डि-डॉलराइज़ेशन : अभी तक बातें अधिक, वास्तविकता कम
अंतर्राष्ट्रीय तनाव की हर घटना के वक्त वैश्विक पेमेंट सिस्टम व रिजर्व करेंसी में डि-डॉलराइजेशन संबंधी अटकलें शुरू हो जाती हैं। डॉलर द्वारा पॉउंड की जगह विश्व व्यापार एवं रिजर्व की प्रभावी करेंसी बनने के वक्त से ही डि-डॉलराइजेशन की ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं। 1970 के दशक में जापानी येन और 1990 के दशक में यूरो द्वारा डॉलर को प्रतिस्थापित कर देने की चर्चाएं खूब चलीं। यूक्रेन में रूस-नाटो युद्ध के बाद डि-डॉलराइजेशन, और चीनी रेनमिनबी (युआन) द्वारा इसकी जगह लेने की संभावना फिर से चर्चा में आई है।
किंतु समस्त प्रयासों व चर्चाओं के बावजूद अभी तक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, भुगतान व रिजर्व में डॉलर की स्थिति में मामूली अंतर ही पड़ा है। दरअसल जिस महत्वपूर्ण चीज को नजरअंदाज किया जा रहा है वह यह कि प्राकृतिक विज्ञानों की ही तरह राजनीतिक अर्थतंत्र भी किसी की मर्जी से नहीं, कुछ वस्तुगत नियमों से संचालित होता है। इसमें बदलाव भी इन वस्तुगत नियमों से ही होता है। चीन, भारत, रूस जैसे बडे़ देश भी अर्थतंत्र को अपनी इच्छा मात्र से नहीं बदल सकते। अतः डि-डॉलराइजेशन के लिए भी जानना जरूरी है कि वह कौन से कारण हैं जिनकी वजह से डॉलर या कोई अन्य करेंसी अंतर्राष्ट्रीय भुगतान व रिजर्व करेंसी के रूप में जगह बनाती है। किसी नई करेंसी को डॉलर का स्थान लेने के लिए इन शर्तों को पूरा करना होगा।
दो विश्वयुद्धों के जरिए अमेरिका सर्वप्रमुख अर्थव्यवस्था बना था। प्रमुख देशों में मात्र वही युद्ध के विध्वंस से अछूता रहकर अन्य देशों के लिए हथियारों व अन्य मालों का आपूर्तिकर्ता बना रहा था। अतः सभी देश उसके कर्जदार थे। युद्ध पश्चात पुनर्निर्माण के लिए भी सभी देशों को पूँजी अमेरिका से ही प्राप्त हुई। अमेरिका से डॉलर में कर्ज लेने के बाद सभी देशों के लिए पहले डॉलर खर्च करना, फिर कर्ज चुकाने हेतु डॉलर अर्जित करना आवश्यक था। अतः डॉलर का अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन की करेंसी बन जाना स्वाभाविक था। दूसरे, डॉलर ही पूर्णतः निर्बाध परिवर्तनीय मुद्रा है। डॉलर के खरीदने व बेचने में कोई बाधा नहीं रही है। 1971 तक गोल्ड स्टैंडर्ड के अंतर्गत अमेरिका डॉलर के बदले बिना शर्त निश्चित दर पर सोना देने की गारंटी देता था। अतः अन्य किसी करेंसी के मुकाबले डॉलर लेना और रखना सर्वाधिक निरापद व सुरक्षित था। अन्य करेंसी के लेन -देन में कई शर्तों को पूरा करना पड़ता है क्योंकि वे पूर्ण परिवर्तनीय नहीं हैं। सर्वप्रमुख अर्थव्यवस्था बन जाने से किसी भी संकट की स्थिति में अपनी संपत्ति को अमेरिका में रखना सबसे सुरक्षित था। माना जाता था कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था ही सबसे बाद में डूबेगी। अतः सभी अपनी संपदा को डॉलर में बदल अमेरिकी निजी या सरकारी ट्रेजरी बॉंडस में रखना जोखिम रहित समझते थे। इन सब वजहों से डॉलर विश्व में लेन-देन व मूल्य के भंडार (रिजर्व करेंसी) के तौर पर सर्वाधिक वांछित मुद्रा बन गया।
अमेरिका के लिए यह लाभकारी स्थिति है। डॉलर के इतने खरीदार होने से अमेरिका के लिए असीमित मुद्रा प्रसार या नोट (डॉलर) छापना संभव हो गया। अन्य किसी देश के ऐसा करने पर उसकी मुद्रा तुरंत गिर जाती। लेकिन डॉलर की ऊंची मांग से मुद्रा प्रसार के बावजूद भी वह एक मजबूत मुद्रा के तौर पर कायम है। इससे अमेरिका दोहरा घाटा झेल पाने में समर्थ है - एक, विदेश व्यापार अर्थात आयात-निर्यात का घाटा; और, दूसरा, खर्च की तुलना में राजस्व के कम होने से होने वाला वित्तीय घाटा। लब्बोलुआब यह कि अपने वित्तीय घाटे के लिए वह असीमित कर्ज लेने की स्थिति में है। लेन-देन में डॉलर के हर प्रयोग का एक चरण अमेरिकी बैंकों से गुजरता है। इससे उसे आय तो होती ही है, वह इसे हथियार के तौर पर भी इस्तेमाल करता है। अमेरिका दूसरे देशों पर प्रतिबंध लागू कर सकता है क्योंकि वह दुनिया की कंपनियों व बैंकों का कारोबार रोकने व उन पर जुर्माना लगाने में समर्थ है। किंतु कई छोटे देशों के करेंसी रिजर्व के बाद रूस के रिजर्व को जब्त करने से दुनिया भर के देश चौकन्ने हो गए हैं।
अतः डि-डॉलराइजेशन के प्रयासों की वजह बहुत स्पष्ट है। चीन-रूस-इरान जैसे अमेरिका विरोधी खेमे के देश ही नहीं भारत, तुर्की, ब्राजील, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, आदि उभरते पूंजीवादी देश भी अमेरिका द्वारा अपने आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप की अमेरिका की शक्ति को समाप्त या कम करनें में दिलचस्पी रखते हैं। लेकिन ऐसा होने की निकट संभावना कितनी है और इसमें क्या बाधाएं हैं, इसे इच्छा के बजाय वास्तविक आर्थिक कारणों के आधार पर जाँचना जरूरी है।
सैद्धांतिक व तकनीकी तौर पर विभिन्न देश परस्पर व्यापार में कोई भी मुद्रा इस्तेमाल कर सकते हैं। जब तक उनका परस्पर आयात-निर्यात मूल्य बराबर है अर्थात भुगतान संतुलन है तब तक तो वे एक काल्पनिक मात्र हिसाब-किताब के लिए गढ़ी गई मुद्रा आधारित व्यवस्था भी चला सकते हैं क्योंकि दोनों ओर के निर्यातकों को अंतिम भुगतान अपनी ही मुद्रा में मिलता है। दोनों देशों के कुल अकाउंट किसी भी वास्तविक या काल्पनिक इकाई में सेटल किए जा सकते हैं। लेकिन वास्तविकता में भुगतान संतुलन होता नहीं है, अतः वैलपिक व्यवस्था की आवश्यकता होती है। आज डॉलर यही वैकल्पिक रूप से सार्विक स्वीकृत व्यवस्था होने के कारण बहुत से देशों द्वारा इसे न चाहते हुए भी प्रयोग में लेना पड़ रहा है और जब तक दूसरी कोई मुद्रा इस शर्त को पूरा करने की स्थिति में न हो तब तक यह स्थिति बदलेगी नहीं।
इसी का उदाहरण मोदी सरकार व भारतीय मीडिया में रुपये में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की जोरों की चर्चा का खोखलापन है। वास्तविकता जाहिर हो गई जब जी20 विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान रूसी विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव ने सवालों के जवाब में बोल ही दिया कि रूस के वोस्ट्रो खातों में बहुत रुपया इकट्ठा है जिसका रूस उपयोग नहीं कर सकता। इसे किसी तीसरी करेंसी में बदलना होगा। यूक्रेन में युद्ध के बाद भारत की दो निजी कंपनियां रुस से भारी पेट्रोलियम का आयात कर रही हैं। इसका भुगतान रूसी बैंकों के भारतीय बैंकों में रुपया वोस्ट्रो खातों में इकट्ठा हो रहा है। रूस भारत से बहुत थोड़ा आयात करता है। उसका भुगतान वोस्ट्रो खातों में जमा रुपयों से होता है। लेकिन उनमें शेष रकम का बड़ा बैलेंस इकट्ठा हो गया है। रूस किसी और देश को आयात के बदले भी रुपये में भुगतान नहीं कर सकता क्योंकि भारत के अधिकांश निर्यात अमेरिका/यूरोप को होते हैं। अतः यह अधिक समय तक चलने वाली व्यवस्था नहीं है और इन रुपयों को किसी ऐसी तीसरी करेंसी में बदलना होगा जिससे रूस आयात कर सके। किंतु पेट्रोलियम रिफाइन कर बने डीजल-पेट्रोल को भारत से अमेरिका/यूरोप को निर्यात कर डॉलर/यूरो में भुगतान मिल रहा है। अब दो ही विकल्प हैं - रूस को डॉलर में भुगतान या डॉलर से रूसी पसंद की मुद्रा खरीदकर भुगतान। दोनों ही स्थितियों में भारत-रूस व्यापार में डॉलर आ जाता है।
अब हम इस सवाल पर आते हैं कि दुनिया की दूसरे नंबर की आर्थिक महाशक्ति चीन की मुद्रा युआन इस वक्त डॉलर का स्थान लेने में क्यों कामयाब नहीं हो पा रही है। बुनियादी सिद्धांत पर जायें तो व्यापार का अर्थ है समान मूल्य का विनिमय। उदाहरणार्थ, कोयला या गेहूं के बदले समान मूल्य ऐसी मुद्रा में प्राप्त करना जिससे जरूरत का माल आयात किया जा सके। लेकिन खरीदने वाला वही दे सकता है जो उसके पास हो। अर्थात माल बेचने वाला खरीदने वाले की करेंसी प्राप्त करता है। इस करेंसी को देकर बदले में वस्तुएं प्राप्त करता है। वस्तु (सेवा सहित) के बदले करेंसी, यह बुनियादी बात है। इस स्थिति में किसके पास किसकी करेंसी इकट्ठा होगी? निश्चय ही आयातक की करेंसी निर्यातक के पास इकट्ठा होगी अगर वह समान मात्रा में वस्तुओं/सेवाओं का आयात नहीं करे। चीन नेट निर्यातक देश है। अतः उसके पास आयातक देशों की डॉलर, यूरो जैसी करेंसियां फ़ॉरेन रिजर्व के तौर पर इकट्ठा हैं या उन्हीं देशों को कर्ज दी हुईं हैं अर्थात उनके ही बैंकों में जमा हैं। इसीलिए चीन, रूस जैसे निर्यातक देशों के पास बडे़ फॉरेन करेंसी रिजर्व हैं जो अमरीकी यूरोपीय बैंकों में जमा हैं।
इस वस्तुस्थिति की समझ के बाद कुछ विश्लेषक सोने द्वारा डॉलर का स्थान लेने की बात करते हैं। यूक्रेन युद्ध के बाद रूस, चीन, भारत एवं अन्य देशों के केंद्रीय बैंकों ने डॉलर के बजाय सोने की खरीदारी बढ़ाई है। इससे इस चर्चा को बढ़ावा मिला है। किंतु कोई भी समझ सकता है कि आज की तीव्र गति से चलने वाली व्यापार व भुगतान व्यवस्था में सोना तो क्या कागजी मुद्रा भी काम नहीं करती क्योंकि अभी दिनों के बजाय मिनटों-सेकंडों तक में पूंजी की राष्ट्रीय सीमाओं के परे गति लाभ-हानि में फरक डालती है। एक ही उदाहरण काफी है। भारतीय रिजर्व बैंक ने अभी जो 700 टन से अधिक सोना अपने रिजर्व में इकट्ठा किया है उसमें से 400 से अधिक टन लंदन व स्विस बैंकों की वॉल्ट में ही रखा है। सिर्फ उस पर मालिकाना दावा रिजर्व बैंक के नाम ट्रांसफर हुआ है। इतनी बड़ी मात्रा में सोने को बार-बार तो क्या एक बार भी भौतिक रूप से लाना मुमकिन नहीं है। और अगर यह यूरोप के बैंक में ही है तो सोना या डॉलर-यूरो से दाम बढ़ने-घटने से लाभ-हानि में तो अंतर हो सकता है यह वैश्विक अर्थतन्त्र या जिओ पॉलिटिक्स में कोई फर्क पैदा नहीं करता।
जब तक चीन नेट निर्यातक और अमेरिका वित्तीय पूंजी का एकाधिकारी केंद्र होने के नाते नेट आयातक है, डॉलर ही प्रधान रिजर्व करेंसी बना रहेगा और तकनीकी रूप से वैकल्पिक भुगतान व्यवस्था मौजूद होते हुए भी युआन डॉलर सिस्टम की जगह नहीं ले सकता। हाँ, विभिन्न देशों का परस्पर व्यापार जिस हद तक संतुलित है वहाँ उसकी इन्वॉयसिंग व भुगतान में डॉलर के स्थान पर युआन, रूबल, रुपया, रियाल, दीनार आदि करेंसियों का उपयोग बढ़ सकना न सिर्फ मुमकिन है, बल्कि तेजी से बढ़ भी रहा है। अमेरिका व पश्चिमी खेमे के बाहर के देशों के बीच परस्पर व्यापार जितना बढ़ेगा उतना इन करेंसियों का प्रयोग बढ़ेगा। किंतु वह एक धीमी प्रक्रिया है। उससे तुरंत वैश्विक व्यवस्था नहीं बदलेगी।
क्या इस स्थिति में परिवर्तन संभव ही नहीं है? परिवर्तन बिल्कुल संभव है। किंतु उसके लिए चीन को वित्तीय पूंजी व जिओ पॉलिटिक्स में अमेरिका को प्रतिस्थापित करना होगा। उसे विश्व के बहुत से देशों के लिए पूंजी आयात का स्रोत बनना होगा। उसे युआन को पूर्णतः परिवर्तनीय बनाना होगा। बेल्ट एंड रोड़ योजना और विभिन्न देशों को बढ़ते चीनी ऋण इसी नीति का एक अंग है। किंतु यह चीनी अर्थव्यवस्था को ठीक उसी आर्थिक संकट व बाजार उतार-चढ़ाव का शिकार भी बना देगा जिसे पूंजी व मुद्रा पर नियंत्रण के जरिए चीन ने कुछ हद तक रोक कर रखा है। दूसरे, इतिहास बताता है कि पूंजी निर्यात व ऋण के पीछे वसूली के लिए व पहले से स्थापित ऋणदाताओं के साथ होड़ हेतु सैन्य शक्ति की होड़ में भी शामिल होना जरूरी होता है। यह होड़ अवश्यंभावी है। चीन, व रूस, की आर्थिक चुनौती के समक्ष अमेरिका-नाटो द्वारा पेश की जा रही सैन्य चुनौती व वैश्विक युद्ध की स्थिति इसी का नतीजा है। ब्रिटिश पाउंड ने विश्व में अपनी प्रधानता औपनिवेशिक विजयों से कायम की थी। दो विश्व युद्धों का के नतीजे में डॉलर ने पाउंड की जगह ली थी। अब युआन द्वारा डॉलर की जगह लेने की अनुमति भी अमेरिकी व पश्चिमी वित्तीय पूंजी सैन्य जोर आजमाइश के बगैर कभी नहीं देगी।
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