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झारखंड: "आदिवासियों के आरक्षण का अधिकार छिनने की साजिश बंद हो"

आरक्षण का आधार आर्थिक नहीं बल्कि “वर्ण व्यवस्था” पर आधारित भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव, छुआ-छूत एवं अत्याचार है।
jharkhand

झारखंड की राजधानी रांची से लेकर राज्य के सुदूर आदिवासी ग्रामांचलों तक में ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाने का अभियान इस बार एक नए जोशो-जज़्बे के साथ सफल बनाया गया। जिसमें सभी अपने पारम्परिक परिधानों से सजे धजे आदिवासी समुदायों के लोग सपरिवार शामिल होकर ‘सामूहिक नृत्य-गान’ किये साथ ही अपनी अस्मिता और अधिकारों को लेकर भी अपनी एकजुटता दिखाई। जिसे छिन्न-भिन्न करने के लिए हाल के दिनों में “डिलिस्टिंग” का मुद्दा खूब उछाला जा रहा है।

आदिवासी समाज की नयी पीढ़ी के युवा-युवतियों की उत्साहजनक भागीदारी दर्शा रही थी कि इस दिवस को वे महज किसी रस्मअदायगी के तौर पर नहीं मना रहे हैं, बल्कि इस दिवस के असली निहितार्थ को न सिर्फ भली-भांति जानने और समझने में लगे हैं, बल्कि उसे समाज की तथाकथित मुख्य धारा में स्थापित करने की जद्दोजहद भरी चुनौतियों के लिए स्वयं को तैयार भी कर रहें हैं।

इस बार की एक खासियत यह भी रही कि हाल के समय में आदिवासी समाज पर बढ़ते हमलों के खिलाफ एकजुट प्रतिवाद का स्वर पूर्व की अपेक्षा इस बार कुछ ज़्यादा ही तीख़े अंदाज़ में प्रदर्शित हुआ। जिसे कई स्थानों पर आदिवासी संगठनों द्वारा निकले गए जुलूसों-सभाओं के दौरान बैनर-पोस्टरों में लिखे नारों के साथ-साथ आदिवासी वक्ताओं के आक्रोशपूर्ण संबोधनों में भी दिखा।

इस संबोधन सुप्रीम कोर्ट द्वारा एसटी-एससी-ओबीसी के आरक्षण को लेकर दिए गए विवादास्पद फ़ैसले को लेकर आदिवासी समाज का विक्षोभ- “आदिवासियों के आरक्षण का अधिकार छीनने की साज़िश बंद हो” जैसे नारे की शक्ल में प्रदर्शित हो रहा था।

आदिवासी संघर्ष मोर्चा के तत्वाधान में आयोजित प्रतिवाद-प्रदर्शनों के माध्यम से पूरी मुखरता के साथ कहा गया कि- तथाकथित “क्रीमी लेयर की पहचान” के नाम पर आरक्षण को ख़त्म करने की साजिश का पुरज़ोर विरोध होगा। केंद्र में बैठी मोदी-एनडीए सरकार ‘जनजातीय गौरव दिवस मनाती है लेकिन आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को भी लागू करने से कतराने लगती है। आदिवासी समाज की एकता को तोड़ने के लिए ‘डिलिस्टिंग” का खेल खेला जा रहा है।

इस अवसर पर रांची में आदिवासी युवाओं द्वारा निकाली गयी ‘बाइक रैली’ का अपना आकर्षण रहा। जिसके माध्यम से ‘गर्व से कहो, हम आदिवासी हैं’ की आवाज़ बुलंद करते हुए यह भी कहा गया कि हम इस देश के ‘आदि निवासी-नागरिक’ हैं’, हमें “वनवासी” कहना बंद करो! जंगल-ज़मीन और खनिज़ हमारा, शासन तुम्हारा नहीं चलेगा!

विश्व आदिवासी दिवस पर झारखंड सरकार ने भी राज्यव्यापी स्तर पर बड़े कार्यक्रम आयोजित किये। कई कार्यक्रमों में प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि- झारखंड के आदिवासियों को विरासत में संघर्ष मिला है। जिन्होंने अपनी सभ्यता-संस्कृति और मान-सम्मान के साथ कभी समझौता नहीं किया है। अपने जल-जंगल-ज़मीन की रक्षा के लिए सदैव संघर्ष किया है। विडंबना है कि आज भी शासन-संस्थानों के“ऊंचे पदों” पर दलित-पिछड़ा के साथ-साथ आदिवासी नाम मात्र का मिलता है। ये दिखलाता है कि सदियों से आदिवासियों का जो शोषण होता रहा है, किस प्रकार से आज भी जारी है। जबकि आदिवासी सभ्यता दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता रही है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में आदिवासी समुदाय वास करते हैं लेकिन उनकी सभ्यता-संस्कृति में एक जैसी ही समानता देखने को मिलती है।

हाल के समय में आदिवासी समुदायों के बीच बांटी जा रही नकारात्मक प्रवृतियों को लेकर भी काफी चर्चाएं सामने आयीं। जिनमें खासकर “डेमोग्राफी” को लेकर फैलाये जा रहे राजनीति-प्रेरित कुचक्रों की चर्चा सबसे सरगर्म रही। जिनमें एक स्वर से ये आरोप लगाया गया कि- “डेमोग्राफी” को “मुसलमान-बांग्लादेशी और बिहारी-बाहरी” के नाम पर सुनियोजित राजनीतिक नौटंकी है। इसे लेकर हो-हल्ला करने वालों में अगर ईमानदारी है तो देश के संवैधानिक प्रावधान के तहत अनुच्छेद 244 पांचवी अनुसूची शिड्यूल एरिया और सीएनटी/एसपीटी एक्ट जैसे कानूनों का धड़ल्ले से उलंघन करके आदिवासी क्षेत्रों में गैरकानूनी ढंग से बसने वाली आबादी के सन्दर्भ में केंद्र-राज्य की सरकारें समीक्षा करें।

इसी तरह से सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण को लेकर दिए गये “विवादित फैसले” के सन्दर्भ में कहा गया कि विगत दशकों का अनुभव बताता है कि “आरक्षण” का नाम सुनते ही कतिपय “सवर्ण” क्यों बेकाबू हो जाते हैं? क्यों उन्हें ओबीसी-दलित-आदिवासियों में काबिलियत नहीं दिखाई देती है। आदिवासी-दलितों के “आरक्षण” में “क्रीमी लेयर” व समस्याएं देखने वाले माननीय सवर्ण जजों और बुद्धिजीवियों को दशकों से उच्च न्यायिक के साथ साथ विभिन्न क्षेत्रों में शासन-प्रशासन के उच्च पदों पर सवर्णों का एकाधिकार-वंशवाद-परिवारवाद क्यों नहीं दिखाई देता है?

आरक्षण का आधार आर्थिक नहीं बल्कि “वर्ण व्यवस्था” पर आधारित भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव, छुआ-छूत एवं अत्याचार है। जिसे बड़ी ही चालाकी के साथ “गरीबी उन्मूलन” कार्यक्रम बनाकर रखा दिया गया है।

उक्त सन्दर्भ में इस पहलू को भी चिन्हित किया गया कि जिन आदिवासी-दलितों ने आरक्षण का लाभ लेकर “बंगला-गाड़ी-पैसा” हासिल किया, क्या तथाकथित सवर्ण समाज ने आज तक उन्हें अपने बराबर का माना? उलटे इन्हें नीचा दिखा कर “जाति-नस्ल” के आधार पर भेदभाव ही किया!

‘विश्व आदिवासी दिवस’ के निहितार्थ को रेखांकित करते हुए यह विमर्श भी सामने लाया गया कि आज हमारे अधिकारों पर हमला कौन कर रहा है? क्यों हमारे संवैधानिक अधिकारों को लागू करने में सरकारें हिचकिचाती हैं! क्यों नौकरशाह हमें “फाइलों” में उलझाकर रखते हैं?

बहरहाल, ‘विश्व आदिवासी दिवस’ को मनाते हुए आदिवासी समुदाय ये सवाल उठा रहें हैं कि आजादी के 78 वर्षों बाद भी इस देश के आदिवासी अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित होकर अपने अस्तित्व को बचाने के लिए क्यों जूझ रहें हैं? आज भी उन्हें, उनकी मूल पहचान ‘आदिवासी’ से अलग कर “वनवासी अथवा जनजाति” कहकर क्यों संबोधित किया जा रहा है? साथ ही सबसे बढ़कर कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने जिन उद्देश्यों से ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाने का फैसला लिया, वह कितना सफल है? तो निश्चय ही इसके ठोस ज़मीनी कारण और स्थितियां मौजूद हैं, जो अपने को “सभ्य-विकसित और समतामूलक-लोकतांत्रिक” कहलाने वाले राज-समाज और शासन-व्यवस्थाओं से नगाड़े की चोट पर जवाब और वास्तविक समाधान मांग रहे हैं!

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