कर्नाटक: वंचित समुदाय के लोगों ने मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों, सूदखोरी और बच्चों के अनिश्चित भविष्य पर अपने बयान दर्ज कराये
बेंगलुरु में रहने वाली राजेश्वरी ने रोते हुए बताया कि उनकी बेटी के स्कूल वाले उनके बच्चे का स्थानांतरण प्रमाणपत्र जारी करने से इंकार कर रहे हैं। वे शहर में एक दिहाड़ी मजदूर के बतौर काम करती हैं और लॉकडाउन के दौरान उन्होंने अपनी आजीविका का स्रोत खो दिया था। इसके परिणामस्वरूप, वे अपनी बच्ची की फीस नहीं चुका पाई, जो अब 50,000 रूपये से अधिक हो चुकी है। उनकी 14 साल की बेटी, अक्षया इन दो वर्षों के दौरान स्कूल नहीं जा पाई और इसकी वजह से उसे अनिश्चित भविष्य का सामना करना पड़ रहा है।
22 मार्च को एक्शन ऐड एवं झुग्गी-झोपड़ी महिला संगठन के द्वारा बेंगुलुरु में एक जन सुनवाई का आयोजन किया गया था, जिसमें सरकारी अधिकारियों को उन विभिन्न बच्चों की दुर्दशा के बारे में अवगत कराया गया था, जिन्हें कोविड-19 महामारी की वजह से अपने दो साल की पढ़ाई को गंवा दिया है। एकल माताओं और अनाथ बच्चों ने भी राज्य सरकार के प्रतिनिधियों के समक्ष अपने बयान दर्ज कराये। कर्नाटक के कम से कम चार जिलों के लोग अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए उपस्थित हुए थे। उपस्थित लोगों में से अधिकांश लोग दलित और मुस्लिम थे।
सुनवाई के दौरान एक संबंधित अभिभावक बोलते हुए
महामारी के दौरान मानसिक विकार से पीड़ित होने की विभिन्न रिपोर्टों की सूचना प्राप्त हुई थी। स्कूल न जा पाने के कारण कई बच्चे भी इससे बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। महामारी से पहले कविता और उनके पति मैसूर में गारमेंट सेक्टर में काम कर रहे थे। लॉकडाउन के दौरान उन दोनों को अपनी आजीविका के स्रोत से हाथ धोना पड़ा था और उन्हें अपने बेटे, शरत को स्कूल से बाहर निकालने के लिए मजबूर होना पड़ा था। कायदे से उसे आज सातवीं कक्षा में होना चाहिए था, लेकिन वह अभी भी चौथी कक्षा में है क्योंकि पिछले दो साल से भी अधिक समय से वह स्कूल से बाहर है। वे कहती हैं कि घर पर रहने से उसके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
उन्होंने अपनी आपबीती सुनाते हुए कहा, “मेरे तीन बच्चे हैं, और मैं यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि मेरे बेटे को अंग्रेजी-माध्यम में शिक्षा मिल जाये। लेकिन लॉकडाउन के बाद, हमारी रोजी-रोटी छिन गई और हमारे पास उसकी फीस चुका पाने की हमारी सामर्थ्य नहीं रह गई थी। मेरे बेटे को परीक्षा में नहीं बैठने दिया गया क्योंकि स्कूल ने हमसे पहले सारे बकाये को चुकता करने की शर्त रखी थी। चूँकि हम उस समय पैसे की व्यवस्था नहीं कर पाए, इसलिए स्कूल ने हमें उसका स्थानांतरण प्रमाणपत्र भी देने से इंकार कर दिया। कभी-कभी घर पर वह मानसिक रोगी के तौर पर व्यवहार करने लगता है। इसलिए मैंने उकसे लिए ट्यूशन का इंतजाम करा दिया, लेकिन वहां पर वह कुछ भी सीख नहीं पा रहा है।”
कुछ महिलाओं ने खुद के लुटेरी कर्ज के चंगुल में फंसे होने के बारे में गवाही दी।
बेंगलुरु की गायत्री कहती हैं कि उन्होंने घर के खर्चों को चुकता करने के लिए 30,000 रूपये के दो ऋण 120% के सालाना ब्याज की दर पर लिए।
उन्होंने बताया, “चूँकि हमारे पास फोन नहीं था, ऐसे में मेरे तीनों बच्चों में से एक भी लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल नहीं हो सका। हालाँकि, जब कक्षाएं दुबारा से शुरू हुईं तो स्कूल ने पिछले दो शैक्षणिक वर्षों के लिए भी फीस को चुकता करने की मांग की। चूँकि हम इतनी बड़ी राशि का भुगतान कर पाने में असमर्थ थे, तो उन्होंने मेरी बेटी को परीक्षा में शामिल होने की इजाजत नहीं दी। उसने मुझे स्कूल से बताया कि सिर्फ उसे ही परीक्षा में शामिल होने से रोका जा रहा है, और अन्य बच्चे उस पर हंस रहे हैं। जब हमने स्कूल से टीसी की मांग की, तो उन्होंने वह भी देने से साफ़ इंकार कर दिया और कहा कि जब तक हम सारी बकाया राशि चुका नहीं देते, वे टीसी जारी नहीं करेंगे।”
अब जबकि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में स्थानांतरित करने के लिए तैयार हैं, तो उनके बच्चे इससे खुश नहीं हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि कन्नड़ माध्यम से पढ़ाई करने में उन्हें जूझना पड़ेगा। गायत्री और उनके बच्चे तमिल भाषी हैं और कन्नड़ में उनका हाथ उतना साफ़ नहीं है। सरकार से उनकी दरख्वास्त है कि और अधिक अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूलों को स्थापित करे।
अस्मा बानो का बेटा सैय्यद फैज़ान 13 साल का है और उसे सीखने की अक्षमता के बीच से गुजरना पड़ रहा है। वह बेंगलुरु के एक अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल से पढ़ाई कर रहा था, लेकिन उसे इसे छोड़ने के मजबूर होना पड़ा।
अस्मा ने बताया, “मेरे पति एक दिहाड़ी मजदूर हैं और रोजाना तकरीबन 400-500 रूपये की कमाई कर लेते हैं। लॉकडाउन के दौरान हमने अपनी सारी जमापूंजी खत्म कर दी थी, और जिंदा रहने के लिए हमारे पास जो कुछ भी था उसे बेचने के लिए हमें मजबूर होना पड़ा। मेरा बेटा प्रतिक्रिया देने में थोड़ा धीमा है और उसे थायराइड की भी समस्या है। वह हमसे खुद को स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए पूछता रहता है, लेकिन हम उसकी फीस चुका पाने में असमर्थ हैं।”
बेलागवी और बगलकोट से आये दलित युवकों ने भी सुनवाई के दौरान अपनी आपबीती सुनाई। उन्होंने अपनी गवाही में बताया कि ग्रामीण क्षेत्रों में खराब बस कनेक्टिविटी और शौचालयों के अभाव के कारण बच्चे स्कूल जा पाने में असमर्थ हैं।
राज्य प्रशासन की ओर से इसमें तीन प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। उनमें से एक प्राथमिक शिक्षा विभाग के निदेशक, नरसिमैया थे। उन्होंने बताया कि निजी स्कूलों को इस विषय में एक सर्कुलर जारी किया गया था, जिसमें उन्हें सूचित किया गया था कि वे बच्चों का स्थानांतरण प्रमाणपत्र देने से इंकार नहीं कर सकते हैं, भले ही उनकी फीस बकाया ही क्यों न हो। उन्होंने उन परिवारों से अनुरोध किया कि वे उनके विभाग से संपर्क करें और उन्होंने इस बारे में आश्वस्त किया कि उनके लिए स्थानांतरण प्रमाणपत्र को जारी करने की व्यवस्था की जाएगी।
समाज कल्याण विभाग के संयुक्त निदेशक, डॉ. देवराज ने परिवारों से आग्रह किया कि वे अपने बच्चों को एससी/एसटी के बच्चों के लिए स्थापित किये गए आवासीय विद्यालयों में नामांकित करायें।
उन्होंने कहा, “ज्यादातर आईएएस एवं केएएस अधिकारी सरकारी स्कूलों से ही पढ़कर आते हैं। इसलिए कृपया अपने बच्चों को वहां पर दाखिले में संकोच न करें। इन स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से भी शिक्षा प्रदान की जाती है।”
कर्नाटक अल्पसंख्यक विकास निगम की महाप्रबंधक, डॉ. अंजुम नफीस ने सरकारी योजनाओं से लाभ न उठाने के लिए अभिभावकों को इसका दोषी ठहराया। उन्होंने कहा कि सरकार की ओर से बच्चों के लिए आवासीय विद्यालय का प्रबंध है और बिना आय वाले माता-पिताओं के लिए स्वरोजगार की योजनायें उपलब्ध हैं। उन्होंने कहा कि अभिभावकों को अल्पसंख्यक कल्याण विभाग की वेबसाइट पर जाना चाहिए और इन योजनाओं के बारे में जानकारी हासिल करनी चाहिए। इस बिंदु पर, कुछ अभिभावकों ने बताया कि वे अशिक्षित हैं और इस जानकारी तक उनकी पहुँच नहीं है। इस पर डॉ. नफीस ने विभिन्न सरकारी योजनाओं के बारे में और अधिक जानकारी एकत्र करने के लिए अभिभावकों को एक टोल-फ्री नंबर उपलब्ध कराया।
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