मोदी को एलीट एनआरआई स्वदेशी प्रवासियों से ज़्यादा पसंद हैं
कुछ वर्षों पहले जब मैंने जर्मनी में एक सम्मेलन में इंडियन गेस्ट वर्कर्स (भारतीय अतिथि श्रमिकों) पर जारी अपने डॉक्टोरल शोध को प्रस्तुत किया तो मेरे कई साथी चकित हो गए। ‘अतिथि श्रमिक’ कौन हैं? अतिथि श्रमिक वह होता है जो एक अस्थिर समूह का हिस्सा होता है जो कुछ वर्षों के लिए एक स्थान पर काम करता है फिर किसी अन्य स्थान या देश में चला जाता है।
जर्मन के संदर्भ में 'अतिथि श्रमिक' एक उपयोगिता से भरा शब्द है। युद्ध के बाद की अवधि में जर्मनी ने राष्ट्र निर्माण में योगदान देने के लिए तुर्की के लोगों को बुलाया था। इन लोगों ने उन्हें 'अतिथि श्रमिक' कहा। इनमें से अधिकांश श्रमिक मैनुअल कार्यों (दस्ती कार्य) में लगे थे।
हालांकि अपने शोध में मैंने भारत के उच्च पदों पर कार्य करने वाले आईटी, वित्त और बैंकिंग पेशेवरों का उल्लेख किया जो जर्मनी में उस अस्थिर समूह के हिस्से के रूप में काम कर रहे हैं जिसे समाजशास्त्री एन. जयराम ने"सोजर्नर्स" शब्दावली दिया है। मेरे शोध पर कई टिप्पणियों में से एक यह था कि उच्च पदों के इन पेशेवरों को उल्लेख करना अधिक उचित है - सबसे पहले ये कि जर्मनी में तुर्की प्रवासियों के विपरीत, ये कोई दस्ती श्रमिक नहीं हैं; दूसरी चीज उन्हें ’अतिथि श्रमिक’ की तुलना में अधिक बौद्धिक रुप से प्रभावशाली शब्द में वर्गीकृत किया जाना चाहिए।
फिर भी, मैं मूल शब्द से ही बंधा रहा क्योंकि अपने शोध के माध्यम से मैंने यह साबित किया कि वे सस्ते श्रम के अंतर्राष्ट्रीय प्रवास का हिस्सा नहीं हैं। उनका कार्यस्थल पर होने वाला शोषण कुछ अलग हो सकता है लेकिन कोई कम नहीं था और उन्होंने 'आत्म-बहिष्कार' ही अपनाया।
हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में भारत 'पश्चिम' की ओर जाने वाले मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के उच्च पदों के श्रमिकों, पेशेवरों, छात्रों और कलाकारों (जो अस्थायी रूप से अपने परिवारों को छोड़ कर जा रहे है) के भारी संख्या में विदेशों में प्रवास करने वाले अग्रणी देशों में से एक है। ये अंतरराष्ट्रीय प्रवासी हैं जो स्थान, सपने और भेजे हुए रकम साझा करते हुए 'होम’ और 'होस्ट’ के बीच यात्रा करते रहते हैं और भारत के विदेशी-प्रेमी प्रधानमंत्री के लिए सक्रिय रूप से खुश होते हैं।
इनमें से कई संयुक्त राज्य अमेरिका या यूनाइटेड किंगडम या कनाडा में पहले से ही सभी भारतीय (हिंदू पढ़ें)प्रवासी लोगों में अत्यधिक सक्रिय हैं। वे ऐसे लोग हैं जो प्रधानमंत्री दुनिया भर में प्रवासी भारतीयों को प्रभावित करने के लिए यात्रा करते हैं। प्रत्यक्ष हिंदुत्व प्रभुत्व के साथ ये भारतीय सबसे बड़े योगदानकर्ता हैं और उभरते हुए नव-उदारवादी बाजार के उपभोक्ता हैं, जो स्वदेश के भावनात्मक नौटंकी में फंस गए हैं।
प्रवासी हिंदू भारतीय प्रधानमंत्री के सबसे बड़े चीयरलीडर्स होने के साथ-साथ उनकी पार्टी भाजपा के लिए उदार दानदाता भी हैं। नतीजतन, मोदी ने विशेष रूप से व्यवस्थित हवाई विमानों में उन सभी को "देश"वापस लाने से पहले पलकें तक नहीं झपकाई क्योंकि कोविड -19 महामारी कई देशों में फैलने लगी थी। काफी आवश्यक था। लेकिन उनके लौटने के बाद क्या हुआ?क्या उनका जांच किया गया? क्या उन्हें आइसोलेट किया गया? क्या आवश्यकता होने पर उनका क्वारेंटीन किया गया? अगर जवाब 'हां’ है तो हमें सिर पर आए हुए कयामत के बारे में नहीं सोचना चाहिए जो इस वायरस का सामुदायिक संक्रमण आज 1.3 बिलियन भारतीयों के लिए खतरा है।
फिर भी, प्रधानमंत्री का दिल अभी भी इन प्रवासियों के लिए ही है और उन्होंने उनकी मदद करने का इरादा किया है।
ये प्रवासी देश वापस आ गए, कुछ घूमते रहे, कुछ देश में रुके, कुछ चले गए। इस बीच हम सभी ने 22 मार्च को ताली बजाई और उछल कूद किया। फिर प्रधानमंत्री ने पूरे देश में 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा कर दी। लेकिन इम सब के बीच, उन्होंने प्रवासियों की एक अन्य श्रेणी को भुला दिया जिसे हम सहयोगियों के रूप में देखते हैं और दैनिक मजदूर कहकर बुलाते हैं। वे निम्नवर्गीय श्रमिक हैं जो गरीब और कमजोर हैं जिनका संख्या काफी ज्यादा है। वे वही हैं जिन्हें हम कम प्रभाव वाली श्रेणी कह सकते हैं।
इस सब के बावजूद, वे भी प्रवासी हैं।अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों की तरह, ये लोग भी एक अस्थिर समूह का निर्माण करते हैं जो अंतर-क्षेत्रीय हैं। अनौपचारिक क्षेत्र से संबंधित होने के कारण इन्हें कभी समाज में कोई प्रभावी एजेंसी नहीं मिली है, हालांकि ये शहर और गगनचुंबी इमारतों का निर्माण करने वाले लोग हैं। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री उनके बारे में भूल गए, क्योंकि वे धनी नहीं हैं, उनके पास अनौपचारिक पीआर को ले जाने के लिए पैसे नहीं हैं जो प्रवासी लोग उनके लिए करते हैं।
इसलिए, जब अंतरराष्ट्रीय उच्च पदों पर आसीन प्रवासियों को विशेष विमानों में देश वापस लाया गया तो इसी समय अंतर-क्षेत्रीय मजदूर प्रवासियों को दिल्ली से केरल, मुंबई से बिहार, हैदराबाद से वाराणसी तक वजन ढ़ोते हुए बच्चों के साथ पैदल जाना पड़ रहा है। ये कई दिनों से भूखे रहे और उनकी जेब में कोई पैसे भी नहीं हैं।
नव-उदारवादी समाजों में जो जाहिर तौर पर अलग थलग पड़ रहे हैं, क्योंकि हमने कोविड-19 को हर गुज़रते दिन के साथ करीब से देखा है कि नागरिकों के अधिकार सबसे बड़े मजाक के तौर पर उभर कर सामने आ रहे हैं। हालांकि कई आप्रवासी चुनावों के दौरान वोट डालने के लिए भारत में कभी नहीं होंगे जबकि गरीब प्रवासी हमेशा यहीं रहेंगे और वोट डालेंगे। वोट बैंकों के नज़रिए से देखें तो मज़दूर वर्ग ट्रांस-रीजनल प्रवासी उच्च पदों पर काम करने वाले अपने समकक्षों की तुलना में अधिक स्थिर हैं। इसके बावजूद, प्रधानमंत्री एक वर्ग के साथ खड़े रहे और दूसरे वर्ग को छोड़ दिया। उन्होंने स्थिर वोट बैंक को लेकर अंतर्राष्ट्रीय पीआर को चुनाव किया था। जबकि दोनों प्रवासी हैं- वे शायद ही समान हैं। दिलचस्प बात यह है कि अब केरल सरकार गरीब प्रवासियों को अतिथिश्रमिक के रूप में बुला रही है और उनके लिए खाना पीना और आश्रय का इंतजाम कर रही है। क्या ये आप्रवासी इस विकल्प की सराहना करेंगे?
हमारे प्रधानमंत्री के संरक्षण में ये कुलीन उच्च पदों पर आसीन अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों ने भारत में ये वायरस लाया, और गरीब अंतर-क्षेत्रीय प्रवासी मजदूरों को ये वायरस दे दिया, जबकि ये सब उन्होंने केवल देखा और मध्य वर्ग ने ताली बजाई। भारत जैसे समाज में स्थिति के अनुकूल यह अब प्रवासी बनाम प्रवासी हो गया है।
लेखक कोलोग्ने विश्वविद्यालय के ग्लोबल साउथ स्टडीज़ सेंटर में जेंडर एंड माइग्रेशन पढ़ाती हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।
अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं
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