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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: 8 घंटे का कार्यदिवस और महिला श्रम भागीदारी की हक़ीक़त

“श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 2020-21 में महज़ 25.1 प्रतिशत थी, वहीं इसी अवधि में पुरुषों की भागीदारी 57.5 प्रतिशत थी, 32.4 प्रतिशत का यह फासला बताता है कि भले ही संविधान महिलाओं और पुरुषों को बराबर के अधिकार देता है, 21वीं सदी में भी औरतें बहुत पीछे हैं।”
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फ़ोटो साभार: Wix

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, यानि 8 मार्च एक ऐसा दिन होता है जब हम विश्व भर में कामकाजी महिलाओं के संघर्षों और उनके बल पर हासिल किए गए अधिकारों का जश्न मनाते हैं। पर आज विश्व भर में और भारत में भी स्थितियां बदल चुकी हैं। हमें अब फिर से एक लंबी लड़ाई के लिए कमर कसनी होगी क्योंकि ये अधिकार हमसे लगातार छीने जा रहे हैं और कार्य स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। 8 घंटे का कार्यदिवस एक सपना बन चुका है और संघर्ष के रास्ते बंद किए जा रहे हैं। आइए हम महिला दिवस पर भारत में मौजूदा स्थिति का जायज़ा लें।

महिला श्रम शक्ति घटती जा रही

भारत में महिला श्रम शक्ति क्यों घटती जा रही है? साधारणतया हम समझ सकते हैं कि जैसे-जैसे घर से बाहर औरतों के काम का बोझ बढ़ता जा रहा है और बढ़ती महंगाई के कारण उन्हें घर के सारे काम भी खुद करने पड़ रहे हैं, महिलाएं वैतनिक श्रम से बाहर होती जा रही हैं। यदि हम आंकड़े देखें तो हम पाएंगे कि श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 2020-21 में महज़ 25.1 प्रतिशत थी, वहीं इसी अवधि में पुरुषों की भागीदारी 57.5 प्रतिशत थी। यह भी संतोषजनक नहीं है लेकिन 32.4 प्रतिशत का फासला बताता है कि भले ही संविधान महिलाओं और पुरुषों को बराबर के अधिकार देता है, 21वीं सदी में भी औरतें बहुत पीछे हैं। यद्यपि विश्व में महिला श्रम भागीदारी पुरुषों से 30 प्रतिशत कम है, वहीं भारत की स्थिति विश्व भर में काफी बदतर है, यानि यहां महिला श्रम भागीदारी विश्व के आंकड़े (50%) के करीब आधी है! जेंडर गैप के मामले में भारत 140वें स्थान से गिरकर 112वें स्थान पर पहुंच चुका है।

क्यों हैं महिलाएं पुरुषों से पीछे?

यह स्थिति महिलाओं के लिए काफी निराशाजनक बन जाती है, क्योंकि शिक्षा, तमाम सुविधाओं और कानूनों के बावजूद, बेहतर स्वास्थ्य के और फर्टिलिटी रेट घटने के बावजूद महिलाएं पुरुषों से बहुत पीछे हैं। चलिए कारणों पर हम एक नज़र डालें।

उदाहरण के लिए, कामकाजी महिलाएं बच्चों के लिए क्या व्यवस्था करें, यह बड़ा सवाल है। यदि हम शिशु पालन केंद्रों की बात करें तो जहां भी 50 या अधिक कर्मी हैं, कार्यस्थल पर समाजिक सुरक्षा संहिता के अंतर्गत मातृत्व लाभ के तहत क्रेश की व्यवस्था दी गई है पर कागज़ पर जो है उसकी असलियत क्या है? मसलन सक्रिय कंपनियों में से कितनों में 50 या अधिक कर्मी हैं इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। कितनी कंपनियों में क्रेश चल रहे हैं इसका भी कोई आंकड़ा नहीं मिलता। इण्डियास्पेंड के अनुसार बड़ी बहुर्राष्ट्रीय कंपनियां क्रेश सुविधा देने के लिए बाध्य हैं, पर क्योंकि नियम राज्य को बनाने होते हैं, वे तबतक इंतज़ार करेंगी जब जक राज्य की ओर से ऐसा नहीं किया जाता। सिर्फ कर्नाटक और तमिलनाडु में नियम तैयार कर नोटिफाई किए गए हैं। बात करने पर नलिनी, जो 5 साल के बच्चे की मां है और बेंगलुरु में काम करती है, का कहना है कि,‘‘कार्यस्थल इतनी दूर है कि मैं अपने बच्चे को 2 घंटे बस में सफर नहीं करवा सकती। हमें घर के नज़दीक क्रेश चाहिए, वह भी ऐसा जहां 6 बजे के बाद घंटे के हिसाब से पैसा लिया जाए, पर बच्चे को रखा जाए, क्योंकि मैं अक्सर 8 बजे तक ऑफिस में रहती हूं।’’ महिला एवं बाल मंत्रालय ने क्रेश की व्यवस्था की है, पर जहां 2012-13 में 23,785 क्रेश थे, वहीं अब केवल 6453 हैं। फंडिंग के अभाव में बाकी बंद हो गए हैं।

श्रम सहिंताएं महिला श्रमिकों के लिए विशेष रूप से दमनकारी

कोविड-19 महामारी के बाद लाखों श्रमिकों ने, अपने नियोक्ताओं से समर्थन नहीं मिलने के कारण कार्यस्थलों को छोड़ दिया। यूएनडीईएसए और यूएन के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग के निदेशक डेनिएला बास के अनुसार भारत के डेटा से पता चलता है कि 2020 में पहले लॉकडाउन में, सात प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 47 प्रतिशत महिलाओं ने अपनी नौकरी खो दी। फिर, पूर्ण लॉकडाउन के दौरान, प्रधानमंत्री द्वारा 'श्रम सुधार' कहे जाने वाले नए श्रम संहिता को संसद में (सितंबर 2020 में) चुपचाप पारित कर दिया गया। इन 4 संहिताओं पर चर्चा नहीं हुई-औद्योगिक संबंध कोड, सामाजिक सुरक्षा कोड, व्यावसायिक सुरक्षा कोड, स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति और मज़दूरी कोड। ट्रेड यूनियनों और विपक्षी दलों के कड़े विरोध के बावजूद वेज (Wage) कोड 2019 में पहले ही पारित हो चुका था। इनकी सबसे खराब बात थी-हड़ताल करने के अधिकार का छीना जाना। इसका मतलब होगा श्रमिकों के हड़ताल करने पर वेतन में कटौती। एक अन्य प्रावधान जहां एक से अधिक ट्रेड यूनियन कार्यरत हैं, नियोक्ता "एकमात्र वार्ता यूनियन" (Sole Negotiating Union) के साथ बातचीत करेंगे, वह भी तब जब "51% या अधिक श्रमिक सदस्य हों।" इससे इजारेदार यूनियनें, प्रबंधन की पॉकेट यूनियनें बन सकती हैं। एक और श्रमिक-विरोधी प्रावधान है-काम के घंटों को बढ़ाकर 12 घंटे प्रति दिन करना। तमिलनाडु के गार्मेंट उद्योग में यह प्रावधान लागू है, जहां देश की 46 प्रतिशत महिला श्रमिक कार्यरत हैं। पहले से जो औरतें हाशिए पर थीं, उनका उत्पीड़न और बढ़ गया।

2020 में, श्रम मंत्रालय ने संसद में पारित OSH (Occupational Safety and Health) मसौदा नियमों के तहत प्रति दिन अधिकतम 12 घंटे काम करने का प्रस्ताव दिया। मंत्रालय ने निर्धारित किया कि इसमें आराम के अंतराल शामिल होंगे; वे ओवरटाइम मज़दूरी भी अर्जित कर सकेंगे और प्रति सप्ताह काम के घंटों की सीमा 48 घंटे होगी। लेकिन यूनियनों और श्रमिकों ने इस प्रस्ताव की बहुत आलोचना की। हालांकि यह उल्लेख किया गया है कि ओवरटाइम काम के लिए कर्मचारी से पूर्व अनुमति ली जाएगी, और वेतन दोगुना होगा, अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह लागू नहीं हो रहा है। ये कोड 1 जुलाई 2022 से पूरे भारत में लागू कर दिया गया है। हालांकि, केरल ने अभी तक इसे लागू नहीं किया है। उत्तर प्रदेश सरकार ने 12 घंटे के कार्यदिवस के प्रावधान को वापस ले लिया क्योंकि श्रम संगठनों में से एक, द वर्कर्स फ्रंट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। अगली सुनवाई के लिए मामला आने से कुछ दिन पहले, 12 घंटे के कार्यदिवस के आदेश को वापस ले लिया गया। पर देखना है कब तक?

काम के घंटों का बढ़ाया जाना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23, 24, 39 ई, 39 एफ और 42 का उल्लंघन है, जो श्रमिकों के स्वास्थ्य, गरिमा, व्यावसायिक सुरक्षा और सुरक्षा के साथ काम की मानवीय स्थितियों से संबंधित है। चारों सहिंताएं विशेष रूप से महिला श्रमिकों के लिए दमनकारी हैं, क्योंकि महिला श्रमिकों पर दोहरा बोझ होता है-अपने घरों से बाहर काम करना और परिवार की देखभाल के साथ घर के काम और सेवा कार्य। उनके पास अपने लिए समय नहीं होता और उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि महिला कार्यबल की भागीदारी कम है।

8 घंटे के कार्यदिवस का इतिहास

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर 8 घंटे के कार्यदिवस के इतिहास और महत्व और इसे प्राप्त करने के लिए दुनिया भर के श्रमिकों द्वारा किए गए संघर्षों के इतिहास पर चर्चा करना महत्वपूर्ण है।

अब से ठीक 205 साल पूर्व, यूटोपियन समाजवादी रॉबर्ट ओवेन ने 1817 में इंग्लैंड में 8 घंटे के कार्यदिवस का नारा इस आधार पर गढ़ा था कि श्रमिक 8 घंटे काम, 8 घंटे आराम और 8 घंटे मनोरंजन के लिए खर्च करेगा तो वह बेहतर इंसान बनेगा। यह नारा लोकप्रिय हुआ था। यद्यपि 8 घंटे का कार्यदिवस बहुत पहले ही यूके और यूएसए दोनों में हासिल कर लिया गया था, आज दुनिया भर के मज़दूर फिर से वही मांग उठाने और बदले हुए हालात में इसके लिए लड़ने पर मजबूर हैं।

20वीं शताब्दी की शुरुआत में जब बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण ने व्यापक पैमाने पर हड़तालों और मज़दूर वर्ग की कार्रवाइयों को जन्म दिया, तब 8 घंटे के कार्यदिवस की मांग को प्रमुखता मिली। और यहां, हमें यह उल्लेख करना चाहिए कि यह कैलिफ़ोर्निया (1900) की 'महिला कपड़ा श्रमिकों' का संघर्ष था जिसने इस मांग को बहुत लोकप्रिय बनाया। ब्रिटेन में हुई औद्योगिक क्रांति ने भी श्रमिकों के अधिकारों के मुद्दों को सामने ला दिया जो था-घंटे और काम की स्थिति के साथ-साथ उचित वेतन। लेकिन, श्रमिकों को 8 घंटे के कार्यदिवस का कानूनी अधिकार केवल 19वीं शताब्दी के शुरुआती भाग में हुई हड़तालों, अभियानों और आंदोलनों के माध्यम से प्राप्त हुआ। यूएसएसआर में अक्टूबर क्रांति (1917) के चार दिन बाद, 8 घंटे के कार्यदिवस को एक डिक्री द्वारा पेश किया गया था। भारत में, डॉ भीमराव अंबेडकर थे जिन्होंने 8 घंटे के कार्यदिवस का समर्थन किया था। 1942 और 1946 के बीच, अंबेडकर, वायसराय की कार्यकारी परिषद के श्रमिक सदस्य थे। 27 नवंबर 1945 को भारतीय श्रम का 7वां अधिवेशन हुआ। इस सम्मेलन में काम के घंटों को 14 से 8 घंटे करने का प्रस्ताव पारित किया गया था। कई अन्य श्रम कानून जैसे मातृत्व लाभ; ईएसआई, फैक्ट्री एक्ट, महिला श्रम कल्याण कोष, महंगाई भत्ता आदि भी उनके द्वारा पेश किए गए। यह 1948 में ‘स्वतंत्र भारत’ के फैक्ट्री ऐक्ट के हिस्से के रूप में कानून बन गया लेकिन 2022 में यह कानून महज़ कागज़ पर है।

घरेलू श्रम को मान्यता नहीं

हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जब 8 घंटे का कार्यदिवस या 40 घंटे का कार्य-सप्ताह एक सपना सा बन गया है। महिला श्रमिक घर और बाहर मिलाकर 8 घंटे से अधिक काम करती हैं, पर उनके घरेलू श्रम को मान्यता नहीं मिली; आराम और मनोरंजन की तो सोचना असंभव है। तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी ने चुनाव-पूर्व 2000 रूपये देने का वायदा किया भी तो उसे लागू नहीं किया। आईआईएम अहमदाबाद की प्रोफेसर ने शोध में पाया कि भारतीय महिलाएं औसतन 7.2 घंटे घरेलू काम में लगाती हैं जबकि पुरुष 2.8 घंटे लगाते हैं। कार्य-जीवन संतुलन संभव नही हो पाटा, इसलिए हम न केवल श्रमिकों को अपने स्वास्थ्य से समझौता करते और दवाओं पर निर्भर होते देखते हैं, बल्कि इससे उत्पादकता भी बिगड़ती है, क्योंकि बिगड़ती सेहत के साथ कार्यक्षमता घट जाती है। औरत की ज़िंदगी बर्बाद करने वाला यह चक्र चलता रहता है…अधिक काम का मतलब खराब स्वास्थ्य और कम उत्पादकता, जिससे अधिक दबाव होता है और काम के घंटे बढ़ जाते हैं। आर्थिक नुकसान भी होता है, जो 2012 और 2030 के बीच अनुमानित 1.03 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक होगा।

क्या है फ्लेक्सिटाइम?

यदि हम आज भारत की स्थिति को देखें तो 8 घंटे का कार्यदिवस नियम के बजाय अपवाद बन गया है। महिलाओं को छला गया कि वर्क-फ्रॉम-होम, प्लेटफॉर्म और गिग वर्क में उनके काम के घंटे वे खुद तय कर सकेंगी और घर पर ध्यान दे सकेंगी यानि फ्लेक्सिटाइम होगा और उनपर नियोक्ता का दबाव नहीं होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आईटी उद्योग में, वर्क-फ्रॉम-होम व्यवस्था में कोविड-19 महामारी के पश्चात प्रतिदिन 12-14 घंटे का काम लगभग आदर्श बन गया; प्लेटफॉर्म वर्कर्स (स्विग्गी, ज़ोमाटो, ओला, उबर, अर्बन कंपनी आदि के लिए काम करने वाले) और गिग वर्कर (फ्रीलांसर, स्वतंत्र ठेकेदार, परियोजना-आधारित कार्यकर्ता जो अस्थायी या पार्ट-टाइम हायर श्रमिक) के काम के घंटे भी निश्चित नहीं हैं। कंपनियां अमानवीय कामकाज की स्थितियों को निर्धारित करती हैं और श्रमिकों के पास अनुपालन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है क्योंकि हमेशा बेरोज़गारों की एक सेना होती है। उन पर लगातार निगरानी भी की जाती है। कोई भी गलती होती है तो पैसा उनके वेतन से काट लिया जाता है। नौकरी भी जा सकती है। चूंकि सभी भुगतान डिजिटल रूप से किए जाते हैं, वे नियोक्ता के साथ बहस या बातचीत नहीं कर सकते। ये मज़दूर दिहाड़ी मजदूरों की तरह हैं-कुशल या अकुशल, लेकिन न तो उनके पास कोई अधिकार हैं और न ही वे काम के घंटों को कम कर सकते हैं क्योंकि आजीविका की मांग उन्हें 8 घंटे से अधिक काम करने के लिए मजबूर करती है। यह उनकी सुरक्षा के लिहाज़ से भी बुरा है। चेन्नई की सुगंधा एक डिलिवरी गर्ल है। वह कहती है, ‘‘ऑर्डर रात को आते हैं तो डर लगता है, पर मैं मना नहीं कर सकती।’’ ये भी सच है कि अब तक गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स के संगठनों या यूनियनों के बारे में नहीं सुना गया है और उनकी कार्य-स्थितियों या समस्याओं का कोई गंभीर अध्ययन नहीं किया गया है। दिल्ली में इस दिशा में एक प्रयास शुरू हो गया है और यह स्वागत योग्य होगा।

गैर-प्लेटफॉर्म गिग वर्कर्स

अब श्रम के आकास्मिकरण की प्रवृत्ति है, इसलिए लोग अस्थायी अवधि के लिए अनुबंध पर काम करते हैं और कई दैनिक आधार पर मज़दूरी अर्जित करने के लिए। उदाहरण के लिए, गैर-प्लेटफॉर्म गिग वर्कर्स जैसे सफाई कर्मचारी और कूड़ा बीनने वाले, मिड-डे मील वर्कर्स,दाई, स्वास्थ्य कर्मी, निर्माण मज़दूर, खोखा-पटरी वाले विक्रेता,और यहां तक कि पैरा टीचर्स को भी अपने वेतन के लिए महीनों इंतज़ार करना पड़ता है। ऐसे श्रमिकों को, लंबे समय तक काम करने पर भी अधिक वेतन नहीं मिलता और परिवार को चलाने के लिए कभी भी पर्याप्त धन नहीं होता। यही हाल आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं (स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं) का भी है जो सरकारी कर्मचारी का दर्जा मांगते रहे हैं लेकिन सरकार नहीं मानी। वे लगातार राज्य और राष्ट्रीय राजधानी में हज़ारों की संख्या में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।

कृषि क्षेत्र, अनौपचारिक श्रमिकों की सबसे बड़ी संख्या को रोज़गार देता है। एक दिन में 8 से 12 घंटे तक का काम होता है। कार्यान्वयन में समस्याओं के बावजूद, मनरेगा ने एक निश्चित न्यूनतम मज़दूरी और काम के घंटे के प्रावधान के साथ-साथ महिला श्रमिकों के लिए 30% कोटा के प्रावधान के कारण ग्रामीण श्रमिक वर्ग की कमाई को बढ़ावा दिया। हालांकि, दुख की बात है कि 2023-24 में मनरेगा के लिए बजट आवंटन 2022-23 की तुलना में 17.8 प्रतिशत कम है। अब 100 दिन का काम और समय पर भुगतान भी नहीं होता जबकि 200 दिन के काम और 600 रूपये प्रतिदिन की मांग हो रही है।

महामारी और सीमावर्ती कार्यकर्ता

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने दावा किया कि काम करते हुए कोविड-19 संक्रमण के कारण महामारी में 1700 डॉक्टरों की मौत हो गई है। नर्सेज एसोसिएशन ने दावा किया कि कई नर्सों की मौतें हुईं लेकिन सही संख्या ज्ञात नहीं है। लेकिन संसद में स्वास्थ्य मंत्री के बयान के अनुसार डॉक्टरों, नर्सों और अन्य पैरामेडिक्स सहित सभी स्वास्थ्य कर्मचारियों से जुड़े 1509 मामलों में सरकार ने परिजनों को अनुग्रह सहायता दी। बड़ी संख्या में महिला डॉक्टरों और नर्सों सहित-श्रमिकों ने ही कोरोना वायरस को सफलतापूर्वक रोकने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, लेकिन सभी को मुआवज़ा नहीं मिला, खासकर निजी अस्पतालों में नर्सों के परिजनों को कोई मुआवज़ा नहीं मिला। क्या इससे उनका मनोबल नहीं गिरेगा? एक अध्ययन के अनुसार महामारी में अधिक काम करने के कारण भारत में 52.8% स्वास्थ्य कर्मियों को बर्नआउट सिंड्रोम का सामना करना पड़ा।

अपवादस्वरूप कोर्ट के कुछ बेहतर फैसले!

श्रमिक संगठनों का मानना है कि कोर्ट के अधिकतर फैसले श्रमिकों के ख़िलाफ़ जाते हैं। लेकिन लगभग छह महीने पहले सुप्रीम कोर्ट (जस्टिस अजय रस्तोगी और अभय एस ओका) ने एक फैसले में कहा था कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता जो योजना श्रमिकों (यानी सरकारी योजनाओं में काम करने वाले कार्यकर्ता) का एक हिस्सा हैं, वे भी नियमित कर्मचारी के समान हैं और इसलिए ग्रेच्युटी के हकदार हैं; इससे सभी योजना कर्मियों को लाभ होगा। दूसरा, एक अन्य मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि गिग वर्कर्स कुछ वैधानिक लाभों के भी हकदार हैं। हालांकि इसने उन्हें सामान्य श्रमिकों के रूप में परिभाषित नहीं किया, कानूनी रूप से यह गिग वर्कर्स के मामले को मजबूत करेगा कि वे भी अन्य श्रमिकों की तरह हैं। इसलिए वे सभी कानूनी अधिकारों और लाभों के हकदार हैं जो अन्य श्रमिकों को मिलते हैं। इसी तरह, एक मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि आईटी उद्योगों में काम करने वाले भी श्रमिक हैं क्योंकि आईटी उद्योग भी किसी अन्य उद्योग की तरह है। इससे पहले, आईटी उद्योग भी इससे इनकार कर रहे थे क्योंकि वे दुकान और प्रतिष्ठान अधिनियम के तहत कवर किए गए थे और ईएसआई, पीएफ, मज़दूरी के साथ छुट्टी, न्यूनतम मज़दूरी, 8 घंटे का काम आदि जैसे वैधानिक लाभों से वंचित थे।

विरोध के तरीके क्या हों?

श्रमिक-विरोधी नीतियों का विरोध करते हुए कुछ खास बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है :

1. यूनियनों और श्रमिक संघों के नेतृत्व में 33% महिलाओं को शामिल किया जाए।

2. महिला श्रमिकों के विभिन्न वर्गों के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व हो।

3. महिला श्रमिकों की शिक्षा, व राजनीतिकरण ज़रूरी है।

4. महिला श्रमिकों को अन्य टीयू संघर्षों और और महिलाओं के आंदोलनों के साथ एकजुटता व्यक्त करनी चाहिए।

5. आम लोगों का समर्थन हासिल करने के रचनात्मक तरीकों के बारे में सोचा जाना चाहिए, उदाहरण के लिए श्रमिकों के परिवारों को शामिल करना, नागरिक समितियों से संपर्क करना, प्रमुख व्यक्तियों से समर्थन प्राप्त करने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाना और उनके मुद्दों को लोकप्रिय बनाने के लिए पोस्टर अभियान और नुक्कड़ नाटक आयोजित करना

6. श्रमिक आंदोलनों में महिला नेतृत्व को प्रत्साहित करना चाहिए।

7. महिला संगठनों को श्रमिक महिलाओं के सघर्ष में साथ देना चाहिए।

कुछ बड़े औद्योगिक इलाकों में भी बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं, उदाहरण के लिए, बेंगलुरु के पीन्या औद्योगिक क्षेत्र [2016] में 1.25 लाख से अधिक परिधान श्रमिकों का जुझारू विरोध, जहां 60% प्रदर्शनकारी महिलाएं थीं। यहां 10,000 उद्योग प्रभावित हुए जिससे 1000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। यह विरोध कर्मचारियों (जब तक कि कर्मचारी 50 वर्ष का नहीं हो जाता) के भविष्य निधि में नियोक्ता के अंशदान को वापस लेने के ख़िलाफ़ था। मज़दूर समान काम के लिए समान वेतन और ठेका प्रथा को खत्म करने की मांग कर रहे थे।कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध भी संघर्ष जारी है और इसके अलावा 'मी-टू' आंदोलन भी चला।

आज सरकार मासिक धर्म अवकाश देने से पीछे हट रही है जबकि बिहार के महिला आंदोलन ने इसे हासिल किया है और कई देशों में भी यह सुविधा मिली है। आज ज़रूरत है कि देश भर की महिला श्रमिक इस मांग पर एकताबद्ध हों। साथ ही 8 घंटे काम और घरेलू श्रम को मान्यता देने की मांगें दोबारा बुलंद हों।

(लेखिका महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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