क्या ट्विटर के पास केवल शिकायतों के आधार पर सामग्री को हटाने और यूज़र्स को ब्लॉक करने की शक्ति है?
नफ़रत से भरी बायनबाज़ी पर अकादमिक चर्चा से पता चलता है कि, वह नफ़रत भरी बयानबाजी है या नहीं उसके संदर्भ पर निर्भर करता है। इसलिए, दिल्ली उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति नवीन चावला ने सोमवार को उस वक़्त नाराज़गी दिखाई – जब वे ट्विटर पर पोस्ट की गई हिंदू देवी काली के बारे में कथित रूप से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने की मांग वाली एक याचिका पर सुनवाई कर रहे थे – और कहा कि यदि कोई इसके संदर्भ पर विचार करेगा तो मांग बचकाना लगती है।
कुछ दिन पहले, उसी उच्च न्यायालय की एक अन्य पीठ ने कहा था कि नफ़रत भरी बयानबाजी - अगर मुस्करा कर की जाए - तो यह आपराध नहीं है।
जो पोस्ट @atheistrepublic के नाम के यूजर ने पोस्ट की थी, लगता है उसने किसी आस्तिक को नाराज़ कर दिया, जिसने पहले ट्विटर से शिकायत कर इसे हटाने के लिए कहा था। ट्विटर की निष्क्रियता के कारण यूजर को उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। इसमें कोई शक नहीं कि कोई भी इस बात अनुमान लगा सकता है कि उच्च न्यायालय को इस यूजर के अकाउंट को ब्लॉक करने के लिए एक याचिका का सामना करना पड़ रहा है, जिस पर आरोप लगाया गया है कि यह पोस्ट घृणास्पद सामग्री के मामले में ट्विटर के दिशानिर्देशों उल्लंघन है।
लेकिन याचिका की कानूनी जांच अभी की जानी है। यह नहीं कहा जा सकता है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 295ए के तहत कोई भी सामग्री - जो किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने या धार्मिक अस्थाओं का अपमान करने के इरादे से जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण रूप से पोस्ट की जाती है – वे इस मामले से जुड़ी हैं, खासकर यदि कोई उचित व्यक्ति जांच करता है। एक 'उचित व्यक्ति' सामान्य ज्ञान वाला और विवेकशील सामान्य व्यक्ति है, न कि एक सामान्य या अति संवेदनशील व्यक्ति। ऐसा नहीं है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रथम दृष्टया इस पर विचार किया है कि @athiestrepublic नफरत भरी बयानबाज़ी के दोषी हो सकते हैं।
नफ़रत भरी बयानबाज़ी पर कानून
प्रवासी भलाई संगठन बनाम भारतीय यूनियन (2014) में, सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि नफ़रत भरी बयानबाज़ी का अपराध किसी एक व्यक्ति को परेशान करने के लिए नहीं है, बल्कि व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति को लक्षित करने के बारे में है, जिन समूहों के वे सदस्य हैं, जो एक तरह से उनके खिलाफ शत्रुता, भेदभाव या हिंसा बढ़ाता है। जैसा कि न्यूजीलैंड के कानूनी दार्शनिक जेरेमी वाल्ड्रॉन तर्क देते हैं, कि नफ़रत भरी बयानबाज़ी कानून का उद्देश्य लोगों को 'उनकी भावनाओं पर पड़े प्रभाव' से बचाना नहीं है, बल्कि 'समाज में उनके अच्छे व्यवहार के आश्वासन' को संरक्षित करना है।
इसलिए, @atheistrepublic द्वारा काली का चित्रण यह सुझाव दे सकता है कि हालांकि इसने ट्विटर के कुछ यूजर्स को गुस्सा या चोट पहुंचाई हो सकती है, लेकिन धारा 295ए के तहत इसमें कोई भी मामला नहीं बनता है यानि कोई संभावना नहीं है, क्योंकि यह लोगों के समूह की समावेशिता और गरिमा के सिद्धांत को धमकाता नहीं है।
इसलिए, दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा सोमवार को इस मामले की सुनवाई के दौरान की गई कुछ टिप्पणियां, सहनीय आलोचना या धर्म की व्यंग्यात्मकता और ईशनिंदा के बीच के अंतर को धुंधला करती दिखाई देती हैं। अदालत की टिप्पणी कि ट्विटर अधिक संवेदनशील होता यदि सामग्री "दूसरे क्षेत्र" या "दूसरे धर्म" के बारे में होती, तो केस के तथ्यों से प्रभावित होती, लेकिन जब इसे आजीविका के अधिकार की बढ़ती असहिष्णुता और अल्पसंख्यकों के पेशे की खोज के संदर्भ में देखा जाता है तो याचिका पर्यवेक्षकों को निराश करने की संभावना रखती है। कोई यही आशा कर सकता है कि न्यायाधीश केवल उनके समक्ष पक्षों की दलीलों का जवाब दे रहे थे।
डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ ट्विटर की कार्रवाई
ट्विटर पर नास्तिक संगठन को चेतावनी देने के मामले में तेजी से कार्यवाही नहीं करने का आरोप लगाया जा सकता है, जिस पर हिंदू देवता के बारे में बार-बार "निंदा करने वाली सामग्री" पोस्ट करने का आरोप है। हाई कोर्ट ने ट्विटर से उस कानून को भी दिखाने को कहा है जो कहता हो कि आपत्तिजनक ट्वीट के खिलाफ कार्रवाई केवल अदालत के आदेश पर ही की जा सकती है।
एक मायने में, उच्च न्यायालय शायद ट्विटर से यह बताने के लिए कह रहा है कि उसने खुद सामग्री को क्यों नहीं हटाई, तब जब किसी अन्य यूजर ने ईशनिंदा के रूप में आरोप लगाया है। साथ ही, कोर्ट ने केंद्र से नास्तिक संगठन द्वारा विचाराधीन ट्वीट्स और अन्य कथित रूप से आपत्तिजनक पोस्ट की जांच करने को कहा है ताकि यह देखा जा सके कि क्या सूचना प्रौद्योगिकी [आईटी] अधिनियम की धारा 69 ए के तहत पोस्ट को अवरुद्ध किया जा सकता है। यहां तक कि केंद्र ने भी इस कानूनी स्थिति को स्वीकार किया है कि सोशल मीडिया कंपनियां मनमाने ढंग से सामग्री हटाकर अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती हैं।
कानूनी स्थिति यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध केवल एक विधायी जनादेश के माध्यम से संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत ही लगाया जा सकता है। यह बहस का विषय है कि क्या आईटी अधिनियम की धारा 69ए के तहत बनाए गए ब्लॉकिंग नियमों की आड़ में ऑनलाइन अभिव्यक्ति पर व्यापक कार्यकारी शक्तियां कानूनी रूप से बचाव योग्य हैं। लेकिन यह सुझाव देना, जैसा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोमवार को कहा था, कि ट्विटर अपने दम पर - अदालत के आदेशों के अभाव में - अपने यूजर्स की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित या कम कर सकता है, जो शायद यह खतरों से भरा प्रावधान बन सकता है।
कोर्ट द्वारा ट्विटर को किए गए सवाल, वास्तव में ऐसे मामलों में ट्विटर के हस्तक्षेप के दायरे पर एक बड़ी बहस की आवश्यकता की ओर इशारा कर सकते हैं। पीठ ने पूछा: क्या ट्विटर का अपने यूजर्स पर नजर रखने का कोई दायित्व है ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या वे कुछ आपत्तिजनक पोस्ट कर रहे हैं? क्या ट्विटर को बार-बार शिकायत के मामले में किसी खाते को ब्लॉक करना चाहिए या हर बार शिकायत होने पर केवल सामग्री को हटा देना चाहिए?
ट्विटर ने उच्च न्यायालय को जवाब दिया है कि उसने @atheistrepublic के छह ट्वीट्स को हटा दिया था, और कर्नाटक में पुलिस ने पहली सूचना रिपोर्ट भी दर्ज की थी। लेकिन ट्विटर का यह कहना कि वह अदालत के आदेश के बिना किसी खाते को ब्लॉक नहीं कर सकता, ऐसा लगता है कि बेंच ने यह पूछने के लिए उसे उकसाया: "यदि यह तर्क है, तो आपने ट्रम्प को क्यों अवरुद्ध किया था?"
पीठ ने ट्विटर से जवाब मांगा कि क्या वह अपने निर्णय की भावना का इस्तेमाल नहीं कर सकता है, खासकर जब उसे पोस्ट में "कुछ बिल्कुल, बेशर्मी से ईशनिंदा या लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला" लगता है।
याचिकाकर्ता द्वारा पिछले साल 9 दिसंबर की शुरुआत में आपत्तिजनक सामग्री के बारे में शिकायत करने के बावजूद, पीठ को निराशा हुई कि ट्विटर ने कोई कार्रवाई नहीं की। अदालत ने सबसे पहले ट्विटर को पिछले साल 29 अक्टूबर को "लोगों की भावनाओं के महत्व के अनुसार" कथित रूप से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने का निर्देश दिया था। ऐसा लगता है कि ट्विटर की निष्क्रियता पर नाराजगी ज़ाहिर करते हुए पीठ ने कठोर टिप्पणियां की है।
इस बात पर कोई बहस नहीं हो सकती है कि ट्विटर को नए आईटी नियमों के तहत उचित सावधानी बरतने की जरूरत है, और इसके खुद के दिशानिर्देश अपने प्लेटफॉर्म पर घृणित सामग्री को रोक सकते हैं।
अतीत में, ट्विटर ने आईटी अधिनियम की धारा 69 के तहत भारत सरकार के वैधानिक आदेशों का पूरी तरह से पालन नहीं किया है, जिसमें कथित रूप से संदेश पोस्ट करने के लिए सैकड़ों खातों को ब्लॉक करने के लिए कहा गया था, जिसमें कहा गया था कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी किसानों के नरसंहार की योजना बना रहे थे। ट्विटर ने तब कहा था कि सरकार की अवरुद्ध सूची में पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और राजनेताओं के खाते हैं जिनके खाते वास्तविक प्रतीत होते हैं; कि उनकी पोस्ट वैध अभिव्यक्ति हैं; और यह यथोचित रूप से मानता है कि उन्हें अवरुद्ध रखना भारतीय कानून और मंच के चार्टर उद्देश्यों दोनों के विपरीत एक असंगत कार्य होगा।
जैसा कि अधिवक्ता प्रसन्ना एस ने पिछले साल बताया था, ट्विटर ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति, डोनाल्ड जे ट्रम्प के ट्विटर अकाउंट को निलंबित कर दिया था, उनकी सामग्री को फ़्लैग करने और इसकी पहुंच को सीमित करने जैसे उपाय किए थे। पिछले साल कैपिटल हिल पर हमले पर उनके ट्विटर पोस्ट के प्रभाव और आगे आसन्न अराजकता की संभावना के मूल्यांकन के बाद, ट्रम्प के खाते को स्थायी रूप से बंद करना अंतिम चरण था।
इसलिए, यह बहस का विषय है कि क्या नास्तिक संगठन के ट्वीट भारत में इस तरह की अराजकता को भड़काने में सक्षम हैं।
देवी काली पर @athiestrepublic की सामग्री प्रख्यात चित्रकार, एम.एफ. हुसैन की हैं, जिनके खिलाफ तुच्छ शिकायतें दर्ज की गईं थीं, और जिन्हें बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। लेकिन क्या दिल्ली उच्च न्यायालय को इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए कि क्या किसी नास्तिक संगठन और उसके अनुयायियों को विश्वासियों की भावनाओं को ठेस पहुँचाए बिना अपने विश्वासों को फैलाने का अधिकार है? केवल ट्विटर को कुछ शिकायतकर्ताओं की मांगों को उनकी शिकायतों की योग्यता की जांच किए बिना प्रस्तुत करने के लिए कहना, हेकलर के वीटो को वैध बनाने के समान होगा।
सौजन्य: द लीफ़लेट
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
Does Twitter Have The Power to Remove Content and Block a User Merely on Complaints?
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