क्या लंपी त्वचा रोग को फैलने से रोका जा सकता था?
जिस तरह से लंपी त्वचा रोग (लंपी स्कीन डिजीज-एलएसडी) पूरे भारत में फैल रहा है, हजारों की संख्या में गायों की मौत हो रही हैं। मरने वाले पशुओं की वास्तविक संख्या बताना मुश्किल है। विभिन्न मीडिया रिपोर्टें की बात करें तो राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में पशुओं का भारी नुकसान हुआ है। सरकार का अनुमान है कि इस बीमारी के कारण 1,00,000 मवेशियों की मौत हुई है। राजस्थान सरकार ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर इस बीमारी को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग की है।
इस बीमारी से मर चुके मवेशियों के अलावा बड़ी संख्या उन पशुओं की है जो इस बीमारी के की चपेट में आ कर बीमार हो चुके हैं। ठीक होने के बाद भी वे दूध देने में सक्षम नहीं हैं।
इस बीच, जो पहले से संक्रमित हैं वे इस बीमारी को फैलाने में वाहक बनेंगे। ख़ासकर यदि वे छोटे बंद क्षेत्रों में या भीड़-भाड़ वाले पशु आश्रयों जैसे छोटी जगहों में रहते हैं तो वे इस बीमारी को फैला सकते हैं।
इस वायरस ने मध्य और दक्षिण भारत में भी अपनी पैठ बना ली है। हाल ही में महाराष्ट्र में मवेशी इस वायरस की चपेट में आ गए। राजस्थान सरकार इस मामले में सही हो सकती है कि भारत राष्ट्रीय संकट की ओर बढ़ रहा है। यह दूध क्षेत्र को कमज़ोर कर सकता है और डेयरी उत्पादों के आयात के लिए भारत के बाज़ार खोल सकता है। ये प्रकोप भारत की पोषण सुरक्षा में रुकावट पैदा कर सकता है। लेकिन, कम ही लोग जानते हैं कि यह रोकी जा सकने वाली त्रासदी थी।
एलएसडी यानी लंपी त्वचा रोग के बारे में ज़्यादा जानकारी के लिए हमने राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों से बात की और उन्होंने जो बात बताई वह चौंकाने वाली है।
राजस्थान के पदमपुरा के 55 वर्षीय किसान पुनाराम देवासी की दो गाय इस बीमारी की चपेट में आकर मर गई। वह इन गायों से रोज़ पांच-छह लीटर दूध बेचा करते थे लेकिन वायरल हो रहे इस संकट ने उनकी आमदनी छीन ली। वे न्यूज़क्लिक को बताते हैं, “हमें इस बीमारी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। मानसून के समय में हम अपने मवेशियों को चराने के लिए बाहर ले जाते थे, जिससे संक्रमण जल्दी फैल गई। मेरे गांव की कई गायें प्रभावित हैं और दूध उत्पादन और हमारी रोज़ की कमाई चौपट हो गई है।”
बरेली स्थित भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) के केपी सिंह एलएसडी विशेषज्ञ हैं। पहली बार 2009 में ओमान के मस्कट में इस बीमारी का पता चला था तब से केपी सिंह इस महामारी से अच्छी तरह वाकिफ हैं। जब से उनको पहली बार इस बीमारी का पता चला तब से वह गहन अध्ययन कर रहे हैं। सिंह बताते हैं, “हमारे यहां 2019 में एलएसडी के पहले मामले आए थे। यह ओडिशा और पश्चिम बंगाल में सामने आया था। जल्द ही, ये बीमारी आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और अन्य राज्यों में फैल गई। लेकिन [इस बीमारी को नियंत्रित करने के लिए] कोई सक्रिय क़दम नहीं उठाए गए थे।”
इस वायरस की उत्पत्ति के बारे में पूछे जाने पर सिंह इसका कालक्रम बताते हैं। वे कहते हैं कि, "दुनिया भर में यह वायरस पहली बार जाम्बिया में सामने आया था और बाद में यह दक्षिण अफ़्रीक़ा, बोत्सवाना, केन्या में फैल गया और यहां तक कि इज़राइल में भी इसके पाए जाने की सूचना मिली। मध्य पूर्वी देशों को पार करने में इसे थोड़ा समय लगा और अंत में किसी तरह यह बांग्लादेश पहुंच गया। भारत में यह वायरस बांग्लादेश की सीमा के ज़रिए अवैध पशु व्यापार के माध्यम से प्रवेश किया।”
एलएसडी के लक्षण वायरस की जैविक मूलों से निकटता से जुड़े हैं। यह चेचक परिवार (Pox Family) से संबंधित है। ये कैप्रीपॉक्स उप-श्रेणी में आता है जो कि बकरी पॉक्स वायरस के समान है। इस बीमारी के होने पर गायों को तेज़ बुखार होता है और जानवरों के शरीर पर गांठें दिखाई देने लगती हैं। मवेशियों के फेफड़ों, पेट, गुर्दे, यकृत और अन्य आंतरिक अंगों में भी घाव हो सकते हैं। कुछ मामलों में गले के घाव भी पाए गए हैं। सिंह कहते हैं, "लिम्फेटिक नोड्यूल्स पर एडिमा की वृद्धि को छोड़कर जानवर पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं होता है।"
संक्रमण की अवधि एक से दो सप्ताह तक रह सकती है। इस दौरान गाय बुखार, घाव, वजन घटने, भूख में कमी और दूध उत्पादन में गिरावट की समस्या से पीड़ित होती है। लेकिन स्तन ग्रंथियों पर रोग का कोई स्थायी प्रभाव नहीं होता है। सिंह कहते हैं कि, "मृत्यु दर 5% से 8% है, जो मिश्रित और विदेशी नस्लों में लगभग 10% हो सकती है।" स्वाभाविक रूप से, मरने वाले पशुओं की तुलना में संक्रमित मवेशियों की संख्या कहीं अधिक है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में राहुल शर्मा के पास कई देशी गाय हैं। वे मवेशियों की इस बीमारी के बारे में जो कुछ कहते हैं उससे सिंह जैसे वैज्ञानिकों की बात की पुष्टि होती है। राहुल कहते हैं, “मेरे गौशाला में कोई भी गाय एलएसडी से बीमार नहीं हुई है। लेकिन हमने फर्रुखनगर और अलवर इलाक़ों से एलएसडी संक्रमण की ख़बरें सुनी हैं। ज़्यादातर देसी गायें स्वस्थ होती हैं। समस्या मुख्य रूप से विदेशी नस्लों और मिश्रित नस्ल की गायों की है।”
आशंका जताई जा रही है कि यह बीमारी अब दिल्ली में भी दस्तक दे चुकी है।
कुछ लोगों को संदेह है कि एलएसडी अन्य प्रजातियों जैसे कि जंगली मृग को भी अपनी चपेट में ले सकता है। हालांकि, वैज्ञानिक इस दावे का खंडन करते हैं। सिंह कहते हैं, “यह वायरस 2019 से भारत में है। अगर यह वन्यजीवों में फैलता है, तो हमारे पास कुछ मामले दर्ज होते। लेकिन हमने अभी तक एक भी जंगली जानवर को संक्रमित नहीं पाया है।”
न ही ये वायरस जूनोटिक है। यह जानवरों से मनुष्यों में नहीं फैलता है जैसा कि कोरोनवायरस ने किया था। केपी सिंह बताते हैं, “मनुष्यों या अन्य जानवरों में वायरस के फैलने का कोई सवाल ही नहीं है। हमने देखा है कि संक्रमित गाय के आस पास मौजूद बकरी और अन्य जानवर भी वायरस की चपेट में नहीं आते हैं। इसलिए हम अन्य गायों के लिए रोकथाम के रूप में संक्रमित जानवरों को तत्काल अलग थलग करन और क्वारंटीन करने के साथ साथ टीकाकरण की सलाह देते हैं।”
सिंह अभी राजस्थान से ही लौटे हैं। उन्होंने कहा कि वहां वायरस के ख़िलाफ़ दुधारू पशुओं का टीकाकरण सफल रहा है। टीकाकरण बीमारी को रोकने में मदद करता है और सरकारें जानवरों को बूस्टर शॉट्स की मदद से वायरल हमले को रोकने का प्रयास कर रही हैं। लेकिन क्या किसान जानवरों को क्वारंटाइन करने में सक्षम हैं? और संक्रमित मवेशियों को रखने वालों के लिए उनकी आर्थिक लागत क्या होगी?
भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के महासचिव युद्धवीर सिंह प्रभावित किसानों से बात करते हुए देश का दौरा कर रहे हैं। वह कहते हैं, 'किसान अभी भी फसल का नुक़सान सह रहा है लेकिन दूध देने वाली गाय या भैंस संक्रमित हो जाए तो ऐसे में किसान गहरे संकट में है। यह किसान की आजीविका को नष्ट करता है क्योंकि वे दूध बेचकर रोज़ाना कमाते हैं। दूध से होने वाली आय उनके जीवित रहने का एक साधन है और सरकार उनके प्रति संवेदनशील नहीं रही है और इस वायरस को फैलने दिया है।”
क्या सरकार की निष्क्रियता ने इस समस्या को कहीं अधिक व्यापक बना दिया है? यह पूछे जाने पर कि क्या इसके महामारी को रोका जा सकता था तो इसके जवाब में सिंह कहते हैं, “बेशक इसे रोका जा सकता था। हमारे यहां 2019 से ये वायरस है। अगर हमने और ध्यान दिया होता तो हम कई गायों को बचा सकते थे। टीकाकरण इस बीमारी को रोकने में बहुत कारगर है।" दूसरे शब्दों में कहें तो इस बीमारी को रोकने के लिए हमें पहले ही सभी संसाधनों का उपयोग करना चाहिए था।
लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः
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