'KG से लेकर PG तक फ़्री पढ़ाई' : विद्यार्थियों और शिक्षा से जुड़े कार्यकर्ताओं की सभा में उठी मांग
भारत सरकार की रिपोर्ट बताती है कि भारत में केवल 10% कामगारों की महीने की आमदनी 25 हजार या इससे ऊपर है। यानी 90% कामगारों की आमदनी ₹25 हजार से कम है। महीने में इतनी कम कमाई करने वाले कामगारों के परिवार के बारे में सोच कर देखिए। क्या इनके परिवार का कोई बच्चा मौजूदा समय की महंगी पढ़ाई के दौर में बिना किसी आर्थिक दबाव के ढंग की पढ़ाई कर सकता है? क्या इनके परिवार का बच्चा सलाना लाखों रुपए की फीस दे सकता है? क्या इनके परिवार का बच्चा डॉक्टर इंजीनियर कलेक्टर बनने का सपना देख सकता है? इस तरह के सारे सवालों का जवाब ना में मिलेगा। शिक्षा के क्षेत्र में इतनी क्रूर हकीकत की मौजूदगी सबकी आंखों के सामने होने के बावजूद भी सरकारी शिक्षा नीति के नाम पर ऐसी योजनाएं बनाती हैं जिसमें इस पहलू पर कोई हस्तक्षेप नहीं होता। ऐसी कोई ठोस योजना नहीं दिखती जो यह बताए कि किसी ऑटो और रिक्शा वाले का बच्चा ढंग की पढ़ाई कर पाएगा?
साल 2020 में पेश की गई नई शिक्षा नीति को लेकर ऑल इंडिया कन्वेंशन ऑन हायर एजुकेशन के गांधी शांति प्रतिष्ठान नई दिल्ली में हुए 27 मई के आयोजन में शिक्षा क्षेत्र से जुड़े सैकड़ों कार्यकर्ता और विद्यार्थियों की तरफ से यही बात हावी रही कि जब तक मुफ्त शिक्षा नहीं होती तब तक हमारे सपनों का भारत नहीं बन सकता। महंगी शिक्षा का मतलब है कि गैर बराबरी वाले हिंदुस्तान को और अधिक गैर बराबरी में बदलना। जब तक केजी से लेकर पीजी तक मुफ्त पढ़ाई लिखाई की व्यवस्था नहीं होती है तब तक किसी भी तरह की शिक्षा नीति का दस्तावेज अर्थहीन है। केवल ढांचा बदलने से कुछ भी नहीं होगा। कोई इस बिल्डिंग में रहे या उस बिल्डिंग में रहें यह सवाल तब पैदा होता है जब सबके पास मुफ्त में बिल्डिंग चुनने की आजादी होती है। असली सवाल मुफ्त शिक्षा का है। फ्री एजुकेशन होगा तभी कुछ संभव है।
इन्होंने पोस्टर लगाया था कि क्या आप चाहते हैं कि सरकारी स्कूल की स्थिति सुधरनी चाहिए? क्या आप चाहते हैं कि गरीब के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले? क्या आप चाहते हैं कि बच्चा चाहे मजदूर का हो या किसान का अधिकारी का हो या मालिक का सबको समान शिक्षा मिलनी चाहिए? क्या आप मानते हैं कि नेताओं के बच्चों को भी आम लोगों के बच्चों की तरह सरकारी स्कूलों में पढ़ना चाहिए? क्या आप चाहते हैं कि प्राइवेट स्कूल में शिक्षा का कारोबार खत्म हो जाए? क्या आप प्राइवेट स्कूल की महंगी शिक्षा से परेशान हैं? क्या आप चाहते हैं कि प्राइवेट स्कूल की मनमानी खत्म होनी चाहिए? इन सवालों के साथ जूझते हुए किसी भी श्रोता को आयोजन के सभागार में प्रवेश करना था। यह सवाल अपने आप में इतने दमदार हैं कि ने चौक - चौराहे पर लगा देना चाहिए। लोगों को बताना चाहिए कि क्यों बुलडोजर वाली सरकार से मंदिर मस्जिद पर नहीं बल्कि कलम और किताब पर सवाल पूछने की जरूरत है?
इस आयोजन के प्रेस कॉन्फ्रेंस में भगत सिंह के पोते जगमोहन सिंह ने बड़े कठोर ढंग से कहा कि 130 करोड़ के लोगों के लिए बनने वाली किसी भी तरह की शिक्षा नीति के लिए क्या यह कल्पना किया जा सकता है कि उसमें भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के शानदार मूल्यों को ना शामिल किया जाए? विविधता का जश्न मनाने और छुआछूत विरोध की कहानियों को क्या गलत माना जाना चाहिए? अगर कोई शिक्षा नीति से ऐसी बनाती है जिसमें हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के शानदार सफर का जिक्र नहीं हो तो उसे जो मर्जी सो कहा जा सकता है लेकिन वह शिक्षा नीति का दस्तावेज नहीं कहा जा सकता। अफसोस की बात है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति से कुछ ऐसा ही एहसास होता है।
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष से निकले हमारे राष्ट्र नेताओं का सपना था कि भारत की शिक्षा व्यवस्था ऐसी होगी जिसमें जाति धर्म लिंग किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं होगा। अगर हम अपने स्वतंत्रता संघर्ष को ध्यान से देखें तो हम पाएंगे कि सभी नेता इस बात पर एकमत से सहमत हैं कि सभी तक शिक्षा की पहुंच होनी चाहिए। क्या मौजूदा वक्त के शासक ने ऐसा किया है? क्या फ्री में एजुकेशन की तरफ हम बढ़ रहे हैं?
इसी तरह का कठोर बयान दिल्ली यूनिवर्सिटी में दर्शन की प्रोफेसर रह चुकी मधु प्रसाद की तरफ से आया। उन्होंने कहा कि पहले की शिक्षा नीतियों ने समान शिक्षा और सभी तक शिक्षा की पहुंच की ऐसी अनदेखी नहीं कि जैसी इस शिक्षा नीति ने की है। और 1882 के पहले शिक्षा आयोग में महात्मा गांधी और दादा भाई नौरोजी ने मुफ्त शिक्षा की वकालत की थी। यह बात तब उठाई गई थी जब अंग्रेजों का जमाना था। वह समाज में शिक्षा के असर को जानते थे। उन्हें पता था कि क्यों राज्य को शिक्षा की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए? साल 1920 के कांग्रेस के अधिवेशन में यह कहा गया कि क्यों ऐसी शिक्षा की जरूरत है जो आपको किसी का गुलाम न बनाए बल्कि व्यक्ति के बौद्धिक समृद्धि का काम करें। इस बात का इतना असर हुआ कि भगत सिंह ने ब्रिटानिया कॉलेज की पढ़ाई छोड़ कर लाला लाजपत द्वारा स्थापित किए गए नेशनल कॉलेज में एडमिशन ले लिया। आज अगर भगत सिंह रहते, वर्तमान के इस हालात को देखते कि बहुत दो को शिक्षा नहीं मिल पा रही है, शिक्षा की दुनिया में गैर बराबरी बढ़ती जा रही है, लेकिन फिर भी मुफ्त शिक्षा की बात नहीं होती तो आप ही बताइए वह क्या करते?
दिल्ली इतिहास के प्रोफेसर विकास गुप्ता ने कहा कि रिशनलाइजेशन को लेकर जिस तरह के नीतिगत निर्देश दिए गए हैं, उसके मुताबिक ऐसा कोर्स बनाना कठिन हो रहा है, जिसके अंतर्गत कोई विधार्थी किसी विषय को ढंग से सीख सकें । मौजूदा समय में हम इतिहास विभाग में 16 कोर्स पढ़ा रहे हैं। इन 16 कोर्स में 8 कोर्स विश्व इतिहास के हैं और 8 कोर्स भारतीय इतिहास के हैं। अब हमें निर्देश दिया गया है कि 16 विषय में से केवल 8 विषय रखें। शिक्षक इस बात को लेकर के चिंतित हैं वह कौन सा रखें और कौन सा विषय छोड़ दें? वह तय नहीं कर पा रहे है कि वह क्या करे?
गोरखपुर यूनिवर्सिटी से चतुरानन ओझा आए थे। इनका कहना है कि मैं सेल्फ फाइनेंशियल कॉलेज में पढ़ाता हूं। मैं अपने अनुभव से बता सकता हूं कि बिना शिक्षकों के कॉलेज चलाए जा रहे हैं। कॉलेज हैं, मगर पढ़ाने वाला कोई नहीं है। पढ़ाने वाले हैं लेकिन पढ़ने वाला कोई नहीं है। स्कूल के टीचरों का जीवन तो ऐसा लगता है कि वह पढ़ाने के सिवाय सारे काम कर रहे हैं। नई शिक्षा नीति में मल्टीपल इंटरनल असाइनमेंट टेस्ट और एक्सटर्नल एग्जामिनेशन की बात की गई है। लेकिन जरा आप सोचकर देखिए जब भारत में ऐसे सैकड़ों कॉलेज हैं, जहां पर साल भर में ढंग से परीक्षा नहीं हो पाती वहां पर एक ही साल में कई स्टेज पर परीक्षाएं कैसे हो पाएंगी?
आपको बताता हूं कि जिस मंदिर से योगी आदित्यनाथ आते हैं, उस के नाम से 36 कॉलेज चलते हैं। उन 36 कॉलेजों में किसी भी पोस्ट ग्रेजुएट टीचर की सैलरी ₹ 8500 से ज्यादा नहीं है। चतुरानन का कहना है कि उनके साथ पढ़ाने, परीक्षा लेने और कॉपी चेक करने के नाम पर जानवरों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। अगर कोई भी इसके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करता है तो उसे बाहर निकाल दिया जाता है। बाकी आप जानते ही हैं कि बुलडोजर बाबा के काल में क्या क्या हो सकता है?
इस पूरे प्रकरण को इस तरीके से समझा जा सकता है कि 331 सरकारी सहायता से चलने वाले कॉलेज हैं और 6000 सेल्फ फाइनेंस कॉलेज है।
पंजाब यूनिवर्सिटी पटियाला के भाषा विज्ञान के प्रोफेसर जोगा सिंह कहते हैं कि नई शिक्षा नीति अनुशंसा करती है कि शिक्षण के माध्यम के तौर पर हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता दी जाए। यह अनुशंसा केवल शब्दों में रह जाती है व्यवहार में नहीं लाई जाती। पूरी दुनिया का अनुभव यह बताता है कि मातृभाषा में पठन-पाठन करने पर विषय बहुत जल्दी समझ में आता है। जटिलताएं बहुत जल्दी दूर हो जाती हैं। जो सीखा जाता है, वह जीवन भर साथ बना रहता है। हरियाणा की भाजपा सरकार का हाल देखिए। यहां पर 300 हिंदी मीडियम स्कूल को अंग्रेजी माध्यम में बदल दिया गया और इसका जमकर अखबारों के जरिए प्रचार भी करवाया गया। हमें यह समझने की जरूरत है कि पूरे भारत में केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति केवल अंग्रेजी के दबदबे के जरिए संभव है। भाजपा इस बात को भलीभांति जानती है। इसलिए भले वह हिंदी की वकालत करे लेकिन व्यवहार में ऐसा कुछ भी नहीं करती की अंग्रेजी का दबदबा टूटे। हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं का इसेतमाल बढ़े।
अंबेडकर यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर शिवानी नाग ने लैंगिक आधार पर होने वाले भेदभाव का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि जिन सामाजिक समूहों के साथ भेदभाव होता है उन सभी सामाजिक समूहों को सोशल इकनोमिकली डिसएडवांटेज ग्रुप के अंतर्गत रख दिया गया है। जबकि यह सभी जानते हैं जिस आधार पर स्त्रियों के साथ भेदभाव होता है, वैसे ही आधार पर दलितों और आदिवासियों के साथ नहीं होता। मतलब वंचित सामाजिक समूहों के साथ होने वाले भेदभाव के आधार अलग हैं तो उन्हें एक ही समूह में डालना उचित नहीं लगता।
शिवानी नाग ने अपनी बात को आगे रखते हुए कहा कि कोई भी नीति जो पब्लिक एजुकेशन और कॉमन स्कूल एजुकेशन पर बात नहीं करती है,वह जेंडर की सवालों के साथ न्याय नहीं कर सकती। यह नीति बहुत मजबूती के साथ मल्टीपल एंट्री और एग्जिट प्वाइंट के आधार पर 4 ईयर अंडर ग्रैजुएट प्रोग्राम की वकालत करती है। लेकिन कृपया करके कोई भी यह बताएं कि जब इस तरीके की व्यवस्था बनाई जाती है तो समाज का ऐसा कौन सा समूह है, जिस पर पढ़ाई छोड़ने का सबसे अधिक दबाव डाला जाएगा। किसी भी तरह की अड़चन आने पर वह लड़कियां ही होंगी जिन्हें कहा जाएगा कि वह अपना पढ़ाई लिखाई छोड़ दें।
मैंने अपने अध्ययन में पाया है कि कई लड़कियों ने अपने घर वालों के साथ लड़ झगड़ कर अपनी पढ़ाई पूरी करने की तमन्ना पूरी की है। मल्टीपल एंट्री एंड एग्जिट प्वाइंट का मतलब है कि सर्टिफिकेट और डिप्लोमा लेकर लड़कियों को शादी करने की तरफ धकेलना। इस नई शिक्षा नीति में डिजिटल एजुकेशन पर बहुत जोर दिया गया है। लेकिन जरा सोच कर देखिए कि कोई गरीब परिवार अपने बच्चों के लिए पढ़ने के लिए मोबाइल खरीदता है तो वह सबसे ज्यादा किसके हाथ में रहता है। लड़का या लड़की? इससे आगे सोचकर देखिए कि जब हाथ में मोबाइल आ जाएगा और उसी के जरिए पढ़ाई होगी तो क्या पितृसत्ता में सने हुए परिवार वाले लड़कियों से यह नहीं कहेंगे कि तुम्हें स्कूल जाने की जरूरत क्या है? तुम्हें कॉलेज जाने की जरूरत क्या है? एक स्कूल और कॉलेज केवल चारदीवारी नहीं होता कि उसकी जगह पर मोबाइल का चौखटा रहकर खानापूर्ति कर दी जाए। स्कूल और कॉलेज समाजीकरण के वह जगह होते हैं जहां पर बच्चे जीवन जीने के हुनर को पूरी समग्रता के साथ सीखते हैं। यह डिजिटल की दुनिया में संभव नहीं है।
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