नेशनल टेस्टिंग एजेंसी की विफलता की राजनीतिक अर्थव्यवस्था
भारत में, नवउदारवादी परियोजना के तहत भारतीय शिक्षा को लगातार कमज़ोर करना इसका बड़ा मक़सद है। इस तबाही का बड़ा कार्यक्रम 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तय किया गया था। भारतीय शिक्षा को पूंजी के (आदिम) संचय के विस्तार को बढ़ाने का एक मंच बनाकर, भारत सरकार (विशेष रूप से नव-फासीवादी व्यवस्था) ने भारतीय विकास को तिहरा झटका दिया है।
प्रथम, शिक्षा के वस्तुकरण (मुख्यतः लेकिन अनन्य रूप से निजीकरण और सार्वजनिक वित्त पोषण में कटौती के माध्यम से) के कारण छात्र, विशेषकर शोषित वर्ग के छात्र, इससे बाहर हो गए हैं।
दूसरा, निजी शिक्षण संस्थानों की मुनाफाखोरी के चलते अल्पकालिक लाभ के स्थान पर दीर्घकालिक लाभ को मक़सद बना लिया गया है, जबकि सार्वजनिक वित्त पोषण यानी सरकारी मदद के ज़रिए शिक्षा को अधिक समावेशी बनाकर इसे वैश्विक उत्पादन नेटवर्क से संबंधित तकनीकी सीढ़ी पर चढ़ने में सक्षम बनाया जा सकता था।
तीसरा, शिक्षा का भगवाकरण जिसमें अन्य बातों के अलावा, जिसमें पहले झटके के रूप में (और नव-फासीवादी व्यवस्था भी) एक किस्म की सहमति बनाने का प्रयास शामिल है जो दूसरे झटके के हानिकारक प्रभाव को भी मजबूत करता है। नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) के तरीकों के संबंध में चल रही गड़बड़ी इस तिहरे झटके का प्रतीक है। आइए देखें कैसे।
सबसे पहले, नव-फासीवादी व्यवस्था ने एनटीए को लगभग सभी सार्वजनिक उच्च शिक्षण संस्थानों की प्रवेश परीक्षाओं का एकमात्र संचालक बना दिया है। जिसकी वजह से हर तरह के पाठ्यक्रम के लिए आमतौर पर बहुविकल्पीय-आधारित प्रश्न (विभिन्न डिग्री के भगवाकृत विषय-वस्तु पर आधारित) उभर कर सामने आए हैं। इससे निजी कोचिंग संस्थान मुनाफाखोर बन गए हैं और इससे उन (अधिकांश) छात्रों का अनुपातहीन बहिष्कार हुआ है जो निजी कोचिंग का खर्च नहीं उठा सकते हैं।
यकीनन स्कूल/कॉलेज/विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और एनटीए द्वारा आयोजित स्नातक/स्नातकोत्तर/पीएचडी प्रवेश परीक्षाओं की विषय-वस्तु के बीच जानबूझकर विसंगति लाई गई है, ताकि छात्र निजी कोचिंग संस्थानों की गोद में जाकर बैठ जाए। परोक्ष रूप से, नव-फासीवादी व्यवस्था शिक्षा के समरूपीकरण के लिए “नीचे से” “स्वतःस्फूर्त” दबाव बनाना चाहती है, जो भारतीय संदर्भ में शिक्षा के भगवाकरण के समान ही है।
तमिलनाडु में राष्ट्रीय पात्रता-सह-प्रवेश परीक्षा (NEET) का उदाहरण प्रवेश प्रक्रियाओं के केंद्रीकरण के हानिकारक परिणामों को दर्शाता है। नीट ने छात्रों को प्रवेश देने के अन्य सभी तरीकों, जैसे कि स्कूल परीक्षाओं और राज्य स्तर पर आयोजित मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं में हासिल अंकों को कोई तरजीह नहीं दी जाती है। जोकि देश के फेडरल ढांचे के खिलाफ जाता है, जिसने तमिलनाडु में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा को कमजोर कर दिया है और साथ ही वंचित तबके के छात्रों के बहिष्कार को भी बढ़ा दिया है।
इससे ग्रामीण सरकारी स्कूलों (जहां शोषित वर्ग के छात्र अधिक संख्या में पढ़ते हैं) के छात्रों पर सबसे अधिक मार पड़ी है। पहले, ग्रामीण सरकारी स्कूलों के छात्र अपनी चिकित्सा शिक्षा पूरी करने के बाद, ग्रामीण इलाकों में प्रैक्टिस करने के लिए काफी इच्छुक होते थे। चूंकि नव-फासीवादी निज़ाम ने राज्यों में नीट लागू कर दिया जिसके कारण ऐसे छात्रों (जो महंगी निजी कोचिंग का खर्च नहीं उठा सकते) के नामांकन में कमी आई है, इसलिए तमिलनाडु में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा में कमी आई है।
प्रवेश प्रक्रियाओं के इस केंद्रीकरण के कारण छात्रों की अपेक्षाओं और प्रत्येक पाठ्यक्रम के बीच कोई मेल नहीं है। इसके अलावा इस केंद्रीकरण ने शिक्षकों की एक ही कोर्स/विषय/अनुशासन और एक ही स्तर के भीतर, विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों की प्रवेश परीक्षाओं (जहां उपयुक्त हो) को उपयुक्त रूप से डिजाइन करने की क्षमता को कम कर दिया है।
चूंकि हर प्रकार की उच्च शिक्षा के लिए केवल एक ही प्रवेश परीक्षा होती है, इसलिए एनटीए प्रवेश परीक्षा में अपर्याप्त या खराब प्रदर्शन के कारण छात्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और उसे अगली एनटीए-आधारित प्रवेश परीक्षा निर्धारित होने तक सभी प्रवेश के अवसर समाप्त हो जाते हैं।
नव-फासीवादी व्यवस्था ने बिना सोचे-समझे राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (NET) को न केवल शिक्षण योग्यता और जूनियर रिसर्च फेलोशिप बल्कि पीएचडी कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए भी लागू कर दिया है। इसलिए, नेट से जुड़ी मौजूदा गड़बड़ का उन छात्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा जो शिक्षक बनना चाहते हैं और उन छात्रों पर भी जो पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिला लेना चाहते हैं।
इसी प्रकार, एनटीए-आधारित प्रवेश परीक्षा में किसी भी प्रकार की चूक या त्रुटि से सभी संस्थानों की प्रवेश प्रक्रिया में देरी होगी, जो उनके शैक्षणिक कैलेंडर को प्रभावित करेगा।
इसके अलावा, छात्रों और उनके परिवारों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ता है। विज्ञान के प्रति अपने बौद्धिक-विरोधी रुख के साथ नव-फासीवादी निज़ाम ने जीव विज्ञान (लेकिन अकादमिक प्रक्रियाओं के लिए व्यापक प्रासंगिकता रखने वाले) से कोई सबक नहीं लिया है, जो विविधता (इस मामले में अकादमिक प्रवेश प्रक्रियाओं में) में लचीलापन बढ़ाती है (इस मामले में अकादमिक प्रवेश परिणामों की)।
आइए अब नेशनल टेस्टिंग एजेंसी के बारे में चल रही गड़बड़ियों पर नज़र डालें। नीट की प्रवेश परीक्षा के पहले ही प्रश्नपत्र लीक हो गया था। इसी कारण से नेट परीक्षा को भी एक दिन बाद ही रद्द कर दिया गया। इसके अलावा, वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR)-नेट की परीक्षा को पुनर्निर्धारित किया गया है और नीट (स्नातकोत्तर) परीक्षा को भी स्थगित कर दिया गया है।
प्रवेश परीक्षा प्रक्रिया के दौरान सीधे-सीधे धोखाधड़ी के मामले भी सामने आए हैं, तथा अनुग्रह अंक प्रदान करने की प्रक्रिया भी अस्पष्ट और संदिग्ध रही है, जिससे अंकों का वितरण विकृत होता प्रतीत होता है, और इसके परिणामस्वरूप, इन प्रवेश परीक्षाओं में बैठने वाले विद्यार्थियों की प्रवेश की संभावनाएं प्रभावित होती हैं।
ये असफलताएं नव-फासीवादी व्यवस्था के अकादमिक दिवालियापन का सटीक उदाहरण हैं। लेकिन इसमें और भी अधिक कदाचार शामिल है। एनटीए और विभिन्न संबंधित संगठनों से जुड़ी केंद्रीकृत परीक्षण प्रक्रिया में हर स्तर पर कदाचार की रिपोर्टें हैं। हालांकि एनटीए के अध्यक्ष को हटा दिया गया, लेकिन नए नियुक्त अध्यक्ष से जुड़े भी कुछ मुद्दे हैं।
इस पृष्ठभूमि में, यह देखना सार्थक हो सकता है कि पूंजीवादी व्यवस्था, विशेष रूप से अपने नवउदारवादी चरण में, परिसंपत्तियों के पुनर्वितरण और सार्वजनिक व्यय दोनों को त्याग दिया है, वे जो कामकाजी लोगों के पक्ष में थीं (और, वास्तव में, चीजें विपरीत दिशा में चली गई हैं)। इसलिए, शिक्षा वह प्रमुख कड़ी बन गई है जो श्रम मांग के बने रहने पर बेरोजगारी को कम करके असमानता को कम करने की संभावना प्रदान करती है।
हालांकि, जैसे-जैसे भारत में नव-उदारवादी परियोजना का प्रसार हो रहा है, बेरोज़गारी बढ़ रही है जो नौकरी की बढ़ती हानि में बदल गई है। नतीजतन, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, 2022-23 में युवा बेरोज़गारी दर 45 फीसदी से अधिक हो गई है। इसके अलावा, उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात 2023 में 28.4 फीसदी से कम बताया गया है, जिससे वैश्विक उत्पादन नेटवर्क से संबंधित तकनीकी सीढ़ी के ऊपरी हिस्से में भारत के बढ़ने की किसी भी सार्थक उम्मीद पर पानी फिर गया है।
इस संदर्भ में, नवउदारवादी परियोजना के प्रसार में नीति और निजी "पहल" के मिलेजुले असर के कारण शिक्षा कमज़ोर हुई है। इस प्रकार, उदाहरण के लिए, लीक हुए प्रश्नों (विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं के) की कीमतें "बाज़ार" इतनी ऊंची रखता है कि समाज के संपन्न तबकों को छोड़कर सभी को इससे बाहर कर देती हैं।
हालांकि, नव-फासीवादी व्यवस्था और निजी "पहल" की इन सामूहिक हरकतों ने कई उन छात्रों (और परिवारों) को भी प्रभावित किया है जो आय के उच्च स्तर पर हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि कई पाठ्यक्रमों की सीटों की संख्या उम्मीदवारों की संख्या (यहां तक कि इन उच्च स्तरों से भी) की तुलना में काफी कम है, क्योंकि नवउदारवादी परियोजना के चल रहे प्रसार के दौरान सार्वजनिक व्यय में कमी आई है।
आइए कुछ प्रासंगिक डेटा देखें। 2024 में, परीक्षा में बैठने वाले नीट उम्मीदवारों की कुल संख्या 23,33,297 थी और मेडिकल सीटों की कुल संख्या 91,927 थी, जिसका अर्थ है कि केवल 4 फीसदी छात्र ही उत्तीर्ण हो पाएंगे।
इसी तरह, जून 2023 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग नेट परीक्षा के पंजीकृत उम्मीदवारों की कुल संख्या 6,39,069 थी, जबकि परीक्षा में शामिल होने वाले उम्मीदवारों की वास्तविक संख्या 4,62,144 थी। नेट उत्तीर्ण करने वाले उम्मीदवारों की संख्या मात्र 32,304 थी, जबकि जूनियर रिसर्च फेलोशिप केवल 4,937 लोगों को मिली।
इन प्रतिकूल परिस्थितियों के मद्देनजर, छात्रों द्वारा आत्महत्या से जुड़े अंतर्मुखी विरोधों की कहानियां और रिपोर्टें काफी संख्या में हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान के कोटा में छात्रों द्वारा लगातार आत्महत्या की घटनाएं सामने आई है, यह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-संयुक्त प्रवेश परीक्षा और नीट के अलावा अन्य के लिए कोचिंग का केंद्र है।
भारत में दुर्घटनावश होने वाली मौतों और आत्महत्याओं पर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, छात्रों द्वारा आत्महत्या की संख्या बहुत अधिक है। हालांकि, छात्र और जनवादी आंदोलन के अन्य वर्ग भी एनटीए द्वारा शिक्षा को कमजोर करने के खिलाफ व्यापक सामूहिक सार्वजनिक विरोध में लगे हुए हैं।
शिक्षा को कमज़ोर करने की नव-फ़ासीवादी व्यवस्था की चाल, जैसा कि एनटीए की विफलता से स्पष्ट है, का पूरे जनवादी आंदोलन द्वारा लगातार विरोध किया जाना चाहिए। यह प्रतिरोध निम्नलिखित जैसी मांगों के इर्द-गिर्द एकजुट हो सकता है:
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एनटीए को भंग किया जाए और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के तरीके को निर्धारित करने के (स्कूल के अंकों या प्रवेश परीक्षाओं या दोनों के संयोजन के माध्यम से) लिए इन संस्थानों के शिक्षकों के अधिकार को बहाल किया जाए, जैसा कि पहले होता था।
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सार्वजनिक खर्च को बढ़या जाए और शिक्षकों तथा गैर-शिक्षण कर्मचारियों के साथ-साथ सार्वजनिक उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या में वृद्धि की जा सकती है। उदाहरण के लिए, देश के हर जिले में एक नया सार्वजनिक अस्पताल और उससे जुड़ा मेडिकल कॉलेज स्थापित किया जा सकता है।
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विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं के पाठ्यक्रम को सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों में मौजूदा कार्यक्रमों के पाठ्यक्रम के साथ मिलाना, उदाहरण के लिए अतिरिक्त और वैकल्पिक पाठ्यक्रमों के रूप में इसे शामिल करना। इन अतिरिक्त और वैकल्पिक पाठ्यक्रमों की लागत सार्वजनिक खर्च से पूरी की जानी चाहिए।
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निजी कोचिंग संस्थानों को कानूनी रूप से बंद करने की दिशा में काम किया जाए।
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भारत की शिक्षा प्रणाली को वैज्ञानिक आधार पर बहाल करें, जैसा कि भारत के संविधान में प्रावधान है।
नरेंद्र ठाकुर, दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. बीआर अंबेडकर कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग के प्रोफेसर हैं। सी. शरतचंद, दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग के प्रोफेसर हैं। ये विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
Political Economy of the NTA Fiasco
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