विचार: रोज़गार बनता केंद्रीय राजनीतिक मुद्दा
रोजगार के सवाल पर देश में हलचल बढ़ती जा रही है। 11 अक्टूबर को कांस्टीट्यूशन क्लब दिल्ली में जेपी जयंती के अवसर पर एक संवाद आयोजित हुआ जिसमें रोजगार के सवाल पर "पीपुल्स कमीशन ऑन राइट टू एम्प्लॉयमेंट" की ओर से सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार की रिपोर्ट का लोकार्पण और विचार-विमर्श हुआ।
देश के विभिन्न इलाकों में तमाम सामाजिक-राजनीतिक ताकतें, छात्र-युवा संगठन इस पर पहलकदमी ले रहे हैं-सम्मेलन, संवाद, पदयात्राओं से माहौल सरगर्म हो रहा है। दिल्ली मार्च की तैयारियां हो रही हैं। युवा हल्ला बोल ने बिहार में इसे लेकर यात्रा की। पटना से लेकर अहमदाबाद तक रोजगार सम्मेलन हुए। इंकलाबी नौजवान सभा ने शहीदे आज़म भगत सिंह के जन्मदिन 28 सितंबर को "रोजगार अधिकार दिवस" के रूप में मनाया। "हर हाथ को काम दो नारे" के साथ DYFI ने 3 नवम्बर को दिल्ली चलो का आह्वान किया है।
पूर्वांचल में निकली मजदूर-किसान-नौजवान यात्रा में युवामंच ने मांग बुलंद की— हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी की गारंटी हो, देश भर में एक करोड़ रिक्त पदों को समयबद्ध भरा जाये, संविदा व्यवस्था खत्म हो और लाभदायक सार्वजनिक इकाईयों के निजीकरण पर रोक लगे।
रोजगार का सवाल केंद्रीय राजनीतिक एजेंडा बनता जा रहा है। एक सर्वे में गुजरात के आसन्न चुनाव में सर्वाधिक लोगों ने बेरोजगारी को सबसे बड़ा मुद्दा माना है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से लेकर प्रशांत किशोर की जन सुराज यात्रा तक रोजगार को ही सबसे बड़ा मुद्दा बताया जा रहा है। अरविंद केजरीवाल चुनाव अभियान में नौकरियों के वायदे कर रहे हैं।
दरअसल यह सब रोजगार के मोर्चे पर गहराते अभूतपूर्व संकट की अभिव्यक्ति है। आसन्न मंदी की आशंका और रिकॉर्ड-तोड़ महंगाई ने बेरोजगारी के दंश को और गहरा कर दिया है।
मोदी सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था का भयावह mismanagement आने वाले दिनों में वैश्विक मंदी के साथ मिलकर जो कहर ढाने वाला है उसका सबसे बुरा असर रोजगार पर पड़ेगा। NCRB के डरावने आंकड़ों के अनुसार पहले ही देश में रोजगार की हताश तलाश में लगे दिहाड़ी मजदूरों और छात्रों के आत्महत्या के मामले शीर्ष पर पहुंच चुके हैं। आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ पत्रकार TN Ninan ने Business Standard में लिखा है, "भारत में आर्थिक सुस्ती के संकेत बिलकुल साफ हैं। औद्योगिक उत्पादन हो या बिजली उत्पादन, निर्यात हो या जीएसटी से कमाई, सबकी गति सुस्त पड़ रही है... वित्त वर्ष के उत्तरार्द्ध में वृद्धि दर 4 फीसदी से नीची चली जाए, जो महामारी से पहले वाले साल में थी, तो आश्चर्य में न पड़िएगा। "
रोजगार की चुनौती कितनी गम्भीर हो गयी है इसका इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि आरएसएस के महामंत्री दत्तात्रेय हसबोले को भी संघ की साख बचाने के लिये बेरोजगारी के गम्भीर संकट को स्वीकार करना पड़ा लेकिन इसके लिए सरकार से जवाबदेही मांगने की बजाय संघप्रमुख भागवत ने इसका ठीकरा देश की बढ़ती आबादी पर फोड़ दिया। बेरोजगारी के गहराते संकट से युवाओं में बढ़ती बेचैनी को अन्धराष्ट्रवादी-साम्प्रदायिक दिशा में मोड़ देने के लिए उन्होंने धर्मों के बीच जनसंख्या असंतुलन का फ़र्ज़ी नैरेटिव गढ़ कर उसे अलगाववाद के खतरे से जोड़ दिया और एक व्यापक जनसंख्या नीति बनाने की वकालत कर डाली।
उन्होंने रोजगार के मुद्दे पर बोलते हुए कहा कि "रोजगार मतलब नौकरी और नौकरी के पीछे ही भागेंगे और वह भी सरकारी। अगर ऐसे सब लोग दौड़ेंगे तो नौकरी कितनी दे सकते हैं। किसी भी समाज में सरकारी और प्राइवेट मिलाकर ज्यादा से ज्यादा 10, 20, 30 प्रतिशत नौकरी होती है। बाकी सब को अपना काम करना पड़ता है।"
यह धूर्ततापूर्ण तर्क इस सच पर पर्दा डालता है कि आज की आधुनिक दुनिया में अर्थव्यवस्था की केंद्रीय नियामक शक्ति राज्य है, इस नाते सर्वोपरि राज्य और सरकार इस बात के लिए जिम्मेदार हैं कि रोजगार सृजन होगा कि नहीं। आज जब प्रो. अरुण कुमार के शब्दों में "देश की आधी आबादी को रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र में मात्र 5% निवेश हो रहा है और जो संगठित क्षेत्र मात्र 6% लोगों को रोजगार देता है, वहां 80% निवेश हो रहा है" तो रोजगार सृजन में सरकार की भूमिका तो स्वयंसिद्ध है, बेरोजगारी बढ़ने में उसकी जवाबदेही से उसे आप कैसे बचा सकते हैं?
भागवत लाख कोशिश कर लें, जॉबलेस ग्रोथ की जिम्मेदार नवउदारवादी अर्थनीति को आक्रामक ढंग से लागू कर, नोटबन्दी, GST, अविचारित लॉक-डाउन से अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़कर असंख्य रोजगार के अवसरों को खत्म करने वाले मोदी जी आज बेरोजगारी के भयावह मंजर के लिए अपनी जवाबदेही से बच कैसे सकते हैं?
वैसे, बेरोजगारों की बढ़ती बेचैनी को भांपते हुए मोदी जी के आफिस से भी पिछले दिनों एक बयान जारी हुआ कि प्रधानमंत्री ने 2024 (पढ़िये, लोकसभा चुनाव) तक केंद्र सरकार के सभी विभागों/मंत्रालयों में रिक्त पड़े 10 लाख पदों को मिशन मोड में भरने के निर्देश दिये हैं। कोई नहीं जानता कि उनके 2 करोड़ प्रतिवर्ष रोजगार देने जैसे वायदों की तरह यह घोषणा भी जुमला साबित होगी या लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सरकार इस पर सचमुच गम्भीर है।
बहरहाल मोदी-शाह समेत समूचा भाजपा शीर्ष नेतृत्व रोजगार के सवाल पर आम तौर पर चुप्पी साधने में ही भलाई समझ रहा है।
आने वाले दिनों में यह देखना रोचक होगा कि स्वयं प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति (EAC) ने मनरेगा की तर्ज़ पर शहरी रोजगार गारंटी कानून बनाने, यूनिवर्सल बेसिक इनकम, सोशल सेक्टर के लिए खर्च बढ़ाने जैसे जो सुझाव दिए हैं, उस पर मोदी सरकार क्या रुख लेती है।
विपक्षी दल राज्यस्तर पर, विशेषकर चुनावी राज्यों में नौकरियों के खाली पदों को भरने के सवाल पर तरह तरह के वायदे जरूर कर रहे हैं, लेकिन रस्मी बयानबाजी से आगे बढ़कर वे भी इस राष्ट्रीय सवाल पर कोई ठोस रोड मैप या नीतिगत विकल्प नहीं पेश कर रहे हैं, न युवाओं और जनता से कोई ठोस committment कर रहे हैं। यह तय है कि रोजगार के अधिकार की गारंटी और बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के लिए अर्थनीति के ढांचे में भारी बदलाव करना होगा। आज यक्ष प्रश्न यह है कि क्या विपक्ष इसके लिए तैयार है? अपनी यात्रा के दौरान अर्थनीति से सम्बंधित सवालों पर राहुल गांधी के बयानों ने उन तमाम लोगों को निराश किया है जो उनसे इस दिशा में बदलाव की उम्मीद लगाए थे।
आज जरूरत इस बात की है कि आंदोलन और जनपक्षीय राजनीति की वे सारी ताकतें जो ग्लोबल पूँजी और कारपोरेट के शिकंजे से आज़ाद हैं, जिन्होंने उसके आगे अपने वैचारिकी और राजनीति को गिरवी नहीं रख दिया है, जिनके लिए मौजूदा नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को हर हाल में जारी रखने के किसी भी वर्गीय प्रतिबद्धता/तर्क/मजबूरी से अधिक महत्वपूर्ण इस देश की जनता का जीवन है, युवा पीढ़ी, श्रमिकों की रोजी-रोटी है, उन्हें मोदी-राज में तबाह हुई अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन तथा राष्ट्र के नवनिर्माण के ऐसे एजेंडा के साथ सामने आना चाहिए,
जिसके शीर्ष पर सबके लिए रोज़गार का सवाल हो, रोजगार-सृजन और नौकरियां देने का ठोस रोडमैप और समयबद्ध कार्यक्रम जनता के सामने पेश करना चाहिए।
राजनीतिक विपक्ष अपने विनाश की कीमत पर ही इस तल्ख सच्चाई की उपेक्षा कर सकता है कि 2024 का चुनाव उसके लिए भी और इस देश में लोकतंत्र के लिए भी शायद आखिरी मौका है। और इस चुनाव में विपक्ष को एक ऐसी दैत्याकार चुनावी मशीनरी से टकराना है जिसका न सिर्फ समूचे तंत्र और संसाधनों पर कब्जा है, बल्कि जिसकी विषाक्त विचारधारा का जनता के अच्छे-खासे हिस्से के दिलो-दिमाग पर भी कब्ज़ा है।
विपक्ष की ओर से एक गरिमामय जीवन और खुशहाल भविष्य का विश्वसनीय आश्वासन ही वह वातावरण बना सकता है जिसमें लोग मोदी से इतर किसी राजनीतिक विकल्प के बारे में सोचने को प्रेरित हो सकते हैं, ऐसे वातावरण में ही सांप्रदायिकता विरोधी विचारधारात्मक-सांस्कृतिक अभियान परवान चढ़ सकता है और लोग उसके नशे से ऊपर उठ कर धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों के पक्ष में खड़े हो सकते हैं। वरना भाईचारे, प्रेम आदि की सारी बातें खोखली लफ्फाजी बनकर रह जाने के लिए अभिशप्त हैं जिनका बहुसंख्यकवादी वर्चस्व की वैचारिकी के नशे में डूबे जनमानस पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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