सुपर-रिच पर टैक्स लगाने से आर्थिक तरक़्क़ी का खुल सकता है नया रास्ता
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : Needpix.com
पूंजीवादी व्यवस्था के नवउदारवादी दौर की शुरुआत के बाद से धन और आय की असमानता में ऐतिहासिक रूप से अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है। यह बढ़ती असमानता पूंजीवादी व्यवस्था के नवउदारवादी दौर का परिणाम है, यानी कीमतों पर काबू पाने के प्रयास में बेरोजगारी, अल्परोजगार और अनिश्चितता के माहौल में वृद्धि हुई है।
इस बढ़ती असमानता का मुख्य कारण आय और संपत्ति में सुपर-रिच (अरबपति और बहु-करोड़पति) की हिस्सेदारी का बढ़ना है। ऊंची और कम मजदूरी पाने वाले श्रमिकों के बीच वेतन असमानता, सुपर-रिच की संपत्ति और आय में बढ़ती हिस्सेदारी के कारण बढ़ती असमानता उपरोक्त मुख्य घटक से कम है। लेकिन नवउदारवाद के समर्थक बढ़ती आय और संपत्ति असमानता के मामले में सहमति बनाने की कोशिश करने के लिए वेतन असमानता पर अनावश्यक रूप से जोर देते हैं, जाहिर तौर पर यह ज़ोर इस आधार पर होता है कि यह प्रवृत्ति अधिक नवाचार (Innovation) के लिए चुकाई जाने वाली कीमत है।
1970 के दशक से, और विशेषकर सोवियत संघ (जो 1991 तक संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रमुख तकनीकी प्रतिद्वंद्वी था) के ढहने के बाद, उत्पादन से जुड़े अमेरिका का अनुसंधान और विकास खर्च में 1945 के बाद की अवधि की तुलना में कमी आई, जिसके परिणामस्वरूप निजी अनुसंधान और विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा था।
हालांकि, चीन की बढ़ती तकनीकी स्वीकृति, विशेष रूप से 21वीं सदी में (मुख्य रूप से सार्वजनिक अनुसंधान और विकास के मामले में) ने अमेरिका में सार्वजनिक अनुसंधान और विकास की मांग को एक बार फिर से जन्म दिया।
लेकिन दो परस्पर जुड़े कारकों के कारण व्यापक आर्थिक मांग में रुझान नवाचार के प्रतिकूल हो गए। सबसे पहले, बेरोजगारी, अल्परोजगार और अनिश्चितता का अपेक्षित स्तर वहां तक पहुंच गया, जो कीमतों को स्थित करना संभव बनाती है, इसमें प्रति-चक्रीय वित्तीय नीति (जिसे अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी के प्रभुत्व के माध्यम से लागू किया जाता है) के माध्यम से व्यापक आर्थिक मांग कमजोर पड़ी, जहां नवउदारवाद का दबदबा था।
दूसरा, अमेरिका और चीन (और रूस) के बीच रणनीतिक संघर्ष ने व्यापक आर्थिक मांग को बढ़ाने वाले निर्यात के दायरे को कम कर दिया है।
इसलिए, पूंजीवादी व्यवस्था के नवउदारवादी चरण में नवाचार की संभावनाएं सबसे ज्यादा अस्पष्ट हैं। इसके अलावा, बढ़ती आय असमानता व्यापाक आर्थिक मांग के मुक़ाबले मंदी को बढ़ाती है, क्योंकि यह मुनाफे की बड़ी मात्र के पुनर्वितरण के खिलाफ है इसलिए (आनुपातिक रूप से कम) कामकाजी लोगों की खपत को कम करता है।
इसी प्रकार, धन असमानता की बढ़ती प्रवृत्ति से लघु उद्योग क्षेत्र पर अधिक दबाव पड़ता है, जिसका उत्पादन अपेक्षाकृत श्रम-प्रधान होता है, जिसके परिणामस्वरूप कुल आर्थिक मांग में और मंदी आती है।
आय और संपत्ति की इस बढ़ती असमानता के जवाब में, यह तर्क दिया जाता है कि मांग, उत्पादन, निवेश और रोजगार को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी खर्च बढ़ाने के लिए सुपर-रिच की आय और संपत्ति तथा विरासत में मिलने वाली संपत्ति पर (प्रगतिशील) टैक्स लगाना आवश्यक है।
इस पर नवउदारवादी परियोजना के समर्थक तुरंत यह दावा करने लगते हैं कि इससे नवाचार में कमी आएगी, जिसके दिखावटीपन को पिछले पैराग्राफों में दर्शाया जा चुका है।
इन लोगों का दूसरा तर्क यह है कि अति-धनवानों पर लगाए गए इन करों के कारण अरबपति और बहु-करोड़पति ऐसे देशों (जिन पर ऐसे टैक्स हैं) से निकलकर अन्य स्थानों पर चले जाएंगे, जो देश काफी हद तक कर-मुक्त देश हैं।
इस दावे को दो तरीकों से संबोधित किया जा सकता है। सबसे पहले, सभी देशों की सरकारें टैक्स मध्यस्थता को रोकने के लिए टैक्स राजस्व के पुनर्वितरण के लिए एक उचित तंत्र बनाए जिसमें सुपर-रिच की आय और संपत्ति पर टैक्स की न्यूनतम दर पर सहमति हो सकती हैं। न्यूनतम कॉर्पोरेट कराधान के लिए संबंधित प्रस्तावों की कमी दर्शाती है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के संदर्भ में इस तरह के प्रस्ताव की व्यवहार्यता के लिए आवश्यक शर्तें मौजूद नहीं हैं।
दूसरा, किसी देश की सरकार जो सुपर-रिच की आय और संपत्ति पर टैक्स लगाती है, वह विदेशी पोर्टफोलियो निवेश प्रवाह पर पूंजी नियंत्रण के समान ही एक्ज़िट विनियमन लागू कर सकती है।
आइये इसे प्रदर्शित करने के लिए एक शैलीगत उदाहरण पर विचार करें।
इस शर्त को लगाने का मतलब यह है कि एक्ज़िट टैक्स के अस्तित्व के कारण विदेशी देश की तुलना में स्वदेश में टैक्स के बाद का रिटर्न अधिक होता है।
आइए अंकगणितीय उदाहरण के माध्यम से इसे समझते हैं। मान लें कि संपत्ति का कुल माप 100 है और रिटर्न की दर 5 फीसदी है। अब मान लें कि सुपर-रिच की संपत्ति पर टैक्स की दर 2 फीसदी है। यदि सुपर-रिच अपने देश में ही रहते हैं, तो विचाराधीन अवधि के अंत में टैक्स से पहले उनकी संपत्ति 105 होगी। अब अपनी संपत्ति पर 2 फीसदी टैक्स चुकाने के बाद, सुपर-रिच के पास 105-2.1(=0.02*105) =102.9 बचेगा। यदि सुपर-रिच देश से बाहर निकलने का विकल्प चुनते हैं, तो वे 3 फीसदी का निकास टैक्स चुकाएंगे, और उनके पास 97 बचेगा। इस पर, उन्हें 5 फीसदी का रिटर्न मिलेगा, जिससे उनके पास 101.85 बचेगा। स्पष्ट रूप से, सुपर-रिच को तब लाभ होगा यदि वे अपने देश में ही रहते हैं।
यदि दो देशों में वापसी की दरें अलग-अलग हैं, तो एक्ज़िट कराधान की दर को उपयुक्त रूप से समायोजित किया जा सकता है, ताकि सुपर-रिच का अपने देश में रहना हमेशा "तर्कसंगत" हो।
संपत्ति टैक्स लगाने से हासिल राजस्व को सरकार निम्नलिखित तरीकों से खर्च कर सकती है:
पहला, इसका प्रभाव कामकाजी लोगों पर पड़ेगा जो बदले में इसे खर्च करेंगे;
दूसरा, एक रोजगार गारंटी कार्यक्रम बनाया जाए जो सामाजिक और भौतिक ढांचागत प्रणाली को बढ़ाने में मददगार हो;
तीसरा, पारिस्थितिक स्थिरता को बढ़ाने के लिए सार्वजनिक अनुसंधान और विकास को बढ़ाना (जिससे निजी अनुसंधान और विकास को बढ़ावा मिलेगा)।
सुपर-रिच पर टैक्स लगाने से मिलने वाले राजस्व को खर्च करने के इन तीनों तरीके के कारण कुछ समय में मिलने वाले कुल लाभ में कोई बदलाव नहीं आएगा। लेकिन इससे समय के साथ क्षमता के उपयोग और इसलिए निवेश में बढ़ोतरी होगी। इस प्रकार, सुपर-रिच पर टैक्स लगाने का इस्तेमाल विकास के उस मार्ग को वित्तपोषित करने के लिए किया जा सकता है जो नवउदारवादी परियोजना से अलग है।
लेखक, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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