गहराते आर्थिक संकट के बीच बढ़ती नफ़रत और हिंसा
यदि आप सरकार के दृष्टिकोण को मानते हैं, तो भारत की अर्थव्यवस्था कोविड महामारी के कारण हुई तबाही के बाद वर्तमान में ऊपर की ओर उछाल पर चली गई है। लेकिन, वास्तव में, आवश्यक जरूरत की वस्तुओं की कीमतों पर लगाम लगाने में सरकार की अक्षमता, विफलता और रोज़गार पैदा करने की पूर्ण उपेक्षा के कारण और कम आय के चलते जो लोग पूर्व-महामारी के स्तर को पाने में असमर्थ हैं, उनमें अब असंतोष बढ़ रहा है। यह असंतोष न केवल हाल के चुनावों में देखा गया है - जहां मूल्य वृद्धि और बेरोजगारी दोनों ही मतदाताओं की प्रमुख चिंताएं या मुद्दा थी - बल्कि वही असंतोष अपरिहार्य विरोध कार्यावाहियों में नज़र आ रहा है जो अब गति पकड़ रहे हैं। किसानों का साल भर का संघर्ष पिछले नवंबर में तब समाप्त हुआ था जब एक डरी हुई सरकार ने तीन कुख्यात कृषि कानूनों को वापस ले लिया था। लेकिन सरकारी नीतियों के खिलाफ अन्य विरोध अभी भी जारी है। सबसे हालिया - और सबसे बड़ी कार्यवाही - 28-29 मार्च को दो दिवसीय आम हड़ताल थी, जिसका आहवान ट्रेड यूनियनों के एक संयुक्त मंच ने किया था, जिसे किसान और जन-संगठनों का भी व्यापक समर्थन हासिल था। दो दिनों की इस हड़ताल में अनुमानत 25 करोड़ लोगों ने भाग लिया था।
इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि इसके कुछ ही समय बाद, नौ राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा की सुनियोजित घटनाओं का सिलसिला शुरू हो गया। तीन धार्मिक अवसरों - 2 अप्रैल को हिंदू नव वर्ष (नव संवत्सर), 10 अप्रैल को रामनवमी, और 16 अप्रैल को हनुमान जयंती - का इस्तेमाल भड़काऊ जुलूस निकालने और अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के खिलाफ टकराव के लिए किया गया था। कुछ मामलों में, मस्जिदों में प्रवेश किया गया और भगवा ध्वज फहराने का प्रयास किया गया। कई मामलों में, भाजपा राज्य प्रशासन (या दिल्ली में नगर निकाय) ने उस क्षेत्र में घरों को या दुकानों को ध्वस्त कर दिया, जो घर या दुकानें अधिकतर अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित थीं, इस अभियान में कुछ निर्दोष बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों के घरों या दुकानों को भी तोड़ दिया गया था। यह स्वाभाविक है कि इस तरह भड़काऊ उकसावे और साथ में फैलाया जानी वाला कपटपूर्ण प्रचार घृणा की ज्वाला को भड़काता है और धार्मिक समुदायों के बीच अन्यथा सौहार्दपूर्ण संबंधों को खराब करता है।
इसने मोदी सरकार को अपनी नीतियों को बदलने के बढ़ते दबाव से ध्यान हटाने के उद्देश्य का भी काम किया है, जो नीतियां देश और लोगों को व्यापक आर्थिक संकट की ओर धकेल रही हैं। ग़रीब, जो आसमान छूती मंहगाई और बेरोज़गारी से सबसे अधिक प्रभावित हैं, वे भी सांप्रदायिक हिंसा या उसके बाद के प्रशासनिक दबाव में अपनी जान और बची-कूची संपत्ति को बचाने पर मजबूर हो जाते हैं।
इस बीच, देश के गरीब और वंचित, करोड़ों की संख्या में, सबको आर्थिक हमले का सामना करना पड़ रहा है, जिस तरह का यह हमला है उसे हाल के इतिहास में कभी नहीं देखा गया है।
क़मर तोड़ने वाली कीमतें
पिछले एक साल में इस्तेमाल की सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में लगातार वृद्धि हुई है – जिसमें भोजन से लेकर ईंधन तक की कीमतें शामिल हैं - ने परिवार के बजट को गंभीर रूप से प्रभावित किया है और खपत में कटौती हुई है। एक सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार, खुदरा मुद्रास्फीति, यानी विभिन्न वस्तुओं या सेवाओं पर आम लोगों द्वारा भुगतान की जाने वाली कीमतों में वृद्धि मार्च में 6.95 प्रतिशत दर्ज की गई थी। खाद्य पदार्थों की कीमतें फरवरी में 5.85 प्रतिशत की तुलना में मार्च में 7.68 प्रतिशत पर और भी अधिक दर से बढ़ीं। खाद्य कीमतों में यह वृद्धि खाना पकाने के तेल और वसा की कीमतों में 18.79 प्रतिशत की असहनीय वृद्धि और सब्जियों की कीमतों में 11.64 प्रतिशत की वृद्धि के कारण हुई है। मांस और मछली की कीमतों में 9.63 प्रतिशत और मसालों की कीमतों में 8.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दूध और उसके उत्पादों की तरह अनाज और उत्पादों में भी लगभग 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। खाद्य पदार्थ अधिकांश भारतीयों के परिवार के खर्च का बड़ा हिस्सा हैं, और इन कीमतों में निरंतर वृद्धि जीवन स्तर को नष्ट कर रही है। खाद्य पदार्थों के अलावा, ईंधन और रोशनी से संबंधित वस्तुओं की कीमतों में 7.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि कपड़े और जूते में 9.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
लेकिन कीमतों को लेकर बुरी खबर यहीं खत्म नहीं होती है। सरकार द्वारा जारी थोक कीमतों के आंकड़ों में भी चौंकाने वाली बढ़ोतरी देखी गई है। मार्च में थोक कीमतों में 14.5 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई है। यह पिछले दस वर्षों में दूसरी सबसे अधिक वृद्धि है, जो कुछ महीने पहले नवंबर 2021 में सबसे अधिक दर्ज की गई थी। वास्तव में, 2021-22 पिछले एक दशक में सबसे अधिक औसत वार्षिक थोक मूल्य वृद्धि यानि 13 प्रतिशत की वृद्धि वाला वर्ष बन गया है। दूसरा उच्चतम वृद्धि वाला वर्ष 2012-13 था, जिसमें 6.9 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई थी। इस वृद्धि में से अधिकांश ईंधन की कीमतों से प्रेरित है, जो थोक कीमतों में 25 प्रतिशत की उछाल के लिए जिम्मेदार है। मोदी सरकार ने भारी उत्पाद शुल्क लगाकर पेट्रोल और डीजल की कीमतों को कृत्रिम रूप से ऊंचा रखा हुआ है।
थोक मूल्यों में वृद्धि एक समय के बाद आम उपभोक्ताओं को हस्तांतरित हो जाती है। इसका मतलब है कि आने वाले महीनों में, इन उच्च थोक कीमतों का भार आम लोगों पर पड़ेगा, और पहले से ही उच्च उपभोक्ता कीमतों में और वृद्धि होने की संभावना है।
वादा की गई नौकरियां कहां हैं?
बढ़ती कीमतों से भारत में हमेशा नुकसान होता है क्योंकि आबादी का बड़ा हिस्सा बहुत कम कमाता है। कोई भी मूल्य वृद्धि सीधे तौर पर पहले से ही निम्न जीवन स्तर को नुकसान पहुंचाती है। लेकिन, वर्तमान में, क़मर तोड़ कीमतों को उन लोगों द्वारा वहन किया जा रहा है जो पहले से ही नौकरियों की कमी और कम आय से कुचले हुए हैं। यह केवल महामारी के कारण नहीं है, बल्कि मोदी सरकार की गलत प्रतिक्रिया ने पिछले दो वर्षों में परिवारों की कमाई को भारी नुकसान पहुंचाया है। सीएमआईई सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, आर्थिक मंदी वास्तव में पहले शुरू हो गई थी, और बेरोजगारी दर 2018 के उत्तरार्ध से 7-8 प्रतिशत की सीमा में मँडरा रही है।
नौकरियों के संकट का सही पैमाना सिर्फ बेरोजगारी दर से नहीं मापा जा सकता है। इस संकट के पैमाने और गंभीरता को समझने के लिए, यह देखें: पिछले पांच वर्षों में भारत में कार्यरत व्यक्तियों की कुल संख्या जनवरी 2017 में 40.1 करोड़ से घटकर 39.6 करोड़ हो गई है, हालांकि इसी अवधि में भारत की जनसंख्या अब्धकर 130.5 करोड़ से 137.4 करोड़ हो गई है।
इस संकट का एक अन्य पैमाना ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में काम की मांग का बढ़ना है। योजना के आधिकारिक पोर्टल के आंकड़ों से पता चलता है कि 2018-19 में, लगभग 7.77 करोड़ लोगों ने इस योजना में काम किया, जो 2019-20 में बढ़कर 7.88 करोड़ हो गई, लेकिन फिर 2020-21 में लॉकडाउन के कारण यह बढ़ गई और 2021-22 यह 10.62 करोड़ के उच्च स्तर पर पहुँच गई थी। यह नौकरियों के संकट की गंभीरता को दर्शाता है, जो संकट लोगों को पहले से ही अति-संतृप्त कृषि में वापस जाने या नौकरी गारंटी योजना में मामूली काम की तलाश करने के लिए मजबूर कर रहा है। याद रखें कि योजना में प्रदान किए गए काम के दिनों की औसत संख्या लगभग 50 दिन है, और औसत वेतन 2021-22 में प्रति दिन केवल 209 रुपये था। जिस तरह की अल्प आय यह प्रदान करती है वह उस संकट की ओर इशारा करती है जो लोगों को यह काम करने के लिए मजबूर कर रहा है, और मजदूरी की दरें दर्शाती हैं कि इस तरह के काम से उन्हें किस तरह की सहायता मिलती है।
निराशाजनक वास्तविक मजदूरी
इकोनॉमिक टाइम्स द्वारा ग्रामीण खपत के स्तर पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार, वास्तविक कृषि मजदूरी में 2020-21 में मात्र 0.3 प्रतिशत और वित्तीय वर्ष 2021-22 में 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। उन्हीं वर्षों में, ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि मजदूरी में 2020-21 में 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई और 2021-22 में 0.2 प्रतिशत की गिरावट आई है।
ग्रामीण क्षेत्रों में मुद्रास्फीति-समायोजित मजदूरी में ये घोर परिवर्तन, जहां भारत की अधिकांश आबादी रहती है और काम करती है, वह दर्शाती है कि, देश खुद की पैदा की गई महामारी में व्यापक आर्थिक संकट और गंभीर गरीबी में धस रहा है।
धार्मिक हिंसा लोगों के संघर्षों को कमज़ोर बनाती है
यह ध्यान देने योग्य बात है कि देश का शीर्ष नेतृत्व, जो सरकार में मौजूद हैं, ने या तो हिंसा पर चुप्पी साध ली या फिर कथित रूप से इसे दबाने के लिए पुलिस बलों को धकियाने में शामिल रहा। शायद, इससे भाजपा नेतृत्व राहत की सांस लेने लगा कि आर्थिक संकट को कम करने का दबाव कम हो गया है, भले ही अस्थायी रूप से ऐसा हुआ है। शायद, ये बार-बार होने वाली घटनाएं जो अल्पसंख्यक समुदाय को लक्षित करती हैं और इसमें हिजाब पहनना, लव जिहाद, समान नागरिक संहिता आदि जैसे मुद्दे शामिल हैं, को भी आरएसएस और सरकार में इसके प्रतिनिधियों द्वारा हिंदू राष्ट्र के निर्माण की दिशा में कदम के रूप में देखा जा रहा है। किसी भी तरह से, वे लोगों की एकता को कमज़ोर करना चाहते हैं और इस तरह से वे सुनिश्चित करना चाहते हैं कि भाजपा का जहरीला शासन कायम रहे।
अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
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