जीडीपी वृद्धि दर की जड़-पूजा
जॉन स्टुअर्ट मिल आधुनिक दौर के सबसे प्रमुख उदारवादी चिंतकों में से थे, जिन्होंने अर्थव्यवस्था और दर्शन पर बहुत विस्तार से लिखा है। हालांकि, अपनी पत्नी हैरियट टेलर मिल के प्रभाव में, अपने जीवन के बाद के हिस्से में वह समाजवाद के निकट आ गए थे, फिर भी उन्हें एक प्रकार के सहकारी समाजवाद ने ही आकर्षित किया था। वास्तव में उन्हें मुख्यत: एक प्रमुख उदारवादी चिंतक ही माना जाता है।
मिल के जमाने के अर्थशास्त्री एक अचल या स्टेशनरी अवस्था के आ जाने के डर से खासतौर पर पीडि़त थे। अचल अवस्था का आशय होता है, सरल पुनरुत्पादन या शून्य वृद्धि दर वाली अवस्था, जिसमें और ज्यादा पूंजी संचय हो ही नहीं रहा होगा। बहरहाल, मिल इस तरह की अचल अवस्था को बड़े समभाव से लेते थे। उनका मानना था कि ‘असली वांछित के रूप में हमें वितरण में सुधार पर और श्रम के लिए एक बढ़े भुगतान पर ध्यान लगाना चाहिए’ न कि ‘उत्पादन में बढ़ोतरी मात्र’ पर, जिसे अक्सर ‘अनुचित महत्व दिया जाता’ है।
उन्नीसवीं सदी के एक उदारवादी चिंतक के इस रुख की तुलना जरा अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं तथा राष्ट्रीय सरकारों की, जिसमें भारत सरकार भी शामिल है, उस जबर्दस्त रक्षापंक्ति से करें, जो इसके प्रचंड साक्ष्यों के बावजूद कि जीडीपी में वृद्धि के साथ-साथ शुद्ध गरीबी बढ़ रही है, जीडीपी में बढ़ोतरी पर ही सारा जोर बनाए हुए है यानी सच्चे वांछित के रूप में ‘वितरण में सुधार पर और श्रम के लिए एक बढ़े हुए भुगतान’ के बजाए ‘उत्पादन में बढ़ोतरी मात्र’ पर जोर बनाए हुए है।
एक समय वह भी था जब जीडीपी की ऊंची दर को हमारे जैसे देशों में बेरोजगारी तथा गरीबी को दूर करने के लिए आवश्यक माना जाता था और इस तरह ‘उत्पादन में बढ़ोतरी मात्र’ और ‘श्रम के लिए एक बड़े भुगतान’ केे बीच कोई अंतर ही नहीं किया जाता था, फिर दोनों के बीच किसी टकराव की कल्पना करने का तो सवाल ही कहां उठता था। तब तो यही तर्क दिया जाता था कि जीडीपी की वृद्धि ऊंची होगी, तो इससे रोजगार में वृद्धि की दर बढ़ेगी, जिससे सुरक्षित श्रम यानी बेरोजगारों की फौज के सापेक्ष आकार में कमी होगी, जिससे श्रम बाजार में तेजी आएगी और वास्तविक मजदूरी की दर बढ़ जाएगी। इस तरह की स्थिति में, अगर वास्तविक मजदूरी की दर उतनी तेजी से नहीं भी बढ़ती है, जितनी तेजी से श्रम की उत्पादकता बढ़ती है, तो भी श्रम की उत्पादकता की तुलना में वह, अन्यथा जितनी रफ्तार से बढ़ रही होती, उससे कहीं तेज रफ्तार से बढ़ रही होगी। वैसे भी जीडीपी वृद्धि की तेजतर रफ्तार से मजदूर पहले के मुकाबले खुशहाल होंगे और यह बेरोजगारी घटाने के जरिए भी हो रहा होगा और वास्तविक मजदूरी को, अन्यथा जिस स्तर पर रही होती, उससे बढ़ाने के जरिए भी हो रहा होगा।
नव-उदारवाद में रोज़गार वृद्धि की दर का सवाल
बहरहाल, इस दलील में दम नहीं निकला। जीडीपी की किसी खास वृद्धि के साथ जुड़ी रोजगार वृद्धि की दर, इस वृद्धि प्रक्रिया की प्रकृति पर निर्भर करती है यानी जीडीपी में इस वृद्धि के दायरे में कौन से माल तथा क्षेत्र आते हैं या मांगों के किस वर्ग को यह वृद्धि संबोधित करती है। अगर जीडीपी में वृद्धि कृषि तथा लघु उत्पादन जैसे क्षेत्रों से संचालित होती है, उसके रोजगार उत्पादक प्रभाव काफी उल्लेखनीय होते हैं। लेकिन, एक नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में, जहां निजाम की प्रकृति ही ऐसी होती है कि कृषि तथा लघु उत्पादन अंतहीन संकट में फंसे रहते हैं, जीडीपी में वृद्धि सामान्य तौर पर ऐसे क्षेत्रों में होती है, जो अंतरराष्ट्रीय बाजार की मांग की और उन तबकों की उपभोग की मांगों की पूर्ति करती है, जो आर्थिक अधिशेष पर पलते हैं। लेकिन, ये तो ठीक वही क्षेत्र हैं जहां उत्पाद की रोजगार सघनता कम होती है और लगातार चलने वाले प्रक्रिया व उत्पाद नवोन्मेषों के जरिए, बराबर घटती ही रहती है। इसलिए, नव-उदारवादी निजाम के तहत जीडीपी की ऊंची वृद्धि दरें भी रोजगार में बहुत कम बढ़ोतरी ही पैदा करती हैं या हम कह सकते हैं कि उत्पाद के सापेक्ष रोजगार की नमनीयता यानी उत्पाद में 1 फीसद बदलाव के साथ होने वाले रोजगार में बदलाव का अनुपात, बहुत ही कम, यहां तक कि शून्य के करीब ही रहता है (जिसे अक्सर ‘रोजगारहीन वृद्धि’ के नाम से जाना जाता है)। इतना ही नहीं, उत्पाद की वृद्धि दर जैसे-जैसे बढ़ायी जाती है, वैसे-वैसे रोजगार की प्रेक्षित नमनीयता घटती जाती है और इस तरह जीडीपी की वृद्धि दर ऊंची होने से, रोजगार में वृद्धि में ज्यादा से ज्यादा बहुत ही मामूली बढ़ोतरी ही होती है।
चूंकि इस दौरान आबादी में और इसलिए श्रम शक्ति में बढ़ोतरी हो रही होती है, नव-उदारवादी व्यवस्था में जीडीपी की वृद्धि की ऊंची दर के साथ भी, रोजगार में इतनी कम वृद्धि दर चल रही होती है कि यह दर, श्रम शक्ति में वृद्धि की दर से नीचे चली जाती है और इसका नतीजा यह होता है कि श्रम की सुरक्षित सेना के सापेक्ष आकार में कमी आने के बजाए, इसके सापेक्ष आकार में बढ़ोतरी ही हो रही होती है। ऐसी सूरत में मजदूरी की दर तो शायद ही कभी बढ़ती है, प्रतिव्यक्ति रोजगार के घट जाने चलते, मेहनतकश आबादी का दरिद्रीकरण ही हो रहा होता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में क्या हो रहा है?
भारतीय अर्थव्यवस्था में ठीक यही होता रहा है। जहां भारत को दुनिया की अपेक्षाकृत तेजी से वृद्धि कर रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक बताया जाता है, इस आबादी का घोर दरिद्रता या एब्सोल्यूट पॉवर्टी में रहने वाला हिस्सा नव-उदारवादी दौर में बढ़ता गया है। यह हिस्सा मोदी दौर में खासतौर पर बढ़ता गया है, जो कि नव-उदारवाद के संकट का दौर भी है। इस संदर्भ में दो प्रश्न उठते हैं: पहला, क्या वजह है कि सरकारें अब भी जीडीपी वृद्धि दर की रट लगाती रहती हैं, जबकि उन्हें अपना ध्यान हटाकर उस चीज की ओर लगाना चाहिए जिसे जेएस मिल जैसे उदारवादी चिंतक ने भी ‘सच्चा वांछित’ लक्ष्य बताया था? दूसरा यह कि जीडीपी वृद्धि की ऊंची दर को हम कैसे समझें जबकि इसके साथ न सिर्फ आय असमानता बढ़ रही है बल्कि गरीबी तक बढ़ रही है। क्या इस तरह की बढ़ती वंचना से सकल मांग को ही नहीं सिकुड़ना चाहिए और इसके चलते वृद्धि का दम घुट रहा होना चाहिए।
पहले सवाल का जवाब बिल्कुल सादा सा है कि नव-उदारवाद, मिल के बताए ‘‘वांछित’’ को मानता ही नहीं है। उसकी तो पहचान देशों की सीमाओं के आर-पार मालों, सेवाओं तथा वित्त की अपेक्षाकृत बेरोक-टोक आवाजाही से और इसलिए राज्य को, ‘श्रम के लिए कहीं ज्यादा मजदूरी’ हासिल कराने के लिए एक हस्तक्षेपकारी भूमिका की जगह पर, पूंजी के मददगार की भूमिका में घटाए जाने से होती है। मिल ने जिस तरह के वांछित की ओर इशारा किया था, उस तरह के किसी वांछित को मानना तो, श्रम के पक्ष में राज्य के हस्तक्षेप को ही वैधता प्रदान करेगा और यह नव-उदारवाद को सख्त नापसंद है। इसलिए, नव-उदारवाद यह स्वांग भरता है कि पूंजी को खुली छूट देने से (और आम तौर पर राज्य से पूंजी के हितों को आगे बढ़वाने से) वृद्धि आएगी और यह भी कि और सारे वांछित, ऊंची जीडीपी वृद्धि दर से खुद ही हासिल हो जाएंगे। नुक्ता यह नहीं है कि यह सच है या नहीं, जाहिर है कि यह सच नहीं है। नुक्ता यह है कि नव-उदारवादी पूंजीवाद की अनिवार्यत: यही विचारधारा है। और भारत की जैसी सरकारें और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक जैसी संस्थाएं, इसी विचारधारा को मानती हैं।
जीडीपी वृद्धि भी वाकई बाधित हो रही है
दूसरे सवाल का जवाब यह है कि जीडीपी की वृद्धि दर पर, असमानता तथा गरीबी में बढ़ोतरी का वाकई प्रभाव पड़ा है। यह विश्व अर्थव्यवस्था के स्तर पर ही सही नहीं है, जहां नव-उदारवाद अपनी ही पैदा की हुई बढ़ती असमानता के चलते एक अंधी गली में पहुंच गया है, जहां असमानता में वृद्धि सकल मांग में वृद्धि का गला घोंट दिया है तथा अधि-उत्पादन की प्रवृत्ति को पैदा कर दिया है; यही भारतीय अर्थव्यवस्था के संबंध में भी सच है।
वैसे भी अनेक लेखकगण, जिनमें भारत के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम से लेकर अशोक मोदी तथा देश के पूर्व मुख्य सांख्यिकीकार, प्रणव सेन तक शामिल हैं, यह कह चुके हैं कि भारत की जीडीपी वृद्धि दर उल्लेखनीय रूप से बढ़ाकर आंकी जा रही है। इस अतिरंजित आकलन के लिए उन्होंने अलग-अलग कारणों का जिक्र किया है और उनमें से हरेक कारण में एक हद तक सचाई है। इसलिए, इस आकलन के अतिरंजित होने के तथ्य पर शायद ही कोई विवाद हो सकता है। लेकिन, यह सवाल अपनी जगह रहता है कि इस आकलन में अतिरंजना का पैमाना क्या है? अगर इस अतिरंजना को 2 फीसद सालाना माना जाए, जिसका कि कुछ लेखकों ने इशारा किया है, तो नव-उदारवादी दौर में जीडीपी की वृद्धि दर, इससे पहले के नियंत्रणात्मक अर्थव्यवस्था के दौर से जरा सी ही ज्यादा बैठेेगी और इस अंतर में शोर मचाने वाली शायद ही कोई बात होगी।
जीडीपी वृद्धि दर धीमी पड़ी
लेकिन, यहां हमारी चिंता जीडीपी वृद्धि दर के स्तर की ही नहीं होकर, जीडीपी की वृद्धि दर के धीमी पड़ने की है, हालांकि यह भी सच है कि अगर वृद्धि दर के स्तर को ही बढ़ाकर आंका गया है, तब एक अवधि में उसके उतार-चढ़ाव का कोई भी आकलन भी अविश्वसनीय हो जाएगा। फिर भी सरकारी आंकड़ों से ही इस दर का धीमा पड़ना तो साबित होता ही है। 2001-02 और 2011-12 के बीच, भारतीय अर्थव्यवस्था में वास्तविक ग्रॉस मूल्य में बढ़ोतरी की सालाना चक्रवृद्धि दर, सरकारी आंकड़ों के अनुसार 6.7 फीसद रही थी। लेकिन, 2011-12 से 2019-20 के बीच यानी वृद्धि दर में महामारी के चलते आयी गिरावट से पहले तक भी, यह दर गिरकर 5.4 फीसद रह गयी थी। 2022-23 तक अर्थव्यवस्था इससे उबर आयी, फिर भी 2011-12 से 2022-23 के बीच चक्रवृद्धि सालाना वृद्धि दर 5.4 फीसद ही बैठती है।
अर्थव्यवस्था की रफ्तार के इस तरह सुस्त पड़ने में किसी को भी हैरानी नहीं होनी चाहिए। जब आय वितरण की स्थिति बदतर हो रही है यानी आर्थिक अधिशेष का हिस्सा बढ़ रहा है, इसके पूर्व-रंग के तौर पर आय वृद्धि के सापेक्ष सकल मांग की वृद्धि का धीमा पड़ना अपरिहार्य हो जाता है। रूसी अर्थशास्त्री, मिखाइल तुगान बरानोव्स्की ने इस प्रस्थापना का यह कहते हुए खंडन किया था कि यह संभव है कि उपभोग वृद्धि में गिरावट की क्षतिपूर्ति निवेश में वृद्धि में बढ़ोतरी से हो जाए। लेकिन, यह एक तार्किक संभावना तो हो सकती है, लेकिन यह मानने का कोई कारण नहीं है कि एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में निवेश का व्यवहार ऐसा होने देगा क्योंकि पूंजीपति तो तभी निवेश करते हैं जब उन्हें बाजार मिलने की संभावना दिखाई देती है। बेशक, अधि-उत्पादन की ओर पूर्व-प्रवृत्ति की काट करने के लिए सरकार हस्तक्षेप तो कर सकती है, लेकिन नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में उसके हाथ राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी और अमीरों पर ज्यादा कर लगाए जाने के प्रति वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के विरोध से बंधे होते हैं, जबकि यही दो उपाय हैं जिनसे सरकार के बढ़े हुए खर्च के लिए वित्त जुटाया जा सकता है और सकल मांग को ऊपर उठाया जा सकता है।
इसीलिए, जीडीपी वृद्धि की जड़ पूजा न तो नव-उदारवादी व्यवस्था में गरीबी में बढ़ोतरी को रोक सकती है और न जीडीपी वृद्धि को भी बनाए रखने में कामयाब हो सकती है।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)
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