जनसंख्या के बढ़ते दबाव के लिए कोई भी धर्म कितना ज़िम्मेदार है?
भारत की आबादी और बच्चा पैदा करने की दर को लेकर अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर का एक अध्ययन इन दिनों सुर्खियों में है। इस अध्ययन के मुताबिक देश में हिंदू-मुसलमान समेत सभी धर्मों के लोग अब कम बच्चे पैदा कर रहे हैं। यानी भारत में सभी धार्मिक समूहों की प्रजनन दर में काफ़ी कमी आई है। इस रिपोर्ट के बाद एक बार हिंदू-मुसलमान और अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की बहस को हवा मिल गई है। कुछ लोग रिपोर्ट को आईना बता रहे हैं तो कुछ इसे संप्रदायिकता का रंग देने की कोशिश कर रहे हैं।
दरअसल, इस अध्ययन में यह समझने की कोशिश की गई है कि भारत की धार्मिक आबादी में किस तरह के बदलाव आए हैं और इसके पीछे प्रमुख कारण क्या हैं। भारत में सबसे ज़्यादा संख्या वाले हिंदू और मुसलमान देश की कुल आबादी का 94% हिस्सा हैं यानी करीब 1.2 अरब। इसके बाद ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन धर्मों के अनुयायी भारतीय जनसंख्या का 6% हिस्सा हैं। प्यू रिसर्च सेंटर ने यह अध्ययन हर 10 साल में होने वाली जनगणना और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के आंकड़ों के आधार पर किया है।
धर्म और प्रजनन दर
आपको बता दें कि हमारे समाज में कुछ तथाकथित लोग धर्म को प्रजनन दर से जोड़कर देखते हैं। और जनसंख्या के बढ़ते दबाव के लिए एक विशेष समुदाय के लोगों को टारगेट करते हैं। कुछ राज्य सरकारें तो इसे रोकनेे के लिए धर्मांतरण और जनसंख्या नियंत्रण जैसे क़ानून भी पेश कर रही हैं। ऐसे में प्यू सेंटर की ये रिपोर्ट धर्म से इतर प्रजनन दर को प्रभावित करने के लिए शिक्षा के स्तर से लेकर गरीबी तक तमाम अन्य कारकों की ओर ध्यान आकर्षित करती है।
मालूम हो कि साल 1947 में विभाजन के बाद से लेकर अब तक भारत की जनसंख्या तीन गुने से ज़्यादा बढ़ी है। साल 1951 में भारत की जनसंख्या 36 करोड़ थी, जो साल 2011 आते-आते 120 करोड़ के क़रीब पहुँच गई। स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना साल 1951 में और आख़िरी साल 2011 में हुई थी। प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार इस अवधि में भारत में हर प्रमुख धर्मों की आबादी बढ़ी।हालांकि अब इस रिपोर्ट के अनुसार हिंदू और मुस्लिम प्रजनन दर में एक बड़ी गिरावट नज़र आ रही है।
मुस्लिमों की प्रजनन दर में कमी
शोध में जिस प्रजनन दर यानी टीएफ़आर का ज़िक्र किया गया है उसका मतलब है- देश का हर जोड़ा अपनी ज़िंदगी में औसत रूप से कितने बच्चे पैदा करता है। किसी देश में सामान्य तौर पर टीएफ़आर 2.1 रहे तो उस देश की आबादी स्थिर रहती है। इसका मतलब है कि इससे आबादी न तो बढ़ती है और न ही घटती है। फ़िलहाल भारत में टीएफ़आर 2.2 है। इसमें मुस्लिमों की प्रजनन दर 2.6 और हिंदुओं की 2.1 है। यानी इन दोनों की प्रजनन दर में अब ज़्यादा अंतर नहीं रह गया है। लेकिन खास तौर पर ग़ौर करने वाली बात यह है कि हाल के दशक में मुस्लिम की प्रजनन दर काफ़ी ज़्यादा कम हुई है।
आज़ादी के बाद भारत की प्रजनन दर काफ़ी ज़्यादा 5.9 थी। 1992 में जहाँ मुस्लिम प्रजनन दर 4.4 थी, वह 2015 की जनगणना के अनुसार 2.6 रह गई है। जबकि हिंदुओं की प्रजनन दर इस दौरान 3.3 से घटकर 2.1 रह गई है। आबादी की वृद्धि दर में ऐसी ही गिरावट सभी धर्मों में देखी गई है। आज़ादी के बाद मुसलिम आबादी 1951 से 1961 के बीच 32.7 फ़ीसदी की दर से बढ़ी जो भारत की औसत वृद्धि से 11 पर्सेंटेज प्वाइंट ज़्यादा थी। 2001 से 2011 के बीच मुस्लिम वृद्धि दर 24.7 फ़ीसदी हो गई जो पूरे भारत की औसद वृद्धि 17.7 फ़ीसदी से सिर्फ़ 7 पर्सेंटेज प्वाइंट ज़्यादा है। पारसी को छोड़ सभी धर्म के लोगों की आबादी बढ़ी है। पारसी आबादी जहाँ 1951 में 1 लाख 10 हज़ार थी, वह 2011 में घटकर 60 हज़ार हो गई।
धर्म प्रजनन दर को प्रभावित करने वाला एकमात्र या प्राथमिक कारण नहीं है!
वैसे आबादी बढ़ने या प्रजनन दर के कम या ज़्यादा होने का धर्म से क्या लेनादेना है, प्यू रिसर्च में इसका भी जवाब मिलता है। अध्ययन में बताया गया है कि धर्म किसी भी तरह से प्रजनन दर को प्रभावित करने वाला एकमात्र या यहाँ तक कि प्राथमिक कारण नहीं है। अध्ययन में कहा गया है कि मध्य भारत में अधिक बच्चे पैदा होते हैं, जिनमें से बिहार में प्रजनन दर 3.4 और उत्तर प्रदेश में 2.7 है। जबकि तमिलनाडु और केरल में प्रजनन दर क्रमशः 1.7 और 1.6 है। बिहार और उत्तर प्रदेश की ग़रीब राज्यों में गिनती होती है और यहाँ शिक्षा की स्थिति भी उतनी अच्छी नहीं है। इसके उलट केरल और तमिलनाडु में इन दोनों मामलों में काफ़ी बेहतर स्थिति है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, 2005-06 में बिहार में जहां मुस्लिमों का टीएफआर 4.8 था वहीं 2019-20 में यह घटकर 3.6 रह गया है। यानी 1.2 की कमी आई है। इस दौरान हिंदुओं की टीएफ़आर 3.9 से घटकर 2.9 रह गई है। यानी 1.0 की कमी आई है। हिमाचल प्रदेश में तो 2019-20 में हिंदुओं और मुस्लिमों का टीएफ़आर 1.7-1.7 बराबर ही है, जबकि इससे पहले 2015-16 में हिंदुओं का टीएफ़आर 2 और मुस्लिमों का 2.5 था।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार 30 हज़ार भारतीयों ने ख़ुद को नास्तिक बताया था। क़रीब 80 लाख लोगों ने कहा था कि वो छह प्रमुख धर्मों में से किसी से भी ताल्लुक नहीं रखते हैं। पिछली जनगणना के अनुसार भारत 83 छोटे धार्मिक समूह थे और सबके कम से कम 100 अनुयायी थे। प्यू रिसर्च के अध्ययन में ये दिलचस्प बात सामने आई है कि भारत में ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो ख़ुद को किसी धर्म से वास्ता नहीं रखने वाला बताते हैं। वैश्विक स्तर पर देखें तो ईसाइयों और मुसलमानों के बाद तीसरे नंबर पर वो लोग हैं जो ख़ुद को किसी धर्म से जुड़ा नहीं बताते।
शिक्षा, गरीबी जनसंख्या को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारक
गौरतलब है कि भारत में कई धर्मों के लोगों की आबादी बहुत ज़्यादा है। मसलन, दुनिया के 94% हिंदू भारत में रहते हैं, इसी तरह जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या भी काफ़ी ज्यादा है और दुनिया के 90% सिख तो सिर्फ़ भारत के पंजाब राज्य में रहते हैं। बावजूद इसके भारत में अब भी मुसलमानों की प्रजनन दर सभी धार्मिक समूहों से ज़्यादा है। साल 2015 में हर मुसलमान महिला के औसतन 2.6 बच्चे थे।
वहीं, हिंदू महिलाओं के बच्चों की संख्या औसतन 2.1 थी। सबके कम प्रजनन दर जैन समूह की पाई गई। जैन महिलाओं के बच्चों की औसत संख्या 1.2 थी। हालांकि प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार जनसंख्या दर में कमी ख़ासकर उन अल्पसंख्यक समुदाय में आई है, जो पिछले कुछ दशकों तक हिंदुओं से कहीं ज़्यादा हुआ करती थी।
अध्ययन के अनुसार भारत की धार्मिक आबादी में जो मामूली बदलाव हुए हैं, उसे प्रजनन दर ने ही 'सबसे ज़्यादा' प्रभावित किया है। जनसंख्या में वृद्धि का एक कारण यह भी है कि ज़्यादा युवा आबादी वाले समूहों में महिलाएं शादी और बच्चे पैदा करने की उम्र में जल्दी पहुँच जाती हैं। नतीजतन, ज़्यादा उम्र की आबादी वाले समूह से युवा आबादी बहुल समूहों की जनसंख्या भी तेज़ी से बढ़ती है। अध्ययन के अनुसार, साल 2020 तक हिंदुओं की औसत उम्र 29, मुसलमानों की 24 और ईसाइयों की 31 साल थी।
भारत में जनसंख्या को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों में महिलाओं का शैक्षिक स्तर भी शामिल है। उच्च शिक्षा वाली महिलाएं कम पढ़ी-लिखी महिलाओं की तुलना में देरी से शादी और कम बच्चे पैदा करती हैं। इसके अलावा महिलाओं की आर्थिक स्थिति भी जनसंख्या को प्रभावित करती है। ग़रीब महिलाओं की शादी अमीर महिलाओं की तुलना में जल्दी हो जाती है और उनके बच्चे भी ज़्यादा होते हैं। ताकि वो घर के कामों और पैसे कमाने में मदद कर सकें। बहरहाल, प्यू रिसर्च सेंटर की ये रिपोर्ट बढ़ते जनसंख्या दबाव को कम करने के लिए धर्म से ज्यादा महिलाओं के शिक्षित और समृद्ध होने पर जोर देती है, जो हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई भी है।
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