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जम्मू-कश्मीर: बढ़ रहे हैं जबरन भूमि अधिग्रहण के मामले, नहीं मिल रहा उचित मुआवज़ा

जम्मू कश्मीर में आम लोग नौकरशाहों के रहमोकरम पर जी रहे हैं। ग्राम स्तर तक के पंचायत प्रतिनिधियों से लेकर जिला विकास परिषद सदस्य अपने अधिकारों का निर्वहन कर पाने में असमर्थ हैं क्योंकि उन्हें अधिकारसंपन्न नहीं बनाया गया है।
jammu and kashmir
अल्ताफ़ हुसैन शाल के जमीन से उखाड़ दिए गए सेब के पेड़ (सोज़ेथ, बडगाम)। चित्र साभार: राजा मुज़फ्फर भट 

संसद के द्वारा जम्मू-कश्मीर को हासिल विशेष राज्य के दर्जे को निरस्त किये जाने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभक्त करने के लिए एक विधयेक पारित करने के दो दिन बाद, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में इसकी तार्किकता के बारे में व्याख्यायित किया था। उन्होंने कहा था कि जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लोगों को उनके वाजिब हकों से वंचित रखा गया था, और अनुच्छेद 370 जो संविधान में उनके विशेष दर्जे का स्रोत था, को हटा देने से उनके लिए “एक नई सुबह” की शुरुआत होने जा रही है।” उन्होंने आश्वस्त किया था कि जल्द ही विधानसभा चुनाव होंगे ताकि लोग अपने प्रतिनिधियों को चुन सकें और यह भी कहा था, “समूचे देश के लिए कानूनों को निर्मित किया गया है, लेकिन जम्मू-कश्मीर को उन प्रगतिशील कानूनों का लाभ नहीं मिल सका है।” 

इस बात को तकरीबन तीन साल पूरे हो चुके हैं, जबकि जम्मू-कश्मीर में जमीनी हकीकत शोचनीय बनी हुई है। अभी तक चुनाव नहीं हुए हैं। आम लोग नौकरशाहों के रहमोकरम पर जी रहे हैं। ग्राम स्तर तक के पंचायत प्रतिनिधियों से लेकर जिला विकास परिषद सदस्य अपने अधिकारों का निर्वहन कर पाने में असमर्थ हैं क्योंकि उन्हें अधिकारसंपन्न नहीं बनाया गया है। प्रधान मंत्री और गृह मंत्री के आश्वासनों के बावजूद, लोगों की संभावित मदद कर पाने वाले केंद्रीय कानूनों तक को लागू नहीं किया गया है। 

जम्मू-कश्मीर में सरकार ने अभी तक भूमि अधिग्रहण पुनर्वास एवं पुनःस्थापन (भूमि अधिग्रहण या एलए) अधिनियम, 2013 के तहत उचित मुआवजे और पारदर्शिता का अधिकार को लागू नहीं किया है। इस लेख के लेखक ने पूर्व में इस बारे में लिखा था कि 2019 में जम्मू-कश्मीर में एलए अधिनियम को प्रयोग में लाया गया था, लेकिन इसे कानून बनाकर अमल में नहीं लाया जा रहा है। 

अब यहाँ पर हालात अभूतपूर्व स्तर तक खराब हो चुके हैं, क्योंकि राजस्व अधिकारियों के द्वारा भू-मालिकों को अपनी जमीन की सेल डीड्स को तामील में लाने के लिए अपने कार्यालयों में आने के लिए कहा जा रहा है। इस प्रकिया में, इन निवासियों के स्वामित्व वाली जोत पर दिन-दहाड़े अतिक्रमण किया जा रहा है। उनके बागानों को विशाल हाइड्रोलिक क्रेनों के माध्यम से उखाड़ा जा रहा है, जो कि इस क्षेत्र में आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहे हैं। इस बीच किसानों को अपनी आवाज उठाने की भी अनुमति है, जबकि पुलिस और सरकार जबरन जमीनों पर कब्जा कर रही है। यह सब तब हो रहा है जब कुछ किसानों-भूस्वामियों का कहना है कि वे विकास की परियोजनाओं के लिए अपनी कुछ जमीनों को देने के खिलाफ नहीं हैं: वे सिर्फ कानून के मुताबिक उचित मुआवजा चाहते हैं।

बशीर अहमद भट का मामला 

भट हरिपोरा हरवन (नई थीड) गाँव से हैं, जो कि श्रीनगर से करीब 20 किमी की दूरी पर स्थित है। 20 जनवरी के दिन उन्हें कलेक्टर, भूमि अधिग्रहण, विद्युत् विकास विभाग, श्रीनगर की ओर से आधिकारिक सूचना प्राप्त हुई थी। इस पत्र में उनसे अपनी जमीन के लिए एक सेल डीड को निष्पादित करने के लिए कहा गया था, क्योंकि उनकी जमीन एक निर्माणाधीन पॉवर ट्रांसमिशन लाइन के रास्ते में आ रही थी। सरकार को टावर के लिए भट की 33 मारला (9,000 वर्ग फीट) जमीन में से 12 मारला (3,000 वर्ग फीट) की जरूरत थी। पत्र में कहा गया है, “... कृपया हरिपोरा हरवान एस्टेट में टावर संख्या 45डी के भू-स्वामी को सूचित किया जाता है कि … वे नवीनतम स्टाम्प दरों/ परिमाण के लिए प्रचलित दरों के मुताबिक संबंधित डिवीजन द्वारा सत्यापित/प्रमाणित भूमि की सेल डीड को निष्पादित करने के लिए कार्यकारी अभियंता टीएलएमडी-7 बेमिना के दफ्तर में उपस्थित हों…”  

बशीर अहमद भट की जमीन पर लगने वाला ट्रांसमिशन टावर (हरिपोरा हरवान, श्रीनगर)। चित्र साभार: राजा मुजफ्फर भट 

भट ने अधिकारियों से निर्दिष्ट प्रकिया का पालन करने के लिए कहा: इसमें एलए अधिनियम, 2013 (केंद्र शासित प्रदेश में 31 अक्टूबर 2019 से लागू) के तहत एक प्राथमिक अधिसूचना को जारी करना था। लेकिन कलेक्टर एवं बिजली विभाग के अधिकारी कानून का पालन किये बगैर ही जमीन पर कब्जे के लिए अड़े हुए थे। यह अस्पष्ट है कि क्या उन्होंने इस बारे में कोई अधिसूचना जारी की थी, क्योंकि प्रभावित भू-स्वामी को इसकी कोई प्रतिलिपि नहीं सौंपी गई थी। कुछ महीनों के लिए, भट दर-दर की ठोकरें खाते रहे।

16 अप्रैल को, श्रीनगर के उत्तरी जिले के तहसीलदार, अपने कर्मचारियों, पुलिस महकमे और कार्यकारी अभियंता (प्रणाली एवं संचालन) खंड 7 के कर्मचारियों समेत भारी-भरकम क्रेनों के साथ भट की जमीन में घुस गए। इस छापामार दल ने कुछ ही पलों में चेरी और सेब के कई पेड़ उखाड़ फेंके और प्याज, लहसुन, और हरी मटर की उनकी खड़ी फसल को नष्ट कर डाला। चूँकि उनको कोई नोटिस नहीं मिला था, इसलिए भट अपने फलों के पेड़ों को किसी दूसरे स्थान पर प्रत्यारोपित नहीं कर सके थे, जिसके लिए उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया गया। दो दिनों के भीतर ही क्रेन की मदद से बड़े-बड़े गड्ढे खोद दिए गए, और  निर्माण सामग्री को स्थल पर डंप कर दिया गया था। यह काम पूरे जोरों पर चल रहा है, और पीड़ित किसान की सुनवाई करने के लिए कोई तैयार नहीं है।

भट के बटे इरफ़ान हाशिम कहते हैं, “हम ट्रांसमिशन टावर के निर्माण के खिलाफ कभी भी नहीं थे। हम सिर्फ कानून के मुताबिक इसके लिए उचित मुआवजा चाहते थे जिसे 2019 में जम्मू-कश्मीर के लिए विस्तारित किया गया था। ” इरफ़ान ने आगे कहा, “यदि प्रधान मंत्री मोदी ने हमसे बड़े-बड़े वादे किये थे तो उन्हें पूरा क्यों नहीं किया जा रहा है? सरकार हमारी जमीनों और आजीविका को हमसे क्यों छीन रही है और एलए अधिनियम को क्यों लागू नहीं कर रही है? यह सरासर जंगल राज है।” 

5 अप्रैल को, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) और एक निजी निर्माण कंपनी एनकेसी प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड के अधिकारियों और कर्मचारियों ने करीब 6:30 बजे शाम को बडगाम जिले के बटपोरा गाँव का दौरा किया, जबकि उस वक्त लोग अपना रमजान का उपवास तोड़ने में व्यस्त थे। जल्द ही, हाइड्रोलिक क्रेन ने सरसों की खड़ी फसल को पूरी तरह से नष्ट कर डाला। खेत के मालिक मोहम्मद रमजान का कहना है कि उन्हें इस बारे में पहले से सूचित नहीं किया गया था। एनएचएआई के द्वारा श्रीनगर रिंग रोड का निर्माण कार्य किया जा रहा है, जो बटपोरा होकर गुजरता है। अन्य रहवासियों को कुछ मुआवजा मिला है, लेकिन यह निरस्त जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1934 के तहत दिया गया था। कई लोगों ने केंद्रीय अधिनियम के तहत मुआवजे की मांग की है, क्योंकि निरस्त कानून के तहत दिया गया मुआवजा दो साल से अधिक समय से खत्म हो गया था। लेकिन रमजान का मामला तो पूरी तरह से अलग है। उनकी 38 मारला या 10,345 वर्ग फीट भूमि को एलए अधिनियम के मुताबिक अधिग्रहण करने से पहले अधिसूचित करने की जरूरत है, लेकिन इसे भी नहीं किया गया था। उन्हें यकीन था कि उन्हें अधिसूचित किया जायेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

रमजान के बेटे मोहम्मद इशक के अनुसार, “नायब तहसीलदार और एनएचएआई के जूनियर इंजीनियर, एनकेसी प्राइवेट लिमिटेड की जेसीबी और हाइड्रोलिक क्रेन  के साथ हमारी जमीन पर आ धमके और हमारी सरसों की फसल को नष्ट कर डाला। हमें न तो इसका एक भी पैसा मिला है, और न ही सरकार ने अधिग्रहण करने के लिए हमारी जमीन को ही अधिसूचित किया है। यह सरासर अन्याय है।

अल्ताफ हुसैन शॉल का मामला

सरकार रिंग रोड प्रोजेक्ट के लिए श्रीनगर-बारामुला राजमार्ग पर सोज़ेथ और मीरगुंड गांवों में अल्ताफ़ हुसैन शाल की तकरीबन एक एकड़ जमीन का अधिग्रहण करने जा रही है। अभी तक भूमि के लिए कोई भुगतान नहीं किया गया है, क्योंकि कई भूस्वामी एलए अधिनियम, 2013 के मुताबिक उचित मुआवजा चाहते हैं और इसके लिए वे जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के समक्ष भी जा चुके हैं। शाल के 150 पूर्ण-विकसित सेब के पेड़ों का बगीचा इस निर्माणाधीन सड़क के रास्ते पर आ रहा है। 20 अप्रैल के दिन, एनएचएआई ने उनके 60 पेड़ों को बिना किसी पूर्व-सूचना के उखाड़ दिया था। 

शाल कहते हैं, “1934 अधिनियम की धारा 6 के तहत 2017 में मेरे एक एकड़ खेत को अधिग्रहित करने के लिए अधिसूचना जारी की गई थी। वह अधिसूचना 2019 में समाप्त हो गई थी। 2013 के कानून के तहत एक नई अधिसूचना जारी की जानी चाहिए थी, लेकिन सरकार हठधर्मिता दिखाते हुए निरस्त हो चुके कानून को लागू करने पर अड़ी हुई है। शाल के अनुसार, सरकार ने हाल ही में एक अदालत के आदेश की गलत तरीके से व्याख्या की है, जिसमें एनएचएआई को रिंग रोड के निर्माण के साथ आगे बढ़ने के लिए कहा गया था।   

इस आदेश को उन क्षेत्रों पर लागू होना था जहाँ लोगों को निरसन अधिनियम के तहत भी, पहले से ही मुआवजा मिल चुका था। शाल कहते हैं, “मेरे मामले में, न तो भूमि के लिए कोई मुआवजा दिया गया है और न ही मेरे फलदार वृक्षों के लिए ही मुझे कोई भुगतान किया गया है। हमारे पेड़ों को बेरहमी से काटा जा रहा है। यह साफ़-साफ़ कानून का उल्लंघन है।” 

कई मामलों में, लोग जबरन भूमि अधिग्रहण करने और फलों के बागान को उखाड़ने का आरोप लगाते हैं। बडगाम जिले के ही वाथूरा गाँव में 30 मार्च को रिंग रोड प्रोजेक्ट के लिए सरकार और एनएचएआई के अधिकारियों के द्वारा करीब 100 आलूबुखारा और सेब के पेड़ उखाड़ दिए गये थे। भू-स्वामियों का कहना है कि उन्हें मुआवजा तो मिला है, लेकिन 28 साल पुरानी दरों के आधार पर, जब आलूबुखारा की कीमत 13 रूपये किलो और सेब की 16 रूपये किलो हुआ करती थी। बडगाम के गुडसाथू और बुदू बाग के इलाकों में, पिछले साल नवंबर में सैकड़ों की संख्या में सेब के पेड़ों को काट दिया गया था। श्रीनगर के रामबीर गृह इलाके में 400 से अधिक सेब के पेड़ काटे जा चुके हैं, और 26 साल पुरानी दरों के हिसाब से मुआवजा अदा कर दिया गया।

जबरन भूमि अधिग्रहण पर जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय का रुख 

पिछले एक साल से जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने जबरन भूमि अधिग्रहण पर कई आदेश जारी किये हैं। इन्हीं में से एक है 30 दिसंबर को दिया गया ऐतिहासिक फैसला। कुछ साल पहले, ग्रामीण विकास विभाग ने रामबन जिले के दूरस्थ पोगल परिस्तान गाँव में गैरकानूनी ढंग से जमीन अधिग्रहण कर लिया था। विभाग के द्वारा भूस्वामी को पर्याप्त मुआवजा दिए बिना ही निजी भूमि पर एक सामुदायिक भवन का निर्माण भी कराया गया था। 

पोगल परिस्तान के पीड़ित भूस्वामी ने जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दाखिल की थी। मुख्य न्यायाधीश पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति जावेद इक़बाल वानी की खंडपीठ ने निर्देश दिया कि एक दूरस्थ गाँव के प्रभावित जमीन के मालिकों को मुआवजे का भुगतान न करना मानवाधिकारों का उल्लंघन है। यदि याचिकाकर्ताओं को उनकी मूल्यवान संपत्ति से वंचित रखा गया है तो आदेश ने इसे प्रक्रिया का दुरूपयोग बताया। अदालत ने ग्रामीण विकास विभाग को हर्जाने के तौर पर 10 लाख रूपये का भुगतान करने का निर्देश दिया और भूमि अधिग्रहण, कलेक्टर को केंद्रीय कानून, एलए अधिनियम, 2013 के तहत एक नई अधिसूचना जारी करने के लिए निर्देशित किया था।

जेके उच्च न्यायालय का आदेश कहता है, “संपत्ति/भूमि का अधिकार मौलिक अधिकार हुआ करता था, लेकिन अब इसे अनुच्छेद 300ए के रूप में संवैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। .. कानून के शासन से संरक्षित किसी को भी उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता है। उपरोक्त संवैधानिक अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में समान माना गया है, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह एक बुनियादी मानवाधिकार है। इस प्रकार, किसी को भी कानून सम्मत प्रक्रिया का पालन किये बिना और पर्याप्त मुआवजे का भुगतान किये बिना ही उसकी संपत्ति से बेदखल नहीं किया जा सकता है।”

क़ानून में प्रक्रिया 

एलए अधिनियम, 2013 की प्रस्तावना कहती है कि भूमि अधिग्रहण को हर हाल में “मानवीय, सहभागी” प्रक्रिया के तहत किया जाना चाहिए। इस अधिनियम को ग्राम सभा सहित, स्थानीय स्वंय-शासी सरकारी संस्थानों के परामर्श के साथ लागू किया जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि अधिग्रहण की प्रकिया को औद्योगीकरण, आवश्यक आधारभूत ढांचे को खड़ा करने और शहरीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए तैयार किया जाना चाहिए। इसके बावजूद यह भूस्वामियों एवं अन्य प्रभावित परिवारों के लिए “कम से कम अशांति” का कारण बने। मुआवजे का भुगतान करने में और “पुनर्वासन एवं पुनःस्थापन” को न्याय और निष्पक्षता से लागू करना इस कानून के मूल में है। 

2013 अधिनियम के तहत पंचायती राज संस्थाओं (पीआरआई) की भी एक निश्चित भूमिका है। इसके बावजूद, जम्मू-कश्मीर में अधिकारियों के द्वारा इस कानून की अंतर्वस्तु और भावना को कमजोर किया जा रहा है । जहाँ एक तरफ, प्रधान मंत्री ने राष्ट्रीय पंचायत दिवस के अवसर पर सांबा में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि जम्मू-कश्मीर के युवाओं को उनके माता-पिता और दादा-दादियों के समान कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। इसके बावजूद, जमीनी हालात उनके शब्दों के ठीक उलट हैं। मोदी ने जोर देकर कहा था कि ग्रामीण शासन के लिए पंचायती राज व्यवस्था कितनी अहम है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में स्थित राज्य संस्थान इन संस्थानों की एक नहीं सुनते, शर्तिया तौर पर तब तो बिल्कुल नहीं जब वे भूमि अधिग्रहण के लिए निकले हों। 

लेखक श्रीनगर स्थित स्तंभकार, कार्यकर्त्ता, स्वतंत्र शोधकर्ता एवं प्रखर अध्येता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:

Forcible Land Acquisition and Denial of Fair Compensation in J&K

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