दिवाली, पटाख़े और हमारी हवा
कुछ वर्षों पहले तक दिल्ली में भी दिवाली के आस-पास ठंड पड़ने लगती थी। स्वेटर और शाल निकल आते थे, धूप सुहानी लगने लगती थी। लेकिन अब हर वर्ष दिवाली के बाद से दिल्ली से निकलने का मन करने लगता है, क्योंकि दिल्ली की सरदी अब मस्ती नहीं लाती बल्कि घुटन पैदा करती है और साँस के रोगियों के लिए काल बन जाती है। अब हर दिवाली के कुछ दिन पहले से ही हवा में धूल के कण फैलने लगते हैं। इसकी वज़ह है, मौसम में हल्की-सी खुनक और मंदा मौसम होने से ये धूल के कण ऊपर उठ नहीं पाते, दूसरे दिवाली के करीब लोगों की चहल-पहल और आवाजाही बढ़ने लगती है इसलिए गाड़ियों का प्रदूषण भी हवा में भरता है। फिर बिजली की झालरें, मिठाईयों की खपत, धान के पुलाव (पराली) को जलाया जाना और दशहरे से ही पटाखों की धमक हवा को ज़हरीला बना देता है। गर्मी हो तो धूल ऊपर को उठेगी और मौसम खूब ठंडा हो तो धूल नीचे जम जाएगी। मगर यदि मौसम बीच का हो यानी न ज्यादा गर्म न ज्यादा ठंडा तो धूल के ये कण मनुष्य की ऊँचाई तक उठ जाएंगे और नासिका छिद्रों के ज़रिये उसके शरीर में प्रवेश कर बीमारियाँ फैलाएंगे। यही कारण है कि इन दिनों गले में खुश्की तथा खांसी-ज़ुकाम के मरीज़ बढ़ने लगते हैं।
पाँच वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में पटाखों पर रोक लगा दी थी लेकिन इस साल एक नवम्बर को उसने पटाखों के पूर्ण प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया। दरअसल कोलकाता हाई कोर्ट ने काली पूजा, दिवाली, छठ पूजा, जगद्धात्री पूजा, गुरु नानक जन्मदिवस, क्रिसमस और न्यू ईयर समेत सभी त्योहार के दौरान पटाखों पर बैन लगाने का फरमान सुनाया था। जस्टिस एएम खानविलकर और अजय रस्तोगी की विशेष पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही उन पटाखों पर बैन वाला आदेश पारित कर चुका है जिसमें प्रदूषण फैलाने वाली सामग्री इस्तेमाल होती है। सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि पटाखों पर पूरी तरह बैन नहीं लगाया जा सकता है। बेंच ने अपने फैसले में प्रमाणित ग्रीन पटाखे उन क्षेत्रों में बेचने और फोड़ने की अनुमति दी है जहां हवा की गुणवत्ता 'अच्छी' या 'मध्यम' है।
सुप्रीम कोर्ट की विशेष पीठ ने पश्चिम बंगाल सरकार को यह सुनिश्चित करने की संभावनाएं भी तलाशने के लिए कहा कि प्रतिबंधित पटाखों और उससे संबंधित सामान का राज्य में प्रवेश केंद्र पर ही आयात नहीं हो। सुप्रीम कोर्ट की यह पीठ हाई कोर्ट के 29 अक्टूबर के उस फैसले के खिलाफ याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी जिसमें उसने राज्य में सभी तरह के पटाखों की बिक्री, इस्तेमाल और खरीद पर प्रतिबंध लगा दिया था।
दशहरा या दिवाली पर पटाखे फोड़ने का कोई भी धार्मिक विधि-विधान नहीं है लेकिन जिनके पास अतिरिक्त धन है, उनको दिवाली पर पटाखों को फोड़ने में आनंद मिलता है। शायद इस तरह वे अपने वैभव का प्रदर्शन करते हों। यह एक तरह की कुंठा है और दूसरों के प्रति उपेक्षा का भाव भी। पटाखे चाहे बारूद भरे हों या हल्के, वे प्रदूषण तो फैलाएँगे ही। यही कारण है कि अब हर साल दिवाली में प्रदूषण का स्तर खतरे की सीमा पार कर जाता है लेकिन कोई भी इसके दुष्परिणाम के बारे में नहीं सोचता।
दिल्ली सरकार ने दिल्ली प्रदूषण निवारण बोर्ड के निर्देश पर अमल करते हुए एक जनवरी 2022 तक पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। किंतु अकेले दिल्ली में प्रतिबंध से कुछ असर नहीं पड़ेगा क्योंकि उसके पड़ोस में यूपी का नोएडा और गजियाबाद है तथा हरियाणा का फ़रीदाबाद और ग़ुरुग्राम। अगर इन सब स्थानों पर रोक नहीं लगी तो इस प्रयास के बहुत फ़ायदे नहीं मिलेंगे।
यह एक फ़ालतू डर है कि दिवाली पर पटाखों पर रोक लगाने से हिंदू नाराज़ हो जाएँगे, क्योंकि अधिकतर हिंदू लोग ही पटाखों के विरोधी हैं। दरअसल सरकार ने फ़र्ज़ी हिंदू संगठनों या बाबाओं को हिंदू धर्म का पर्याय मान लिया है। यह सरकार स्वयं हिंदू समाज को संकीर्ण और आधुनिक मूल्यों के विरुद्ध बनाने पर तुली है। अकेले पटाखे ही नहीं प्रदूषण रोकने के लिए दिवाली के आसपास ख़रीददारी के लिए बाज़ारों में जुटाने वाली अनावश्यक भीड़ और दूषित मिठाई की खपत पर भी रोक लगानी अनिवार्य है।
दिल्ली और उसके आसपास प्रदूषण की एक वज़ह निर्माण-कार्य और गाड़ियों का परिचालन है। यूँ भी कानपुर आईआईटी ने 2016 में एक रिसर्च की थी जिसके अनुसार निर्माण-कार्यों की धूल सर्वाधिक हानिकारक है। खासकर सीमेंट से उड़ने वाली धूल। इसके बाद है गाड़ियों का धुआँ। किंतु दिवाली के क़रीब से ही बाज़ारों में चहल-पहल शुरू हो जाती है। बाज़ारों में पार्किंग की जगह नहीं है। सड़क पर खड़ी गाड़ियाँ ट्रैफ़िक की आवाजाही को बाधित करती हैं। नतीजा प्रदूषण में वृद्धि।
दिवाली पर पटाखों की बिक्री पर रोक का दिल्ली में तो सकारात्मक असर हुआ है। लेकिन पड़ोसी ज़िलों में पटाखे चले जिस वज़ह से धनतेरस के बाद से वायु प्रदूषण बढ़ा है। पिछले साल कोरोना के कारण पटाखों पर ये आंकड़े बता रहे हैं कि एक भी पहल अनियंत्रित होते प्रदूषण को काबू में कर सकता है। अगर गाड़ियों के परिचालन और निर्माण कार्यों में भी कुछ अंकुश लगाया जाए तो दिल्ली के आसपास के प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकता है। मसलन निर्माण-कार्यों को या तो रात के वक़्त करवाया जाए अथवा परदे की ओट में. इससे कम से कम धूल तो नहीं उड़ेगी। इसी तरह गाड़ियों के परिचालन पर अंकुश लगाया जाए। खासकर पीक आवर्स में. जैसे लन्दन में प्रवेश करने पर गाड़ियों को भरी टैक्स देना पड़ता है, इसी तरह कुछ किया जाए। इससे धुआँ नहीं बढेगा। त्योहारों के समय तो इस पर और सख्ती से रोक होनी चाहिए। वर्ना दिल्लीवासियों में फ़ैल रही सांस की बीमारियों पर अंकुश पाना मुश्किल होता जाएगा।
यह कम हैरान करने वाली बात नहीं है कि दिल्ली का हर दसवां व्यक्ति ब्रोंकाइटिस की बीमारी से कहीं न कहीं पीड़ित है। यह ब्रोंकाइटिस फेफड़ों को जाम कर देता है और टीबी समेत असंख्य बीमारियों की जड़ है।
मुझे याद है इसी दिल्ली में बसने के लिए जब 1983 में मैं आया था तब शाम छह के बाद दिल्ली का आईटीओ इलाका सूना हो जाया करता था। मैं तब लोदी कालोनी रहता था और वहां के लिए 26 एवं 21 नम्बर की बस पकडनी होती थी। मेरा आफिस चूँकि बहादुरशाह ज़फर मार्ग पर था इसलिए मैं आईटीओ के ठीक पहले वाले स्टॉप खूनी दरवाज़ा से बस पकड़ता था। अगर आते-आते छह बज गए तो अगली बस के लिए आधा घंटे का इंतजार करना पड़ता था। इस बीच सड़क पर भयावह सन्नाटा छा जाया करता था। लेकिन आज आलम यह है कि खूनी दरवाज़ा से लेकर आईटीओ तक कारें ही कारें खड़ी रहती हैं। समझ नहीं आता कि पैदल भी कहाँ से गुजरा जाए। तब दिल्ली की सीमा बस जमना पार कड़कड़ी मोड़ से ख़त्म हो जाती और धौलाकुआँ से गुड़गांव (गुरुग्राम) की बस मुश्किल से मिलती थी। वह दिल्ली आज गाज़ियाबाद के डासना से गुरुग्राम के आगे राजस्थान के भिवाड़ी कसबे तक फैली है।
दिल्ली का मतलब आज केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली ही नहीं बल्कि यूपी के गाज़ियाबाद और नोएडा तथा हरियाणा का फरीदाबाद, गुरुग्राम, बहादुरगढ़ और सोनीपत वृहत्तर दिल्ली के हिस्से हैं।
आज इन सब इलाकों के लोग यहाँ पढ़ने आते हैं, नौकरी करने आते और जीवन के अन्य रोज़मर्रा के कार्यों के लिए आवा-जाही करते हैं। जब दिल्ली की आबादी बढ़ी तो यहाँ प्रदूषण का स्तर तो बढ़ेगा ही। उद्योग, व्यापार और नौकरियां दिल्ली में हैं। अगर नौकरी सहजता से पानी है तो दिल्ली आओ। इसी तरह उद्योग-धंधे तथा व्यापार में सफलता हासिल करनी है तो दिल्ली. इसके अलावा यह एक अकेला ऐसा शहर जहाँ के स्कूल अच्छे हैं, जहाँ स्वास्थ्य सेवाएं अच्छी हैं। ऐसे में भीड़ दिल्ली नहीं आएगी तो कहाँ जाएगी?
यही दिल्ली का सौभाग्य है और यही दिल्ली का दुर्भाग्य कि सब कुछ दिल्ली में ही केन्द्रित है। तीस साल पहले तक ऐसा नहीं था। तब मुंबई, कोलकाता, पटना, लखनऊ और कानपुर से पलायन नहीं होता था और लोगों को अपने शहर में ही बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध थीं। लेकिन अब सीन बदल गया है।
इसलिए दिल्ली के प्रदूषण पर काबू पाने के लिए दिल्ली पर आबादी का दबाव कम करना होगा, और फिर से अन्य शहर विकसित करने होंगे। इसके लिए आवश्यक है कि राजनीतिक लोग ही पहल करें। हालाँकि इस दिशा में मौजूदा सरकार की शुरुआती पहल सराहनीय थी, जब नरेंद्र मोदी सरकार ने स्मार्ट सिटी बनाने की बात की थी तब लगा था कि सरकार वाकई दिल्ली पर आबादी के बोझ को कम करना चाहती है। मगर स्मार्ट सिटी बनाने की दिशा में अभी तक कोई सार्थक पहल नहीं हुई है, ऐसे में यह कैसे मान लिया जाए कि निकट भविष्य में दिल्ली से आबादी का बोझ कम होगा। तब फिर प्रदूषण कैसे कम होगा! जब अलग-अलग क्षेत्रों के लोग आएँगे तब वे अपने-अपने त्योहार मनाएँगे, पटाखे फोड़ेंगे और दिल्ली में घुटन भरती ही जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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