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इस्राइल: बढ़ता जनविरोध क्या वास्तव में नेतन्याहू को रोक पाएगा

यह अकारण ही नहीं है कि हमारे यहां की दक्षिणपंथी सत्तारूढ़ ताक़तों को इस्राइल एक प्रिय व आदर्श देश सरीखा लगता है। दरअसल, इस्राइल का मौजूदा निज़ाम अपने भारतीय अनुयायियों को निरंतर फ़ासीवादी शासन के नए सबक़ देता रहता है।
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सत्ताएं जब निरंकुश होने की तरफ बढ़ती हैं तो उनकी कोशिश होती है कि सभी संवैधानिक अंगों को धीरे-धीरे अपने काबू में कर लिया जाए और एक फासीवादी व्यवस्था इसे भी एक वैधानिक तरीके को तौर पर दिखाने की कोशिश करती है, और उसे ‘सुधारों’ का नाम देती है। इस्राइल में इस समय यही हो रहा है।

हम पहले भी कई बार यह बात कह चुके हैं- यह अकारण ही नहीं है कि हमारे यहां की दक्षिणपंथी सत्तारूढ़ ताकतों को इस्राइल एक प्रिय व आदर्श देश सरीखा लगता है। दरअसल, इस्राइल का मौजूदा निजाम अपने भारतीय अनुयायियों को निरंतर फासीवादी शासन के नए सबक देता रहता है।

इसका अध्ययन करें तो दोनों देशों में होने वाली घटनाओं में अजीब-सी साम्यता दिखाई देने लगती है। अब चाहे वह अचानक किसी धार्मिक स्थल पर किसी दूसरे धर्म के ‘प्राचीन’ चिह्न मिल जाने का मामला हो या फिर न्यायिक व्यवस्था में बदलाव लाने का। इस समय इस्राइल में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार ‘न्यायिक सुधारों’ के जिस होम में अपने हाथ जलवाने की दिशा में बढ़ रही है, आप उसकी गहरी प्रतिध्वनि हमारे अपने कानून मंत्री किरण रिजिजू के भारतीय न्यायिक व्यवस्था को लेकर पिछले कुछ महीनों से निरंतर आ रहे बयानों में देख सकते हैं। आपको बतला दें कि इस्राइल में भी कानून मंत्री यारिव लेविन ही इन बदलावों के लिए माहौल बनाने में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं।

लेकिन जनता निरंकुशता को एक ही हद तक बरदाश्त कर सकती है और इसी का नतीजा है कि इस्राइल में इस समय नेतन्याहू की न्यायिक व्यवस्था को बदलने की कोशिशों पर खासा बवाल हो रहा है। वहां विरोध तो इन प्रस्तावों के आने के बाद से ही शुरू हो गया था, लेकिन अब यह विरोध चरम पर पहुंच रहा है। हाल यह हुआ कि इस्राइल के रक्षा मंत्री योआव गैलेंट को खुलकर कहना पड़ा कि सरकार को न्यायिक सुधारों की कोशिश रोक देनी चाहिए। गैलेंट प्रधानमंत्री नेतन्याहू की लिकुड पार्टी से ही थे। गैलेंट की इस टिप्पणी से नाराज नेतन्याहू ने उन्हें बरखास्त कर दिया। इस बरखास्तगी ने पहले से चल रहे विरोध प्रदर्शनों की आग में घी का काम किया और रविवार को इस्राइल में भारी प्रदर्शन हुए। वहां की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन ने सोमवार को देशभर में हड़ताल की। यह हड़ताल ऐतिहासिक रही और इस्राइल के परिवहन क्षेत्र, यूनिवर्सिटी, रेस्तरां और खुदरा व्यापारी भी हड़ताल में शामिल हो गए। मजबूरन खुद इस्राइली राष्ट्रपति इसाक हरजोग को नेतन्याहू सरकार से इन कथित सुधारों को टालने की अपील करनी पड़ी।

इस दबाव का तात्कालिक असर तो यह रहा है कि सरकार ने फिलहाल न्यायिक सुधारों को संसद के अगले सत्र तक के लिए टाल दिया है। इस्राइली संसद का ग्रीष्मकालीन सत्र 30 अप्रैल से 30 जुलाई तक होगा। लेकिन जिद यह देखिए कि नेतन्याहू ने न्यायिक व्यवस्था से छेड़छाड़ न करने की तौबा नहीं की है। अगले सत्र से पहले भी वह इन सुधारों पर सहमति बनाने की कोशिश करते रहेंगे। सहमति न बनी तो फिर अगले सत्र में इस पर मतदान होगा।

हालांकि सुधार ऐसे हैं कि सारे लोग यही कह रहे हैं कि ये लोकतंत्र की बुनियाद पर गहरी चोट होगी। यहां तक कि अमेरिका समेत इस्राइल के तमाम पश्चिमी दोस्त देश भी इन सुधारों को लेकर आशंकित हो गए हैं। इस्राइल में नेतन्याहू समर्थक सुप्रीम कोर्ट के आलोचक क्या कहते हैं, यह सुनेंगे तो आपको फिर से हमारे यहां चल रही बहस की झलक मिलेगी। इन आलोचकों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का वामपंथी झुकाव है और वह राजनीतिक मामलों में काफी दखलंदाजी कर रहा है। वह अक्सर ‘राष्ट्रीय हितों’ के ऊपर अल्पसंख्यकों के अधिकारों को तरजीह देता है।

इसलिए नेतन्याहू की सरकार जो बदलाव लाना चाह रही है, वे विधायिका व कार्यपालिका के खिलाफ आदेश देने के सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों को सीमित कर देंगे और जजों की नियुक्ति में सत्तारूढ़ जनप्रतिनिधियों को ज्यादा अधिकार दे देंगे। फिलहाल नई नियुक्तियों में जजों की राय की भी अहमियत होती है। लेकिन इसे बदल दिया जाएगा और निर्णयात्मक भूमिका सरकार के पास चली जाएगी। इनसे यह तय हो जाएगा कि कोर्ट किन मामलों में फैसला दे सकता है और किनमें नहीं। और यहां तक कि उसके फैसलों को पलटने का अधिकार भी संसद के पास चला जाएगा, यानी बहुमत रखने वाली पार्टी अथवा गठबंधन के पास, यानी सरकार के पास। 1948 में इस्राइल की स्थापना के बाद से यह वहां की न्यायिक व्यवस्था में सबसे बड़े बदलाव माने जा रहे हैं।

मजेदार बात यह है कि खुद नेतन्याहू इस तरह की किसी बदलाव की पहल का हिस्सा नहीं हो सकते क्योंकि उनपर भ्रष्टाचार के मामलों में सुनवाई चल रही है, लेकिन लोग यही मान रहे हैं कि सरकार की यह सारी कवायद इसीलिए है ताकि नेतन्याहू के खिलाफ चल रहे मामलों को प्रभावित किया जा सके।

इस्राइल में यह सारा फसाद वहां की संवैधानिक संरचना की वजह से भी है। वहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘नियंत्रण व संतुलन’ बेहद कमजोर किस्म के रहे हैं। वहां कोई बड़ा, व्यवस्थित संविधान नहीं है, महज कुछ ‘बुनियादी कानून’ हैं जो लोकतंत्र की बुनियाद को किसी तरह से बचाए रखने की कोशिश करते हैं। वहां संसद में होने वाली तमाम मनमानियों पर केवल कोर्ट ही नियंत्रण रख पाती है। ऐसे में कोर्ट स्वतंत्र हों तो स्थिति काबू में रहती है, लेकिन अब सरकार वह नियंत्रण भी अपने पास चाहती है और लोगों को डर है कि इससे नागरिक अधिकारों व आजादी को गहरा आघात लगेगा। विश्लेषकों का मानना है कि यहां तक की अर्थव्यवस्था भी इससे प्रभावित होगी और दूसरे देशों से रिश्ते भी।

इसका असर फिलस्तीन पर भी पड़ेगा। कई जानकार कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को कमजोर करके नेतन्याहू सरकार फिलस्तीनी इलाकों में इस्राइलियों को बसाने की कवायद तेज कर देगी। यह भी वहां की दक्षिणपंथी सरकार का एक अहम एजेंडा है।

अब सवाल यही है कि क्या तमाम तरफ से हो रहा विरोध नेतन्याहू पर कोई लगाम लगा पाएगा? अब यह इस्राइल की विडंबना ही कही जाएगी कि वहां नेतन्याहू को कोई टक्कर नहीं दे पा रहा। चुनावों में बहुमत न मिल पाने, और नफ्ताली बेनेट के प्रधानमंत्री बन जाने के बावजूद नेतन्याहू जोड़-तोड़ करके फिर से प्रधानमंत्री बन गए। पूर्व प्रधानमंत्रियों, नेतन्याहू के पूर्व सहयोगियों समेत तमाम लोग कह रहे हैं इस्राइल में तानाशाही का मंजर देखने को मिल रहा है, लेकिन मौजूदा गठबंधन के नेता अपने समर्थकों से इन विरोधियों के विरोध में और न्यायिक बदलावों के समर्थन में सड़कों पर उतरने के लिए कह चुके हैं। ऐसे में नेतन्याहू को वहां के सुप्रीम कोर्ट को बेकार-बेजार करने से कोई रोक पाएगा, यह उम्मीद फिलहाल दूर की कौड़ी लगती है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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