कैसा रहा 1991 के मशहूर आर्थिक सुधार के बाद अब तक का सफ़र
भारत के इतिहास में साल 1991 के जुलाई महीने की 24 तारीख वह दिन है जिस दिन तय किए गए ढांचे के तहत पिछले 30 सालों से आर्थिक यात्रा चल रही है। उस समय को याद करते हुए भारत के मशहूर अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक अपने एक लेख में लिखते हैं कि मीडिया पूरी तरह से स्टेट के कंट्रोल में थी। राज्य ने 1991 में अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में लिए गए अपने फैसलों को ऐसा आर्थिक सुधार कहकर खूब फैलाया जिससे भारत की पूरी दशा बदल जाएगी।
आर्थिक नीति के खिलाफ जो कड़े सवाल पूछने थे और कड़े सवालों के निष्कर्ष जनता के बीच फैलाने थे, वह काम नहीं हुआ। साल 1991 का आर्थिक सुधार महज बाजार को मिले फायदे का सौदा नहीं था बल्कि पूरी तरह से राज्य की लोक कल्याणकारी प्रकृति को बदल देने वाला सौदा था। राज्य की प्रकृति में यह बदलाव अचानक नहीं हुआ बल्कि जिस तरह के आर्थिक सुधार अपनाए गए उससे राज्य की प्रकृति बदलनी तय थी, आगे चलकर यही हुआ।
इन आर्थिक सुधारों के तकरीबन 30 साल हो गए हैं। तो चलिए एक बार फिर से थोड़ा देखें कि इन आर्थिक सुधारों के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था किस राह पर चल रही है ?
साल 1991 में भारत की अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया के लिए खोल दिया गया। यानी राज्य ने बहुत सारी छूट दे दी कि दुनिया के किसी भी कोने से भारत में निवेश किया जा सकता है। भारत की कंपनियों का मालिकाना हक दूसरे देश के निवासियों के हाथ में भी जा सकता है। आजादी के बाद का भारतीय राज्य अपने लोगों को संभालने के लिए घरेलू बाजार पर कई तरह के प्रतिबंध लगाकर काम कर रहा था। इसके पीछे जरूरी परिकल्पना यही थी कि भारत एक गरीब मुल्क है यहां सब कुछ सबके लिए खुले तौर पर खोला नहीं जा सकता है। यह परिकल्पना बिल्कुल जायज थी। लेकिन साल 1991 के आर्थिक सुधारों से इन प्रतिबंधों को भी हटा दिया गया। इस तरह से भारतीय राज्य उदारीकरण और निजीकरण के रास्ते पर चल पड़ा। धीरे धीरे भारतीय राज्य यह खुलकर कहने लगा कि राज्य का काम और बाजार का काम अलग अलग है। सब कुछ राज्य नहीं कर सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित मौजूदा मंत्रिमंडल के सभी नेता कई मौके पर यह कहते हुए पाए गए हैं कि राज्य का काम बिजनेस करना नहीं है।
प्रोफेसर प्रभात पटनायक अपने एक रिसर्च पेपर में लिखते हैं कि जब राज्य के पास अपने लोगों की भलाई को ध्यान में रखते हुए किसी भी तरह की फैसले का अधिकार था तब वह सबसे ऊपर था। उसके पास इसकी पूरी संभावना थी कि मजदूर और किसान वर्ग या किसी भी तरह से कमजोर लोग शोषण का शिकार ना बने। कम से कम वो ऐसी नीतियां तो बना ही सकता था जहां पर इनकी नासमझी का फायदा उठाकर बाजार पूरी तरह से ने बर्बाद न करने लगे। राज्य के भीतर भले पूंजीवादी किस्म का विकास क्यों ना होता लेकिन राज्य उस पर प्रतिबंध लगा सकता था। परंतु खुद राज्य ने ऐसी नीति अपना ली कि वह बाजार में दखलअंदाजी नहीं करेगा। तो इसकी बहुत बुरे परिणाम झेलने पड़े।
इसका का सबसे खतरनाक परिणाम कृषि क्षेत्र पर पड़ा। जहां पर भारत की सबसे अधिक आबादी काम कर रही है। राज्य का सपोर्ट कम हुआ। सरकारी मदद के नाम पर बैंकों से लोन और बैंक क्रेडिट की परिकल्पना सामने आयी। छोटे-छोटे उत्पादन करने वाले लोग खत्म होते चले गए। लोन के जरिए वित्तीय पूंजी का सिस्टम बनता चला गया।ऐसे सिस्टम में वही आगे बढ़ते हैं जिनके पास खूब पैसा होता है और वह पिछड़ते जाते हैं जिनके पास पैसा नहीं होता। जिनके पास रिस्क उठाने की क्षमता नहीं होती।
कोरोना के दौरान ही देख लीजिए अर्थव्यवस्था मांग की कमी से जूझ रही है। लोगों की जेब में पैसा नहीं है। और सरकार लोन पर लोन की घोषणा किए जा रही है। अगर सरकार की मदद ऐसी है तो ऐसी मदद लेगा कौन? वही ऐसी मदद लेगा जिसके जेब में पहले से पैसा है। वह क्यों लेगा जिसकी जेब में पैसा ही नहीं है।
पिछले 30 सालों में शिक्षा और स्वास्थ्य पर उस तरह का ध्यान देना बंद कर दिया जिस तरह के ध्यान की जरूरत एक गरीब मुल्क को अपने लोक कल्याणकारी राज्य से होती है। इसका कितना खतरनाक परिणाम सहना पड़ रहा है? इसे हम हर दिन देख सकते हैं।
प्रवासी मजदूरों को ही देख लीजिए। इनमें सबसे अधिक वही हैं जो पैसे की कमी से पढ़ नहीं पाए। इनकी पूरी जिंदगी 10 से 20 हजार की महीने पर टिकी हुई है। इससे इनका जीवन स्तर तय होता है। महंगाई और बाजार के दौर में 10 से ₹20 हजार रूपए में कोई अपने परिवार को किस तरह की जिंदगी दे पाएगा?
हिंदुस्तान टाइम्स के इकोनामिक एडिटर रोशन किशोर ने बड़ी विस्तृत तरीके से हिंदुस्तान टाइम्स अखबार में पिछले 30 सालों के आर्थिक सुधार की यात्रा की चर्चा की है। रोशन किशोर लिखते हैं कि आजादी के बाद भारतीय सरकार ने यह महसूस किया अंग्रेजों की वजह से भारत का औद्योगिककरण पूरी तरह से बर्बाद हो चुका है। यहां का कच्चा माल दूसरे देशों में जाता है। वहां से तैयार होकर दूसरे देशों को मुनाफा देता है। भारत के लोग गरीब रह जाते हैं। इसलिए सरकार ने आजादी के बाद के शुरुआती सालों में आयात को लेकर के कठोर नीति अपनाई। लेकिन इसका फायदा नहीं पहुंच रहा था जितना पहुंचना चाहिए था। क्योंकि संरचनात्मक तौर पर ढेर सारी कमियां थी। इसलिए बहुत अधिक हो हल्ला भी हो रहा था कि आयात पर लगने वाला है कठोर प्रतिबंध भारत के लिए घातक साबित हो रहा है। साल 1991 के बाद बंद भारत को खोल दिया गया।
अगर आंकड़ों के लिहाज से देखें तो बंद भारत को खोलने के बाद भी पिछले 30 सालों में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का जीडीपी में हिस्सा जहां पर पहले था तकरीबन उतना ही अब भी है। साल 1990 - 91 में भारत की कुल जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 15 फ़ीसद भी हुआ करता था। साल 2017-18 में पिछले 30 सालों में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के जीडीपी में हिस्से में अब तक का सबसे अधिक इजाफा हुआ। यह महज कुल जीडीपी का 17.1 फ़ीसदी था। इसके बाद फिर से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में कमी दर्ज की गई।
साल 1991 के बाद भारत के सभी इलाकों का विकास समान तौर पर नहीं हुआ है। बिहार राज्य की पूरी जीडीपी साल 2017-18 में उतनी ही थी, जितना वह साल 1990 में हुआ करती थी। लेकिन गुजरात की कुल GDP बिहार और झारखंड से भी ज्यादा है। यही हाल दक्षिण के राज्यों के साथ है। उनकी प्रति व्यक्ति आय भारत के बीमारू राज्य यानी कि बिहार उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश राजस्थान उड़ीसा से ज्यादा है।
आकार के लिहाज से साल 1990 में दुनिया में भारत की अर्थव्यवस्था का स्थान 12वां था। साल 2020 में यह बढ़कर छठवें स्थान पर पहुंच गया। लेकिन जब प्रति व्यक्ति आय के आधार के देखा जाए तो भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया के 176 देशों के बीच 133वें पायदान पर खड़ी मिलती है। इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ा है लेकिन लोगों की जीवन स्तर में बड़ा बदलाव नहीं हुआ है।
साल 1990 में इस पर खूब प्रचार-प्रसार किया गया कि भारत की अर्थव्यवस्था दमदार बनेगी, आयात कम होगा और निर्यात ज्यादा होगा। हकीकत यह है कि साल 1990 में भारत की कुल जीडीपी में निर्यात की हिस्सेदारी तकरीबन 5.6 फीसदी थी। साल 2013 - 14 में सबसे अधिक बढ़ोतरी से ही इसकी हिस्सेदारी तकरीबन 16 फ़ीसदी के आसपास पहुंची। लेकिन फिर से गिरावट आई।
2020-21 में भारत की कुल अर्थव्यवस्था में निर्यात की हिस्सेदारी महज 10.9 फ़ीसदी है। लेकिन आयात में खूब इजाफा हुआ है। साल 1990 में भारत की कुल जीडीपी में आयात की हिस्सेदारी 7 फ़ीसदी थी। अब बढ़कर 27 फ़ीसदी हो चुकी है। यानी हमने दूसरे देशों से माल और सेवाएं ज्यादा खरीदी हैं और दूसरे देशों में अपनी माल और सेवाएं कम बेची हैं। इसका मतलब यह है कि हमारी वजह से दूसरे देशों को रोजगार ज्यादा मिला है और हमें रोजगार कम मिला है।
हिंदुस्तान टाइम्स की रोशन किशोर लिखते हैं कि भ्रष्टाचार को लेकर 1990 के बाद से लेकर अब तक लोगों के जहन में किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नोटबंदी हुई नतीजा सबके सामने था सारे नोट लौटकर बैंक में चले आए। साथ में सरकारी नीतियां इस तरीके से बन रहे हैं कि अप्रत्यक्ष कर का भार बढ़ता जा रहा है और प्रत्यक्ष कर का भार कम होते जा रहा है। मतलब यह कि अमीर अपनी सेवाओं के लिए सरकार को कम भुगतान कर रहे हैं और गरीबों से कर के तौर पर ज्यादा वसूली की जा रही है।
अब बात करते हैं गरीबी की। आखिरकार इन 30 सालों में गरीबी की क्या स्थिति रही है। इस पर कोई महत्वपूर्ण डाटा नहीं है। मोदी सरकार ने तो डाटा के क्षेत्र में लंबा घपला किया है। इसी घपले से जुड़ा एक महत्वपूर्ण डाटा नवंबर 2019 में पत्रकारों के हाथ लग गया। अखबारों में छप गया। मोदी सरकार उसे झूठ बताने लगी। डेटा का नाम था कंजप्शन एक्सपेंडिचर सर्वे 2017- 18। इसका निष्कर्ष था कि साल 2011 से लेकर साल 2018 तक हर एक भारतीय द्वारा महीने में खर्च की जाने वाली राशि वास्तविक कीमत के आधार पर कम हुई है। यानी लोगों ने पैसा अधिक खर्च नहीं किया है। लोग पैसा अधिक तभी खर्च करते हैं जब उनके जेब में पैसा होता। इसका निष्कर्ष साफ था कि पिछले 4 दशक में ऐसा हो सकता है कि भारत में गरीबी ज्यादा बढ़ी हो। कोरोना के बाद कई ऐसे आंकड़े आए जिन्होंने इसकी तरफ इशारा भी किया कि महज एक साल की तालाबंदी दौरान करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गए और करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए।
इन 30 सालों में फायदा किसका हुआ? प्रोफेसर पटनायक का अध्ययन कहता है कि इन 30 सालों में राज्य की प्रकृति बदल गई। राज्य वैश्विक वित्तीय तंत्र को ध्यान में रखकर राजकोषीय घाटे जैसे उपाय बड़ी कड़ाई से भारत जैसे गरीब मुल्क में अपनाने लगा। देश के भीतर एक ऐसा वित्तीय तंत्र बना जिसमें वही अमीर होता गया जिसके पास पहले से पता था। पहले से जिसकी जेब में अकूत पैसा है वही आगे चलकर अमीर होता है।
इस पूरी प्रक्रिया पर वरिष्ठ पत्रकार अनिंदो चक्रवर्ती ने न्यूज़क्लिक पर एक वीडियो बनाया है। उस वीडियो को देखना चाहिए। जो बहुत अधिक अमीर बने उन्हीं के साथ राज्य ने गठजोड़ किया। अमीर राज्य को फायदा पहुंचाते रहे और राज्य अमीर को फायदा पहुंचाते रहे। इन दोनों के गठजोड़ के अलावा बहुसंख्यक जनता पिछड़ी ही रही। वह ट्रिकल डाउन इफेक्ट वाली प्रक्रिया बिल्कुल ही नहीं हुई जिसकी वकालत 1991 के आर्थिक सुधारों के दौरान अर्थशास्त्री किया करते थे। पूंजी का संकेंद्रण कुछ लोगों के हाथों में बढ़ता चला गया। और बहुत बड़ी आबादी से पूंजी छीनती चलती है। सबसे नीचे मजदूर और किसान वर्ग था। इसने इस दौरान सबसे बड़ी मार झेली।
कहने का मतलब यह कि पिछले 30 साल की व्याख्या की जाए तो यह है कि भारतीय राज्य पूंजीपतियों के गिरफ्त में कैद है और जिसके पास पैसा है उसके आगे बढ़ने की संभावना दूसरों से ज्यादा है। जो सेवा क्षेत्र में लगे हुए हैं और जीडीपी में सबसे बड़ा योगदान दे रहे हैं, उनमें से अधिकतर हिस्सा महीने की बहुत कम आमदनी पर जीने के लिए मजबूर है।
इन सभी बातों का कहीं से भी यह मतलब नहीं है की 1990 से पहले वाले दौर में चला जाए। वजह यह कि उसके पहले भी ढेर सारी खामियां थी। आंकड़े बताते हैं कि 1960 से 70 के दौर का आर्थिक विकास 1950 के आर्थिक विकास से भी कम था। 1990 के पहले ढेर सारी खामियां थी। लेकिन 1990 के बाद जिस तरह के फैसले लिए गए। तीन दशक बाद उन फैसलों का परिणाम यह नहीं बताता कि इस तरह की नीतियां अपनाकर भारत जैसे बड़े और गरीब देश खुशहाली दी जा सकती है।
इसलिए आर्थिक विकास की रणनीति पर बहुत गहरी पड़ताल की जरूरत है। सरकार यह कहकर अपना पल्ला झाड़ नहीं सकती है कि बिजनेस करना उनका काम नहीं है।
सरकार चुनने का मतलब है कि लोक कल्याण सबके हिस्से में आए। लोक कल्याण निजीकरण उदारीकरण से तो बिल्कुल नहीं आ रहा।
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