भला सरकारी कंपनियों को बेच कर सरकार की कमाई कैसे हो सकती है?
सरकार के बजट का क्या मतलब होता है? मोटे तौर पर कहें तो आने वाले साल में कमाई और खर्चे का ब्यौरा देना। लेकिन जब कमाई का जरिया सरकारी कंपनियों को बेचकर पूरा किया जाने लगे तो क्या इसे कमाई कहा जाएगा? कहीं आपने सुना है कि घर को बेचकर घर का खर्चा निकालना?
नहीं सुना है तो सुन लीजिए और देख लीजिए। साल 2021- 22 के बजट में यह साफ तौर पर दिखता है कि सरकार सरकारी कंपनियों को बेच कर अपनी कमाई की मंशा जता रही है। सरकार के बजट का कहना है कि आने वाले साल में बैंक, बंदरगाह, इंश्योरेंस कंपनियां, बिजली, पेट्रोलियम, विमानन से जुड़ी कंपनियों को बेचा जाएगा। यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। सरकारी कंपनियों की बेचने की प्रक्रिया हर दिन चलती रहती है। पिछले साल सरकारी कंपनियों की सरकारी हिस्सेदारी बेचकर तकरीबन 2.10 लाख करोड़ रुपए इकट्ठा करने की योजना थी। अबकी बार यह कम हुई है। इस साल सरकारी कंपनियों से सरकारी हिस्सेदारी बेचकर तकरीबन 1.75 लाख करोड़ रुपए का लक्ष्य रखा गया है। इसके साथ बजट में यह भी कहा गया है कि ठप पड़े सरकारी कब्जे वाले जमीन को बेचकर सरकार पैसा निकालेगी।
अब यह सवाल उठता है कि भारत सरकार ने अपनी कमाई का बड़ा जरिया सरकारी कंपनियों की बिक्री के नाम क्यों किया है? बिजनेस अखबारों में लेख लिखने वाले बड़े-बड़े आर्थिक विश्लेषक इस बिकवाली पर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि सरकार के पास पैसा नहीं है। इसलिए कमजोर पड़ रही सरकारी कंपनियों को बेच कर सरकार कमाई कर सकती है। इस कमाई से सरकार द्वारा खर्च किए जाने वाली राशि के कुछ हिस्से की भरपाई की जा सकती है। जिसका मतलब यह होगा कि सरकार का राजकोषीय घाटा कम होगा। इसमें कोई गलत बात नहीं। लेकिन अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक इस तरह की पूरी रायशुमारी को ही गलत ठहराते हैं। अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक लिखते हैं कि इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड और वर्ल्ड बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का मानना है कि सरकारी कंपनियों को बेचकर होने वाली कमाई को राजकोषीय घाटे से अलग रखा जाए। जबकि हकीकत यह होती है कि जब सरकार अपनी ही कंपनी को बेच रही होती है तो अपनी कमाई का जरिया खत्म कर रही होती है। इससे तो राजकोषीय घाटा बढ़ना चाहिए। लेकिन अंतरराष्ट्रीय वित्त के पैमाने पर सरकारी बजट भी बन रहे हैं इसलिए इसे सरकार की कमाई का जरिया दिखा दिया जाता है। और राजकोषीय घाटा कम दिखने लगता है। यह बिल्कुल अवैधानिक तरीका है।
इन सब के बावजूद हकीकत यह है कि साल 2020-21 में सरकार का कुल खर्च 34.50 लाख करोड़ था, और साल 2021-22 में सरकार के कुल खर्च का अनुमान 34.83 लाख करोड़ रुपए है। यानी हकीकत यह है कि सरकार ने भले राजकोषीय घाटा के तौर पर साल 2021-22 का आंकड़ा 6.5 फ़ीसदी के आसपास दिया हो। लेकिन हकीकत में सरकार के जरिए उतना खर्च नहीं किया जा रहा है जितने की मांग महामारी के बाद भारत जैसी अर्थव्यवस्था में सरकार से की जा रही थी।
जनवादी आर्थिक जानकारों की इस समझ यह कह रही थी कि भारत की अर्थव्यवस्था में जब तक लोगों के पास पैसा नहीं होगा तब तक अर्थव्यवस्था ठीक से नहीं चल पाएगी। भारत की अर्थव्यवस्था में मांग की बहुत अधिक कमी है। यानी लोगों के पास पैसा नहीं है, वह खरीदारी नहीं कर रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोगों के पास रोजगार नहीं है। अगर रोजगार के तौर पर कुछ काम है तो आमदनी बहुत कम है। बहुत बड़ा मानव संसाधन बेकार पड़ा है। इन सब को अर्थव्यवस्था में लगाने के लिए जरूरी है कि सरकार बहुत अधिक खर्च करें।
लेकिन हकीकत में सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। हकीकत में अपनी कमाई को पूरा करने के लिए अपनी ही संपत्ति को बेचने के प्लान की घोषणा कर दी गई है। यह सब इसलिए किया गया है कि राजकोषीय घाटे को नियंत्रण में रखा जाए। इन सब का सिरा अंतरराष्ट्रीय वित्त की संस्थाएं वर्ल्ड बैंक और इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड से बनी नियमों से जुड़ता है। जिनका मानना है कि संपत्तियों का निजीकरण किया जाए। सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है। लेकिन इस सोच की सबसे बड़ी दिक्कत यह हुई है कि इससे महज अर्थव्यवस्था के आंकड़े बढ़े हैं। आर्थिक असमानता बढ़ी है। लोगों की भलाई नहीं हुई है। कोरोना के बाद तो यह कहा जा रहा था कि दुनिया का आर्थिक मॉडल बदलेगा। वह पूंजीपतियों की ओर झुकने के बजाए आम जनता की जरूरतों की तरफ झुकेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हुआ वही जो अब तक होते आ रहा है।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की यामिनी अय्यर हिंदुस्तान टाइम्स में लिखती हैं कि सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचकर बजट का प्रबंधन करना जब अच्छा समय चल रहा होता है तब भी एक बुरा फिसकल मैनेजमेंट का औजार होता है। यह समय तो अर्थव्यवस्था के लिहाज से बहुत बुरा है। महामारी के दौरान सरकारी कंपनियों को बेचना अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है।
अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि सरकारी कंपनियों को विनिवेश करने की नीति सही नहीं है। संकट के समय यही सरकारी कंपनियां सरकार के काम आती हैं। यह बहुत जरूरी सरकारी कंपनियां हैं। बाजार का रुख ढुलमुल रहता है। लेकिन इन सरकारी कंपनियों की वजह से सरकार के पास कमाई का एक जरिया रहता है। अगर सरकार इन कंपनियों को बेच देगी तो आने वाले समय में सरकार को ही बहुत अधिक दिक्कत उठानी पड़ेगी।
अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक तो सरकारी कंपनियों को बेच कर राजकोषीय घाटा कम करने की पूरी रणनीति उधेड़ कर रख देते हैं।
एयर इंडिया के निजीकरण का उदाहरण देते हुए प्रभात पटनायक लिखते हैं कि नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप पुरी ने एक बार दावा किया था कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र की एयर इंडिया का निजीकरण न किया गया तो इसे बंद करना पड़ेगा। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी की ओर से इस प्रकार के हैरतअंगेज़ बयान के पीछे दो वजहें हो सकती हैं: पहली अगर निजी ख़रीदार, कंपनी को पुनर्जीवित करने में सक्षम हैं तो यही काम सरकार क्यों नहीं कर सकती हैं?
दूसरा, चलिये अगर एक बार के लिए इस बात को मान भी लें कि जो पुरी ने कहा वह सही है तो उनका यह कहना ही बेहद अजीब है, क्योंकि यह किसी संभावित ख़रीदार के लिए एक तरह का इशारा करना है कि वह इसके लिए अपनी बोली में क़ीमत को गिराकर रखे क्योंकि कंपनी जर्जर हालत में चल रही है।
राजकोषीय घाटा बढ़ने से अर्थव्यवस्था अनियंत्रित हो जाती है। महंगाई बढ़ जाती है। इसलिए राजकोषीय घाटा नियंत्रित करने के लिए सरकारी संपत्तियों को बेचा जाए। यह तर्क मौजूदा भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में जायज नहीं है। राजकोषीय घाटा की फिक्र करने की जरूरत नहीं है। भारत में लोग बेरोजगार हैं। कई संसाधन बेकार पड़े हुए हैं। इसलिए उत्पादित होने वाला सामान खरीदेगा कौन? केवल उत्पादन ही बढ़ेगा? सरकारी कंपनियों को खरीदने के लिए निजी कंपनियां सामने नहीं आएंगी? अगर निजी कंपनियां सामने आएंगी तो कहीं ना कहीं दूसरे जगह से अपना निवेश बेचकर आएंगे। इस तरह से एक जगह से पैसा निकाल कर दूसरा जगह लगाया जाएगा। जिसका कुल प्रभाव अर्थव्यवस्था में शून्य होगा।
महंगाई तब बढ़ती है जब लोगों के पास आमदनी अधिक होती है और बाजार में उत्पादन कम होता है। यहां पर तो उल्टा है। उत्पादन अधिक है और लोगों के पास पैसा नहीं है कि वह सामान और सेवाओं को खरीदें। भारत मांग पक्ष की कमी से जूझ रहा है।
अर्थव्यवस्था के जर्जर माहौल में अधिकतर मामले में निजी कंपनियां सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी खरीदने के लिए बैंकों से कर्ज लेती हैं।
अब अगर सरकार का राजकोषीय घाटा 100 रुपये का है, तो वह वह इस घाटे के वित्तपोषण के लिए बैंक से ऋण लेकर पूरा करेगा। लेकिन इसे इतनी ही मात्रा के सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों के निजीकरण के जरिये हासिल किया जाता है तो निजी खरीदार को इन संपत्तियों को खरीदने के लिए 100 रूपये बैंक से उधार लेना होगा।
यह कहना कि अर्थव्यवस्था के लिए राजकोषीय घाटा “ख़राब” है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों की बिक्री का कदम “ठीक” है, का मतलब यह कहना है कि जो खर्चे सरकार द्वारा बैंक से 100 रूपये के ऋण द्वारा वित्त पोषित किये जाते हैं वे “ख़राब” हैं, लेकिन वही खर्च किसी निजी संस्थान या व्यक्ति द्वारा बैंक के जरिये जुटाए जाते हैं तो “ठीक” है! यह पूरी तरह से किसी भी आर्थिक औचित्य और समझदारी से बिल्कुल परे है।
निजीकरण का कोई आर्थिक औचित्य नहीं है तो निजीकरण किया क्यों जाता है? जब सरकारी और निजी कंपनियों दोनों में इंसान ही काम करते हैं, तब कैसे निजीकरण को बढ़ावा देने वाला तर्क जायज हो सकता है? निजीकरण के समर्थक तर्क देते हैं कि इससे प्रतियोगिता बढ़ेगी और आर्थिक विकास होगा। लेकिन 1990 के बाद से हमने देखा है कि जहां निवेश की जरूरत थी वहां पर निजी कंपनियों ने निवेश नहीं किया है। कंपनियों के जरिए बाजार चलाने की वजह से बाजार से समाज कल्याण का तत्व गायब हो चुका है। सब कुछ केवल मुनाफा है। लोगों ने पौने दाम पर काम करने के लिए तैयार रहते हैं। केवल आर्थिक आंकड़े बढ़ते हैं। पूंजीपतियों की जेबें भरती है। लोगों का शोषण जारी रहता है।
यह सब महज इसलिए हो रहा है कि हम सब एक ऐसे आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक मॉडल में जी रहे हैं। जहां पैसे का वजूद बहुत अधिक बढ़ गया है। राजनीति पूरे समाज पर हावी है। और अपने को कारगर बनाने के लिए राजनीति आर्थिक तौर पर मजबूत पूंजीपतियों और मठाधीशों से हमेशा सांठगांठ बनाए रखती है। और इस सांठ-गांठ का असर यह होता है कि सरकारी कंपनियां बिकती हैं। राजकोषीय घाटा नियंत्रित करने के नाम पर छलावा किया जाता है। आम लोगों का जीवन स्तर बद से बदतर होते चला जाता है।
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