बतकही : किसान आंदोलन में तो कांग्रेसी, वामपंथी घुस आए हैं!
आप हो आए, सिंघु बॉर्डर? पड़ोसी ने मुझे देखते ही बड़ी तीखी मुस्कान के साथ सवाल पूछा।
हां, मैं भी मुस्कुराया। और आप?
अरे भाई, न बाबा न। वहां किसान कहां हैं, एक भी तो किसान नहीं। सब कांग्रेसी, वामपंथी घुस आए हैं!
अच्छा, आपको बिना जाए ही पता चल गया!
हां-हां, गए नहीं तो क्या, टीवी तो देखते हैं। और वाट्सएप पर भी ख़बरें आती हैं? सब लाल झंडा-लाल झंडा ही दिख रहा है। सब विपक्षी दलों का खेल है।
अच्छा, हमें तो अफ़सोस है कि सभी पार्टियां क्यों नहीं खुलकर किसान आंदोलन के समर्थन में सड़क पर आ रहीं।
मतलब!,
अच्छा ये बताइए कि क्या आप चाहते हैं कि जब आपके घर में आग लगे तो केवल आप ही आग बुझाएं, कोई पड़ोसी आपकी मदद न करे?
पड़ोसी चकराए!, बोले- नहीं, आग किसी के घर में भी लगी हो, सभी को मिलकर बुझानी चाहिए, वरना तो वो पूरी कॉलोनी में फैल सकती है। आप तो शायर हैं। आपने नहीं सुना उस शायर राहत का शेर जिसकी अभी मौत हुई है-
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
पड़ोसी मुझे शेर सुनाकर मुस्कुराए। क्योंकि पहली बार उन्होंने मुझे सही शेर सुनाया था। मौके पर चौका मारने जैसी मुस्कान के साथ उन्होंने मुझे देखा।
मैंने कहा- वाह भई छा गए, यही तो मैं आपको कहना-समझाना चाहता था।
मतलब?, पड़ोसी की आंखें गोल घूम गईं
मतलब ये कि फिर आप क्यों चाहते हैं कि किसान ही किसान की लड़ाई लड़े, दूसरा कोई उसके साथ न आए।
पहली बात तो किसान ही हैं जो अपनी लड़ाई अपने बूते पूरी मजबूती के साथ लड़ रहे हैं, उन्होंने अपने मंच पर किसी राजनीतिक दल को जगह नहीं दी और दूसरी बात ये कि जब घर में आग लग गई है तो सबको ही साथ आना होगा। तभी तो आग बुझेगी।
आज खेती का संकट है, कल कर्मचारी का संकट होगा, परसो व्यापारी का संकट होगा। और होगा क्या! ये तो चल ही रहा है। नोटबंदी, जीएसटी, लॉकडाउन...लेबर कोड, कृषि क़ानून...अब तो संकट ही संकट है, तो इससे तो मिलकर ही निकलना होगा।
ये तो ठीक है। लेकिन इसमें राजनीतिक पार्टियों का क्या काम? पड़ोसी ने फिर फरमाया।
फिर राजनीतिक पार्टियों का क्या काम है? ज़रा ये भी बता दीजिए। मैंने आग्रह पूर्वक पूछा।
क्या केवल वोट लेकर राज करना। जनता की तरफ़ पलटकर भी न देखना!
पड़ोसी- हिचकिचाए। मेरा मतलब है कि किसान आंदोलन में राजनीतिक पार्टियों का क्या काम।
तो किसका काम होना चाहिए। आप ही बताइए। क्या कृषि कानून राजनीतिक सवाल नहीं!
ये तीनों कानून कहां पास हुए थे, मान्यवर। मैंने पड़ोसी से पूछा
संसद में...।
और संसद में कौन बैठता है, राजनीतिक पार्टियां।
तो फिर किसी कानून के सही-ग़लत होने से उनको क्यों नहीं सरोकार होना चाहिए। उनकी जवाबदेही क्यों नहीं होना चाहिए। पहली जवाबदेही सरकार की है, और जवाब से मुकरने पर जिम्मेदारी विपक्ष की है, कि वो सरकार की नकेल कसे।
हां, यह तो ठीक है, लेकिन ये बात तो उन्हें संसद में उठानी चाहिए थी।
और अगर संसद में सुनवाई न हो तो। जबरन बिना मतदान के ध्वनिमत से इतने महत्वपूर्ण कानून पास कर लिए जाए तो...। जब प्रश्नकाल स्थगित कर दिया जाए तो...। और अब तो शीत सत्र ही रद्द कर दिया गया है। तो जब संसद का सत्र ही न हो तो विपक्ष को किसके पास जाना चाहिए- जन संसद के पास। या नहीं! क्योंकि अंतत मालिक तो जनता ही है।
हां, वो तो है। पड़ोसी ने कहा।
अच्छा, जब 2014 से पहले महंगाई के मुद्दे पर, डीज़ल-पेट्रोल के मुद्दे पर, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी सड़क पर उतरती थी, तो आपको कैसा लगता था? कोई नेता आलू-प्याज़ की माला पहनकर प्रदर्शन करता था। कोई गैस सिलेंडर लेकर सड़क पर बैठ जाता था। कोई साइकिल चलाकर विरोध जताता था।
अच्छा लगता था। लगता था कोई तो है हमारी फिक्र करने वाला। जब हमसे वोट लेते हैं तो हमारे हक़ में बोलना भी तो उनका फ़र्ज़ है।
लेकिन अब आपको कांग्रेस या वाम दलों को लेकर ऐसी फीलिंग नहीं आती, क्यों?
हां, क्योंकि हमें लगता है कि अब तो देश का हित सोचने वाली पार्टी सत्ता में आ ही गई है, तो अब जो भी उसका विरोध करता है तो हमें लगता है कि देश का विरोध हो रहा है।
अच्छा....आपको 70 रुपये पेट्रोल के दाम हो जाने पर विरोध करने वाली पार्टी देशभक्त लगती थी, लेकिन 90 रुपये हो जाने पर विरोध जताना देशविरोधी लगता है!
30 रुपये आलू और 60 रुपये प्याज़ के दाम हो जाने पर आप कहते थे कि विपक्षी दल क्यों नहीं सड़क पर उतर रहे, लेकिन 50 रुपये आलू और 100 रुपये प्याज़ हो जाने पर कोई विरोध के लिए सड़क पर उतरे तो वो आपको देशद्रोही लगता है।
मैंने आपको पहले भी बताया है कि इसी को कहते हैं धारणा बनाना, छवि बनाना। यानी आपकी धारणा बना दी गई कि मोदी जी जो कर रहे हैं वो देशहित में है, और मनमोहन जो कर रहे थे वो देशविरोध में था। जबकि वे भी दो बार जीतकर प्रधानमंत्री बने थे। हालांकि ये सच है कि दोनों की ही नीतियां व्यापक देशहित में नहीं थीं। दोनों ही कॉरपोरेट परस्त हैं। दोनों ही नवउदारवाद के हामी। दोनो ही विश्व बैंक और विश्व व्यापार केंद्र (WTO) के गुलाम। कोई डंकल को बुलाता है, कोई अंकल को...।
अभी आपने नहीं सुना मोदी जी खुद कह रहे हैं कि जो क़ानून वो लाए हैं, वो तो कांग्रेस सरकार भी लाना चाहती थी।
बस कांग्रेस इतने क्रूर और नग्न रूप में कॉरपोरेट के पक्ष में नहीं उतरी थी, जितनी आपकी बीजेपी। कांग्रेस हमेशा एक बीच का रास्ता लेती थी। थोड़ा कॉरपोरेट, थोड़ा जनहित।
अब तो उतना होना भी कल्पना की बात लग रहा है। वो एक शेर का मिसरा है कि- वो हब्स है कि लू की दुआ मांगते हैं लोग। हब्स यानी घुटन। ऐसी घुटन कि लोग लू की दुआ मांगने लगे कि कुछ हवा तो चले। भले गर्म हवा।
इसी तरह अब तो हमारे देश में भी लोग कह रहे हैं कि हमें आपके अच्छे दिन नहीं चाहिए, आप हमारे पुराने बुरे दिन ही लौटा दो।
पड़ोसी मेरा मुंह ताक रहे थे।
ऐसे मत परेशान होइए। आप अभी तक देशहित नहीं समझ पाए। बस आपको तो समझा दिया गया है कि आरएसएस-भाजपा देशभक्त है और वामपंथी देशविरोधी हैं। जबकि उनका इतिहास ही अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने और मुखबिरी करने का रहा है। वामपंथी आपको ग़लत लगते हैं क्योंकि ये कल मज़दूर हड़ताल के साथ थे, आज किसान आंदोलन के साथ। क्या आप नहीं जानते कि देशहित का मतलब है देश की जनता के साथ खड़े होना। उसके दुख-सुख में साथ देना।
आप तब बड़े खुश होते थे जब 2014 से पहले राजनाथ सिंह कहते थे कि जहां भी किसान आंदोलन करेगा, वहां सबसे पहले राजनाथ सिंह खड़ा नज़र आएगा। तब आप उस भाषण पर ताली बजाते थे। वो आपके लिए देशद्रोह या किसानों को भड़काना नहीं लगता था।
जब सुषमा स्वराज कहती थीं कि आढ़ती बिचौलिये नहीं हैं, गांव के पारंपरिक एटीएम हैं, तब आपको बहुत अच्छा लगता था। जब जेटली जी कहते थे कि ये वालमार्ट देश को लूट लेगा तो आपको सच लगता था। जब मोदी जी कहते थे कि जीएसटी बुरा है। आधार बुरा है। तब आपको उनकी बात ठीक लगती थी। जब वे कहते थे कि कांग्रेस सरकार किसानों पर ध्यान नहीं दे रही है, जब वे एमएसपी को क़ानूनी गारंटी की मांग करते थे, तब वे क्या करते थे.... भजन या राजनीति!
तब आप कहते थे अगर किसान-मज़दूर के मुद्दे पर कोई नेता या पार्टी सड़क पर न उतरे तो उसे नाकारा और कॉरपोरेट का दलाल कहा जाना चाहिए। लेकिन अब आप इसके उलट सोचते हैं।
हां, आपकी सब बात ठीक हैं, लेकिन किसानों के आंदोलन में कांग्रेसी और वामपंथियों को नहीं घुसना चाहिए!
इसका मतलब आप चाहते हैं कि किसानों की लड़ाई अकेले किसानों को लड़नी चाहिए। मज़दूरों की लड़ाई मज़दूरों को, महिलाओं की लड़ाई महिलाओं को, बच्चों की लड़ाई बच्चों को और बुज़ुर्गों की लड़ाई बुज़ुर्गों को लड़नी चाहिए। किसी को एक दूसरे का साथ नहीं देना चाहिए।
नहीं, मैंने ऐसा तो नहीं कहा
तो फिर क्या कहा है। मैंने पहले ही बताया कि क्या आपके घर की आग बुझाने में दूसरों को सहयोग नहीं करना चाहिए। आपके बीमार होने पर पड़ोसी को मदद नहीं करनी चाहिए। आपके दुख-सुख में किसी दूसरे को शामिल नहीं होना चाहिए। यही कहना चाहते हैं आप।
नहीं...नहीं..पड़ोसी अकबकाए। मैं कहना चाहता हूं कि राजनीतिक रोटियां नहीं सेंकनी चाहिए।
जब आपकी मनमोहन काल में नौकरी गई तो आपने ही कहा था कि सरकार इन मालिकों के साथ मिल गई है। सभी विपक्षी दलों को इस सरकार और इन मालिकों की दादागिरी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए। कुछ नियम बनवाने चाहिए। आप चाहते थे कि आपके धरने-प्रदर्शन में सभी दलों के लोग आएं। और अभी भी जब लॉकडाउन के दौरान आपके बेटे की सैलरी 40 फ़ीसदी कम कर दी गई तो भी आप बहुत नाराज़ थे और चाहते थे कि सरकार को इन मालिकों पर नकेल कसनी चाहिए, इनका ऑडिट करना चाहिए। देखना चाहिए कि क्या वाकई में ये कंपनियां नुकसान में हैं। सरकार तक बात पहुंचाने के लिए आपने विपक्षी दल के विधायक और सांसद तक से एप्रोच किया था। लेकिन अब...
अगर ये विपक्षी दल आपके साथ आ जाते, तो क्या आप तब भी यही कहते कि ये राजनीतिक रोटियां सेंकने आए हैं।
नहीं...नहीं मैं कहना चाहता हूं...
आपको खुद नहीं पता कि आप क्या कहना चाहते हैं। अच्छा आप यह बताइए कि आप भले ही किसान नहीं, लेकिन अनाज तो आप भी खाते हैं या नहीं।
हां!
फिर जब अनाज पैदा करने वाले किसान पर उसकी खेती पर हमला हो रहा है तो आपको क्यों नहीं उसके साथ आना चाहिए।
नहीं...मेरा मसला और है, मैं तो जनता हूं, लेकिन इन लाल झंडे वालों को क्या मतलब है।
अच्छा, तो फिर ये किस मर्ज़ की दवा हैं। मतलब लाल झंडा क्या ऐलियन ने उठा रखा है। मतलब क्या ये जनता का हिस्सा नहीं। और जो जनता का हिस्सा नहीं उनकी ज़रूरत ही क्या है। इनका क्यों गठन किया गया है। आपको कुछ जानकारी है। और आपको ये भी मालूम है कि इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा में देशभर के 40 से ज़्यादा किसान संगठनों के प्रतिनिधि शामिल हैं। इससे पहले बनाई गई अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKCC) में क़रीब 250 से ज़्यादा किसान संगठन थे। जिनके अपने झंडे, बैनर और नेता हैं।
अच्छा आपने देखा कि इन लाल झंडों पर क्या लिखा है-
हां, किसी पर AIKS, AIKM AIAWU...
इनका मतलब जानते हो? AIKS का मतलब है ऑल इंडिया किसान सभा।
AIKM का मतलब है ऑल इंडिया किसान महासभा
AIAWU का मतलब है ऑल इंडिया एग्रीकल्चर वर्कर्स यूनियन
इसके अलावा और भी हैं- AITUC (एटक) यानी ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस, AICCTU (एक्टू) यानी ऑल इंडिया सेंट्रल कॉउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस, CITU (सीटू) सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस।
तो ये किसान-मज़दूर संगठन किसान-मज़दूरों के सवालों पर संघर्ष नहीं करेंगे, अपना लाल झंडा नहीं उठाएंगे तो कौन उठाएगा। और लाल रंग तो संघर्ष, बलिदान और क्रांति का प्रतीक है। इससे आपको इतनी एलर्जी क्यों। आपको मालूम है कि हर दल के किसान संगठन, मज़दूर संगठन, छात्र संगठन, सांस्कृतिक संगठन इत्यादि होते हैं। जो जनता के बीच काम करते हैं और जनता के सवालों को हल करते हुए अपने दल के पक्ष में व्यापक गोलबंदी करते हैं। कांग्रेस का भी मज़दूर संगठन है- INTUC (इंटक) यानी इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस।
अच्छा…! लेकिन भाजपा का तो कोई किसान संगठन नहीं!
अरे...आपको कुछ नहीं मालूम। भाजपा किस संगठन का राजनीतिक दल है? ये तो आपको पता है या नहीं?
हां, आरएसएस का। मतलब पितृ संगठन या वैचारिक अभिभावक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है।
और भारतीय किसान संघ
और भारतीय मज़दूर संघ
और स्वदेशी जागरण मंच
ये सब भी संघ से जुड़े हैं। जैसे बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद इत्यादि, ये सब उसके ही अनुषांगिक संगठन हैं।
तो फिर आप समझ गए कि आरएसएस की कितनी शाखाएं हैं। आरएसएस खुद को भले ही सांस्कृतिक संगठन कहता हो लेकिन उसके पास भी किसान, मज़दूर, छात्र संगठनों के साथ राजनीतिक दल भी है। जो आज सत्ता में है।
तो आपको एक सांस्कृतिक संगठन की राजनीति करना ठीक लगता है लेकिन एक राजनीतिक दल का राजनीतिक सवालों पर बोलना रोजनीतिक रोटियां सेंकना लगता है।
लाल झंडे वाले किसान-मज़दूर संगठन भले ही किसी वाम दल से जुड़े हों। लेकिन वे अपने तौर पर स्वायत्त हैं और उन्होंने किसान आंदोलन में अपनी स्पष्ट भूमिका ले रखी है। कोई दबाव या छिपाव नहीं है। जैसे भारतीय किसान संघ के सामने संकट है कि न वो पूरी तरह किसानों का विरोध कर पा रहा है, न समर्थन। विरोध करे तो किसानों के बीच बची-खुची साख या सदस्यता भी खोए और समर्थन करे तो सरकार और संघ का डंडा खाए। यही लेबर कोड को लेकर भारतीय मज़दूर संघ की उलझन थी जिस वजह से उसने देशव्यापी मज़दूर हड़ताल को समर्थन नहीं दिया। जबकि इन्हें एक स्पष्ट भूमिका लेनी चाहिए थी।
पड़ोसी अभी भी कुछ समझने के मूड में नहीं थे। मैं समझ गया संघ वाले हैं तो ऐसे ही थोड़े समझ जाएंगे, बरसों से सुबह-शाम शाखा में न जाने क्या-क्या पाठ पढ़ते हैं। लेकिन आप जिनका संघ से ज़्यादा अपने लोगों, अपने किसानों, अपने मज़दूरों से संबंध है, वो तो समझ जाइए कि राजनीतिक सवालों पर राजनीतिक तौर पर ही लड़ा जा सकता है। राजनीतिक पार्टियों को संसद से सड़क तक भूमिका निभानी चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करतीं तो इसे उनकी अच्छाई नहीं बुराई ही समझिए।
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