महिला के लिए बच्चे और करियर के बीच चयन को लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट का ज़रूरी फ़ैसला
"मां को बच्चे और करियर के बीच चयन करने के लिए नहीं कहा जा सकता"
ये अहम टिप्पणी बॉम्बे हाई कोर्ट की जस्टिस भारती डांगरे की है। जस्टिस डांगरे ने अपने एक आदेश में कहा कि मां बन चुकी महिला को अपने बच्चे और करियर के बीच चयन करने के लिए नहीं कहा जा सकता है। महिला को अपना विकास करने का पूरा अधिकार है। इसी के साथ अदालत ने पुणे फैमिली कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एक पत्नी को अपनी नाबालिग बेटी के साथ क्राको,पोलैंड में दो साल रहने के लिए जाने की अनुमति नहीं दी थी। अदालत ने अपने आदेश में साफ किया कि पिता-पुत्री का प्रेम खास है, पर कोर्ट एक महिला की नौकरी का अवसर बाधित नहीं कर सकता।
बता दें कि इस मामले से जुड़े दंपति का साल 2010 में विवाह हुआ था। इसके बाद उन्हें एक बेटी हुई पर अब घरेलू झगड़े के चलते वे एक दूसरे से अलग रह रहे हैं। महिला ने विवाह समाप्त करने के लिए पारिवारिक अदालत में आवेदन भी किया है। महिला पेशे से इंजीनियर है और इस बीच कंपनी में उसके अच्छे प्रदर्शन के मद्देनजर पोलैंड में अच्छे पद पर काम करने का अवसर मिला है। जहां महिला अपनी बेटी के साथ दो सालों के लिए पोलैंड जाना चाहती है, वहीं पति इसका विरोध कर रहा था।
क्या है पूरा मामला?
लाइव लॉ की खबर के मुताबिक महिला व उसके पति के बीच नौ साल की बच्ची की कस्टडी को लेकर विवाद चल रहा है। पति ने दावा किया था कि महिला को अकेले पोलैंड जाने के लिए कहा जाए। बच्ची को उसके पास छोड़ दिया जाए, वह बच्ची की देखरेख कर लेगा। महिला के पति ने महिला के बच्ची के साथ पोलैंड जाने का विरोध किया था। जबकि महिला ने अपनी याचिका में दावा किया था कि वह पेशे से इंजीनियर है और पोलैंड में उसे अच्छे पद पर काम करने का अवसर मिला है। लिहाजा वह अपनी बेटी के साथ दो सालों के लिए पोलैंड जाना चाहती है और वहीं अपनी बेटी को पढ़ना भी चाहती है।
पुणे की फैमिली कोर्ट ने पति को आंशिक राहत देते हुए पत्नी को अपनी बेटी को भारत से बाहर ले जाने से रोक दिया था। इसके अलावा, कोर्ट ने पत्नी को अपने पति की सहमति के बिना बेटी के स्कूल को बदलने से भी रोक दिया था। ऐसे में इस आदेश के खिलाफ महिला ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी।
हाई कोर्ट में न्यायमूर्ति भारती डागरे के सामने महिला की याचिका पर सुनवाई हुई। मामले से जुड़े दोनों पक्षों को सुनने के बाद न्यायमूर्ति ने कहा कि बच्ची को पिता के साथ रखने का विकल्प उचित नहीं है। क्योंकि बच्ची हमेशा मां के साथ रही है। इसलिए बच्ची को मां से अलग नहीं किया जा सकता है। महिला को पोलैंड में काम का बेहतर अवसर मिल रहा है। ऐसे में निचली अदालत को महिला को पोलैंड जाने की इजाजत देने से इनकार नहीं करना चाहिए था। नौकरी मिलने की स्थिति में बच्चों का अभिभावकों के साथ विदेश जाना कोई असामान्य बात नहीं है। ऐसे में इस बात में कोई दम नहीं है कि यदि बच्ची अपनी मां के साथ विदेश गई तो वह अपनी जड़ों से कट जाएगी।
महिला को अपने विकास का अधिकार
न्यायमूर्ति ने कहा कि कार्यालय से जुड़ी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए बच्चों को पालना घर में रखना भी कोई असामान्य बात नहीं है। इस मामले में तो महिला की मां भी उसके साथ जा रही हैं। न्यायमूर्ति ने कहा कि पारिवारिक अदालत ने इस मामले में एक महत्वपूर्ण पहलू की अनदेखी की है। यह पहलू महिला के अपने विकास के अधिकार से जुड़ा है। इसलिए महिला को अपने बच्चे और करियर के बीच चयन करने के लिए नहीं कहा जा सकता है। न्यायमूर्ति ने पिता को बेटी से मिलने की अनुमति को कायम रखा है। अदालत ने महिला को छुट्टियों के दौरान अपनी बेटी के साथ भारत आने का निर्देश दिया है, ताकि वर्चुअल पहुंच के अलावा पिता उससे फिजिकल तौर पर भी मिल पाए।
गौरतलब है कि महिलाओं के लिए करियर और परिवार हमेशा से एक चुनौती रहा है। और इसकी सबसे बड़ी वजह हमारा पितृसत्तात्मक समाज है, जो महिला की भूमिका एक बेटी, पत्नी और मां से इतर बर्दाश्त ही नहीं कर पाता। महिलाएं नौकरी को यदि प्राथमिकता दें तो उन्हें अति महत्वाकांक्षी करार दे दिया जाता है। उसे समाज अनेक बंधनों में बांध देता है और ज्यादातर उसे पारिवारिक मूल्यों की भेंट चढ़ा दिया जाता है। भारत में बच्चा पालना मुख्यतः मां की ज़िम्मेदारी मानी जाती है,दोनों अभिभावकों की संयुक्त जिम्मेदारी नहीं। बच्चा पैदा होने के बाद काम पर वापस जाने वाली महिलाओं के लिए 'महत्वाकांक्षी' और 'पेशेवर नज़रिए वाली' कहा जाता है, और यह तारीफ़ में नहीं कहा जाता। बहुत सी महिलाएं अपने बच्चे से दूर होने पर अपराधी महसूस करने लगती हैं। इसके अलावा इसका कॉरपोरेट प्रभाव भी है।
खबरों और आंकड़ों की मानें तो भारत की सर्वश्रेष्ठ कंपनियों में भी लिंगभेद स्पष्ट है। देश के बाज़ार नियामक सेबी ने 2014 में स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड सभी कंपनियों के लिए अपने बोर्ड में कम से कम एक महिला निदेशक रखना अनिवार्य कर दिया था। इसके बाद भारतीय उद्योग जगत में खलबली मच गई। बहुत सी कंपनियों ने अपने प्रमोटरों की महिला रिश्तेदारों को नियुक्त कर दिया और 13 फ़ीसद कंपनियां समय सीमा तक भी यह नहीं कर पाईं।
भारत की श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में इसकी रैंकिंग बहुत ख़राब है। कुल कर्मचारियों में महिलाएं मात्र एक चौथाई हैं. यह संख्या पिछले दशकों में और भी कम हुई है। हालांकि असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाली कुछ महिलाओं को सरकारी आंकड़ों में गिना नहीं जाता। इसकी प्रमुख वजह पितृसत्तात्मक सोच की वजह से महिलाओं में शिक्षा का निम्न स्तर है, जो उनके लिए नौकरी मिलना और मुश्किल बनाता है। महिलाओं के बच्चा पैदा होने के बाद नौकरी छोड़ने की एक बड़ी वजह समाज का नज़रिया भी है। जो पहले उसे मनपसंद काम या करियर को चुनने से रोकता है और फिर मां बनने के बाद काम करने पर ही रोक लगा दी जाती है। बहरहाल,महिलाएं अब आगे बढ़ रही हैं, समाज को आइना दिखाते हुए अपनी मनपसंद नौकरी के साथ ही अपने बच्चे और परिवार को भी संभाल रही हैं और सबसे जरूरी खुद के लिए फैसले ले रही हैं।
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