एससी/एसटी उप-वर्गीकरण के राजनीतिक परिणाम
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों (एससी/एसटी) के उप-वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इर्द-गिर्द ज़्यादातर बहस या तो कानूनी/संवैधानिक या प्रक्रियात्मक रही है। हालांकि, मुख्य सवाल वास्तव में राजनीति की प्रकृति और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में है – जो चुनावी और अन्य दोनों तरह की प्रक्रिया पर प्रभाव डाल सकता है।
यह स्पष्ट है कि उप-वर्गीकरण निश्चित रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के भीतर अवसरों के भौतिक पुनर्वितरण को बढ़ावा देगा। डेटा बहुत स्पष्ट है कि दलितों के भीतर कुछ उप-जातियों को उनकी आबादी के संबंध में और अन्य उप-जातियों की तुलना में लाभ का अधिक अनुपात में मिला है।
ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) आरक्षण में पहले से ही 8 लाख रुपये प्रति वर्ष की आय सीमा के चलते ‘क्रीमी लेयर’ का मानदंड लगाया गया था।
हालांकि, इसके राजनीतिक परिणाम अनिश्चित हैं। क्या इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूत होगी और अधिक भागीदारी होगी या नागरिक संघर्ष के लिए अधिक सहमति बनेगी, जिससे दक्षिणपंथी लोकलुभावनवाद को लाभ होगा?
उप-वर्गीकरण सामाजिक अंतर्विरोधों की जटिलता को सामने लाता है। जबकि यह आंतरिक पुनर्वितरण की अनुमति तो देता है, जो सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्रीकरण का एक जरूरी तरीका है, यह दलित या आदिवासी होने की सामाजिक पहचान को भी कमजोर करता है। असमानताओं का राजनीतिक समाजशास्त्र हमें बताएगा कि यह न केवल पहचान को कमजोर करता है बल्कि एससी और एसटी के भीतर उन वर्गों को भी कमजोर करता है जो प्रतिरोध करने और लामबंद होने की स्थिति में हैं।
उप-वर्गीकरण में दलित बनाम जाति हिंदू टकराव को अंतर-उपजाति संघर्ष में बदलने की क्षमता हो सकती है। बाहरी प्रभुत्वशाली जातियों के बजाय ‘आंतरिक’ वर्चस्व पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। कई दलित-बहुजन कार्यकर्ताओं को यह चिंता होगी कि क्या इससे जाति हिंदू या उच्च जातियों का वर्चस्व मजबूत होगा? क्या इससे भाजपा-आरएसएस ब्रांड की राजनीति को लाभ नहीं होगा?
दलित-बहुजन भी प्रभुत्वशाली जातियों के भीतर आंतरिक पदानुक्रम का सवाल उठा रहे हैं। यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है जो वंश/पारिवारिक विरासत प्रभुत्वशाली जातियों से संबंधित परिवारों के भीतर प्रवाहित होती है? क्या यह उन परिवारों से तुलनीय है जो एससी और एसटी के भीतर कुछ पीढ़ियों से लाभान्वित हुए हैं? क्या यह कहना सही होगा कि ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) आरक्षण ने इस समस्या का समाधान किया है? ईडब्ल्यूएस ने कभी भी ब्राह्मणों या राजपूतों के भीतर विशिष्ट उप-जातियों द्वारा लाभ को ‘हड़पने’ का सवाल नहीं उठाया। वास्तव में, हमारे पास ऐसा कोई डेटा उपलब्ध ही नहीं है।
इसके अलावा, आरक्षण को संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह सकारात्मक कार्रवाई नीति के रूप में नहीं, बल्कि कोटा के रूप में अपनाया गया था। सीटों की एक निश्चित संख्या है। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण अस्पृश्यता और सामाजिक भेदभाव के अभ्यास पर आधारित था।
आरक्षण कोई आर्थिक नीति नहीं थी। दलितों ने अभी तक भेदभाव, कलंक और पूर्वाग्रह से उबरना नहीं सीखा है, इसलिए कुछ उप-जातियों के लिए अवसरों में कटौती करना कैसे उचित है, जिन्हें अब तक लाभ मिला है। उप-वर्गीकरण दलितों के बीच अभिजात वर्ग और वर्ग गठन की अनुमति नहीं देगा, लेकिन इसकी आड़ में उच्च जाति के हिंदू यानी सामाजिक अभिजात वर्ग को बिना किसी सवाल किए छोड़ दिया जाएगा।
दलितों और आदिवासियों के भीतर अपेक्षाकृत बेहतर उपजातियों के लिए एकमात्र रास्ता निजी क्षेत्र में जाना होगा, ठीक वैसे ही जैसे तीन दशक पहले सवर्ण हिंदुओं ने किया था। आर्थिक संस्कृतिकरण का यह मॉडल उन पर थोपा जा रहा है, जिससे निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग बढ़ेगी। हरियाणा और कर्नाटक जैसी कई राज्य सरकारों ने निजी क्षेत्र में स्थानीय निवासियों के लिए आरक्षण का प्रयास किया है। कई निजी कंपनियां इस विचार को खारिज करती हैं, लेकिन राज्य सरकारें इस पर काम कर रही हैं।
सच तो यह है कि जाति के अलावा किसी अन्य आधार पर आरक्षण का कोई भी प्रावधान केवल सवर्ण हिंदुओं को ही लाभ पहुंचाएगा। नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में खेल कोटे में आरक्षण से कितने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को लाभ मिला है?
इसका मतलब यह नहीं है कि उप-वर्गीकरण जरूरी नहीं है। यह दलितों और आदिवासियों के भीतर संख्यात्मक रूप से छोटी, सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर उप-जातियों के लिए अवसर पैदा करने के मामले में एक बड़ा बदलाव होगा। प्रमुख उप-जातियां, जैसे कि अनुसूचित जातियों में महार, माला और जाटव और अनुसूचित जनजातियों में मीना और लम्बाडा के अवसर कम हो जाएंगे। यह निस्संदेह सामाजिक लोकतंत्रीकरण की दिशा में एक कदम है और शायद एक आवश्यक कदम है, लेकिन एक विरूप कदम है। इसके राजनीतिक परिणाम लोकतंत्रीकरण की एक साधारण प्रक्रिया की तुलना में कहीं अधिक अनिश्चित हैं।
प्रमुख उप-जातियों की स्थिति कमजोर होने से वे दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़ सकते हैं। उप-वर्गीकरण से बड़े पैमाने पर असुरक्षा पैदा होगी, भले ही इससे लोकतंत्रीकरण और अवसरों की समानता फैले। दलितों की बड़ी पहचान से राजनीतिक लामबंदी के लिए जगह बनेगी जो स्वतंत्र उप-जातियों की ओर स्थानांतरित होगी।
क्या जाति-विरोधी राजनीति आंतरिक विभाजन का सामना करते हुए भी बड़ी एकजुटता बनाने में सक्षम होगी? या क्या आंतरिक विभाजन प्रमुख जाति के हिंदुओं के साथ टकराव को दबा देगा?
हिंदू धर्म में अधिक एकीकरण की ओर ले जाने वाली कमज़ोरी की स्पष्ट संभावना है। यह एक ऐसी घटना है जो क्रमिक असमानताओं से चिन्हित समाज के लिए अद्वितीय लगती है, जहां अधिक विखंडन एक सामान्य हिंदू पहचान के इर्द-गिर्द अधिक एकीकरण की ओर ले जाएगा। इस स्तर पर उप-वर्गीकरण के सामाजिक रूप से रूढ़िवादी परिणाम से इंकार नहीं किया जा सकता है।
दूसरी, कमज़ोर संभावना यह है कि वंचित तबकों को यह अहसास हो कि शिक्षा और नौकरियों के बड़े पैमाने पर निजीकरण को देखते हुए उप-वर्गीकरण से केवल मामूली लाभ ही होगा। इसलिए, यह राजनीतिक रूप से दलितों और अनुसूचित जनजातियों के गरीबों को, जातिगत हिंदुओं के बीच के गरीबों के करीब ला सकता है। बेशक, इस विकल्प में जातिगत पूर्वाग्रह एक बड़ी बाधा के रूप में होंगे, लेकिन क्या घटते अवसर और संसाधनों के विषम वितरण पर स्पष्टता इस प्रवृत्ति को कमज़ोर कर देगी?
अगर इसे विभिन्न कार्यकर्ताओं की पहलों के जरिए सक्रिय सामाजिक लामबंदी के साथ किया जाता है, तो यह एक बड़ा बदलाव होगा जो भाजपा-आरएसएस की राजनीति के लिए कड़ी चुनौती पेश करेगा। जाति जनगणना पर कांग्रेस ने पहले ही इस संभावना को मुख्यधारा में ला दिया है। हालांकि, इसके लिए प्रचलित सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों के खिलाफ स्पष्ट लामबंदी की आवश्यकता होगी।
बाद की संभावना भारतीय राजनीति में तीसरे लोकतांत्रिक उभार को चिन्हित करेगी। यह विभिन्न जातियों के बीच एकजुटता का पर्दापरण करेगी जो क्षेत्रीय मांगों से आगे बढ़कर बड़े बदलावों की ओर बढ़ेगी। इस तरह के बदलाव को विकास के मौजूदा मॉडल में समायोजित नहीं किया जा सकता। शिक्षा और स्वास्थ्य को सार्वजनिक वस्तुओं के रूप में अपनाने की दिशा में एक समग्र बदलाव करना होगा, जिससे व्यावसायीकरण की प्रक्रिया को रोका जा सके। इसे समान स्कूली शिक्षा जैसी मांगों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है। यह संकीर्ण पहचान की राजनीति से आगे बढ़ेगा जिसका प्रतिनिधित्व वर्तमान जाति-विरोधी राजनीति करती आ रही है।
जैसी भी हो, भारतीय राजनीति और लोकतंत्र को समझने में उप-वर्गीकरण एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बना रहेगा। हालांकि, यह तथ्य कि अधिक लोकतंत्रीकरण दक्षिणपंथी लोकलुभावन लामबंदी के लिए व्यापक दरवाजे खोल सकता है, उन लोगों के लिए अब तक का सबसे महत्वपूर्ण सवाल बना रहेगा जो भाजपा-आरएसएस के ब्रांड के सामाजिक रूढ़िवाद का विरोध करते हैं।
लेखक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के पोलिटिकल स्टडीज़ सेंटर में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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