कश्मीर जनादेश – 2024 को किस तरह समझा जाये
कश्मीर जनादेश – 2024 बताता है कि फ़िलहाल बुलेट (गोली) पर बैलट (मतपत्र) भारी पड़ा है। लेकिन बुलेट की गूंज बनी रहेगी।
मंगलवार 8 अक्तूबर 2024 को, जिस दिन केंद्र-शासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव की मतगणना चल रही थी, दक्षिण कश्मीर के जंगलों में हथियारबंद विद्रोहियों (मिलिटेंट) ने दो फ़ौजियों का अपहरण कर लिया। इनमें से एक की लाश दूसरे दिन मिली। दूसरा फ़ौजी घायल हालत में सेना के एक अस्पताल में भर्ती है। दक्षिण कश्मीर के जंगलों में भारतीय सेना और हथियारबंद विद्रोहियों के बीच मुठभेड़ जारी है। (‘इंडियन एक्सप्रेस’, 10 अक्तूबर 2024.)
अगस्त और सितंबर के महीनों में, चुनाव प्रचार के दौरान, कश्मीर में भारतीय सेना और हथियारबंद विद्रोहियों के बीच मुठभेड़ें जारी रहीं। अब ये मुठभेड़ कितनी असली थीं कितनी नकली, कहना मुश्किल है। लेकिन दोनों ओर लाशें गिरती रहीं। (कश्मीर में नकली/फ़र्ज़ी मुठभेड़ों का लंबा इंतिहास है।)
यानी, जनादेश – 2024 के बाद भी कश्मीर में बुलेट और बैलट का ‘सहअस्तित्व’ बना रहेगा! कश्मीर (जम्मू-कश्मीर) की नयी, चुनी हुई सरकार इस विरोधाभास (paradox) को—इस जटिल गुत्थी को—कैसे सुलझाती है, यह देखना होगा।
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के लिए 18 सितंबर से 1 अक्तूबर 2024 तक तीन चरणों में जो मतदान हुआ, उसमें कुल मिलाकर 63.88 प्रतिशत वोट पड़े। यानी, क़रीब 37 प्रतिशत लोगों ने वोट नहीं डाला। ये कौन लोग हैं, जिन्होंने वोट नहीं दिया, और क्यों नहीं दिया—यह सोचने की बात है। ख़ुद जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के नेता उमर अब्दुल्ला का कहना है कि श्रीनगर विधानसभा क्षेत्र में सिर्फ़ 30 प्रतिशत मतदान हुआ, और 70 प्रतिशत लोगों ने वोट नहीं डाला। (‘इंडियन एक्सप्रेस’, 10 अक्तूबर 2024.)
जिन्होंने वोट नहीं दिया, क्या वे इस राजनीतिक प्रक्रिया को निरर्थक मानते हैं? क्या वे इसे लीपापोती, दिखावा, छलावा समझते हैं? क्या वे किसी अन्य विकल्प के बारे में सोचते हैं? और, जिन्होंने वोट दिया, उनकी क्या मानसिकता, क्या सोच रही? क्या वे सोचते हैं कि इससे उनकी ज़िंदगी में—कश्मीर की ज़िंदगी में—बुनियादी बदलाव आयेगा?
बुनियादी बदलाव न भी हो, लेकिन अगर ये चुनाव नतीजे कश्मीर में चौतरफ़ा फैले दमनकारी, दमघोंटू माहौल से कुछ राहत दिला पायें, तो भी गनीमत होगी। कुछ आज़ादी मिल सके, सांस लेने की थोड़ी मोहलत मिल सके, तो कोई बात बने। यह जलती हुई तमन्ना रही कि कश्मीरी को, अन्य भारतीय नागरिक की तरह, नागरिक समझा जाये और वैसी ही बर्ताव उसके साथ किया जाये—लोकतंत्र, न्याय, समानता और बंधुत्व की भावना के साथ।
इसके लिए ज़रूरी है कि संविधान के अनुच्छेद 370 को बहाल किया जाये, जिसे कश्मीरियों से अगस्त 2019 में ज़बरन छीन लिया गया, और खंडित कर दिये गये जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा वापस मिले। कश्मीरियों की यह मांग और चाहत रही है।
दमघोंटू माहौल से आज़ादी की इस चाहत के तहत ही कश्मीरियों ने विधानसभा चुनाव – 2024 में नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस-सीपीआई (एम) गठबंधन–इंडिया गठबंधन—को अच्छे-ख़ासे वोटों से जिताया। नेशनल कॉन्फ़्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में यह गठबंधन जम्मू-कश्मीर में सरकार बनायेगा, ऐसी संभावना है। इसे कश्मीरी जनता की कामचलाऊ जीत के रूप में देखा जाना चाहिए।
लेकिन कश्मीरियों की आज़ादी की इस चाहत को भारतीय सेना और दिल्ली दरबार (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह) पूरा होने देंगे? और, ख़ुद उमर अब्दुल्ला भी इस चाहत को पूरा करने के लिए किस हद तक आगे जायेंगे?
क्योंकि चुनावी जीत के बाद उमर अब्दुल्ला के सुर कुछ बदले हुए-से लग रहे हैं, अनुच्छेद 370 की बहाली को लेकर वह अगर-मगर करने लगे हैं, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र की भाजपा गठबंधन सरकार के साथ ‘मेलमिलाप’ पर वह ज़्यादा जोर देने लग गये हैं।
याद रखा जाना चाहिए कि जब केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन की सरकार थी (1998-2004), तब उमर अब्दुल्ला उस सरकार में विदेश राज्यमंत्री थे.)
इस तल्ख़ सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि जम्मू-कश्मीर में—ख़ासकर कश्मीर घाटी में—भारतीय सेना खुल्लमखुल्ला एक समानांतर सत्ता बन गयी है, जिसकी मर्ज़ी के बग़ैर कुछ नहीं होता। उस पर राज्य सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। वह सीधे दिल्ली दरबार (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह) से संचालित होती है। क्या इस असंवैधानिक सत्ता केंद्र को नयी राज्य सरकार तोड़ पायेगी या उसे नियंत्रित कर सकेगी? कश्मीरी जनता पर भारतीय सेना के जो अनगिनत अत्याचार, बर्बरताएं, ज़ुल्म-ओ-सितम रहे हैं, जिन्होंने कश्मीर का बेड़ा गर्क कर दिया, क्या उनकी जवाबदेही तय होगी और उन पर रोक लगेगी? कश्मीर के सैकड़ों राजनीतिक कार्यकर्ता, पत्रकार, मानवाधिकार ऐक्टिविस्ट, नौजवान कई सालों से कश्मीर की जेलों में और देश की अन्य जेलों में बंद हैं। क्या चुनी हुई राज्य सरकार उनकी रिहाई करा पायेगी? इन जलते हुए सवालों से राज्य सरकार को रूबरू होना पड़ेगा।
गहरी विडंबना यह है कि जनता की ओर से चुनी गयी जम्मू-कश्मीर सरकार को एक ऐसे अधिकारी (उपराज्यपाल मनोज सिन्हा) के मातहत काम करना होगा, जो निर्वाचित नहीं है, और जो दिल्ली दरबार का एजेंट है। अभी जो स्थिति है, उसमें जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल को केंद्र सरकार ने सर्वेसर्वा बना दिया है—सारे विधायी (legislative) और कार्यपालिका (executive) अधिकार उसके पास हैं। विधानसभा को पूरी तरह शक्ति-विहीन और अधिकार-विहीन बना दिया गया है। मुख्यमंत्री को हर काम के लिए उपराज्यपाल की मंज़ूरी और दस्तख़त लेने होंगे।
अफ़सरों का ट्रांसफ़र/पोस्टिंग करने की तो बात छोड़िये, एक चपरासी तक को नियुक्त करने के लिए मुख्यमंत्री को उपराज्यपाल की मंज़ूरी लेनी होगी।
ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच टकराव बढ़ेगा और ‘मेलमिलाप’ की गुंजाइश कम होती चली जायेगी। क्या दिल्ली दरबार के आगे समर्पण कर देना होगा? उमर अब्दुल्ला शायद इस बात को समझ रहे होंगे। तभी, चुनावी जीत के बाद भी, बातचीत के दौरान उमर मुस्कराते नहीं दिखायी देते और तनाव में दिखायी देते हैं। अनुच्छेद 370 का ज़िक्र आने पर वह जिस तरह असहज हो जा रहे हैं, उस पर लोगों का ध्यान गया है।
(लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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