के करीब जा रही है। फिर भी कोई रुकने के लिए तैयार नहीं है-न पीने-पिलाने वाले और न तेंदू पत्ता तोड़ने वाले। पीना एक शौक हो सकता है, लेकिन बीड़ी के लिए तेंदू पत्तों को तोड़ना आदिवासियों की मजबूरी है। चंदौली जिले के नक्सल प्रभावित नौगढ़ इलाके में तेंदू (डाइसोपाररस चोमेंटोसा) पत्ते की तोड़ाई का काम एक ऐसे दलदल की तरह है जहां के निकलने का रास्ता दिखता ही नहीं। लाचारी और बेबसी के बीच पनपने वाले भ्रष्टाचार की ओर लालफीताशाही ने भी आंखें फेर ली है। सीधे अल्फाज में कहें तो जितना दम बीड़ी पीने वाले का घुट रहा है, उतना ही बीड़ी बनाने में इस्तेमाल होने वाले तेंदू पत्तों को तोड़ने वाले श्रमिकों का भी। पीने वाला आदतन मजबूर हैं और तेंदू का पत्ता तोड़ने वाले हालात से मजबूर हैं।
नौगढ़ इलाके के एक फड़ का दृश्य (फाइल फोटो)
उत्तर प्रदेश के चंदौली, सोनभद्र, मिर्जापुर, इलाहाबाद, चित्रकूट, कर्वी, बांदा, हमीरपुर, महोबा, झांसी और ललितपुर जनपदों में बीड़ी बनाने के लिए तेंदू पत्तों की तोड़ाई होती है। मार्च-अप्रैल महीने में तेंदू के नए पत्ते निकलते हैं, जिन्हें मई-जून महीने में तोड़ा जाता है। जंगली जानवरों के बीच जिंदगी को दांव पर लगाकर आदिवासी और दलित परिवारों के निर्बल लोग सालों से तेंदू पत्ते की तोड़ाई और संग्रहण का कार्य कर रहे हैं, लेकिन इनके जीवन में आज भी कोई नया रंग और उत्सव नहीं है।
इनके शोषण और उत्पीड़न की कहानियां अंतहीन हैं। इनकी भी आवाज उठती है, लेकिन जंगलों और पहाड़ों में दफ्न हो जाती हैं। नौगढ़ इलाके में आदिवासियों के बीच काम करने वाली संस्था ग्राम्या संचालक की बिंदू सिंह कहती हैं, “श्रमिक बीमा और बोनस की बात छोड़िए। चंदौली के नौगढ़, सोनभद्र और मिर्जापुर में तेंदू पत्ता तोड़ने वाले तमाम आदिवासियों की मजदूरी अभी तक नहीं मिली है। ऐसे आदिवासियों की तादाद बहुत अधिक है जो कई सालों से अपने बकाए भुगतान के लिए फड़ मुंशियों के दरवाजों पर दस्तक दे रहे हैं।”
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में जितने भी आदिवासी तेंदू पत्ते के संग्रहण में लगते हैं, उनकी कमाई सात-आठ हजार से ज्यादा नहीं होती। वह भी तब, जब उनके परिवार के आधा दर्जन लोग पत्ता तोड़ने से लेकर बंडल बनाने के कार्य में लपटकर करीब 12 घंटे काम करते हैं। काशी वन्य जीव प्रभाग में तेंदू पत्ता के संग्रहण के लिए वन भीषणपुर, ढोढ़नपुर, छीतमपुर, पोखरियाडीह, मूसाखांड़, विजयपुरवा, भादरखड़ा, मुजफ्फरपुर, नेवाजगंज, शिकारगंज, पुरानाडीह, बोदलपुर चिल्लाह, लेहरा, जमसोती, गोडटुटवा, मुबारकपुर, परना, भभौरा, शिंकारे में तेंदू पत्ते के संग्रहण के लिए हर साल फड़ इकाइयां खोली जाती हैं। लहकती धूप में तेंदू पत्ता तोड़कर नौगढ़ के आदिवासी गर्मी के दिनों में रोजगार पाते हैं। सरकार की ओर से पीने का पानी, झोला और गुड़ मिलता रहा है, लेकिन ये सुविधाएं सिर्फ कागजों पर हैं।
ख़ौफ़ में ज़िंदगीः नौगढ़ के लौआरी ग्राम सभा की महिला
महिलाओं के कंधे पर ज़्यादा ज़िम्मेदारी
तेंदू पत्ते के संग्रहण में महिलाओं की भूमिका अहम हैं। नौगढ़ के जंगलों में अपने पति श्याम के साथ तेंदू पत्ता तोड़ने वाली भोलिया कहती हैं, “हमें जंगलों में आदमखोर जानवरों से बहुत डर लगता है। लाचारी यह है कि हमें पेट भरने के लिए मजबूरी में जान हथेली पर रखकर तेंदू पत्ता तोड़ने के लिए जाना पड़ता है। नौगढ़ के जंगलों में भालू बहुत हैं। ये अक्सर पेड़ों पर लटके हुए दिख जाते हैं। तेंदुआ, सूअर, नीलगाय, सियार, हुंडार और न जाने कितने खतरनाक जानवर जंगलों में शिकार के लिए घात लगाए बैठे होते हैं। चार साल पहले जमसोती गांव के घघर नामक बुजुर्ग को मारकर भालू खा गया। 65 वर्षीय पासी कोल पर भालू ने हमला किया। इलाज नहीं हो सका और अंततः उनकी भी जान चली गई। मुबारकपुर का एक व्यक्ति तेंदू पत्ता तोड़ने जंगल में गया तो आदमखोर भालू ने हमला कर गंभीर रूप से घायल कर दिया। वन निगम ने किसी के परिजन को फूटी कौड़ी तक नहीं दी। राजदरी-देवदरी जलप्रपात के खोह और कंदराओं में जंगली जानवरों का जखेड़ा है। मौका मिलते ही ये जंगली जानवर हमला बोल देते हैं।”
भोलिया कहती हैं, “तेंदू पत्ता संग्रहण का काम मुख्य रूप से गरीब आदिवासी ही करते हैं। हमारे पास रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं है। हम महिलाएं तेंदू पत्ता तोड़ने न जाएं तो दस फीसदी संग्रहण नहीं हो पाएगा। हमारी हिस्सेदारी ज्यादा है। हमारे दम पर ही बीड़ियां बन पाती हैं। पिछले साल का पैसा इस बार मिला है। हम जंगल में काम करते हैं, फिर भी साल भर में दाल-पूड़ी मुश्किल से तीज त्योहारों पर ही नसीब हो पाती है। बाकी दिन तो नमक रोटी या फिर चावल-सब्जी से पेट भरने की कोशिश करते हैं।”
तेंदू पत्ते के संग्रहण की बात करें तो इस कारोबार में महिलाओं की हिस्सेदारी 80 फीसदी से ज्यादा है। सिर्फ नाम मात्र के लिए मजदूरी, काम के घंटे तय नहीं, व्यवस्थागत शोषण, सामाजिक सुरक्षा का अभाव और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं तक सीमित पहुंच के कारण, तेंदू पत्ते के संग्रहण करने वाली महिला श्रमिकों की स्थिति बेहद खराब है। सोनभद्र के मद्धूपुर इलाके के हरैया गांव में गुलाब कोल की पत्नी मेथी कहती हैं, “पिछले दो-तीन दशक से उनका पूरा परिवार तेंदू पत्ता तोड़ रहा है, लेकिन हमारी खबर लेने आज तक कोई नहीं आया। हम पत्ता तोड़ते हैं और फड़ पर ले जाकर जमा कर देते हैं। फड़ मुंशी रोज बेइमानी करता है। तेंदू पत्ते की एक-दो गड्डियां फोकट में ले लेता है। करीब 11-12 घंटे हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद हम डेढ़ सौ रुपये ही कमा पाते हैं।”
तेंदू पत्ते से नहीं बदल सका नसीब
फड़ मुंशी जमकर करते हैं शोषण
अकेली भोलिया ही इस शोषण की शिकार नहीं है, बल्कि अधिकांश महिला मजदूरों की समस्या यही है। खराब पत्ते का हवाला देकर फड़ मुंशी कई बार तेंदू के पत्तों के बंडलों को रिजेक्ट कर देता है। तेंदू पत्ता थोड़ा भी खराब दिख जाता है तो मजदूरी आधा कर देता है। रोजगार पाने की मजबूरियों के चलते महिला श्रमिकों की जुबान बंद रहती है। डर से महिलाएं शिकायत नहीं करतीं। आवाज उठती है, लेकिन जंगलों में ही दफ्न हो जाती है। यह सब दशकों से होता चला आ रहा है। सालों से तेंदू पत्ते तोड़ने वाली जमसोती के रामप्रकाश की पत्नी मुन्नी देवी कहती हैं, “कुछ नहीं बदला है। हालात कल भी वही थे और अब भी वही हैं। औरतें घर का सारा काम करके, बच्चों को संभालते हुए तेंदू के पत्ते तोड़ती हैं। बदले में ऐसी मजदूरी भी नहीं कि जरूरतें पूरी हो सकें।”
नौगढ़ इलाके की मुन्नी अकेली महिला नहीं हैं, उत्तर प्रदेश के जंगलों में तेंदू पत्ता तोड़ने वाली लाखों महिलाएं अपने बच्चों के पेट की भूख मिटाने के लिए जान जोखिम में डालकर जंगलों में जाती हैं। एक्टिविस्ट श्रुति नागवंशी कहती हैं, “पूर्वांचल में तेंदू पत्ते की तोड़ाई का कार्य असंगठित तबके के आदिवासी करते हैं। पूर्वांचल की लाखों महिलाओं के लिए गर्मी के दिनों में यह रोजगार का बड़ा जरिया समझा जाता है। बहुत कम मजदूरी के बावजूद, जंगलों में जाकर महिलाएं खतरनाक जानवरों से मुकाबला करते हुए अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करती हैं। विश्व मजदूर संगठन अपनी अच्छा के विरुद्ध काम करने वालों को बंधुआ मजदूरी की श्रेणी में पहचान करता है। ऐसे में हम अपने देश के मानव सूचकांक का आंकलन हम कर सकते हैं।”
अपनी व्यथा सुनाते आदिवासी
जमसोती में एक पेड़ के नीचे कई युवक, महिलाएं और बुजुर्ग खाली हाथ बैठे थे। सब के सब तेंदू पत्ता तोड़ने वाले। सबकी अपनी अलग-अलग रामगाथा। हालात के मारे इन आदिवासियों की जिंदगी बेहद खराब नजर आई। इनके घरों के चारों ओर गंदगी और सीलन भरी झोपड़ी के अंदर तेल की ढिबरी की रोशनी में जीवन गुजारने वालों की भूख कैसे मिट पाती होगी, कल्पना करना कठिन है। गिरजा देवी कहती हैं, “तेंदू पत्ता नहीं तोड़ें को क्या खाएंगे? बेटियों के हाथ कैसे पीले कर पाएंगे? ये काम करते हुए हमें 20 साल हो गए। मजूरी के नाम पर सिर्फ दस-बीस रुपये ही बढ़ सका है। बाकी सब जैसा का तैसा ही है।”
सिर्फ तेंदू पत्ते का संग्रहण ही नहीं, जंगलों में सूखी लकड़ियां बीनने की जिम्मेदारी भी महिलाओं के कंधे पर है। नौगढ़ की सरलहिया और सरनाम पहाड़ी के जंगली इलाके में तमाम महिलाएं हर रोज लकड़ी और महुआ बीनने जाती हैं। महिलाओं की टोली में बैठी फूला देवी (45 साल) कहती हैं, “लकड़ियां नहीं बीनेंगे तो खाएंगे क्या? सूखी लकड़ियों का एक गड्ठा 50-60 रुपये में बिक जाता है। तेंदू के पत्ते की तुड़ाई के बाद खाली समय में इसी से ही गृहस्थी चलती है। लॉकडाउन के समय हमारी मुश्किलें बढ़ गई थीं। पुलिस वालों ने हमें जबरिया घरों में कैद कर दिया। तभी से लकड़ियां बेचने का काम बंद है। मौसम के अनुसार पौधों की छाल, पत्ते, फल-फूल, कुछ घास-फूस की जड़ें, जिसका उपयोग औषधीय रूप में होता है, इसी से ही हमारी आजीविका चलती है।”
फूला देवी बताती हैं, “पत्ता संग्रहण अभियान से जुड़े आदिवासी अल सुबह जंगलों की ओर निकल जाते हैं। दोपहर में पत्ता तोड़कर लौटते हैं। इन पत्तों को अपने ही घर सुखाने और बाद में उनका बंडल बनाने के बाद उत्तर प्रदेश वन निगम के निर्धारित फड़ पर पहुंचाया करते हैं। वन निगम के मानक के मुताबिक एक गड्डी में पचास बीडी बनाने का पत्ता होना चाहिए। लेकिन फड़ मुंशी इनका जमकर शोषण करते हैं। कहीं 70 पत्ते की गड्डी बनवाई जाती है तो कहीं 90 पत्तों की।”
जंगल से लौटने के बाद रोटी के संकट से परेशान एक आदिवासी
कौन देगा आदिवासियों को अधिकार?
मजदूर किसान मंच के जिला प्रभारी अजय राय काशी वन्यजीव प्रभाग में तेंदू पत्ता तोड़ने वाले अदिवासियों के शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। इनकी डिमांड है कि वन निगम खुद घर-घर जाकर तेंदू पत्तों की खरीद करे और मौके पर ही उन्हें मजदूरी का भुगतान किया जाए, लेकिन नौकरशाही की कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। अजय राय कहते हैं, “तेंदू पत्ता संग्रहण से जुड़े आदिवासी परिवारों की मजदूरी का भुगतान तो लटका है ही, वन निगम बोनस देने में भी अब हीलाहवाली करने लगा है। आदिवासियों को सालों से न लाभांश राशि मिली और न ही उनका बीमा कराने में योगी सरकार की कोई रुचि है। यह स्थिति तब है जब नौगढ़ के जंगलों में शेर, चीता, भालू, हुड़ार, सियार सरीखे तमाम जंगली जानवर कई आदिवासियों को अपना शिकार बना चुके हैं। तेंदूपत्ता संग्रहण कार्य से जुड़े भोले-भाले आदिवासी परिवारों के साथ दशकों से व्यापक अत्याचार और उनका आर्थिक शोषण किया जा रहा है। उनके हक और अधिकारों में कटौती की जा रही है। बड़ा सवाल यह है कि बीड़ी के लिए तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासियों को कौन देगा अधिकार और जायज हक ? इस सवाल पर वन निगम ने रहस्यमयी चुप्पी साध रखी है और तमाम आदिवासी परिवार अपने हक-हकूक के लिए दर-दर भटक रहे हैं।”
अजय सवाल खड़ा करते हैं, “जो महकमा अपने मूल कर्तव्य को ही पूरा नहीं कर पा रहा हो उससे तेंदू पत्ता संग्राहकों को क्या उम्मीद होगी? सिर्फ नौगढ़ ही नहीं, सोनभद्र और मीरजापुर में तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासियों की मजूरी दबा रखी है। तेंदू पत्ता तोड़ने वाले दाने-दाने को मोहताज हैं। इनके पास न काम है, न पैसा। वन निगम उनके पैसों पर कुंडली मारे बैठा है और ब्याज खा रहा है।”
हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद नसीब में सिर्फ़ झोपड़ी
आदिवासी हैं, लेकिन कागजों में दलित
काशी वन्यजीव प्रभाग का वन क्षेत्र जैव विविधता से भरा पड़ा है। इस जंगल में सिर्फ तेंदू पत्ता ही नहीं, कई तरह की वनस्पतियां और प्रचुर मात्रा में जड़ी-बूटियां भी मौजूद हैं। मुख्य रूप से कोल, खरवार, पनिका, गोंड, भुइय़ा, धांगर, धरकार, घसिया, बैगा आदि जातियां तेंदू पत्ते का संग्रहण करती हैं। हैरत की बात यह है कि ये जातियां सोनभद्र और मिर्जापुर में आदिवासियों की श्रेणी में सूचीबद्ध हैं, लेकिन चंदौली जिले में इन्हें दलितों व पिछड़ों की श्रेणी में रखा गया है।
चंदौली जिले के पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, “मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तेंदू पत्ता संग्रहण करने वाले आदिवासियों के शोषण और उनकी बदरंग जिंदगी से शायद अभी तक अनजान हैं। आदिवासियों के साथ होने वाले शोषण के इस ज्वलंत मुद्दे को गंभीरता से लेने की जरूरत है। वन निगम के अफसरों ने इन्हें अंधेरे में रखा है। तेंदू पत्ते के संग्रहण का कार्य ऐसे विभाग के हवाले किया गया है, जिसकी खुद की कई योजनाएं बंद हैं। वन निगम का दफ्तर तक एक स्थान पर स्थिर नहीं है। इस महकमे का दफ्तर कभी बनारस तो कभी चंदौली या फिर मिर्जापुर चला जाता है। वन निगम के अधिकारियों को ढूंढ पाना किसी पहाड़ी इलाके में पाताल से पानी निकालने जैसा है। तेंदूपत्ता संग्राहकों के लिए एक नई बीमा योजना वन विभाग को बनाने की आवश्यकता है जिससे उन्हें पहले की तरह लाभांश और अन्य लाभ मिल सके।”
लॉकडाउन फिर अनलॉक के बाद से तेंदू पत्ते का काम करने वाले पूर्वांचल के आदिवासी महीनों से खाली हाथ बैठे हैं। पहले तेंदू पत्ता और दूसरी जड़ी-बूटियां बेचकर इनका घर चल जाता था, लेकिन वन विभाग ने जंगलों में अब पहरा बैठा दिया है। जड़ी-बूटियों की कौन कहे, वन विभाग के कर्मचारी इन्हें सूखी लकड़ियां तक बीनने नहीं देते। काशी वन्य जीव प्रभाग में अपने परिवार के साथ तेंदू पत्ते का संग्रहण करने वाले रामबचन कोल अपनी मुश्किलों का इजहार कुछ इस तरह करते हैं, “हमारा पूरा परिवार तड़के चार बजे ही जंगल के अंदर चले जाता है। दोपहर में जंगल से लौटने के बाद परिवार के सभी सदस्य तेंदू की पत्तियों को झाड़ से अलग करते हैं। बाद में उन पत्तियों को इकट्ठा करके गड्डियां बनाते हैं। पत्तियों को तोड़ने और गड्डी बनाने में पूरा दिन चला जाता है।”
रामबचन चंदौली जिले के जमसोती गांव में रहने वाले हैं और अपने परिवार के साथ गर्मी के दिनों में तेंदूपत्ता तोड़ते हैं। मार्च-अप्रैल के महीने में तेंदू के नए पत्ते निकलते हैं, जो बीड़ी बनाने लायक होते हैं। इन पत्तों का संग्रहण मई के पहले सप्ताह से जून तक किया जाता है। लेकिन समय पर वन निगम द्वारा पैसा न मिलना बड़ी समस्या है। रामबचन यह भी कहते हैं, “पैसा कई महीनों के बाद मिलता है। तेंदू पत्ता का कुछ ही दिनों का मौसम रहता है, इसकी खरीद वन निगम करता हैं और वही फड़ लगवाता हैं।”
अपनी व्यथा सुनाते चंद्रिका कोल
शोषण का अंतहीन सिलसिला
चंदौली के लौआरी ग्रामसभा के चंद्रिका कोल बताते हैं, “शोषण और भ्रष्टाचार का दूसरा नाम है तेंदू पत्ते का संग्रहण। अगर हमें तुरंत पैसा चाहिए तो आधी मजदूरी ही हिस्से में आती है। बाद में पैसा लेने पर पता ही नहीं चलता कि फड़ मुंशी ने हमारे खाते में कितना पैसा डाल रखा है। मेरे भाई शंभू का करीब 7000 हजार रुपये अब तक बकाया है। पैसा टेम पे (समय पर) कभी नहीं मिलता। पिछले साल भी देर से पैसा मिला था। जिनके पैसे बकाया हैं, वो कब तक मिलेगा, कह पाना मुश्किल है। परिवार के तीन अन्य सदस्य विजयी, सुखनंदन, दिन भर तेंदू पत्ते की तोड़ाई से लेकर फड़ तक पहुंचाने का काम करते हैं, तब मिल पाता है तीन-चार सौ रुपये। समझ लीजिए, कितनी कठिन है हमारी जिंदगी। हम पर न सरकार को तरस आता है और न वोट लेने वाले नेताओं को।”
जेठ महीने में ही तेंदू के पत्ते बीड़ी बनाने के लिए उपयोगी होते हैं। बाकी दिनों में ये पत्ते बेकार हो जाते हैं और वे फट जाते हैं। पत्तियों को कड़ी धूप में सुखाया जाता है। पत्तियों की गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए बाद में सूखी गड्डियों पर पानी डालकर इन्हें फिर से सुखाया जाता है। एक हजार गड्डी पत्ते को एक बोरे में रखा है, जो एक मानक बोरा कहा जाता है। बीड़ी बनाने में तेंदू के पत्तों का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है कि इसकी पत्तियों में पाया जाने वाला पेंटासाइक्लिक ट्राइटरपेंस में रोगाणुरोधी गुण होते हैं। कुछ स्थानों पर बीड़ी बनाने के लिए पलास और साल के पत्तों का प्रयोग भी किया जाता है। तेंदू भारत और श्रीलंका में पाया जाता है। हालांकि भारत में मध्य प्रदेश अव्वल है। यहां करीब 25 लाख मानक बोरा तेंदू पत्ते का उत्पादन किया जाता है, जो कुल उत्पादन का 25 फीसदी है। तेंदू पत्ते के संग्रहण के मामले में यूपी सबसे पीछे है।
टोबैको कंट्रोल के एक अध्ययन के मुताबिक भारत में बीड़ी बड़े चाव से पी जाती है। यूपी के पूर्वांचल और बिहार में इसका प्रचलन कुछ ज्यादा है। 15 साल की उम्र तक पहुंचते हुए गरीब तबके के अधिसंख्य बच्चे बीड़ी पीना सीख जाते हैं और फिर आगे चलकर वे ही सिगरेट के आदी हो जाते हैं या बनाया जाता है। अध्ययन बताता है कि धूम्रपान करने वालों में 81 फीसदी लोग बीड़ी पीते हैं।
कहां हैं सरकार और उसकी योजनाएं?
साल 2018 की रिपोर्ट बताती है कि अपने देश में बीड़ी पीने वालों की तादाद 7.2 करोड़ है। जाहिर सी बात है कि यह संख्या साल दर साल बढ़ रही है। बनारस की एक्टिविस्ट शिरीन शबाना खान कहती हैं, “ बीड़ी में पारंपरिक सिगरेट की तुलना में कम तंबाकू होती है, लेकिन इसमें निकोटिन की मात्रा कहीं अधिक होती है जो जानलेवा है। बीड़ी के मुंह का सिरा कम जलता है और इस कारण धूम्रपान करने वाला व्यक्ति अपने शरीर में अधिक केमिकल्स सांस के जरिये ले जाता है। कुल मिलाकर यह बीड़ी का धुआं जानलेवा है। इस शौक से कंपनी और सरकार दोनों को फायदा होता है। शराबबंदी के बाद न तो शराब की सप्लाई बंद होती है और बीड़ी से ख़राब हो रहे फेफड़े के बाद भी बीड़ी का कारोबार परवान चढ़ता जा रहा है।”
शबाना यह भी कहती हैं, “मसला ये नहीं कि बीड़ी से किसे कितना नुकसान या फायदा है? असल दिक्कत है बीड़ी के लिए तेंदू पत्ते का संग्रण करने वालों के सामने। पूर्वांचल के आदिवासी तेंदू पत्ते की तोड़ाई के जाल से न बाहर निकल पा रहे हैं और न ही उनके पास तक कोई ऐसी सरकारी सुविधा पहुंच रही है जिससे वो रोजगार पाकर राहत महसूस कर सकें। योगी सरकार आए दिन लुभावनी घोषणाएं करती है, लेकिन तेंदू पत्ते की तोड़ाई करने वाले आदिवासियों को उसकी भनक तक नहीं है। बहुतों को पता तक नहीं कि वन निगम कोई सरकारी महकमा है। तेंदू पत्ते का संग्रहण करने वालों के लिए यूपी सरकार ने स्मार्ट कार्ड बना रखा है, लेकिन देखना चाहेंगे तो किसी के पास नहीं मिलेगा। इसी कार्ड के आधार पर आदिवासियों को मजदूरी, बोनस और उनके बच्चों के लिए स्कूल में वजीफे की व्यवस्था है, लेकिन ये सब केवल कागजों पर है। जब कार्ड ही नहीं बने तो सुविधाएं कहां से मिलेंगी? ”
काशी वन्य जीव विहार के जमसोती के दिनेश, गनेश, नंदू, रमेश, पप्पू, गिरजा, हरबंश, राजू, ब्रजेश, रोहित, कल्लू, लकड़ू, चिरंजू, हीरा, रामाशीष, रामचंद्र, रामजतन ने अपना घर दिखाते हुए बताया कि वे किस तरह से गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रहे हैं। ये वो लोग हैं जो हर साल तेंदू पत्ते की तोड़ाई करते हैं। फड़ मुंशी इनका जमकर शोषण करता है। पत्ते के संग्रहण के आखिरी दिन फड़ मुंशी सभी आदिवासियों से 50 से लेकर 100 बंडल तेंदू पत्ता दबाव बनाकर जबरिया फोकट में ले लेता है। गोड़टुटवां में लगने वाले फड़ पर तेंदू पत्ता देने वाले 25 लोगों से ज्यादा वनवासियों का पैसा बकाया है। रामजतन, राम अशीष और हीरालाल ने बताया, “पिछले साल का बहुतों का बकाया अभी तक नहीं मिला है। खासतौर पर उन लोगों का जिन्होंने नकद पैसा लेने की लालच में पत्ते तोड़े थे। हर फड़ के मुंशी हमारा शोषण और बड़ा घोटाला करते हैं। पत्ता लेने के बाद इन मुंशियों के दर्शन ही नहीं होते।”
बस चल रहा है सब…ऐसे ही
तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासियों को आयुष्मान भारत, इंदिरा आवास योजना, नि:शुल्क राशन, राशन कार्ड, मनरेगा और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं मिलना चाहिए, पर हकीकत क्या है? कमलावती देवी कहती हैं, “हमाने अपने स्मार्ट कार्ड का मुंह तक नहीं देखा है। फड़ मुंशी चंद्रिका गांव रामपुर लाठे में रहता है और वो हमें देता ही नहीं है। सरकारी योजना के बारे में बस सुनते हैं, लेकिन हमें कैसे मिलेंगी? कभी किसी ने बताया भी नहीं। चाहे वो ग्राम प्रधान हों या फिर फड़ मुंशी। स्मार्ट कार्ड के बारे में तो आप ही लोग से सुने हैं बाकी तो नहीं पता। बस चल रहा है सब…ऐसे ही।”
नौगढ़ इलाके में तेंदू पत्ते की तोड़ाई करने वाले आदिवासियों का फड़ मुंशी द्वारा शोषण करने और उनका स्मार्ट कार्ड अपने पास रखने के बारे में पूछे जाने पर नौगढ़ के उप जिलाधिकारी (एसडीएम) डॉ. अतुल गुप्ता ने अनभिज्ञता जताई। उन्होंने यह कहकर इस मामले में पल्ला झाड़ऩे की कोशिश की कि हमारे पास इस बाबत कोई शिकायत नहीं आई है। वह तभी कार्रवाई करेंगे, जब कोई लिखित रूप से उनके यहां आपत्ति दर्ज कराएगा।
तेंदू पत्ते का संग्रहण करने वाले आदिवासियों के सामने ये दिक्कतें आज पैदा हुई हैं, ऐसा नहीं है। ये लोग सालों से यह सब झेल रहे हैं। इनकी तादाद हजारों-लाखों में हैं, लेकिन वे संगठित नहीं हैं। चकिया के अधिवक्ता और समाजसेवी वशिष्ठ सिंह कहते हैं, “संगठन की अपनी ताकत होती है। सरकारी दफ्तरों में अकेले चप्पल घिसना और संगठित होकर एक आवाज बुलंद करने में जमीन आसमान का फर्क होता है। अब तो नए श्रमिक कानून में संगठित मजदूरों को भी असंगठित जैसा ही बना दिया है। आगे क्या कहें अब बस इनके दम तोड़ने का इंतज़ार करें, लेकिन इनके हत्यारे का पता न तो सरकार लगा पाएगी और न ही हमारा न्यायालय।”
जमसोती के आदिवासियों ने अपना दुखड़ा सुनाते हुए शिकायत दर्ज कराई कि कोइलरवा हनुमान मंदिर के निर्माण कार्य में मजगाई गांव के ठेकेदार सुनील यादव ने महीनों काम कराया, लेकिन फूटी कौड़ी नहीं दी। यह ठेकेदार आदिवासियों का 30 हजार रुपये लेकर चंपत हो गया है। आरोप है कि पैसे मांगने पर वह उन्हें धमकी भी देता है। विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि मजदूरों के इनके हितों को बढ़ावा देने के लिए, तेंदू पत्ते के संग्रहण का काम करने वाले सरकारी मुलाजिमों की भूमिका नए सिरे से परिभाषित की जानी चाहिए। तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासी जितना कमाते हैं उससे ज्यादा तो दूसरे मजदूर मनरेगा में या खेतों में काम करके कमा लेते हैं।
तेंदू पत्ते का संग्रहण करने वाले आदिवासियों साथ एक और दिक्कत है, वो है इनके स्वास्थ्य की। नौगढ़ इलाके में सिर्फ एक अस्पताल है और वहां भी दवाओं के नाम पर कुछ नहीं है। लौआरी इलाके के मोहम्मद बताते हैं, “कोसों दूर एक अस्पताल है। जंगलों में रहने वालों के जाने-आने में ही एक दिन का मेहनताना चला जाता है। अगर प्राइवेट डॉक्टर के पास जाएं तो फीस ज्यादा है और फिर आखिरी में वो लोग यही कहते हैं कि भर पेट खाना खाने के बाद ही तपती धूप में निकलो। अगर ये काम बंद कर देंगे तो खाएंगे क्या?”
यूपी सरकार हर साल तेंदू पत्ता तोड़ने के लिए जो लक्ष्य तय करती है, वह कभी पूरा नहीं हो पाता। इसकी पुख्ता वजह है कम मजदूरी और ज्यादा शोषण। तेंदूपत्ता संग्रहण अभियान का कार्य देखने वाले उत्तर प्रदेश वन निगम के आफिसर सुभाषचंद्र यादव कहते हैं, “मजदूरी बढ़ने पर ही तेंदूपत्ता संग्रहण का लक्ष्य पूरा होगा और आदिवासियों का रुझान भी तेंदुपत्ता संग्रहण अभियान की ओर बढ़ेगा।”
अपने हक़ की ज़मीन पाने के लिए पढ़ाई में जुटे आदिवासियों के बच्चे।
सभी फ़ोटो: विजय विनीत
(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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