भारत और अमेरिका: सिर्फ़ कहने से क़ायम नहीं होता है लोकतंत्र
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अपनी बहुचर्चित यात्रा पर वाशिंगटन पहु़ँचे, तब गोदी मीडिया के एंकर चीख-चीखकर इसे ऐतिहासिक यात्रा बता रहे थे, परन्तु किसी ने यह नहीं बताया,कि उनके अमेरिका पहुंचने के साथ ही अमेरिकी कांग्रेस के सत्तर से अधिक सांसदों ने राष्ट्रपति बाइडन को नरेंद्र मोदी से भारत में लोकतंत्र के मानकों और मानवाधिकारों पर सवाल उठाने की बात कही।
भले ही इस मुद्दे पर 'अमेरिकी सरकार के व्हाइट हाउस के सुरक्षा सलाहकार जेट सुलिवन' ने कहा, कि "जो बाइडन नरेंद्र मोदी को मानवाधिकारों के मुद्दे पर लेक्चर नहीं देंगे।"
आमतौर से अमेरिका में दोनों राजनीतिक दल 'डेमोक्रेट और रिपब्लिकन' में आपस में चाहे कितना भी मतभेद हो, परन्तु वे दोनों विदेश नीति जैसे मुद्दों पर एकजुट रहते हैं, लेकिन इस बार अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा, ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के बीच भारत में अल्पसंख्यकों के दमन पर एक बयान देकर एक नयी बहस की शुरुआत कर दी है।
ग्रीस के दौरे पर गए बराक ओबामा ने अमेरिकी टेलीविजन नेटवर्क सीएनएन की पत्रकार क्रिस्टियानो अमनपोर के साथ एक साक्षात्कार में कहा,"भारत अगर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं करता,तो इस बात की पूरी आशंका है कि किसी बिन्दु पर जाकर वह टूटना शुरू हो जाएगा।" उन्होंने यह भी कहा कि," राष्ट्रपति बाइडन को पीएम मोदी के साथ अपनी मुलाकात में एक बहुसंख्यक हिन्दूराष्ट्र में अल्पसंख्यक मुस्लिमों की रक्षा के मुद्दे को उठाना चाहिए।"
ओबामा का यह बयान उस समय आया,जब पीएम मोदी अमेरिका के दौरे पर थे और उस समय राष्ट्रपति बाइडन के राजकीय मेहमान बनकर व्हाइट हाउस में टिके हुए थे। उनका यह बयान एक ओर तो अमेरिकी शासकवर्गों के आपसी अन्तर्विरोधों को दर्शाता है,दूसरी ओर पश्चिमी जगत की आम राय को भी बतलाता है, कि भारत में असहमतियों का दमन किया जा रहा है। अपने विरोधियों के अलावा पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया जा रहा है तथा इस प्रकार की नीतियाँ लागू की जा रही हैं, जिनके बारे में मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि वे मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण हैं।
इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'व्हाइट हाउस' में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। व्हाइट हाउस की इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में ; जिसमें जो बाइडन भी मौज़ूद थे, उसमें एक पत्रकार ने जब यह सवाल किया कि, "भारत में लोकतंत्र और मानवाधिकारों का हनन हो रहा है।" इस प्रश्न के उत्तर में नरेंद्र मोदी ने कहा,"अमेरिका की तरह डिमोक्रेसी हमारे डीएनए में है। मानवाधिकार डिमोक्रेसी का आधार होता है। किसी भी चीज़ के वितरण में भेदभाव का सवाल ही नहीं उठता।" राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी अमेरिका और भारत को दो महान लोकतांत्रिक देश बतलाया तथा कहा कि, "दुनिया भर में हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं।"
इसी दौरान अमेरिका में विभिन्न नागरिक संगठनों ने नरेंद्र मोदी की नस्लवादी नीतियों के ख़िलाफ़ सड़कों पर व्यापक प्रदर्शन किया, जिसमें महिला पहलवानों के यौन-शोषण तथा मणिपुर में लगातार हो रही हिंसा के मुद्दे भी शामिल थे।
अमेरिका के शासकवर्गों द्वारा लोकतंत्र की बात वहीं तक की जाती है,जब तक कि दुनिया भर में उसके साम्राज्यवादी कॉरपोरेट हित सुरक्षित रहें। 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद शीतयुद्ध की समाप्ति हो गई तथा अमेरिका एकमात्र महाशक्ति के रूप में दुनिया में उभरा, तब यह कहा जाने लगा, कि अब इतिहास का अंत हो गया है और हम एक नयी उदारवादी लोकतंत्र की दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। रूस द्वारा बनाई गई 'वार्सा सैनिक संधि' इस शर्त पर भंग कर दी गई, कि "अमेरिका नाटो सैनिक संधि का विस्तार नहीं करेगा।" परन्तु ऐसा नहीं हुआ। अमेरिका ने 'पोलैंड जैसे पूर्वी यूरोप के देशों' को नाटो में शामिल करके एक नये शीतयुद्ध की शुरुआत कर दी। वास्तव में नब्बे के बाद एक दशक के अंदर ही दुनिया का शक्ति संतुलन बदल गया। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। उसने आर्थिक और सैन्यदृष्टि से अमेरिका को हर क्षेत्र में ज़बरदस्त चुनौती दी और रूस एक बार फिर उठ खड़ा हुआ। आज अगर साल भर से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रहा है, तो इसके पीछे सारी ज़िम्मेदारी अमेरिका ही की है।
रूस के राष्ट्रपति पुतिन भी मोदी से कुछ अलग नहीं हैं, आरोप है कि उन्होंने भी रूस में सिविल सोसायटी को बिलकुल समाप्त कर दिया, विरोधी राजनीतिक दलों को शक्तिहीन कर दिया, प्रेस को नियंत्रण में कर लिया। अमेरिका इसकी हमेशा आलोचना करता रहा है, उसने रूस के अनेक सरकार विरोधी नेताओं को अपने यहाँ पर शरण भी दी। यही स्थिति चीन के साथ भी है, अमेरिका चीन में मुसलमानों के दमन को लेकर एवं हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों के दमन पर अकसर उसे भी लोकतंत्र का पाठ पढ़ाता रहता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उसे मानवाधिकारों या लोकतंत्र से बहुत ख़ास लगाव है। वास्तव में लोकतंत्र उसकी रणनीति का एक हिस्सा है।
आज रूस और चीन दोनों ही एक बड़ी आर्थिक और सामरिक ताक़त के रूप में उभर रहे हैं तथा हर क्षेत्र में अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं। जब अमेरिका ने रूस को घेरने के लिए यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की कोशिश की, तब रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया। आज चीन और रूस में आपस में कई मामलों में गठजोड़ भी दिखाई देता है। भारत अपना अधिकांश सैनिक साजो-सामान रूस ही से खरीदता रहा है। रूस पर अमेरिकी प्रतिबंध के बावज़ूद भारत तेल का भी रूस से ही आयात करता है। अमेरिका भारत के बड़े सैन्य बाज़ार पर ख़ुद क़ब्ज़ा करना चाहता है, इसलिए उसे रूस और चीन में तो मानवाधिकारों का मुद्दा दिखाई देता है, लेकिन भारत में नहीं। इसका एक दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह भी है, कि दक्षिण-पूर्व एशिया में जहाँ एक समय पर अमेरिका का वर्चस्व था,वहाँ आर्थिक और सैन्य दृष्टि से मज़बूत चीन अपना विस्तार कर रहा है। पाकिस्तान,श्रीलंका में अपने सैन्य अड्डे भी बना रहा है।
जब सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान में हस्तक्षेप किया था, तब अमेरिका ने पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया-उल-हक़ का समर्थन किया था तथा उनके हर तरह के मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे को अनदेखा कर दिया था। पाकिस्तान अमेरिका की एक सैन्य चौकी बन गया था, जहाँ से अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ से लड़ने के लिए मुज़ाहिदीनों को प्रशिक्षण और हथियार आदि देकर अफ़ग़ानिस्तान भेजा जा सके। उस समय पाकिस्तान अमेरिका के एक लठैत की भूमिका में था। आज जब पाकिस्तान ने चीन से गठजोड़ कर लिया है, तो उसे अब चीन की बढ़ती शक्ति को रोकने के लिए भारत की ज़रूरत है और भारत ने कमोबेश उसके लठैत की भूमिका अब स्वीकार भी कर ली।
कमोबेश अमेरिका की यह स्थिति हर जगह पर रही है, उसने एशिया,अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों में हर जगह लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई उन सरकारों को षड्यंत्र से गिरवाया, जो अमेरिकी नीतियों का विरोध करते थे। निकारागुआ या अंगोला जैसे देशों में उसने उन विरोधी छापामारों को हर तरह की सैन्य मदद दी,जो वहाँ की लोकतांत्रिक सरकारों के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे। लैटिन अमेरिकी देश चिली में सल्वाडोर आलांदे की निर्वाचित वामपंथी सरकार को 11 सितम्बर 1973 में अमेरिका की कुख्यात सीआईए ने षड्यंत्र करके गिरा दिया तथा उनकी हत्या कर दी। उनकी सरकार लैटिन अमेरिका में पहली मार्क्सवादी सरकार थी,जो चुनाव लड़कर सत्ता में आई थी।
इसके अलावा क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो की भी अमेरिका ने कई बार हत्या करने की कोशिश की, परन्तु सौभाग्य से वे बच गए। अमेरिका के लिए वे नेता तानाशाह और लोकतंत्र के दुश्मन हो जाते हैं, जब वे अमेरिका की लूट के ख़िलाफ़ हो जाते हैं। इसके सबसे उदाहरण- इराक़ के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन और लीबिया के कर्नल गद्दाफ़ी हैं। जब तक ये दोनों लोग अमेरिका का रणनीतिक हित साधते रहे,तब तक ये लोग अमेरिका के मित्र थे, लेकिन जैसे ही ये लोग अमेरिका की तेल-राजनीति के विरोधी हुए, वैसे ही ये अमेरिका के दुश्मन हो गए। खाड़ी युद्ध के बाद किस तरह फाँसी पर चढ़ाकर सद्दाम हुसैन की हत्या की गई, उससे सभी लोग परिचित हैं। इसी तरह से लीबिया में विद्रोह भड़काकर कर्नल गद्दाफ़ी की भी हत्या की गई।
मध्य-पूर्व के खाड़ी के देश ; जिसमें सऊदी अरब,कतर और संयुक्त अरब और अमीरात जैसे देश हैं :- इन देशों में दुनिया का दो-तिहाई से ज़्यादा पेट्रोलियम है, इनमें से किसी देश में किसी तरह का कोई लोकतंत्र नहीं है, मानवाधिकारों का व्यापक हनन होता है, परन्तु अमेरिका ; जो दुनिया के अस्सी प्रतिशत तेल का उपयोग ख़ुद ही करता है, उसका इस पूरे क्षेत्र की तेल सम्पदा पर वर्चस्व है। वह नहीं चाहता कि यहाँ पर किसी भी तरह का लोकतंत्र या चुनी हुई सरकार हो, जो उसके अनियंत्रित तेल-दोहन पर प्रतिबंध लगाए। यही कारण है कि अमेरिका इस इलाके के शेख़ों का समर्थन करता है तथा उनकी रक्षा के लिए अमेरिका की सेना तक इस इलाके में तैनात है।
वास्तव में ये कुछ उदाहरण मात्र हैं। अमेरिका के लिए आज लोकतंत्र और मानवाधिकार के प्रति कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है, जैसा कि लिंकन और जेफर्सन के समय में था। अमेरिकी शासकवर्ग के विपरीत अमेरिकी समाज में काफ़ी लोकतांत्रिक चेतना है। वहाँ के शासकवर्ग भारत की तरह छोटे-छोटे मुद्दों पर अंधराष्ट्रवाद नहीं फैला सकते। वियतनाम युद्ध हो या खाड़ी युद्ध वहाँ पर अमेरिकी हस्तक्षेप के विरोध में बड़े-बड़े प्रदर्शन भी हुए थे। वहाँ पर आकूपाई वॉल स्ट्रीट या ब्लैक मैटर जैसे आंदोलन भी हुए,जो व्यवस्था विरोधी तथा रंगभेद के ख़िलाफ़ थे। अमेरिका में भले ही थोड़ी-बहुत नस्लभेद जैसी प्रवृत्तियाँ हों, परन्तु वहाँ पर उस तरह की सामुदायिक हिंसा देखने में नहीं आती, जिस तरह की हिंसा भारत में गुजरात में 2002 या दिल्ली में 1984 के दंगों में देखने में आई थी अथवा बोस्निया और रवांडा जैसे देशों में जैसा नस्लीय नरसंहार देखने को मिलता है। भारत में आज भले ही व्यापक मानवाधिकारों के हनन को लेकर अमेरिका अपने हितों के कारण चुप्पी लगा रहा है, परन्तु वहाँ के समाज में इसको लेकर काफी उद्वेलन देखने को मिल रहा है। ये बातें भविष्य में सारी दुनिया के लिए शुभ संकेत हैं।
भले ही आज भारतीय मीडिया यह कह रहा हो कि इस दौरे से नरेंद्र मोदी को बड़ा राजनीतिक लाभ मिला है, परन्तु इसमें यह सच्चाई आंशिक है। सत्तर से ज़्यादा सदस्यों ने अगर बाइडन को पत्र लिखकर मोदी के दौरे का विरोध किया अथवा भूतपूर्व राष्ट्रपति ओबामा का यह कथन कि अगर भारत में अल्पसंख्यकों का दमन बंद नहीं हुआ, तो टूट सकता है। कांग्रेस के दो सदस्यों ने तो संयुक्त सदनों में उनके भाषण का बहिष्कार किया। मोदी को किसी ने क्रिमिनल कहा, तो किसी ने पूरब का हिटलर। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिन सत्तर सांसदों ने प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ पत्र लिखा है, उसमें बर्नी सैंड्रस भी हैं। इसके अलावा वरिष्ठ भारतीयवंशी सांसद प्रमिला जयपाल जिन्होंने अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा था। अमेरिकी प्रेस ने भी लगातार इस मुद्दे पर लिखा। वाशिंगटन पोस्ट में तो बाकायदा एक विज्ञापन भी प्रकाशित हुआ, जिसमें जेल में बंद गौतम नवलखा, पत्रकार रूपेश कुमार जैसे तमाम लोगों की फोटो लगी थी, जिन्हें झूठे आरोपों में आज भी जेल में बंद करके रखा गया है। 'भारत में प्रेस की स्वतंत्रता ख़तरे में' विज्ञापन के शीर्षक के नीचे लिखा है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन उसके बावजूद यह मीडिया के लिए दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक है। प्रेस की स्वतंत्रता पर ख़तरा बढ़ता जा रहा है। पत्रकार शारीरिक हिंसा, उत्पीड़न, फ़र्जी मुक़दमे और सोशल मीडिया पर घृणा अभियान का सामना कर रहे हैं। अमेरिका में लाखों भारतीय हैं, जो पढ़ाई या नौकरी के सिलसिले में वहां पर रहते हैं। यह कहा जा रहा है कि वे सभी लोग मोदी का समर्थन कर रहे हैं, इनके बीच आरएसएस का नेटवर्क भी काम करता है। परन्तु यह आधी-अधूरी सच्चाई है। अगर गुजराती पटेलों को छोड़ दिया जाए,तो बड़ी संख्या में भारतवंशी मोदी का विरोध कर रहे हैं, इसमें दलित,सिख, मुस्लिम तथा अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले अन्य सामुदायिक समूह के लोग भी हैं। यह भी कहा ज रहा है कि इस दौरे में रक्षा संबंधी जो समझौते हुए हैं, उन समझौतों ने भारत को अमेरिका के स्ट्रैटेजिक पार्टनर के तौर पर खड़ा कर दिया है और मामला नाटो के विस्तारित पार्टनर के तौर पर खड़ा होने के लिए उसकी ज़रूरी पृष्ठभूमि बनाने तक पहुंच गया है। यह अब तक के भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को अमेरिका का गुलाम बनाने तक पहुंच गई है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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