नाबालिग़ों और महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में ख़राब जांच के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र पुलिस को फटकार लगाई
बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दिए गए दो अलग-अलग फ़ैसलों में अदालत ने कहा कि यौन अपराधों से जुड़े मामलों में पुलिस की कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए लोगों को सड़कों पर उतरने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए।
बदलापुर के एक स्कूल में किंडरगार्टन की दो छात्राओं के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न से जुड़े एक मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एफ़आईआर दर्ज करने और एक का पीड़िता का बयान दर्ज करने में देरी के लिए पुलिस अधिकारियों को फटकार लगाई। इसने मामले की सूचना पुलिस को न देने के लिए स्कूल अधिकारियों की खिंचाई की और पूछा कि क्या पुलिस ने यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम के तहत स्कूल के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया है। बार और बेंच की रिपोर्ट के अनुसार जब एडवोकेट जनरल बीरेंद्र सराफ ने अदालत को बताया कि स्कूल के ख़िलाफ़ अब कार्रवाई की जाएगी तो अदालत ने कहा कि यह जल्द से जल्द किया जाना चाहिए था साथ ही अदालत ने पुलिस को स्कूल अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का आदेश दिया। न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे और न्यायमूर्ति पृथ्वीराज चव्हाण की पीठ ने एफ़आईआर में दूसरी पीड़िता का नाम दर्ज न करने पर भी पुलिस से सवाल किए और इस पर स्पष्टीकरण मांगा।
अदालत ने ये सवाल और टिप्पणियां तब कीं जब ठाणे के बदलापुर के एक स्कूल में 4 वर्षीय दो लड़कियों के यौन शोषण के मामले में पुलिस जांच में ख़ामियों से संबंधित 22 अगस्त 2024 को स्वत: संज्ञान के मामले [हाई कोर्ट के स्वयं के प्रस्ताव बनाम महाराष्ट्र राज्य] की सुनवाई हुई।
पीठ के हवाले से कहा गया कि “इन लड़कियों ने शिकायत की है, लेकिन कई मामले दर्ज नहीं किए जाते हैं। इन सब के बारे में बोलने के लिए बहुत साहस की ज़रूरत है। निस्संदेह पुलिस ने अपनी भूमिका उस तरह से नहीं निभाई है, जैसी उसे निभानी चाहिए थी। अगर पुलिस संवेदनशील होती, तो यह घटना नहीं होती।” अदालत ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की और कहा “हम इस तथ्य से स्तब्ध हैं कि बदलापुर पुलिस ने धारा 161 और 164 के तहत दूसरी पीड़ित लड़की का बयान दर्ज करने की कोई कोशिश नहीं की है।”
प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में कहा गया कि मामला सुर्ख़ियों में आने के बाद हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने मंगलवार (20 अगस्त, 2024) को बदलापुर स्टेशन पर रेलवे पटरियों को अवरुद्ध कर दिया और स्कूल की इमारत के पास जमा हो गए। आरोपी की पहचान एक स्कूल स्वीपर के रूप में की गई है और उसने कथित तौर पर स्कूल के वॉशरूम में लड़कियों के साथ मारपीट की थी। पुलिस ने अदालत को बताया कि उसने मामले में विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया है और 16 अगस्त को पीड़िता के माता-पिता द्वारा की गई शिकायत के बाद 17 अगस्त को आरोपी अक्षय शिंदे को गिरफ़्तार कर लिया है। सरकार ने अदालत को यह भी बताया कि लड़कियों के बयान दर्ज किए गए हैं और उनकी मेडिकल जांच भी कराई गई है। पीठ ने सरकार से पूछा कि लड़कियों की काउंसलिंग किए जाने की ज़रूरत है, तो इस संबंध में सूचित किया जाए।
यह आरोप लगाया गया है कि अधिकारियों ने पीड़ित लड़कियों के माता-पिता से उनकी शिकायतें लेने के पहले बदलापुर पुलिस स्टेशन में 11 घंटे तक इंतजार कराया गया। इस मामले में बेंच ने कहा कि "नाबालिग़ों के ऐसे मामलों में पहली बात तो यह है कि पुलिस को एफ़आईआर दर्ज करनी चाहिए। लेकिन उन्होंने परिवार को घंटों इंतज़ार करवाया। इससे लोग ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित होते हैं।"
महाराष्ट्र पुलिस की आलोचना करते हुए हाईकोर्ट ने कहा, “लोगों को पुलिस का विश्वास नहीं खोना चाहिए। आपको पता होना चाहिए कि महाराष्ट्र पुलिस का आदर्श वाक्य 'सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय' का मतलब क्या है। इसका अर्थ है अच्छे लोगों की रक्षा करना और दुष्टों पर लगाम लगाना। कृपया इसे याद रखें… लोगों को एफ़आईआर दर्ज करवाने के लिए इस तरह सड़कों पर नहीं आना चाहिए।”
एक अलग मामले में जिसमें एक नाबालिग़ लड़की के साथ बलात्कार किया गया था और जिसके साढ़े चार महीने के भ्रूण को मुंबई के एक निजी अस्पताल ने गुप्त रूप से गर्भपात करा दिया था। इस पर बॉम्बे हाईकोर्ट की एक अन्य पीठ ने जांच में कमियों के लिए महाराष्ट्र पुलिस को फटकार लगाई। अहम बात यह है कि अस्पताल ने गर्भपात से संबंधित सभी सबूत नष्ट कर दिए थे और भ्रूण को फेंक दिया था।
बदलापुर मामले से संज्ञान लेते हुए जस्टिस अजय गडकरी और नीला गोखले की बेंच ने पुलिस पर निशाना साधा और कहा, “हर दिन हम महिलाओं के ख़िलाफ़ गंभीर अपराधों के कम से कम चार मामलों को देखते हैं जिनकी ठीक से जांच नहीं की जाती है… यह दयनीय है… क्या आपके पास विशेषज्ञ अधिकारी या महिला अधिकारी नहीं हैं? केवल कांस्टेबल और हेड कांस्टेबल को ही मामलों की जांच करने की अनुमति क्यों दी जाए। ऐसे मामलों में पुलिस संवेदनशील क्यों नहीं है?”
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस गडकरी ने कहा, “जब तक लोग विरोध नहीं करेंगे, आपका विभाग जांच नहीं करेगा? क्या महाराष्ट्र हमें यह संकेत देने की कोशिश कर रहा है कि जब तक लोग विरोध नहीं करेंगे, वह महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों को गंभीरता से नहीं लेगा? हर दिन हम किसी न किसी बलात्कार या POCSO मामले के बारे में सुन रहे हैं”।
पीठ ने डीसीपी चौगुले-श्रृंगी से भी सवाल किए और पूछा कि पुलिस को इस तथ्य की जानकारी कैसे नहीं थी कि पीड़िता का 'जल्दबाज़ी' में गर्भपात कराया गया, जो घटना के समय नाबालिग़ थी। जब अधिकारी ने अदालत को बताया कि पीड़िता का बयान पुलिस ने धारा 164 के तहत दर्ज किया है, तो पीठ ने कहा कि 'लेकिन आप इस तथ्य को कैसे साबित करेंगे कि आरोपी ने पीड़िता को गर्भवती किया? क्या होगा अगर अदालत कहती है कि 164 के बयानों से भरोसा नहीं होता है? तब मामला कहां जाएगा? क्या इससे आरोपी की मदद नहीं होगी? क्या पुलिस अब आरोपी को क़ानून के शिकंजे से बचाने में उसकी मदद कर रही है? अस्पताल ऐसे अहम सबूत को कैसे नष्ट कर सकता है?'
कोर्ट ने आगे कहा 'अगर हमने न्यायिक संज्ञान नहीं लिया होता, तो यह सामने नहीं आ पाता। क्या हमें यह दर्ज नहीं करना चाहिए कि यह सब केवल POCSO मामले में आरोपी की मदद के लिए किया जा रहा है। अस्पताल नाबालिग़ लड़की की सहमति से साढ़े चार महीने के भ्रूण का गर्भपात कैसे कर सकता है, जिसने आरोपी के ख़िलाफ़ बलात्कार का मामला दर्ज कराया है... और सबसे बुरा यह है कि अस्पताल हमारे स्पष्ट आदेशों के बावजूद सबूतों को नहीं रख सकता है और इससे आगे बढ़कर पूरे सबूतों को नष्ट कर सकता है। जब भी बलात्कार पीड़िता का गर्भपात किया जाता है, तो डीएनए सैंपलिंग के उद्देश्य से टिशू को संरक्षित करने की आवश्यकता होती है।
अदालत ने डीसीपी को पुलिस की जांच के प्लान का विवरण देते हुए एक हलफ़नामा दायर करने का आदेश दिया और पूछा कि वह सबूत नष्ट करने वाले अस्पताल के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई करने का प्रस्ताव रखती है। इसके अलावा, इसने पुलिस अधिकारियों को यह सत्यापित करने का भी निर्देश दिया कि क्या आवेदक तरुण सिंह ने पीड़िता और उसके परिवार से धोखे से या ज़बरदस्ती गर्भपात के लिए सहमति प्राप्त की थी।
पीठ ने ऐसे मामलों में ख़राब जांच को लेकर बार-बार अदालती आदेशों के बावजूद महिलाओं और बच्चों से संबंधित मामलों में पुलिस द्वारा की जा रही जांच के तरीक़े पर भी अपनी चिंता ज़ाहिर की। न्यायाधीशों ने कहा कि यदि महाराष्ट्र सरकार इन मामलों में उचित जांच करने में असमर्थ है तो उसे सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए कि वह अब से ऐसे गंभीर मामलों की जांच नहीं करेगा।
साभार : सबरंग
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