आगरा टूरिज़्म को कोरोना से पहले हिन्दुत्व ने बहुत नुकसान पहुंचाया है
भारत के प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर का मत था कि अपनी पसंदीदा बेग़म मुमताज़ महल की मौत के जिस ग़म में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने ताज महल बनवाया था, उसने उस दुःख को हमेशा-हमेशा के लिए अमर बना दिया। टैगोर की रचना "एक आंसू की बूंद समय के गाल पर" में जिस ख़ूबसूरती से ताजमहल का ज़िक्र हुआ है, वो हमेशा पढ़ने वालों को मंत्रमुग्ध करता रहेगा।
लेकिन आज इस ताजमहल की चमक पर अचंभित होने के लिए कोई पर्यटक मौजूद नहीं है, क्योंकि 18 मार्च से ही नोवेल कोरोना वायरस के सामुदायिक प्रसारण की रोकथाम के लिए इसके दरवाज़े सभी के लिए बंद कर दिए गए थे। इसने आगरा के पर्यटन उद्योग पर निर्भर लगभग पांच लाख लोगों की किस्मत बदल कर रख दी है, जिनका अस्तित्व आजतक इस ताजमहल के आकर्षण के बल पर टिका हुआ था। वे बेहद घबराए हुए हैं, यहाँ तक कि रुआंसे हैं।
आगरा को तालाबंदी की हालत में डाल दिए जाने से पहले से ही टूर ऑपरेटरों के पास बुकिंग रद्द करने की झड़ी लग चुकी थी, होटल और रेस्तरां के शटर डाउन होने लगे थे। अस्थाई तौर पर ही सही टूरिस्ट गाइड अपना समय काटने के बहाने ढूंढने को मजबूर थे। कलात्मक कलाकृतियों की दुकानों में तो लोगों का आना ना के बराबर था, बिक्री का तो सवाल ही नहीं उठता। कारीगरों के पास मोमोज़ बेचने या ई-रिक्शा चलाने के विचार पनपने लगे थे, जबकि बाकियों के लिए छंटनी का ख़तरा सर पर मंडराने लगा था।
ऐसे लगा मानो कोरोना वायरस कुछ वैसा ही हश्र आगरा के साथ कर रहा है जैसा कि औरंगज़ेब ने अपने पिता शाहजहाँ के साथ किया था, जब उसे आठ सालों तक अपने पुत्र द्वारा क़ैद में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
इसके बावजूद पर्यटन उद्योग से जुड़े किसी भी इंसान से बात कर के देखें, तो यही सुनने को मिलेगा कि आगरा के पर्यटन उद्योग को कोरोना वायरस के कहर से पहले ही भारतीय जनता पार्टी की नीतियों ने तबाह कर डाला था। हो सकता है वे आपसे पूछ बैठें: क्या यह बात सही नहीं कि विशेष रूप से उच्च रक्तचाप और मधुमेह से पीड़ित व्यक्ति के कोरोना वायरस की चपेट में आने का ख़तरा अधिक है?
ज़ाहिर तौर पर आप जवाब में हाँ कहेंगे। और वे बुदबुदाते हुए कहेंगे, जी, यह सच आगरा के लिए भी है।
फिर वे आपको बताएँगे कि किस तरह आगरा तो अगस्त से ही परेशान होने लगा था, जिस महीने सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटा दिया था। कहने के लिए तो कह सकते हैं कि अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से पहले के हफ़्तों में ही शहर की आँखें डबडबा चुकी थीं। इसके बाद तो नागरिकता संशोधन अधिनियम के लागू होने और इसकी वजह से हुए विरोध की वजह से पर्यटन उद्योग पूरी तरह से ठप होने की कगार पर पहुँच गया।
टूरिज़्म गिल्ड ऑफ़ आगरा, जिसके सदस्य के तौर पर विभिन्न ट्रेवल कम्पनियाँ और विभिन्न स्टार केटेगरी में वर्गीकृत होटल और बड़े एम्पोरियम हैं, के उपाध्यक्ष राजीव सक्सेना कहते हैं कि “सामाजिक-राजनीतिक अस्थिरता के कारण पर्यटन क्षेत्र में 25-30 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। जो कि अब पूरी तरह से शून्य है।“
सक्सेना और उनके जैसे अन्य लोग सामाजिक असंतोष के इन महीनों को एक और कारण से भी याद रखते हैं। उनका मानना है कि कोरोना वायरस के भय की गिरफ़्त में भारत के आने से पहले आगरा घूमने आ रहे पर्यटकों की संख्या यदि कम न हुई होती तो आज पर्यटन उद्योग के पास इस शटडाउन से होने वाले नुकसान के सहन की क्षमता कहीं बेहतर होती। उन्होंने जनवरी और अप्रैल के मध्य भी हालात में बदलाव की उम्मीद लगा रखी थी, जिन महीनों के दौरान चीनी और ईरानी आगरा घूमने आते हैं।
चीनी पर्यटक अपने नए साल की छुट्टियों के मौक़े पर विदेश भ्रमण पर निकलते हैं, जिसकी शुरुआत इस साल 24 जनवरी से शुरू हुई और 8 फरवरी को जाकर ख़त्म हो गई। एक अनुमान के अनुसार क़रीब 15,000 चीनी पर्यटकों की बुकिंग आगरा की हो रखी थी। जिसके बाद मार्च के अंत तक ईरानियों का आना तय। वे भी मार्च के अंत में अपने नव वर्ष नॉरूज़ के मौके पर विदेशों में घूमने आते हैं। आगरा को उम्मीद थी कि इस साल ईरानी क़रीब 10,000 की संख्या में यहाँ पधारेंगे।
आगरा में खतरे की घंटी तो तभी बजनी शुरू हो चुकी थी जब नोवेल कोरोना वायरस की बीमारी के चलते जनवरी में वैश्विक स्तर पर Covid-19 से लोगों की मौत की खबर आने लगी थी। शहर में पसरे हुए डर की पुष्टि तब हुई, जब 24 जनवरी से बीजिंग ने अपने यहाँ से विदेश जाने वाले यात्रा समूह पर प्रतिबंधों की घोषणा कर दी।
इंडियन एसोसिएशन ऑफ टूर ऑपरेटर्स के चेयरमैन सुनील गुप्ता, जिनकी कंपनी ट्रैवल ब्यूरो आगरा में काफी जानी-मानी है, ने कहा, "पांच-छह महीने पहले से जो यात्रा तय थी उनकी बुकिंग रद्द हो गईं।"
आमतौर पर जब कभी चीनी ट्रैवल कंपनियां बुकिंग कराती हैं, जैसे कि मान लें 25 लोगों के लिए बुकिंग करनी है, तो उनके भारतीय समकक्ष हवाई और रेल टिकटों को खरीदने से लेकर होटलों के कमरे और सफारी की बुकिंग करते आए हैं। अक्सर एडवांस के तौर पर आंशिक भुगतान मिल जाता है। आज यात्रा रद्द होने की स्थिति में चीन की ओर से भुगतान की राशि के वापस किये जाने की माँग हो रही है।
अब समस्या ये है कि उनके भारतीय समकक्ष इस रिफंड किये जाने की माँग को तो स्वीकार रहे हैं बशर्ते एयरलाइंस और होटलों की ओर से उनका रिफंड उन्हें वापस मिल जाए। लेकिन अक्सर एयरलाइन्स और होटलों का तर्क यह रहता है कि अगली बुकिंग में इस बकाये को एडजस्ट कर लिया जाएगा। जबकि ऐसा होने में अभी कई महीनों का वक्त है। इसके पीछे एक वजह तो ये है कि चिलचिलाती गर्मी में पर्यटक भारत का रुख करने से परहेज करते हैं। जुलाई में जाकर इनका धीरे-धीरे पंजीकरण होना शुरू होता है, जब यूरोप से लोग बूंद-बूंद आने शुरू हो जाते हैं और फिर अक्टूबर से यह कर्व में अचानक से अपने उछाल पर चला जाता है। दूसरी बात ये है कि इस बात की किसी को भनक नहीं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था और यात्रियों के मनोविज्ञान पर कोरोना वायरस का कितना असर पड़ने जा रहा है।
गुप्ता कहते हैं “जब मेरा विदेशी ग्राहक रिफंड की माँग करता है तो मेरा कहना होता है कि जैसे ही मुझे मेरा रिफंड मिलता है, मैं कर दूंगा। लेकिन वास्तव में यह बेहद अप्रिय स्थिति है। व्यवसाइयों के लिए तरलता को बनाये रखने के साथ ही धंधे को टिकाये रखने के लिए कष्टप्रद उपाय अपनाना स्वाभाविक है। जैसे कि आगरा में तालाबंदी की स्थिति आने से पहले ही गुप्ता ने अपने कर्मचारियों को काम पर न आने के निर्देश दे दिए थे। उनकी ओर से सभी को वेतन का भुगतान किया जाएगा, लेकिन कम से कम इसके ज़रिये बिजली जैसे अन्य ख़र्चों में बचत तो होगी।"
हालाँकि जो उपक्रम गुप्ता की कम्पनी से छोटे हैं, वे फण्ड के अभाव में आगे कदम नहीं बढ़ा सकते, खासकर वे जो पिछले कुछ महीनों में मांग में सुस्ती के चलते नुकसान झेल रहे थे। होटल और रेस्तरां एसोसिएशन के वे सदस्य जो बजट वाले पर्यटकों को अपनी सेवाएं देते हैं, के अध्यक्ष राकेश चौहान ने लॉकडाउन होने से पहले ही अपने होटल पर्ल ऑफ ताज-होमस्टे पर ताला जड़ दिया था।
चौहान गुस्से में कहते हैं "इमरजेंसी के समय में भी होटल बंद नहीं हुए थे।“ उनका गुस्सा उनके बेहतर व्यक्तित्व की पहचान तब जाहिर करता है जब वे होटलों की बंदी के कारणों को सामाजिक उथलपुथल के चलते आगरा के कमजोर होते पर्यटन उद्योग से जोड़कर देखते हैं। वे कहते हैं कि मार्च तक उनकी कमाई 50% तक कम हो चुकी थी, जो कि अब जीरो हो चुकी है।
चौहान अपने लिए और पर्यटन उद्योग के लिए धारा 370 के पठन और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में कोई फायदा नहीं देखते। वे कहते हैं “मुझे तो फायदा तब होगा जब मैं मुसलमानों को ईद की बधाई देने जा सकूँ और जब वे मेरे साथ होली खेलने आयें। पर्यटन चाहिए तो उसके लिए शांति पहली शर्त है।“
सोचकर अजीब लग सकता है कि कश्मीर में अशांति के मद्देनजर, क्यों पर्यटक देश के अन्य हिस्सों में जाने से परहेज करते हैं। टूरिज्म गिल्ड के सक्सेना इसे समझाते हैं "उनके लिए कश्मीर में अशांति का मतलब सिर्फ कश्मीर से में नहीं होता, बल्कि उनके लिए तो यह भारत भर में है। अजमेर में हुई कोई लिंचिंग की घटना सिर्फ अजमेर में नहीं है, बल्कि उनके लिए तो सारे भारत में है। ऐसी स्थिति में वे यहां आने से घबराते हैं। ”
माना जाता है कि भारत में अपने 10 दिनों के प्रवास के दौरान विदेशी पर्यटक तकरीबन 2,500 डॉलर से 15,000 डॉलर के बीच खर्चते हैं। "यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के समान है" सक्सेना कहते हैं "जिस प्रकार से एफडीआई निवेश उन्हीं देशों में देखने को नजर आती है जहाँ पर सामाजिक स्थिरता कायम हो, उसी तरह पर्यटक भी उन्हीं स्थानों पर जाना पसन्द करते हैं जहां सामाजिक सद्भाव कायम हो।"
दुनिया की धारणाओं और यादों में दखल बना पाना आसान नहीं है। मिसाल के तौर पर मोदी सरकार भारत को योग की घरती के रूप में प्रचारित-प्रसारित करने में जी-जान से जुटी है। इसके बावजूद दुनियाभर के अधिकांश यात्रियों की नजर में ताजमहल भारत की शान है। भारत की खूबियों के सरकारी प्रदर्शनों में योगा को ताजमहल की जगह प्रतिस्थापित नहीं किया जाना चाहिए। यह ठीक उसी प्रकार से है जैसे किसी बल्लेबाज को रिवर्स स्वीप में महारत हासिल करने की चाहत हो, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उसे अपने प्रदर्शनों की सूची में से स्ट्रेट ड्राइव को ही निकाल देना चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से मिले 2020 के कैलेंडर से ताजमहल को नदारद देख सक्सेना सकते में थे। चुटकी लेते हुए सक्सेना कहते हैं “विडंबना ये है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प आए, तो उन्हें दिखाने के लिए ताजमहल लाया गया। हरिद्वार क्यों नहीं ले गए उन्हें, योगा कराने के लिए? ”
आगरा के पुरातत्वविद अधीक्षक वसंत कुमार स्वर्णकार इस दावे को सिरे से ख़ारिज करते हैं कि आगरा आने वाले पर्यटकों की संख्या घटते क्रम में है। दैनिक तौर पर ताजमहल में लोगों की आवाजाही औसतन 30,000 से 35,000 के बीच झूलती है, जिसमें 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चे शामिल हैं। इनमें से लगभग 10-15% पदचाप विदेशी सैलानियों के होते हैं।
"ये आंकड़े ताज में टिकट की बिक्री से लिए गए हैं" स्वर्णकार बताते हैं। "दिसंबर के अलावा किसी भी अन्य महीने में उल्लेखनीय गिरावट देखने को नहीं मिली, जो कि सीएए विरोधी आन्दोलन के चलते हुई थी।"
मैंने उन सभी से स्वर्णकार की ओर से दिए गए आँकड़े के बाबत सवाल उछाले, जिनके साथ पहले बात कर चुका था। उनका खंडन कुछ इस प्रकार था: "क्या आपको अभी भी आधिकारिक आंकड़ों पर भरोसा है?" उनका कहना था कि पर्यटन उद्योग में गिरावट की उनकी धारणा का आधार उनके खाता-बही के आँकड़ों और यात्रियों के ठहरने के आधार पर है। एक व्यक्ति ने कहा कि ताज देखने के लिए कितने लोग आये, यह उनके लिए अप्रासंगिक है। उसके लिए तो यह बात मायने रखती है कि कोई रात्रि-विश्राम के लिए आगरा के होटल में रात गुजारता है या नहीं। एक और थे जिनका मानना था कि ताज में पर्यटकों की आधिकारिक गिनती में दक्षिण एशिया से आये लोग भी शामिल हैं। लेकिन आगरा का पर्यटन अपनी वित्तीय जीवन्तता अगर कहीं से पाता है तो यह उसे यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और दक्षिण पूर्व एशिया से आने वाले यात्रियों से ही मिल पाती है।
ये वे क्षेत्र हैं जो मानवाधिकारों और राज्य द्वारा राजनीतिक असंतोष को कुचलने के प्रश्न पर काफी संवेदनशील हैं। उनके समाजों में दशकों से सामाजिक स्थिरता बनी हुई है और हिंसा के संकेत मात्र से वे खुद को सिकोड़ लेते हैं। कोरोनावायरस के भारत में आने से पहले ही उनके आगरा से दूरी बनाने ने, शहर के एम्पोरियमों की बिक्री घटा डाली थी। इनमें खुदरा रिटेल हेंडीक्राफ्ट की बनी वस्तुएं जैसे हाथी, ज्यूलरी बॉक्स और संगमरमर कि बनी ताजमहल की प्रतिकृतियां आदि की बिक्री में भारी गिरावट शामिल हैं।
एम्पोरियम मालिकों के संघ, आगरा टूरिस्ट वेलफेयर चैंबर के अध्यक्ष प्रहलाद अग्रवाल का कहना है “आगरा में हस्तशिल्प की वार्षिक औसत बिक्री 1,500 करोड़ रुपये है। अगस्त के बाद से हमें इसमें 20-25 प्रतिशत की गिरावट का नुकसान झेलना पड़ा है।
भारत में जारी सामाजिक असंतोष से बिक्री में होने वाली गिरावट की बात को अग्रवाल भी स्वीकार करते हैं। उन्होंने मुझे सवाल किया: क्या मैं ऐसी जगह जाना पसन्द करूँगा, जहाँ अशांति का माहौल चल रहा हो? मैंने बताया कि जिन दिनों दंगा हुआ था, उस दौरान मैं पूर्वोत्तर दिल्ली नहीं गया था। अग्रवाल इस बात पर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं “आपके लिए यह हिंसा पूर्वोत्तर दिल्ली तक सीमित थी। लेकिन हम आगरा वालों के लिए तो समूचे दिल्ली शहर में दंगे हो रहे थे।” ठीक इसी तरह विदेशियों के लिए कोई भी शहर या राज्य का मतलब समूचा भारत होता है।
कोरोनावायरस से भारत के संक्रमित होने से पहले ही अग्रवाल इस बात को लेकर चिंतित थे कि बिक्री में 20-25 प्रतिशत की गिरावट का असर कारीगरों पर कितना बुरा पड़ा है। टर्नओवर में गिरावट का मतलब ही हुआ एम्पोरियम में माल का ढेर लगना, जिसे देखते हुए मालिक कारीगरों से अपनी खरीद को कम करने पर मजबूर हो गए थे। ऐसे में कारीगर खुद की गुजर बसर के लिए अन्य क्षेत्रों में अपना हाथ पाँव मारने के लिए मजबूर होंगे।
उनका कहना था “इन कारीगरों ने यह हुनर अपने पिता से, और उन्होंने अपने पहले की पीढ़ी से सीखा था। एक बार यदि वे इस हस्तशिल्प क्षेत्र को छोड़ देते हैं, तो यह भारत की विरासत के लिए एक आघात से कम नहीं होने जा रहा।
सामाजिक रूप से विभाजनकारी नीतियों को अपनाने में मोदी सरकार की सहज प्रवृत्ति उसके आर्थिक मंदी को उलट पाने में विफल साबित होने से मेल खाती है। कोरोनावायरस महामारी के कारण इसमें और तेजी ही आयेगी। कारीगरों और व्यापारियों के संगठन आगरा मार्बल-स्टोन हस्तकला गृह उद्योग समिति के अध्यक्ष सुनील कुमार वर्मा कहते हैं “हमारे आइटम सजावटी, लक्जरी वाले आइटम हैं। जब लोगों की जेबों में पैसों की कमी होती है, तो वे हमारे आइटम्स के बजाय अपनी जरूरतों पर ही इसे खर्च करते हैं।“
वर्मा का अनुमान है कि अगस्त से ही कलाकृतियों की बिक्री में गिरावट की दर 40-50 प्रतिशत के बीच थी। इसके चलते उन कारीगरों को अग्रिम धन मुहैय्या करा पाने की उनकी क्षमता कम हो चुकी है, जो अपने उत्पादों की आपूर्ति उन्हें करते आये हैं। कोरोनवायरस के कारण यह क्षमता और भी घट चुकी है। जैसे कि फिलहाल 25 लाख रुपये का निर्यात आदेश पेंडिंग पड़ा है, जिसमें से 15 लाख रुपये मूल्य की वस्तुएं शिपिंग के लिए तैयार रखी थीं, लेकिन उस पर रोक लग गई है।
वर्मा कहते हैं "मैं अपनी ओर से उनके प्रति सिर्फ सहानुभूति ही दिखा सकता हूं।" हमारी बातचीत को बीच में ही टोकते हुए वे बोल पड़ते हैं कि मुझे संजीव सक्सेना से बात करनी चाहिए, जिनका परिचय मुझे यह बताकर दिया गया कि वे आगरा के सबसे बेहतरीन कारीगरों में से एक हैं। वर्मा के मोबाइल पर सक्सेना शोकपूर्ण लहजे में बताते हैं '' अब कोई भी खरीददार नहीं रहा। हममें से कुछ लोग हिंदू हैं जो सोचते हैं कि उन्हें मोमोज बेचना शुरू कर देना चाहिए, और जो मुसलमान हैं वे बिरयानी बेचने की सोच रहे हैं।”
आगरा के पर्यटन की पहचान उनके टूरिस्ट गाइड से है। यही वे लोग हैं जो पर्यटकों के साथ बातचीत करने, उन्हें ऐतिहासिक स्थानों और आसपास की सैर कराते हैं जिनसे आगरा की पहचान है, और उन स्थानों के बारे में आकर्षक किस्से सुनाते हैं। पर्यटकों को कहाँ से क्या खरीदना चाहिए इसका वे मार्गदर्शन करते हैं। औसतन इनकी आय हर महीने 40,000-50,000 रूपये की होती है। हालाँकि कुछ लोग इसके साथ-साथ छोटे मोटे काम धंधे या स्वतंत्र अध्यापन के जरिये भी अपनी आय को पूरा करते हैं।
आगरा के एप्रूव्ड गाइड्स एसोसिएशन के अध्यक्ष संजय शर्मा ने बताया, "कोरोनावायरस ने उन्हें पूरी तरह से बेरोजगारी की हालत में छोड़ दिया है। वो भी फरवरी और मार्च के महीने में, जिसमें कि हमारा धंधा अपने चरम बिंदु पर होना चाहिए था।" शर्मा कहते हैं कि इस मुश्किल घड़ी में सरकार को अपनी ओर से गाइडों को सब्सिडी देनी चाहिए, और भविष्य के लिए पेंशन स्कीम जैसे सुरक्षा चक्र निर्मित करने चाहिए।"
कई अन्य क्षेत्रों से भी इसी तरह की माँगें देखने में आ सकती हैं, जो पहले से ही आर्थिक मोर्चे पर गंभीर चुनौतियों से घिरी मोदी सरकार के लिए परीक्षा की घड़ी बन सकती है। वहीं दूसरी ओर मोदी सरकार का जैसा कि इसके पिछले छह वर्षों से काम का स्टाइल रहा है, ने अपनी चुनावी लहर को कामयाब बनाए रखने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को निरंतर आगे बढ़ाने की कोशिशें ही की हैं। यही वह ज़मीन है जहाँ से आगरा से समवेत स्वर एक चेतावनी के तौर पर मोदी पर उठ कर आने चाहिए: माना कि किसी भी सरकार के लिए यह एक तरह से नामुमिकन है कि वह प्रकृति के गुस्से से अपने लोगों को बचा ले जाए, लेकिन इतना तो वह निश्चित तौर पर कर सकती है कि जानबूझकर सामाजिक उठा-पटक का कारक बनने से ख़ुद को दूर रखे।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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