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ख़बरों के आगे-पीछे: आरक्षण पर सुप्रीम फ़ैसला सवालों के घेरे में 

अपने साप्ताहिक कॉलम में वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के साथ वायनाड त्रासदी और राज्यपालों की नियुक्तियों पर चर्चा कर रहे हैं।
supreme court
फ़ोटो साभार : TOI

अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ा वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की जो संवैधानिक व्यवस्था है, उसके बारे में ज्यादातर राजनीतिक दलों, आरक्षण विरोधियों और मीडिया के एक बड़े हिस्से की या तो समझ साफ नहीं है या फिर वे जान-बूझ कर उसकी गलत व्याख्या करते हैं। ये लोग अमूमन आरक्षण को एक आर्थिक कार्यक्रम मान कर चलते हैं, जबकि आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं बल्कि एक सामाजिक कार्यक्रम है, जिसका मकसद ऐतिहासिक कारणों से समाज में चली आ रही सामाजिक विषमता का उन्मूलन करना है। अफसोस की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कोटे में भी कोटा को मंजूरी देने वाला जो फैसला दिया है, उसमें उसने आरक्षित वर्ग के आर्थिक पहलू को ही मुख्य रूप से रेखांकित करते हुए आरक्षण की मूल अवधारणा पर विचार नहीं किया है। 

सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को भी नजरअंदाज किया है कि दलितों और आदिवासियों को आरक्षण मिलने के 75 साल बाद भी उनके लिए आरक्षित सभी सीटें कभी भी नहीं भरी जा सकी हैं। अभी तक क्रीमीलेयर के दलित-आदिवासी भी नौकरियां पाते रहे हैं, तब यह हाल है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्रीमीलेयर लागू होने के बाद कितने दलित इस स्थिति में हैं जो नौकरियां पा सकेंगे? जाहिर है कि यह एक तरह से आरक्षण यानी सामाजिक न्याय की व्यवस्था को अनौपचारिक तौर पर खत्म करने की शुरुआत है। दरअसल जब सरकारें खुद मुश्किल फैसले लेने से कतराती हैं तो वह इस तरह के फैसले न्यायपालिका से दिलवा देती हैं। कोटे में कोटा लगाने का फैसला भी पूरी तरह सरकारी है और भाजपा की वर्षों पुरानी मांग को पूरा करता है।

भाजपा ने बंगाल मे हार मान ली

शायद भाजपा ने मान लिया है कि वह पश्चिम बंगाल में नहीं जीत सकती है। ऐसा इसलिए लगता है, क्योंकि प्रदेश भाजपा के नेताओं के बयान अब बहुत घबराहट और बौखलाहट वाले आने लगे हैं। पहले विधायक दल के नेता शुभेंदु अधिकारी ने मुस्लिम समुदाय को अलग-थलग करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिए नारे 'सबका साथ-सबका विकास’ को ही खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि इस नारे की बजाय कहना चाहिए कि जो हमारे साथ है उसका विकास। उधर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने अलग एक विवादित बयान दे दिया। उन्होंने पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से को राज्य से अलग करने की मांग की। गौरतलब है कि भाजपा के नेता पहले भी बंगाल के विभाजन और उत्तरी बंगाल को अलग राज्य बनाने की बात करते रहे हैं, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष मजूमदार ने इस बार प्रधानमंत्री मोदी से अपील की है कि वे उत्तरी बंगाल को पश्चिम बंगाल से अलग करके पूर्वोत्तर का हिस्सा बनाएं। ध्यान रहे, पश्चिम बंगाल मे बांग्ला अस्मिता का मुद्दा सबसे बड़ा होता है, जिसका जवाब मोदी और अमित शाह नहीं दे पाते हैं। इसी मुद्दे पर ममता ने पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव जीता। इसीलिए उत्तरी बंगाल को अलग करने की मांग से ऐसा लग रहा है कि भाजपा पूरे बंगाल की बजाय उत्तरी बंगाल में बेहतर संभावना देख रही है और मान रही है कि अगर वह हिस्सा अलग हो जाए तो वहां उसकी सरकार बन सकती है। 

राहुल को वैकल्पिक मॉडल भी पेश करना होगा

इस बात में अब कोई संदेह नहीं रह गया है कि राहुल गांधी भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर केंद्रीय भूमिका वाले एक नेता के रूप में स्थापित हो गए हैं। यह बात उनके आलोचक भी मानने लगे हैं। हाल का ट्रेंड यह है कि संसद में उनके हर हस्तक्षेप के बाद उनके उदय की चर्चा फिर से शुरू हो जाती है। पिछले आम चुनाव के पहले तक यह बात मुख्य रूप से सोशल मीडिया पर थी, लेकिन अब यह मुख्यधारा के मीडिया की चर्चा का विषय भी बन गई है। भाजपा ने अरबों रुपए खर्च कर जिस नेता की 'पप्पू’ की छवि बनाई गई थी, उसका यह रूपांतरण अनेक विश्लेषकों की निगाह में अध्ययन का विषय है। मगर फिलहाल हकीकत यह है कि राहुल गांधी समाज में तेजी से फैल रहे असंतोष को आवाज दे रहे हैं। इसके लिए वे हिंदू मिथकों से जुड़े मुहावरों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसमें उनका आक्रामक अंदाज उनके लिए तालियां बजाने वालों की संख्या बढ़ा रहा हैं। 

इसका नज़ारा सोमवार को लोकसभा मे बजट पर दिए उनके भाषण के बाद फिर देखने को मिला। इस दौरान राहुल ने वर्तमान सरकार के तहत आर्थिक नीतियों पर बडे कॉरपोरेट घरानों के नियंत्रण, सामाजिक अन्याय, एवं 'डीप स्टेट’ के आतंक का जिक्र किया और तालियां बटोर ले गए। खास बात यह है कि राहुल गांधी समाधान का कोई वैकल्पिक मॉडल पेश किए बगैर खुद को विकल्प बताने में कामयाब हो रहे हैं। संभवत: नरेंद्र मोदी के धूमिल पड़ते सितारों के कारण भी राहुल की आभा अधिक चमकती नजर आने लगी है। कांग्रेस चाहे तो इसे फिलहाल अपने लिए सकारात्मक घटनाक्रम के रूप में देख सकती है, लेकिन देश को नीतिगत एवं राजकाज संबंधी वैकल्पिक रास्ता देने की चुनौती तो अब भी उसके सामने विशाल रूप में मौजूद ही है, जितनी तब थी, जब राहुल गांधी को मुख्यधारा की चर्चाओं में गंभीरता से नहीं लिया जाता था।

वायनाड की त्रासदी के सबक़ और संदेश

केरल के वायनाड ज़िले में भूस्खलन से तकरीबन सवा सौ लोगों की जान चली गई। जख्मी और लापता लोगों पर ध्यान दे, तो हताहतों संख्या तीन सौ के करीब पहुंचती है। वायनाड इलाके में भूस्खलन पहले भी होते रहे हैं लेकिन इतनी बड़ी तबाही हालिया याददाश्त में नहीं है। प्राकृतिक दुर्घटनाएं जीवन का हिस्सा है, इसलिए इनके किसी निश्चित कारण की पहचान कर पाना कठिन होता है। लेकिन कुछ संकेत ऐसे होते हैं, जिन पर ध्यान दिया जाए, तो बचाव के बेहतर उपाय किए जा सकते हैं। जिस इलाके मे ये हादसा हुआ, वह पश्चिमी घाट कहे जाने वाले क्षेत्र का हिस्सा है। पर्यावरण विशेषज्ञ दशकों से चेतावनी दे रहे हैं कि उस क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों- खासकर निर्माण कार्यों से प्राकृतिक संतुलन पर खराब असर पड़ा है। इस लिहाज से पश्चिमी घाट अकेला इलाका नहीं है, जो अनियोजित और अनियंत्रित निर्माण से खतरे में पड़ा है। हाल के वर्षों में ऐसी सबसे ज्यादा घटनाएं उत्तराखंड में हुई हैं। उत्तरकाशी में आई दरारों के अलावा चार धाम तीर्थ यात्रा मार्ग पर जमीन धंसने की बढ़ी घटनाएं पारिस्थितिकी की उपेक्षा का प्रत्यक्ष परिणाम मानी गई हैं। 

यह अफसोस की बात है कि अपने देश में ऐसी बुनियादी समस्याओं पर विचार-विमर्श का दायरा लगातार सिकुड़ता गया है। मीडिया में भी बहुत सतही चर्चा होती है। लगता नहीं कि वायनाड की त्रासदी के बाद भी ऐसी कोई गंभीर चर्चा शुरू होगी, जिससे विकास एवं पर्यावरण के बीच संतुलन पर समझ बनाने में मदद मिले। जबकि इस त्रासदी का प्रभाव दूर-दूर तक गया है। भूस्खलन से प्रभावित मुंडाक्कई चाय के बगानों वाला एक छोटा सा कस्बा है, जहां असम और पश्चिम बंगाल के लोग भी बड़ी संख्या में काम करते हैं। फिलहाल वहां पहुंचना भी मुश्किल बना हुआ है, क्योंकि चूरालमाला और मुंडाक्कई के बीच का पुल का बह गया है। केरल में और भी बारिश की आशंका है, जिससे यह त्रासदी और गंभीर रूप ले सकती है।

नीतीश कुमार को यह क्या हो गया?

बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के विधान पार्षद (एमएलसी) सुनील सिंह की विधान परिषद सदस्यता इसलिए रद्द कर दी गई कि उन्होंने कथित तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मखौल उड़ाया था। परिषद की इथिक्स कमेटी ने इसे मुख्यमंत्री के लिए अपमानजनक माना। इसके अलावा राष्ट्रीय जनता दल के एक अन्य एमएलसी के व्यवहार को उद्दंड मानते हुए उन्हें दो दिन के लिए निलंबित कर दिया। यह सामान्य घटना नहीं है। अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कार्रवाई संसद में बढ़ती चली गई असहनशीलता से प्रेरित है। गौरतलब है कि पिछली लोकसभा के दौरान विपक्ष के लगभग डेढ़ सौ सदस्यों को एक साथ निलंबित किया गया था और राज्यसभा में भी दो सदस्यों को लंबी अवधि के लिए निलंबित किया गया था। तो क्या राज्यों के सत्ताधारी नेता भी लोकसभा और राज्यसभा की इन घटनाओं से प्रेरणा ले रहे हैं? वैसे नीतीश कुमार की असहनशीलता पहले से बहुचर्चित है। पिछले हफ्ते ही उन्होंने एक महिला विधायक को यह कह दिया कि महिला होने की वजह से वे बजट से संबंधित मसलों को नहीं समझती हैं। बहरहाल, अब एक सदस्य की सीधे विधान परिषद सदस्यता ही रद्द कर दी गई। यह विचारणीय है कि क्या कोई लोकतंत्र सत्तापक्ष की ऐसी असहनशीलता के साथ चल सकता है? अथवा, जहां इस तरह की असहनशीलता दिखाई जा रही हो, क्या उस व्यवस्था को लोकतंत्र कहा भी जा सकता है? यह सोच अपने आप में समस्याग्रस्त है कि सत्ता की ऊंची कुर्सी पर पहुंच गया व्यक्ति परम आदरणीय है और इसलिए वह कटाक्ष या आलोचनाओं से परे है। 

नीति आयोग की उपयोगिता का सवाल 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नीति आयोग की बैठक से वॉकआउट कर गईं, जबकि इंडिया गठबंधन के अन्य मुख्यमंत्रियों ने यह शिकायत करते हुए बैठक का बहिष्कार किया कि पिछले हफ्ते पेश केंद्रीय बजट में विपक्ष शासित राज्यों के साथ भेदभाव किया गया। इस आरोप से तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष भी सहमत हैं, लेकिन उन्होंने बेहतर यह समझा कि आयोग की बैठक में जाकर यह शिकायत की जाए। बहरहाल, ममता बनर्जी ने बैठक से एक दिन पहले दो टूक कहा कि नीति आयोग एक बेमतलब संस्था है और इसे भंग कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने फिर से योजना आयोग के गठन की मांग भी की। योजना आयोग का दोबारा गठन हो या नहीं, यह एक अलग मुद्दा है। नियोजित एवं राज्य-निर्देशित अर्थव्यवस्था के दौर में योजना आयोग की प्रमुख भूमिका थी। 

2014 मे जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए, तो नव-उदारवाद पर निर्बाध अमल के प्रति अपनी निष्ठा जताने के लिए उन्होंने सबसे पहला काम योजना आयोग को भंग करने का किया और उसकी जगह नीति आयोग का गठन किया। मगर दस साल की लंबी अवधि में भी यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि नीति आयोग की देश के प्रशासन में भूमिका क्या है? अधिक से अधिक वह एक ऐसे थिंक टैंक के रूप में मौजूद रहा है, जिसने सरकार की आलोचनाओं का जवाब देने के लिए आंकड़े जुटाए अथवा तैयार किए हैं। साल में एक बार प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों की बैठक भी वह आयोजित करता रहा है। लेकिन उसमे कभी कोई प्रभावी चर्चा हुई हो, इसके संकेत नहीं है। ऐसे में दस साल बाद अब उसकी भूमिका और उपयोगिता पर चर्चा करने का उचित समय है। इस सिलसिले में ममता बनर्जी ने जो कहा है, उसे बहुत से अन्य लोग भी महसूस करते हैं। बेहतर होगा कि नीति आयोग इस पर चर्चा के लिए भी अपनी एक बैठक बुलाए।

आनंदीबेन राज्यपाल बनी रहेंगी

दस राज्यों में राज्यपालों और उप राज्यपालों की नियुक्ति व तबादलों के बाद ऐसा लग रहा है कि आनंदीबेन पटेल उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बनी रहेंगी। उनका उत्तर प्रदेश के राज्यपाल पद का कार्यकाल 29 जुलाई को खत्म हो चुका है लेकिन वहां किसी नए राज्यपाल की नियुक्ति का ऐलान नहीं हुआ है। किसी अन्य प्रदेश के राज्यपाल को उत्तर प्रदेश का अतिरिक्त प्रभार देने की भी घोषणा नहीं हुई है। इसका मतलब है कि 82 साल की आनंदी बेन अभी उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बनी रहेंगी। वे उत्तर प्रदेश में जरूर बतौर राज्यपाल पांच साल से हैं लेकिन उनको राज्यपाल बने साढ़े छह साल से ज्यादा हो गए हैं। उन्होंने 23 जनवरी 2018 को मध्य प्रदेश के राज्यपाल का पदभार संभाला था। इससे दो साल पहले अगस्त 2016 में वे गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटी थीं। दो साल के इंतजार के बाद 2018 में वे मध्य प्रदेश की राज्यपाल बनीं। थोड़े समय तक छत्तीसगढ़ का अतिरिक्त प्रभार भी उनके पास रहा। आनंदीबेन ने 29 जुलाई 2019 को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल की शपथ ली थी। सो, लखनऊ के राजभवन में उन्हें पांच साल हो गए हैं और कुल मिलाकर राज्यपाल बने साढ़े छह साल से ज्यादा हो गए हैं। उत्तर प्रदेश मे अभी जिस तरह की राजनीति चल रही है और जैसी उलटफेर की संभावना जताई जा रही है उसके चलते राजभवन में आनंदीबेन का रहना जरूरी समझा जा रहा है।

बड़े लोग छोटे राजभवन में भेजे गए

राज्यपालों की नियुक्ति का फैसला चौंकाने वाला रहा। हालांकि कुछ राजभवन पहले से खाली थे और कुछ जुलाई में खाली हुए तो कुछ अगले दो महीने में खाली होने वाले हैं। इसलिए राज्यपालों की नियुक्ति तो होनी ही थी और यह भी उम्मीद की जा रही थी कि जो नेता लोकसभा चुनाव हार गए हैं या जिनका टिकट कटा है उनमें से कुछ लोगों को राज्यपाल बनाया जाएगा। लेकिन नई नियुक्तियों में इक्का दुक्का चेहरे ही ऐसे हैं। जिन लोगों को राज्यपाल बनाया गया है उनमें सबसे चौंकाने वाली बात यह दिखती है कि जो बड़े नाम हैं, उन्हें बहुत छोटे राजभवनों में भेजा गया है। भाजपा संगठन में कई महत्वपूर्ण पद संभाल चुके ओम माथुर को सिक्किम का राज्यपाल बनाया गया है। वे पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और उपाध्यक्ष रहे हैं। उन्होंने गुजरात से लेकर राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी बड़ी जिम्मेदारी निभाई है, लेकिन अब राज्यपाल बने तो सिक्किम के। जबकि हरिभाऊ किशनराव बागड़े को राजस्थान का, लक्ष्मण आचार्य को असम व मणिपुर का, जिष्णु देव वर्मन को तेलंगाना का और रमन डेका को छत्तीसगढ़ का राज्यपाल बनाया गया। इसी तरह दूसरा बड़ा नाम के. कैलाशनाथन का है। नरेंद्र मोदी के पहली बार गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद से वे वहां का राजकाज संभाल रहे थे। मोदी के दिल्ली आने के बाद तो लगभग पूरा प्रशासन ही उनके हवाले था। लेकिन जब उन्होंने गुजरात छोड़ा तो पुड्डुचेरी के उप राज्यपाल बनाए गए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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